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अनियोजित शहरीकरण और प्राकृतिक आपदाएँ

  • 31 Oct 2020
  • 17 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत में बढ़ते अनियोजित शहरीकरण और शहरी बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा के मामलों में वृद्धि के कारण, व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

पिछले दो दशकों में भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ-साथ स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग और अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में भी महत्त्वपूर्ण प्रगति देखने को मिली है। देश की आर्थिक प्रगति के साथ ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन और अनियोजित शहरीकरण में भारी वृद्धि हुई है। विकास की इस दौड़ में शहरों के निर्माण में कई बड़े महत्त्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी भी की जाती रही है, जो प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका को कई गुना बढ़ा देते हैं। हाल ही में हैदराबाद में हुई मूसलाधार बारिश में 50 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई और दो सप्ताह के बाद अभी भी हज़ारों घर में पानी भरा हुआ है। भारतीय शहरों में प्राकृतिक घटनाओं की विभीषिका और इसकी आवृत्ति में वृद्धि के कारण देश में शहरी नियोजन की योजनाओं की प्रभाविकता पर प्रश्न उठने लगे हैं। 

इस आलेख में भारत में शहरी क्षेत्रों में बाढ़ के मामलों में वृद्धि के कारण, इसके प्रबंधन की चुनौतियों और समाधान के विकल्पों को समझने का प्रयास किया जाएगा।

जल प्रबंधन में भारतीय शहरों की स्थिति:

  • हैदराबाद में बारिश के कारण इस प्रकार का विनाश पहले कभी नहीं देखा गया, हालाँकि ऐसी घटनाएँ हैदराबाद तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि हाल के वर्षों में देश के अन्य शहरों में भी ऐसी ही घटनाएँ देखने को मिली हैं। 
  • वर्ष 2015 में चेन्नई में आई बाढ़ के कारण जन-धन की भारी क्षति हुई थी। 
  • पिछले कुछ वर्षों से मानसून के दौरान गुरुग्राम (हरियाणा) में भी कई बार यातायात पूरी तरह ठप हो जाता है। 
  • मुंबई (महाराष्ट्र) में जल निकासी हेतु प्रभावी तंत्र के अभाव के कारण इस महानगर के लिये मानसून, बाढ़ और भारी नुकसान का पर्याय बन चुका है।     
  • इसी प्रकार हाल के वर्षों में देश के अन्य छोटे बड़े शहरों में भी वर्षा, भू-स्खलन या ऐसी ही अन्य प्राकृतिक घटनाओं के कारण जन-धन की भारी क्षति देखने को मिली है।

कारण:  

जलवायु परिवर्तन और अत्यधिक वर्षा: 

  • पिछले कुछ वर्षों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक वर्षा के मामले और इसकी अनिश्चितता में वृद्धि देखने को मिली है।    
  • इसी वर्ष अगस्त माह के पहले पाँच दिनों में मुंबई में 459.3 मिमी. बारिश हुई जो इस पूरे माह के औसत का 78% है।
  • इसी वर्ष दिल्ली में पूरे बारिश के मौसम की 50% वर्षा जुलाई और अगस्त के 4 दिनों (लगातार नहीं) में ही हो गई।
  • हैदराबाद में वर्ष 2016 में एक ही दिन में अप्रत्याशित वर्षा देखने को मिली, 21 सितंबर, 2016 को हैदराबाद में 16 सेमी. वर्षा हुई जो पिछले 16 वर्षों में सबसे अधिक थी।  
  • इसी प्रकार सितंबर 2017 में हैदराबाद में हुई बारिश में सितंबर माह की औसत बारिश की तुलना में 450% वृद्धि देखने को मिली। 
  • सितंबर 2019 में हैदराबाद में हुई बारिश का आँकड़ा पिछले 100 वर्षों में सबसे अधिक रहा जबकि अक्तूबर, 2019 में यह आँकड़ा 62% अधिक रहा।
  • अक्टूबर 2020 में हैदराबाद में हुई वर्षा की मात्रा पिछले 100 वर्षों में इस माह के आँकड़ों में सबसे अधिक है।
  • वर्ष 2017 में ‘नेचर कम्युनिकेशंस’ (Nature Communications) नामक पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, जहाँ बंगाल की खाड़ी में निम्न दाब की आवृत्ति में कमी देखने को मिली है वहीं अरब सागर में मानसूनी हवाओं की परिवर्तनशीलता में वृद्धि हुई है, इन मानसूनी हवाओं के कारण मध्य भारत में अधिक वर्षा होती है। 

प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन और क्षरण:  

  • मानसून के दौरान बाढ़ के मैदानों में अधिकांश नदियाँ के जल में वृद्धि देखने को मिलती है, ऐसे में झील, आर्द्र्भूमि आदि अतिरिक्त जल को सोखने में सहायता करती हैं, वहीं वनाच्छादित भूमि मिट्टी के कटाव को रोकने और भू-जल स्तर को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • प्राकृतिक प्रणाली के ये महत्त्वपूर्ण घटक बाढ़ के प्रभाव को कम करने में सहायक होते हैं परंतु अनियोजित शहरीकरण के कारण बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण हुआ है।
  • हाल के वर्षों में बंगलुरू और हैदराबाद जैसे शहरों में तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण और अतिक्रमण के कारण कई झीलें और एक दूसरे से जुड़ी प्राकृतिक जल निकासी की प्रणाली नष्ट हो गई हैं।
    • वर्ष 1960 में बंगलुरू में  262 झीलें थी परंतु वर्ष 2016 में इनकी संख्या घटकर मात्र 10 ही रह गई,  इसकी प्रकार हैदराबाद में वर्ष 1989 से वर्ष 2001 के बीच कुल 3,245 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले जल निकाय (अलग-अलग स्थानों पर) नष्ट हो गए।
    • वर्ष 1947 से वर्ष 2011 के बीच चेन्नई के पल्लीकरनई आर्द्रभूमि का लगभग 90% हिस्सा अनियोजित शहरीकरण के कारण नष्ट हो गया। 
  • मुंबई में समुद्र के समीप तटीय सड़क के निर्माण के लिये समुद्री भूमि का उपयोग करने की योजना संभवतः इस क्षेत्र में ज्वार के समय समुद्री जल सोखने की क्षमता को प्रभावित कर सकती है।
  • इसी प्रकार दिल्ली में भी यमुना के निकट भारी मात्रा में अतिक्रमण बढ़ने से मानसून में नदी के जल में वृद्धि के कारण बाढ़ जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।  

शहरी आबादी में वृद्धि: 

  • वर्ष 2001 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, देश की कुल आबादी का लगभग 27.8% (लगभग 285 मिलियन लोग) हिस्सा शहरों (सबसे अधिक दिल्ली) में रहता था जबकि वर्ष 2011 में यह आँकड़ा 31.1% तक पहुँच गया।  
  • इसी प्रकार वर्ष 1991 में देश में कुल 4689 कस्बे थे जो वर्ष 2001 में बढ़कर 5161 और वर्ष 2011 में 7935 हो गई।  
  • विश्व बैंक (World Bank), द्वारा वर्ष 2015 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में शहरी आबादी का अनुपात 31% न होकर लगभग 55.3% है।  

अप्रभावी जल प्रबंधन:  

  • हैदराबाद शहर की सदियों पुरानी (1920 के दशक में विकसित) जल निकासी प्रणाली बार-बार आने वाली बाढ़ जैसी स्थितियों के लिये सबसे अधिक उत्तरदायी है, यह शहर के एक छोटे से भाग को ही कवर करता है।
  • पिछले दो दशकों में यह शहर अपने मूल निर्मित क्षेत्र से कम-से-कम चार गुना (क्षेत्रफल में) विकसित हुआ है, हालाँकि शहर के विकास के साथ जल प्रबंधन प्रणाली को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
  • हैदराबाद में आई हालिया बाढ़ (अक्तूबर 2020) का सबसे बड़ा कारण यह था कि पानी को समय से नहीं छोड़ा गया और बाद में अनियंत्रित तरीके से पानी छोड़े जाने के कारण कुछ बाँध टूट गए।
  • मुंबई की जल निकास प्रणाली में भी लंबे समय से कोई बड़ा सुधार नहीं किया गया है। 
  • हाल के वर्षों में बारिश के मौसम में कुछ न कुछ बदलाव देखने को मिलते रहे हैं परंतु इन वर्षों के दौरान जल निकासी प्रणाली में सुधार की बजाय बारिश के स्तर पर अधिक चर्चा की जाती रही है।  
  • वर्ष 2017 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में देश में बाढ़ की विभीषिका के लिये प्रशासनिक कमियों को उत्तरदायी बताया। CAG की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार द्वारा राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (National Flood Commission) के सुझावों को लागू करने में सक्रियता का आभाव देखा गया। 

दुष्प्रभाव:  

  • स्वास्थ्य: शहरी क्षेत्रों में आबादी की सघनता के कारण बाढ़ जैसी आपदाओं से प्रभावित लोगों की संख्या बहुत अधिक होती है। बाढ़ में चोटिल या मारे गए लोगों के अतिरिक्त गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के मामलों में वृद्धि होती है। अत्यधिक सघन आबादी वाली अनाधिकृत बस्तियों में यह समस्याएँ कई गुना बढ़ जाती हैं। 
  • आजीविका और परिवहन: बाढ़ की स्थिति में परिवहन पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। परिवहन के प्रभावित होने से लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने में भी चुनौती का सामना करना पड़ता है।  भारतीय शहरों में आज भी असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की आबादी बहुत अधिक है, ऐसे में दैनिक गतिविधियों के प्रभावित होने से इन लोगों के लिये अपनी आजीविका चलाना बहुत ही कठिन हो जाता है।   
  • अर्थव्यवस्था: बाढ़ के कारण अवसंरचना को होने वाली क्षति के साथ आर्थिक गतिविधियाँ भी प्रभावित होती हैं। इसके साथ ही इस प्रकार की आपदा से निपटने और पुनर्वास के कार्यक्रमों में भारी मात्रा में संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है। इसके साथ ही बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण पशु-पक्षियों के प्रवास और क्षेत्र विशेष की जैव-विविधता को भी भारी क्षति होती है।      

अन्य मुद्दे: 

  • शहरी क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या से जुड़े मुद्दे उठाते समय अधिकांश नागरिक प्रदर्शन, राजनीतिक या मीडिया प्रयास सरकार की निष्क्रियता, सार्वजनिक बनाम निजी संपत्ति आदि मुद्दों तक ही सीमित रह जाते हैं। ऐसे अधिकांश मामलों में भूमि उपयोग में बदलाव, प्राकृतिक संरक्षण, या स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र के प्रबंधन में स्थानीय समुदायों (किसान, मछुआरे आदि) की भूमिका को अनदेखा कर दिया जाता है।  

समाधान: 

  • लक्षित योजनाएँ और सामूहिक प्रयास: हाल के वर्षों में भारत के अनेक शहरों में देखी गई बाढ़ को नगर निगम या राज्य सरकारों के लिये रोक पाना बहुत ही कठिन होगा। ऐसी आपदाओं को ऊर्जा और अन्य संसाधनों में मज़बूत तथा लक्षित निवेश के माध्यम से ही किया जा सकता है। इसके लिये केंद्र सरकार से लेकर स्थानीय प्रशासन एवं अन्य सभी हितधारकों को मिलकर कार्य करना होगा।  वाटरशेड प्रबंधन तथा आपातकालीन जल निकासी योजनाओं के संदर्भ में नगर निकायों, राज्य सिंचाई विभाग, केंद्रीय आपदा प्रबंधन विभाग के बीच समन्वय को मज़बूत किया जाना चाहिये।   
  • बेहतर जल प्रबंधन प्रणाली: शहरों के विकास के साथ-साथ जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये जिसके तहत प्राकृतिक स्रोतों (जैसे वर्षा, झरने आदि) से प्राप्त जल के संरक्षण से लेकर जल के पुनर्प्रयोग (Recycling) आदि उपायों को बढ़ावा जाना चाहिये।   

    • स्पंज सिटी (Sponge City) का विकास:  सपंज सिटी की अवधारणा से आशय शहरों की अधिक पारगम्य बनाना है, जिससे वहाँ वर्षा से प्राप्त होने वाले जल को प्राकृतिक रूप से संरक्षित कर उसका पूरा प्रयोग किया जा सके। ऐसे शहरों में अनुपयुक्त जल को बहने देने की बजाय भूमि में अवशोषित किया जाता है, जो मिट्टी में प्राकृतिक रूप से फिल्टर होते हुए शहरी जलभृतों तक पहुँच जाता है। इसके लिये शहरी विकास के साथ-साथ प्राकृतिक जल स्रोतों और जैव-विविधता के तंत्र को मज़बूत किया जाना चाहिये।   
  • प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण: किसी भी शहर द्वारा बाढ़ जैसी आपदा से निपटने की क्षमता उस क्षेत्र में उपस्थित जल निकायों, वन्य भूमि आदि की स्थिति पर बहुत अधिक निर्भर करती है। बाढ़ की विभीषिका को कम करने के लिये प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और उनके आस-पास अनियंत्रित हस्तक्षेप को कम करना बहुत ही आवश्यक है। इसके साथ ही प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के विरुद्ध कानूनी प्रावधानों को मज़बूत किया जाना चाहिये।     

आगे की राह:

  • शहरों के निर्माण और विकास के लिये वैज्ञानिक आँकड़ों को आधार के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये। 
  • प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान की प्रणाली को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये। 
  • किसी भी आपदा में समाज के निचले वर्ग के लोग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं ऐसे में सभी वर्गों के लिये वहनीय लागत पर सुरक्षित घरों का निर्माण किया जाना चाहिये।
  • केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई  ‘अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन’ (अमृत), राष्ट्रीय विरासत शहर विकास और विस्तार योजना (हृदय) और स्मार्ट सिटी मिशन इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम हैं।

अभ्यास प्रश्न: हाल के दशकों में देश में शहरी विकास के साथ-साथ शहरी बाढ़ या अर्बन फ्लड के मामलों में वृद्धि देखने को मिली है। शहरी क्षेत्रों में बाढ़ के मामलों में वृद्धि के कारकों पर प्रकाश डालते हुए इसकी चुनौतियों और समाधान के विकल्पों पर चर्चा कीजिये।

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