भारतीय अर्थव्यवस्था
सार्वजनिक ऋण की संवहनीयता
- 07 Oct 2021
- 13 min read
यह एडिटोरियल 05/10/2021 को ‘हिंदू बिज़नेसलाइन’ में प्रकाशित ‘‘How to make public debt sustainable’’ लेख पर आधारित है। इसमें बढ़ते सार्वजनिक ऋण से संबंधित समस्याओं पर चर्चा की गई है।
संदर्भ
वैश्विक वित्तीय सेवा कंपनी ‘मॉर्गन स्टेनली’ ने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि भारत को वर्ष 2022 के आरंभ में ’वैश्विक बॉण्ड सूचकांकों’ में शामिल कर लिया जाएगा और इसके परिणामस्वरूप अगले दशक के दौरान भारतीय संप्रभु बॉण्ड में 170-250 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश प्रवाह होगा।
वैश्विक बॉण्ड सूचकांक (Global Bond Indices)
इसमें ऐसे उभरते हुए ऋण बाज़ार शामिल हैं, जो विकासशील देशों की सरकारों द्वारा जारी स्थानीय मुद्रा बॉण्डों की निगरानी करते हैं। भारत अधिकांश ‘बेंचमार्क इक्विटी सूचकांकों’ (Benchmark Equity Indices) में उपस्थित रहा है, लेकिन बॉण्ड सूचकांक बाज़ार में वह अब तक अनुपस्थित रहा है।
अभी हाल ही में ‘भारतीय बॉण्ड बाज़ार’ विभिन्न कारणों से चर्चा में रहा है। इनमें सार्वजनिक ऋण की संवहनीयता (Sustainability of Public Debt) नीति निर्माताओं के दृष्टिकोण से प्रमुख विषय है।
सार्वजनिक ऋण/उधारी के उद्देश्य
- आय एवं राजस्व: सार्वजनिक ऋण का लक्ष्य आम तौर पर प्रस्तावित व्यय और अपेक्षित राजस्व के बीच असंतुलन के कारण उत्पन्न अंतर को कवर करना होता है।
- प्रायः प्रशासनिक व्यय में वृद्धि के कारण अथवा बाढ़, अकाल, भूकंप और संचारी रोगों जैसी अप्रत्याशित समस्याओं के कारण सरकार की आय कम हो जाती है, क्योंकि उन्हें इन समस्याओं को दूर करने के लिये अत्यधिक व्यय करना पड़ता है।
- मंदी के समय में उपयोगी: मंदी का आशय उस स्थिति से है, जब लागत कम हो जाती है और उद्योगों पर पैसा खर्च करने अथवा निवेश के लिये लोगों की क्षमता कम हो जाती है, साथ ही भविष्य में लाभ मिलने की कोई संभावना भी नहीं होती।
- मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिये: मुद्रास्फीति का अर्थ बढ़ी हुई लागत की स्थिति है। ऐसी स्थिति में प्रायः सरकार ऋण लेकर बड़ी मात्रा में लोगों की कार्यशक्ति अथवा उनकी खर्च करने की शक्ति को सीमित कर सकती है।
- विकास योजनाओं के वित्तपोषण के लिये: एक विकासशील अर्थव्यवस्था में सदैव कमी की स्थिति बनी रहती है। साथ ही इस प्रकार की अर्थव्यवस्थाओं में सरकार भारी कराधान का आश्रय भी नहीं ले सकती। लेकिन देश से गरीबी हटाने के लिये विकास योजनाओं को आगे बढ़ाना अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण है।
- ऐसी स्थिति में सार्वजनिक ऋण ही एकमात्र उपाय होता है। इसलिये सरकार वित्त जुटाने के लिये देश के अंदर से या विदेशी सरकारों से या आम लोगों से ऋण लेती है।
- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार: सरकार निर्माण निर्माण गतिविधियों और शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं के विस्तार के लिये भी ऋण लेती है।
- सार्वजनिक निर्णय को अनुकूल बनाने के लिये: जब देश के नागरिक कर भुगतान में सक्षम नहीं होते, तब भी सरकार को ऋण लेना पड़ता है। कभी-कभी तो लोगों में कर भुगतान की क्षमता होने के बावजूद सरकार लोकलुभावन नीति पर अमल करते हुए कभी भी कर नहीं बढ़ाती, जिसके परिणामस्वरूप उसे ऋण की आवश्यकता होती है।
बढ़ता सार्वजनिक ऋण
- भारतीय रिज़र्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार, भारत का सार्वजनिक ऋण (केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त देनदारियाँ) और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का अनुपात, वर्ष 2020 में बढ़कर 100.86 प्रतिशत के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुँच गया है, जो कि वर्ष 2014 में 76.86 प्रतिशत पर था।
- वर्तमान में भारत विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में ब्राज़ील एवं अर्जेंटीना के बाद सबसे अधिक ऋणग्रस्त देश है। यहाँ तक कि दक्षिण एशिया में भी भूटान और श्रीलंका के बाद भारत ही सबसे बड़ा कर्जदार देश है। गौरतलब है कि ब्रुनेई, संयुक्त अरब अमीरात और रूस में ऋण-जीडीपी अनुपात क्रमशः 2.46 प्रतिशत, 19.35 प्रतिशत और 19.48 प्रतिशत ही है।
उच्च सार्वजनिक ऋण के कारण
- बैंक पुनर्पूंजीकरण: वर्ष 2017-18 में सार्वजानिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के कारण मात्रा की दृष्टि से और जीडीपी के प्रतिशत के रूप में केंद्र सरकार के कुल ऋण में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
- वर्ष 2017-18 में सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों के वित्तपोषण के लिये 80,000 करोड़ रुपए के ‘पुनर्पूंजीकरण बॉण्ड’ का प्रयोग किया गया था।
- ‘उदय’ बॉण्ड (UDAY bonds): ’उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना’ (Ujwal Discom Assurance Yojana- UDAY) से संबंधित बॉण्ड जारी होने के बाद वर्ष 2015-16 और वर्ष 2016-17 के दौरान राज्यों की देनदारी में बढ़ोतरी हुई है।
- राष्ट्रीय आय में करों की लघु हिस्सेदारी: भारत की स्वतंत्रता के बाद से राष्ट्रीय आय में चार गुना वृद्धि हुई है।
- भारत में वर्ष 2021 में कर-जीडीपी अनुपात लगभग 10.2% है।
- कर आय का अधिकांश भाग अप्रत्यक्ष करों से प्राप्त होता है।
- असंतुलित कर प्रणाली: भारतीय कर प्रणाली में कई त्रुटियाँ विद्यमान हैं। भारत में कर चोरी की समस्या काफी गंभीर है, क्योंकि देश की कर प्रणाली त्रुटिपूर्ण है।
- सार्वजनिक आय का दुरूपयोग: सरकारी व्यय का एक बड़ा भाग उन सार्वजनिक विभागों पर खर्च होता है, जहाँ भ्रष्टाचार, घूस और लालफीताशाही का माहौल है। इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में कमी आ रही है।
बढ़ते सार्वजनिक ऋण का प्रभाव
- यह सर्वविदित है कि अत्यधिक सार्वजनिक ऋण, ब्याज दरों में उच्च ‘रिस्क प्रीमियम की ओर ले जाता है, जिसके परिणामस्वरूप निजी निवेश में कमी के साथ ही दीर्घावधि में जीडीपी संकुचन की स्थिति बनती है।
- हालाँकि, सार्वजनिक ऋण में वृद्धि से अल्पावधि में कुल माँग और उत्पादन को प्रोत्साहन मिलता है, लेकिन यदि ऋण-जीडीपी अनुपात 90% से अधिक हो जाता है तो दीर्घावधि में आर्थिक वृद्धि नकारात्मक हो जाएगी।
आगे की राह
- घाटे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण: सरकार घाटे में चल रहे एयर इंडिया जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण पर विचार कर सकती है।
- इसके अलावा, किसी सार्वजनिक उपक्रम के निजीकरण में 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन' (Minimum Government and Maximum Governance) के सिद्धांत को अपनाया जा सकता है।
- विवेकपूर्ण रुख: ’राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन’ (FRBM) अधिनियम, 2003 के अनुसार, राजकोषीय समेकन प्राप्त करना और पारदर्शी ढंग से कार्यान्वित विवेकपूर्ण ऋण प्रबंधन और मौद्रिक नीति के प्रभावी कार्यान्वयन के माध्यम से दीर्घावधिक आर्थिक स्थिरता प्राप्त करना मुख्यतः सरकार का दायित्व है।
- इसके अनुरूप, भारतीय रिज़र्व बैंक छत्तीसगढ़, गोवा, मणिपुर आदि राज्यों को नकदी और ऋण प्रबंधन के विवेकपूर्ण उपायों के बारे में संवेदनशील बना रहा है।
- PFMS का लाभ उठाना: केंद्र सरकार अपने विभिन्न मंत्रालयों के माध्यम से लगभग 3 लाख करोड़ रुपए के वार्षिक परिव्यय के साथ एक हज़ार से अधिक समाज कल्याण योजनाओं का कार्यान्वयन कर रही है।
- बेहतर पारदर्शिता और जवाबदेही को बनाए रखते हुए, राजकोषीय घाटे के बेहतर प्रबंधन के एक अंग के रूप में, धन के हस्तांतरण और उपयोग पर समयबद्ध, समेकित और बारीक डेटा के माध्यम से ‘सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन प्रणाली’ (PFMS) का अधिकतम लाभ उठाया जाना चाहिये।
- सामाजिक योजनाओं में पीपीपी मॉडल: सरकार ’दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना’ (DDU-GKY) जैसी सामाजिक योजनाओं में ‘सार्वजनिक निजी भागीदारी’ (PPP) मॉडल के बारे में विचार कर सकती है।
- कर व्यवस्था का सामंजस्य: हालाँकि, वस्तु एवं सेवा कर (GST) ने लगभग सभी अप्रत्यक्ष करों को शामिल कर लिया है, यह अभी भी अल्कोहल, पेट्रोलियम उत्पादों, बिजली आदि पर लागू नहीं है।
- इस प्रकार, कर-जीडीपी अनुपात में सुधार की दृष्टि से राष्ट्रीय सर्वसम्मति की प्राप्ति हेतु जीएसटी को सामंजित करने और इसका विस्तार अन्य क्षेत्रों में भी करने की आवश्यकता है।
- इसके अलावा, सरकार को उच्च सार्वजनिक ऋण को स्थानांतरण हेतु वित्तपोषण के अतिरिक्त स्रोतों के लिये एक निवेशक-अनुकूल वातावरण का भी निर्माण करना चाहिये।
- नवीकरणीय ऊर्जा पर बल: भारत कच्चे तेल की अपनी घरेलू आवश्यकता का लगभग 80% आयात करता है। भारत वर्ष 2025 तक 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था बन सकता है, यदि वह जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता को कम करते हुए नवीकरणीय ऊर्जा पर अधिक ज़ोर दे, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत होगी।
- इसके अतिरिक्त, सरकार को निम्न लागत, जोखिम शमन और बाज़ार विकास जैसे सिद्धांतों का पालन कर सार्वजनिक ऋण प्रबंधन की दक्षता में वृद्धि करनी चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: सरकार को वित्तीय स्थिरता को ध्यान में रखते हुए विकास की रूपरेखा पर अपनी रणनीति सावधानीपूर्वक तैयार कर सार्वजनिक ऋण को संवहनीय बनाना चाहिये। टिप्पणी कीजिये।