जैव विविधता और पर्यावरण
भारत में मृदा क्षरण से निपटना
- 09 Dec 2024
- 29 min read
यह संपादकीय 09/12/2024 को द फाइनेंशियल एक्सप्रेस में प्रकाशित “Nourishing our soil” पर आधारित है। इस लेख में भारत की कृषि स्थिरता की बहुत बड़ी चुनौती पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जिसमें मृदा के बिगड़ते स्वास्थ्य पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें 5% से भी कम मृदा में पर्याप्त नाइट्रोजन है और केवल 20% में पर्याप्त कार्बनिक कार्बन है। यूरिया पर केंद्रित वर्तमान उर्वरक सब्सिडी प्रणाली पोषक तत्त्वों के असंतुलन का कारण बनती है, उत्पादकता को कम करती है तथा पर्यावरण क्षरण में योगदान देती है, जिसके लिये तत्काल सुधार की आवश्यकता है।
प्रिलिम्स के लिये:मृदा स्वास्थ्य में गिरावट, भारत की कृषि स्थिरता, रासायनिक उर्वरक, अनियमित चारण, हिमाचल प्रदेश बाढ़- 2023, चार धाम राजमार्ग, आक्रामक वनस्पति प्रजातियाँ, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, मनरेगा, भूमि क्षरण तटस्थता, हैप्पी सीडर मेन्स के लिये:भारत में मृदा क्षरण के प्रमुख मुद्दे, भारत में प्रभावी मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के उपाय |
भारत की कृषि स्थिरता मृदा स्वास्थ्य में गिरावट के कारण एक गंभीर चुनौती का सामना कर रही है। हाल के आकलन से पता चलता है कि 5% से भी कम भारतीय मृदा में नाइट्रोजन का स्तर अधिक है, जबकि केवल 20% में पर्याप्त कार्बनिक कार्बन है। वर्तमान उर्वरक सब्सिडी प्रणाली, जो मुख्य रूप से यूरिया पर केंद्रित है, ने असंतुलित पोषक तत्त्वों के प्रयोग को बढ़ावा दिया है, जिसमें अत्यधिक नाइट्रोजन एवं अपर्याप्त फास्फोरस और पोटेशियम का उपयोग शामिल है। यह पोषक तत्त्व असंतुलन न केवल कृषि उत्पादकता को कम करता है बल्कि पर्यावरण क्षरण में भी योगदान देता है। इन चुनौतियों का समाधान करने और दीर्घकालिक मृदा स्वास्थ्य एवं कृषि स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये तत्काल प्रणालीगत सुधारों की आवश्यकता है।
भारत में मृदा क्षरण की वर्तमान स्थिति क्या है?
- वर्तमान स्थिति: भारत के मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस (SAC- 2021) से पता चलता है कि सत्र 2018-19 के दौरान भूमि क्षरण की वर्तमान सीमा 97.85 मिलियन हेक्टेयर थी, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 29.77% है।
- भौगोलिक विस्तार और गंभीरता: अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हैं तथा राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात एवं तेलंगाना जैसे राज्यों में महत्त्वपूर्ण भूमि क्षरण देखा गई है।
- अकेले राजस्थान में 21 मिलियन हेक्टेयर से अधिक भूमि क्षरित क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत है, जिसका मुख्य कारण यहाँ के शुष्क क्षेत्रों में वायु जनित क्षरण है।
- मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया में वृद्धि हुई है तथा अब 83.69 मिलियन हेक्टेयर भूमि को मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया से गुज़र रही शुष्क भूमि के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो वर्ष 2003-05 के बाद से 1 मिलियन हेक्टेयर से अधिक की निवल वृद्धि है।
भारत में मृदा क्षरण के प्रमुख कारण क्या हैं?
- असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और एकल फसल उत्पादन के अत्यधिक प्रयोग सहित गहन कृषि तकनीकों पर भारत की निर्भरता के परिणामस्वरूप पोषक तत्त्वों की कमी एवं मृदा अम्लीकरण हुआ है।
- उदाहरण के लिये, पंजाब और हरियाणा को हरित क्रांति की उच्च उपज वाली फसलों की परंपरा के कारण कार्बनिक कार्बन के स्तर में गिरावट का सामना करना पड़ रहा है।
- भारत में DDT और HCH जैसे ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक वर्तमान में प्रयुक्त कीटनाशकों का 70% से अधिक हिस्सा हैं।
- निर्वनीकरण (वनों की कटाई) और शहरीकरण: कृषि, बुनियादी अवसंरचना और शहरी विस्तार के लिये तेज़ी से निर्वनीकरण से मृदा क्षरण में वृद्धि होती है तथा जल धारण क्षमता कम हो जाती है।
- हाल के आँकड़ों से पता चला है कि भारत के प्राकृतिक वनों में वर्ष 2013 से 2023 तक वृक्षावरण की 95% हानि हुई है।
- उदाहरण के लिये, पश्चिमी घाट जो 36 वैश्विक जैवविविधता हॉटस्पॉट में से एक है, में सदाबहार वन क्षेत्र में 5% की कमी देखी गई, जिससे स्थानीय मृदा की उर्वरता प्रभावित हुई।
- हाल के आँकड़ों से पता चला है कि भारत के प्राकृतिक वनों में वर्ष 2013 से 2023 तक वृक्षावरण की 95% हानि हुई है।
- अतिचारण और असंवहनीय पशुधन प्रबंधन: अनियमित चारण से वनस्पति की हानि होती है, जिससे ऊपरी मृदा का क्षरण होता है, विशेष रूप से राजस्थान और गुजरात जैसे शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में।
- भारत में 535 मिलियन से अधिक पशुधन हैं जो धारणीय वहन क्षमता से अधिक हैं। पशुधन की संख्या में वृद्धि के कारण चरागाह भूमि पर दबाव बढ़ गया है, जिसके परिणामस्वरूप अत्यधिक चारण और वनस्पति आवरण का विनाश हो रहा है।
- जल कुप्रबंधन और सिंचाई पद्धतियाँ: अत्यधिक भूजल निष्कर्षण और निम्न स्तरीय सिंचाई तकनीक, जैसे गहन सिंचाई (Flood Irrigation) के परिणामस्वरूप मृदा की लवणता बढ़ती है तथा जलभराव होता है।
- अत्यधिक सिंचाई के कारण जल लवणता में वृद्धि हुई है। देश में लगभग 6.74 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र लवणता से प्रभावित है।
- पंजाब में अत्यधिक सिंचाई के कारण लवणीकरण के कारण लगभग 50% भूमि क्षरित हो गई है, जिसके कारण जलभराव हो गया है और सतह पर नमक/लवण संचयन हो गया है।
- अनुमान बताते हैं कि प्रत्येक वर्ष लगभग 10% अतिरिक्त क्षेत्र लवणीय हो रहा है और वर्ष 2050 तक लगभग 50% कृषि योग्य भूमि लवण प्रभावित हो जाएगी।
- अत्यधिक सिंचाई के कारण जल लवणता में वृद्धि हुई है। देश में लगभग 6.74 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र लवणता से प्रभावित है।
- औद्योगिक प्रदूषण और खनन गतिविधियाँ: उद्योगों द्वारा भारी धातुओं, रसायनों और प्रदूषकों को निकटवर्ती मृदा पारिस्थितिकी तंत्र में उत्सर्जित किया जाता है, विशेष रूप से ओडिशा एवं झारखंड जैसे खनन-प्रधान राज्यों में।
- कोयला खनन और फ्लाई ऐश डंप से उत्पन्न विषाक्त प्रदूषण ने भूमि के बड़े हिस्से को अनुपजाऊ बना दिया है।
- उदाहरण के लिये, तमिलनाडु में स्टरलाइट कॉपर संयंत्र द्वारा वायु और आस-पास के जल निकायों में ज़हरीले रसायनों के उत्सर्जन के कारण गंभीर मृदा एवं जल प्रदूषण की स्थिति उत्पन्न हो गई है।
- जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम घटनाएँ: जलवायु परिवर्तन से प्रेरित घटनाएँ, जैसे अनियमित वर्षा, सूखा और बाढ़, मृदा अपरदन और पोषक तत्त्वों की कमी को बढ़ाती हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2023 में हिमाचल प्रदेश में आई बाढ़ के कारण कृषि क्षेत्रों में मृदा की ऊपरी सतह का भारी क्षय हुआ।
- जलवायु परिवर्तन के कारण सदी के अंत तक उच्च या बहुत अधिक मृदा अपरदन दर वाले क्षेत्रों की संख्या 35.3% से बढ़कर 40.3% हो जाने की संभावना है।
- स्थानांतरित कृषि या झूम कृषि और कर्तन एवं दहन प्रथाएँ: नगालैंड और मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में स्थानांतरित खेती/झूम कृषि के कारण मृदा की उर्वरता में गिरावट जारी है, क्योंकि इसके तहत कर्तन एवं दहन चक्र कार्बनिक पदार्थों को नष्ट कर देती हैं।
- पूर्वोत्तर भारत में कुल 4925 वर्ग किमी क्षेत्र को झूमिंग हॉटस्पॉट के रूप में अभिनिर्धारित किया गया है, जिसमें से 62% से अधिक अरुणाचल प्रदेश, असम और मिज़ोरम में आता है, जिससे व्यापक मृदा क्षरण एवं जैवविविधता का ह्रास होता है।
- अनियमित निर्माण और बुनियादी अवसंरचना परियोजनाएँ: सड़कों, बाँधों और शहरी बस्तियों के लिये बड़े पैमाने पर निर्माण से ऊपरी मृदा नष्ट हो जाती है तथा प्राकृतिक जल निकासी पैटर्न बाधित हो जाता है।
- उदाहरण के लिये, उत्तराखंड में चार धाम राजमार्ग के निर्माण के कारण मृदा अस्थिरता और भूस्खलन की घटनाएँ हुई हैं, राजमार्ग के एक भाग पर 300 से अधिक घटनाएँ दर्ज की गई हैं।
- आक्रामक प्रजातियाँ: लैंटाना कैमरा (पंचफूली) जैसी आक्रामक वनस्पति प्रजातियों का प्रसार पोषक तत्त्वों को कम करके और देशी जैव विविधता को बाधित करके मृदा की उर्वरता को कम करता है।
- हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि 22% प्राकृतिक क्षेत्रों में अत्यधिक चिंताजनक आक्रामक वनस्पति दर्ज किये गए हैं तथा अनुमान है कि इनसे 66% प्राकृतिक क्षेत्रों को खतरा हो सकता है।
मृदा संरक्षण से संबंधित भारतीय सरकार की पहल आंशिक रूप से ही प्रभावी क्यों रह जाती है?
- खंडित नीति फ्रेमवर्क: भारत की मृदा प्रबंधन नीतियाँ कई मंत्रालयों और योजनाओं में विखंडित हैं, जिसके कारण समन्वय एवं फोकस की कमी होती है।
- उदाहरण के लिये, मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (सिंचाई) और मनरेगा (भूमि पुनर्भरण) जैसे कार्यक्रमों से स्वतंत्र रूप से संचालित होती है।
- यह दृष्टिकोण समग्र मृदा प्रबंधन को रोकता है।
- अपर्याप्त कार्यान्वयन और निगरानी: यद्यपि मृदा स्वास्थ्य कार्ड और परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) जैसी योजनाओं का उद्देश्य मृदा स्वास्थ्य में सुधार करना है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर इनके कार्यान्वयन में काफी बाधाएँ आती हैं।
- वर्ष 2022 के आँकड़ों से पता चलता है कि केवल 33% किसान ही मृदा स्वास्थ्य संबंधी सिफारिशों का प्रयोग करते हैं। जवाबदेही व रियल टाइम फीडबैक की कमी से प्रभाव और कम हो जाता है।
- क्षेत्रीय विशिष्टता की उपेक्षा: अधिकांश मृदा स्वास्थ्य पहल सामान्य हैं और वे राजस्थान में मरुस्थलीकरण या गुजरात में लवणता जैसी क्षेत्र-विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करने में विफल रहती हैं।
- इस एक ही नीति के कारण मृदा प्रबंधन पहल की प्रभावकारिता प्रभावित होती है।
- अनुसंधान और कार्यान्वयन के बीच कमज़ोर संबंध: ICAR और IIT जैसे संस्थानों द्वारा भारत में मृदा अनुसंधान के परिणामों को प्रभावी रूप से क्षेत्र-स्तरीय समाधानों में परिवर्तित नहीं किया जाता है।
- उदाहरण के लिये, बायोचार और माइक्रोबियल उर्वरक जैसे नवाचारों का व्यावसायीकरण के लिये सरकारी समर्थन की कमी के कारण कम उपयोग किया जाता है। यह वियोग मृदा स्वास्थ्य सुधार पर अनुसंधान एवं विकास के प्रभाव को कम करता है।
भारत में प्रभावी मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- संधारणीय कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना: जैविक कृषि, फसल चक्र और कृषि वानिकी को प्रोत्साहित करने से कार्बनिक पदार्थ एवं सूक्ष्मजीव गतिविधि में वृद्धि करके मृदा के स्वास्थ्य को बहाल किया जा सकता है।
- परंपरागत कृषि विकास योजना जैविक कृषि का समर्थन करती है, लेकिन किसानों को अधिक प्रशिक्षण देकर इसके दायरे को बढ़ाने की आवश्यकता है।
- मृदा की रियल टाइम मॉनिटरिंग के लिये PKVY को मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के साथ जोड़ने से क्षेत्र-विशिष्ट सिफारिशें सुनिश्चित हो सकती हैं।
- वाडी प्रणाली को बढ़ावा देना: भारत में पारंपरिक वृक्ष-आधारित कृषि पद्धति वाडी प्रणाली के तहत कृषि, बागवानी और वानिकी को एकीकृत किया जा सकता है।
- यह कृषि वानिकी को एक सतत् अभ्यास के रूप में बढ़ावा देता है, क्षरण को रोककर मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाता है, जल संरक्षण करता है और जैवविविधता को समृद्ध करता है।
- यह दृष्टिकोण सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण और संधारणीय कृषि को भी समर्थन देता है, जिससे यह प्रभावी मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन के लिये एक मूल्यवान उपाय बन जाता है।
- जल प्रबंधन तकनीकों में सुधार: ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणालियों जैसी सूक्ष्म सिंचाई विधियों को अपनाने से जल संरक्षण के साथ-साथ जलभराव तथा लवणीकरण में कमी आती है।
- उदाहरण के लिये, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) का उद्देश्य सिंचाई का विस्तार करना है, लेकिन जल-मृदा संतुलन को अनुकूलित करने के लिये इसे परिशुद्ध कृषि के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
- वर्तमान में सूक्ष्म सिंचाई कवरेज केवल 19% है, जो इसे बढ़ाने की व्यापक संभावना को दर्शाता है।
- उदाहरण के लिये, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) का उद्देश्य सिंचाई का विस्तार करना है, लेकिन जल-मृदा संतुलन को अनुकूलित करने के लिये इसे परिशुद्ध कृषि के साथ एकीकृत किया जा सकता है।
- रेत खनन के विरुद्ध विनियमन लागू करना: सख्त निगरानी और संवहनीय रेत खनन नीतियों से नदी तट के अत्यधिक अपरदन को रोका जा सकता है तथा मृदा पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा की जा सकती है।
- नदी तल की निगरानी के लिये ड्रोन और AI जैसी प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके, जैसा कि आंध्र प्रदेश रेत खनन विनियमन मॉडल में देखा गया है, अनुपालन सुनिश्चित किया जा सकता है।
- बंजर भूमि का पुनः उर्वरता: वनरोपण, चरागाह पुनरुद्धार (जैसे- बन्नी चरागाह पुनरुद्धार) एवं आर्द्रभूमि पुनर्भरण के माध्यम से भूमि पुनर्ग्रहण से मृदा अपरदन में उल्लेखनीय कमी आ सकती है, जोकि मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) के तहत वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता प्राप्त करने की भारत की प्रतिबद्धता के अनुरूप है।
- राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम (NAP) जैसे कार्यक्रमों को बेहतर अभिगम के लिये समुदाय-नेतृत्व वाली पहलों को एकीकृत करना चाहिये।
- भूमि पुनरुद्धार में रोज़गार के अवसर प्रदान करने के लिये NAP को मनरेगा के साथ एकीकृत करने से पारिस्थितिकी पुन:प्राप्ति और ग्रामीण विकास के दोहरे उद्देश्य पूरे हो सकते हैं।
- संरक्षण कृषि को बढ़ावा देना: शून्य जुताई, मल्चिंग और कवर फसल जैसी संरक्षण कृषि पद्धतियाँ मृदा की संरचना तथा कार्बनिक कार्बन को बढ़ाती हैं।
- उदाहरण के लिये, लुधियाना, पंजाब स्थित बोरलॉग इंस्टीट्यूट फॉर साउथ एशिया (BISA) सक्रिय रूप से शून्य-जुताई कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देता है, विशेष रूप से ‘हैप्पी सीडर’ प्रौद्योगिकी के उपयोग के माध्यम से।
- PMKSY के अंतर्गत इन विधियों को अन्य उच्च उपज वाले क्षेत्रों में विस्तारित करने से व्यापक प्रभाव सुनिश्चित होगा।
- दूषित मृदा के लिये जैव-उपचार अपनाना: सूक्ष्मजीवों और पादपों का उपयोग करके जैव-उपचार से भारी धातुओं एवं औद्योगिक अपशिष्टों से प्रदूषित मृदा का शोधन किया जा सकता है।
- कृषि भूमि को पुनः उपजाऊ बनाने के लिये इस तकनीक का गुजरात के अंकलेश्वर औद्योगिक क्षेत्र में सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है।
- क्रिओसोट प्रभावित मृदा में मिलाने के लिये बचे हुए मशरूम कम्पोस्ट में मछली के तेल का प्रयोग दूषित मृदा के लिये जैव-उपचार का एक उदाहरण है।
- इस संयोजन के परिणामस्वरूप पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन (PAH) का सबसे प्रभावी अपघटन हुआ।
- मृदा स्वास्थ्य कार्ड की उपयोगिता का विस्तार: मृदा स्वास्थ्य कार्ड (SHC) योजना को वितरण से आगे बढ़कर इसकी सिफारिशों को लागू करने के लिये किसान शिक्षा पर ध्यान केंद्रित जाना चाहिये।
- SHC डेटा को किसान सुविधा ऐप जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म से जोड़ने से रियल टाइम परामर्श सेवाएँ प्रदान की जा सकती हैं।
- इसे स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) के साथ एकीकृत करने से किसानों के लिये ज़मीनी स्तर पर समर्थन सुनिश्चित हो सकता है।
- तटीय मृदा प्रबंधन योजनाएँ बनाना: तटीय क्षेत्रों के लिये व्यापक मृदा प्रबंधन योजनाएँ मैंग्रोव वनरोपण और लवण प्रतिरोधी फसलों के माध्यम से लवणता की अधिक मात्रा को कम कर सकती हैं।
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC) के अंतर्गत राष्ट्रीय तटीय मिशन जैसी परियोजनाओं को आवास संरक्षण के साथ-साथ मृदा स्वास्थ्य पर भी अधिक ध्यान देना चाहिये।
- तमिलनाडु के मैंग्रोव पुनरुद्धार मॉडल को व्यापक प्रभाव के लिये दोहराया जा सकता है।
- अनुसंधान एवं विकास में निवेश: जैव-उर्वरकों और कुशल मृदा परीक्षण किट जैसी मृदा-अनुकूल प्रौद्योगिकियों के विकास के लिये अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करने से मृदा प्रबंधन में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है।
- ICAR जैसे संस्थानों को किफायती समाधान खोजने के लिये स्टार्टअप के साथ मिलकर काम करना चाहिये। उदाहरण के लिये, बायोचार उत्पादन को कृषि अपशिष्ट प्रबंधन के साथ एकीकृत करने से अपशिष्ट कम हो सकता है और मृदा भी समृद्ध हो सकती है।
- शहरी खाद और चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना: नगरपालिका खाद सुविधाओं को प्रोत्साहित करने से शहरी जैविक अपशिष्ट को उच्च गुणवत्ता वाली खाद में परिवर्तित किया जा सकता है, जिससे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है।
- कर्नाटक कम्पोस्ट विकास निगम, जो प्रतिदिन 250 टन गीले अपशिष्ट का प्रसंस्करण करता है, एक अनुकरणीय मॉडल है।
- खाद की बिक्री पर GST छूट के माध्यम से ऐसी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने से इसे अपनाने में और अधिक वृद्धि हो सकती है।
- प्राकृतिक खेती की पहल को सुदृढ़ करना: सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती (SPNF) मॉडल जैसी प्राकृतिक खेती तकनीकें मृदा की जैवविविधता को बढ़ाने के साथ-साथ बाय कृषि आदान पर निर्भरता को कम करती हैं।
- SPNF को स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) से जोड़ने से किसानों द्वारा इसे अपनाना तथा बेहतर पहुँच सुनिश्चित हो सकती है।
- एकीकृत पोषक तत्त्व प्रबंधन को बढ़ावा देना: जैविक और जैव-उर्वरकों के साथ-साथ रासायनिक उर्वरकों के संतुलित उपयोग से पोषक तत्त्व असंतुलन को दूर किया जा सकता है।
- पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) को संशोधित कर इसमें जैव-उर्वरकों को शामिल करना तथा सुदृढ़ीकृत उर्वरकों को बढ़ावा देना, बेहतर मृदा स्वास्थ्य सुनिश्चित कर सकता है।
- NBS सुधारों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड डेटा के साथ जोड़ने से किसान-विशिष्ट सिफारिशें सुनिश्चित हो सकती हैं।
- डिजिटल मृदा स्वास्थ्य मानचित्रण का विकास: मृदा स्वास्थ्य मानचित्रण के लिये एक राष्ट्रीय डिजिटल डाटाबेस क्षरण की प्रवृत्तियों पर नज़र रखने और स्थान-विशिष्ट उपायों की सिफारिश करने में मदद कर सकता है।
- आवधिक मृदा मानचित्रण के लिये ISRO के पृथ्वी अवलोकन उपग्रहों का लाभ उठाने से कार्यान्वयन योग्य जानकारी प्राप्त होगी।
- इस तरह के आँकड़ों को कृषि नीतियों में एकीकृत करने से परिशुद्ध मृदा प्रबंधन पद्धतियाँ संभव हो सकती हैं।
- माइक्रोप्लास्टिक संदूषण से निपटना: एकल-उपयोग प्लास्टिक पर सख्त प्रतिबंध के साथ-साथ कृषि प्लास्टिक के बेहतर प्रबंधन पर भी ध्यान देना चाहिये।
- जैवनिम्नीकरणीय विकल्पों और पुनर्चक्रण प्रणालियों को बढ़ावा देने से माइक्रोप्लास्टिक मृदा प्रदूषण को कम किया जा सकता है।
- बायोडिग्रेडेबल कृषि-प्लास्टिक विकसित करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहन देने से इस बदलाव को समर्थन मिल सकता है।
- सामुदायिक भागीदारी को सुदृढ़ बनाना: मृदा संरक्षण में स्थानीय स्वयं सहायता समूहों एवं पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना बेहतर पहुँच और कार्यान्वयन सुनिश्चित करता है।
- उदाहरण के लिये, गुजरात का सहभागी वाटरशेड कार्यक्रम एक आदर्श हो सकता है।
- ऐसे समुदाय-नेतृत्व वाले मॉडलों को देश भर में विस्तारित करने से स्वामित्व और सफलता दर में वृद्धि हो सकती है।
- जलवायु अनुकूलन को मृदा संरक्षण के साथ एकीकृत करना: वनरोपण जैसी जलवायु अनुकूलन रणनीतियों को मृदा स्वास्थ्य कार्यक्रमों के साथ संयोजित करने से जलवायु-प्रेरित क्षरण के विरुद्ध समुत्थानशीलन उत्पन्न किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिये, जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC) परियोजनाओं को वाटरशेड विकास योजनाओं के साथ एकीकृत करने से संतुलन हो सकता है।
- राजस्थान जैसे राज्य ऐसी दोहरे उद्देश्य वाली पहल से लाभान्वित हो सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC) परियोजनाओं को वाटरशेड विकास योजनाओं के साथ एकीकृत करने से संतुलन हो सकता है।
निष्कर्ष:
एकीकृत, संधारणीय कृषि पद्धतियों, प्रभावी जल प्रबंधन और लक्षित संरक्षण प्रयासों के माध्यम से मृदा के क्षरण को नियंत्रित करना भारत के कृषि भविष्य के लिये आवश्यक है। भारत की कृषि अर्थव्यवस्था, जैसे 57% आजीविका के लिये कृषि पर निर्भरता और SDG 15 (भूमि पर जीवन) को प्राप्त करने, दीर्घकालिक कृषि उत्पादकता, खाद्य सुरक्षा एवं पर्यावरणीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये मृदा का स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारत में मृदा क्षरण के प्रमुख कारणों का परीक्षण कीजिये और इससे निपटने के लिये वर्तमान सरकारी उपायों की प्रभावशीलता का आकलन कीजिये। मृदा स्वास्थ्य को पुनर्स्थापित करने और संधारणीय कृषि सुनिश्चित करने के लिये अतिरिक्त रणनीतियाँ सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. एकीकृत कृषि प्रणाली (आइ.एफ.एस.) किस सीमा तक कृषि उत्पादन को संधारित करने में सहायक है? (2019) |