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जैव विविधता और पर्यावरण

भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन की पुनर्कल्पना

  • 05 Dec 2024
  • 29 min read

यह संपादकीय 05/11/2024 को द हिंदू में प्रकाशित “A cut in time: On the plastic pollution problem” पर आधारित है। इस लेख में संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक प्लास्टिक संधि में गतिरोध का उल्लेख गया है, जिसमें उत्पादन में कटौती का समर्थन करने वाले विकसित देशों और आर्थिक चिंताओं के कारण भारत जैसे विकासशील देशों के बीच विभाजन को उजागर किया गया है। यह भारत के पुनर्चक्रण अंतर, जो अपने वार्षिक प्लास्टिक अपशिष्ट का केवल एक तिहाई प्रबंधन करता है, को रेखांकित करता है और बेहतर अपशिष्ट प्रबंधन की आवश्यकता पर बल देता है।

प्रिलिम्स के लिये:

प्लास्टिक प्रदूषण, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की वैश्विक प्लास्टिक संधि, इलेक्ट्रिक वाहन, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, डाइऑक्सिन और फ्यूरॉन, माइक्रोप्लास्टिक, पेरिस समझौता, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, शहरी स्थानीय निकाय, पर्यावरण क्षतिपूर्ति शुल्क, हैदराबाद का जवाहर नगर WTE प्लांट  

मेन्स के लिये:

प्लास्टिक पर अत्यधिक निर्भर भारत के प्रमुख क्षेत्र, भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट के कुप्रबंधन से उत्पन्न चुनौतियाँ

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की वैश्विक प्लास्टिक संधि के माध्यम से प्लास्टिक प्रदूषण पर नियंत्रण का वैश्विक प्रयास गतिरोध पर पहुँच गया है, जिससे इस पर्यावरणीय खतरे से निपटने के तरीके पर देशों के बीच गहन मतभेद सामने आए हैं। जबकि विकसित देश और द्वीप राष्ट्र प्लास्टिक के व्यापक पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिये सख्त उत्पादन कटौती के पक्षधर हैं जिनमें भारत सहित कई विकासशील देश ऐसे उपायों का विरोध करते हैं, उन्हें आर्थिक खतरे के रूप में देखते हैं। भारत की वर्तमान प्लास्टिक पुनर्चक्रण क्षमता उसके वार्षिक प्लास्टिक उत्पादन का केवल एक तिहाई है, जो प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये एक व्यापक और सक्रिय दृष्टिकोण की बहुत बड़ी आवश्यकता को रेखांकित करता है। 

भारत में प्लास्टिक पर अत्यधिक निर्भर रहने वाले प्रमुख क्षेत्र कौन-से हैं?

  • पैकेजिंग उद्योग: भारत की प्लास्टिक व्यय का लगभग 59% हिस्सा पैकेजिंग उद्योग के लिये ज़िम्मेदार है तथा यह क्षेत्र किफायत और लागत प्रभावशीलता के लिये सख्त व लचीले दोनों प्रकार के प्लास्टिक पर निर्भर करता है। 
    • ई-कॉमर्स और खुदरा व्यापार में वृद्धि ने प्लास्टिक पैकेजिंग की मांग को बढ़ा दिया है। 
    • उदाहरण के लिये, कोविड-19 महामारी के दौरान प्लास्टिक पैकेजिंग के व्यापक उपयोग से आवश्यक वस्तुओं के सुरक्षित वितरण में सुविधा हुई। 
  • भवन एवं निर्माण: यह क्षेत्र संक्षारण प्रतिरोध और दीर्घजीविता के कारण पाइपों, इंसुलेशन और फिटिंग्स में प्लास्टिक का प्रयोग करता है।
    • सरकार की ‘सभी के लिये आवास’ पहल ने किफायती आवास परियोजनाओं में प्लास्टिक सामग्री के प्रयोग को बढ़ावा दिया है, जिससे निर्माण दक्षता बढ़ी है और लागत कम हुई है। 
  • ऑटोमोटिव उद्योग: प्लास्टिक ऑटोमोटिव घटकों जैसे डैशबोर्ड, बंपर और ईंधन टैंक के निर्माण में अभिन्न अंग है, जो इनका वज़न कम रखने एवं ईंधन दक्षता में सहायता करता है। 
    • इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) की ओर बढ़ते रुझान ने बैटरी की आयु और प्रदर्शन को बढ़ाने के लिये हल्के प्लास्टिक पदार्थों के अंगीकरण में तेज़ी ला दी है। 
  • टाटा मोटर्स जैसी कंपनियों ने इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये अपने EV मॉडलों में उन्नत प्लास्टिक कंपोज़िट को शामिल किया है।
    • कृषि: कृषि क्षेत्र में ड्रिप सिंचाई प्रणाली, ग्रीनहाउस फिल्म और मल्चिंग जैसे अनुप्रयोगों में प्लास्टिक का प्रयोग किया जाता है, जिससे जल संरक्षण एवं फसल की उपज बढ़ती है। 
    • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना सूक्ष्म सिंचाई तकनीकों को बढ़ावा देती है, जिससे कृषि उत्पादकता में सुधार के लिये प्लास्टिक आधारित समाधानों की मांग बढ़ रही है।
  • स्वास्थ्य देखभाल: प्लास्टिक चिकित्सा उपकरणों, डिस्पोज़ेबल्स और पैकेजिंग के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण है, जिससे स्वच्छता व रोगी सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
    • कोविड-19 महामारी ने व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (PPE) किट, सिरिंज और वैक्सीन शीशियों के निर्माण में प्लास्टिक के महत्त्व को रेखांकित किया, जिससे देश भर में बड़े पैमाने पर टीकाकरण प्रयासों में सुविधा हुई।

भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट के कुप्रबंधन से क्या चुनौतियाँ उभर रही हैं?

  • पर्यावरण क्षरण: भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट की मात्रा प्रतिवर्ष लगभग 9.3 मिलियन टन है, जिसमें से 40% एकत्रित नहीं किया जाता है, जिससे नदियों, मिट्टी और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। 
    • गंगा जैसी नदियाँ वैश्विक नदी प्लास्टिक प्रदूषण में बहुत बड़ा योगदान देती हैं, जिससे जलीय जैवविविधता और खाद्य शृंखला बाधित होती है। 
    • प्लास्टिक को विघटित होने में 500-1000 वर्ष लगते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पेयजल स्रोतों में सूक्ष्म प्लास्टिक संदूषण हो जाता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट: प्लास्टिक अपशिष्टों का खुले में दहन के कारण श्वसन संबंधी बीमारियों में बहुत बड़ा योगदान होता है क्योंकि इससे डाइऑक्सिन और फ्यूरॉन जैसे हानिकारक कैंसरकारी रसायन उत्सर्जित होते हैं।
    • इसके अतिरिक्त जल, सी-फूड और नमक के माध्यम से मानव खाद्य शृंखला में माइक्रोप्लास्टिक्स की प्रविष्टि से अंतःस्रावी व्यवधान एवं बाँझपन जैसे दीर्घकालिक स्वास्थ्य जोखिमों को लेकर गंभीर चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं।
    • वर्ष 2024 में जल निकायों में मुक्त किये जाने वाले माइक्रोप्लास्टिक के शीर्ष 4 योगदानकर्त्ताओं में भारत शामिल होगा।
  • आर्थिक बोझ: भारत अपने प्लास्टिक अपशिष्ट का 60% पुनर्चक्रण करता है जो वैश्विक औसत 9% से बहुत अधिक है। 
    • हालाँकि यह मुख्य रूप से अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा संचालित है, जिसमें 1.5 मिलियन कूड़ा बीनने वाले लोग खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं, जिनके पास स्वास्थ्य देखभाल, बीमा या उचित मज़दूरी की बहुत कम सुलभता है। 
    • इससे सामाजिक-आर्थिक हाशिये पर बने रहने की प्रवृत्ति कायम रहती है। इसके अलावा, प्लास्टिक प्रदूषण से भारत की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान उठाना पड़ता है, क्योंकि इससे मत्स्यिकी, पर्यटन राजस्व और शहरी बुनियादी अवसंरचना को नुकसान पहुँचता है।
  • नियामक अंतराल: जुलाई 2022 में कुछ एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध और विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (EPR) विनियमों की स्थापना के बावजूद, सीमित निगरानी एवं प्रवर्तन के कारण अनुपालन कमज़ोर बना हुआ है।
    • छोटे पैमाने के निर्माता, जो प्लास्टिक उद्योग का 90% हिस्सा हैं, उच्च अनुपालन लागत का सामना करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिरोध होता है और पर्यावरण अनुकूल विकल्पों की ओर अप्रभावी संक्रमण होता है। 
    • विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र की नई रिपोर्ट में 70,000 फर्ज़ी प्रमाण-पत्रों, प्रमुख प्रदूषकों के कम पंजीकरण तथा प्लास्टिक कटलरी जैसी प्रतिबंधित वस्तुओं का उत्पादन जारी रहने का खुलासा किया गया है।
  • जलवायु परिवर्तन संबंध: प्लास्टिक पेट्रोलियम आधारित है और इसका उत्पादन और भस्मीकरण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का बहुत बड़ा कारण है। पैकेजिंग, कृषि (जैसे- प्लास्टिक मल्चिंग अर्थात् पौधों के चारों ओर की भूमि को प्लास्टिक फिल्म से व्यवस्थित रुप से ढकने की प्रक्रिया) और ई-कॉमर्स जैसे क्षेत्रों में प्लास्टिक पर भारत की बढ़ती निर्भरता देश के कार्बन फूटप्रिंट को बढ़ाती है। 
    • इसके अतिरिक्त, ऊर्जा-गहन पुनर्चक्रण प्रक्रियाएँ पेरिस समझौते के तहत भारत के जलवायु लक्ष्यों को कमज़ोर करती हैं। 
  • सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ: भारत को प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने में महत्वपूर्ण व्यवहारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि रोजमर्रा की खपत में सिंगल यूज़ प्लास्टिक की व्यवहार्यता गहन है। 
    • वैकल्पिक उपायों और उचित अपशिष्ट पृथक्करण के बारे में जन जागरूकता अपर्याप्त है, जिससे सरकारी पहलों की सफलता सीमित हो रही है। 
    • सांस्कृतिक प्रथाओं, जैसे त्योहारों के दौरान बड़े पैमाने पर प्लास्टिक-उपभोग, के कारण प्लास्टिक अपशिष्ट में मौसमी वृद्धि भी होती है, जिससे नगरपालिका प्रणाली पर बोझ पड़ता है। 
    • बृहन्मुंबई नगर निगम (BMC) ने वर्ष 2024 में गणेश चतुर्थी के बाद मुंबई के सात समुद्र तटों से 363 मीट्रिक टन (MT) ठोस अपशिष्ट एकत्र किया।
  • सर्कुलर इकॉनमी समाधानों का अभाव: भारत का अपशिष्ट प्रबंधन बुनियादी अवसंरचना बढ़ते प्लास्टिक बोझ से निपटने के लिये अपर्याप्त बना हुआ है। 
    • केवल 12-15% प्लास्टिक अपशिष्ट का ही वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण किया जाता है, जबकि शेष को लैंडफिल या जलमार्गों में डाल दिया जाता है। 
    • पायरोलिसिस और बायोप्लास्टिक्स जैसी नवीन प्रौद्योगिकियाँ, जो प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार कर सकती हैं, उच्च लागत एवं अपर्याप्त सार्वजनिक-निजी भागीदारी के कारण कम उपयोग की जाती हैं। 

भारत में वर्तमान प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन फ्रेमवर्क क्या है? 

  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016: अपशिष्ट उत्पादन को कम करने, कूड़ा-अपशिष्ट फैलाने से रोकने और पृथक्करण तथा उचित निपटान सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। इसने उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों के लिये विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (EPR) की शुरुआत की है। प्लास्टिक कैरी बैग की न्यूनतम मोटाई बढ़ाकर 50 माइक्रोन कर दी गई है, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों को भी कार्यान्वयन के लिये शामिल किया गया है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम, 2018: इसके तहत गैर-पुनर्चक्रणीय, गैर-ऊर्जा पुनर्प्राप्ति योग्य या गैर-पुनः प्रयोज्य बहु-स्तरित प्लास्टिक (MLP) को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शामिल है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के तहत उत्पादकों के लिये पंजीकरण प्रणाली शुरू की गई है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन संशोधन नियम, 2021: वर्ष 2022 तक विशिष्ट एकल-उपयोग प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाना तथा पैकेजिंग अपशिष्ट के लिये EPR अनिवार्य करना शामिल है। दिसंबर 2022 तक कैरी बैग की मोटाई बढ़ाकर 120 माइक्रोन करना शामिल है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम, 2022: यह अनिवार्य पुनर्चक्रण एवं पुन: उपयोग लक्ष्य निर्धारित करता है, गैर-अनुपालन के लिये पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति लगाता है, और एक चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम, 2024: निर्माताओं और आयातकों के लिये पंजीकरण, रिपोर्टिंग एवं प्रमाणन आवश्यकताओं को निर्दिष्ट करता है। ‘आयातकर्त्ता’ एवं ‘उत्पादक’ की परिभाषाओं का विस्तार करता है, बायोडिग्रेडेबल और कंपोस्टेबल प्लास्टिक के लिये प्रमाणन को अनिवार्य बनाता है तथा उपभोक्ता-पूर्व प्लास्टिक अपशिष्ट की रिपोर्टिंग की आवश्यकता शामिल है। 

प्लास्टिक अपशिष्ट के प्रभावी प्रबंधन के लिये भारत क्या उपाय अपना सकता है? 

  • स्रोत पर अपशिष्ट पृथक्करण को सुदृढ़ बनाना: प्रभावी पुनर्चक्रण और निपटान के लिये घरेलू एवं संस्थागत स्तर पर प्लास्टिक अपशिष्ट को पृथक् करना आवश्यक है।
    • प्रोत्साहन और सख्त दंड के साथ समुदाय-आधारित मॉडल को लागू करने से बेहतर अनुपालन सुनिश्चित हो सकता है। 
    • शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को अपशिष्ट पृथक्करण और प्रसंस्करण पर नज़र रखने के लिये डिजिटल निगरानी उपकरणों में निवेश करने हेतु सुसज्जित एवं वित्तपोषित किया जाना चाहिये।
    • उदाहरण के लिये, इंदौर जैसे शहरों ने व्यापक जागरूकता और निगरानी के माध्यम से 100% स्रोत पृथक्करण लक्ष्य प्राप्त किया जो आज भारत में शहरी अपशिष्ट प्रबंधन के लिये एक मॉडल बन चूका है।
  • पुनर्चक्रण अवसंरचना और चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना: मशीनीकृत पुनर्चक्रण इकाइयों का विस्तार तथा पायरोलिसिस और रासायनिक पुनर्चक्रण जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों का अंगीकरण प्लास्टिक अपशिष्ट प्रसंस्करण दरों में सुधार कर सकता है। 
    • स्टार्टअप्स और अनौपचारिक क्षेत्र के साथ साझेदारी से रीसाइक्लिंग में नवाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
    • रिलायंस भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट आधारित पायरोलिसिस तेल को रासायनिक रूप से पुनर्चक्रित करके अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता और कार्बन प्रमाणन (ISCC) प्लस प्रामाणित चक्रीय पॉलिमर में बदलने वाली पहली कंपनी बन गई है, जो एक आदर्श के रूप में काम कर सकती है। 
  • बायोडिग्रेडेबल और वैकल्पिक पदार्थों को बढ़ावा देना: बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक और जूट, पटसन एवं बाँस आधारित पैकेजिंग जैसे विकल्पों के लिये अनुसंधान एवं विकास (R&D) में निवेश करने से पारंपरिक प्लास्टिक पर निर्भरता कम हो सकती है।
    • पर्यावरण अनुकूल स्टार्टअप के लिये सरकारी सब्सिडी और कर लाभ इन विकल्पों के उद्योग को प्रोत्साहित कर सकते हैं। 
    • इन विकल्पों के बारे में उपभोक्ता और व्यवसायिक शिक्षा भी आवश्यक है। 
  • विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (EPR) फ्रेमवर्क को मज़बूत करना: EPR के सख्ती से अनुपालन को अनिवार्य बनाना उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों को उनके द्वारा उत्पन्न प्लास्टिक अपशिष्ट के संग्रहण एवं पुनर्चक्रण के लिये वित्तपोषण सुनिश्चित करता है। 
    • नियमित ऑडिट और डिजिटल ट्रैकिंग टूल जवाबदेही सुनिश्चित कर सकते हैं। गैर-अनुपालन के लिये वित्तीय दंड और लक्ष्य से अधिक काम करने पर प्रोत्साहन की शुरुआत की जानी चाहिये। 
    • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने अपशिष्ट टायर प्रबंधन को बढ़ाने के लिये नए पर्यावरण क्षतिपूर्ति (EC) दिशानिर्देशों को मंज़ूरी दे दी है।
      • अपने विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रहने वाले निर्माताओं को प्रति किलोग्राम बेकार टायरों पर 8.40 रुपए तक का ज़ुर्माना देना होगा, जो अन्य क्षेत्रों के लिये एक मॉडल बन सकता है। 
  • अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक अपशिष्ट प्रबंधन में एकीकृत करना: भारत का अनौपचारिक क्षेत्र अपने प्लास्टिक अपशिष्ट का बड़ा हिस्सा पुनर्चक्रित करता है, लेकिन श्रमिकों के पास प्रायः सुरक्षा उपकरण, उचित मज़दूरी या वित्तीय स्थिरता का अभाव होता है।
    • प्रशिक्षण, सुरक्षा उपकरण प्रदान करके तथा उन्हें ULB अनुबंधों में एकीकृत करके इस क्षेत्र को औपचारिक रूप देने से सामाजिक समानता सुनिश्चित करते हुए दक्षता में सुधार किया जा सकता है।
    • अपशिष्ट सहकारी समितियाँ और सूक्ष्म वित्त पोषण विकल्प इन श्रमिकों को सशक्त बना सकते हैं।
    • उदाहरण के लिये, पुणे स्थित SWaCH 3,000 से अधिक अपशिष्ट/कूड़ा बीनने वालों को रोज़गार देता है, सम्मानजनक आजीविका भी प्रदान करता है तथा प्रतिवर्ष 50,000 टन अपशिष्ट का प्रसंस्करण करता है।
  • प्रौद्योगिकी और डेटा विश्लेषण का लाभ उठाना: EPR अनुपालन पर नज़र रखने के लिये AI-संचालित छँटाई मशीनों, GPS-सक्षम अपशिष्ट संग्रह प्रणालियों और ब्लॉकचेन की इंस्टॉलेशन से प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन को सुव्यवस्थित किया जा सकता है। 
    • संग्रहण, प्रसंस्करण और पारिस्थितिकी तंत्र में उत्सर्जन के रियल टाइम डेटा निर्णय लेने तथा संसाधन आवंटन में सुधार कर सकते हैं। 
    • नागरिक सहभागिता के लिये मोबाइल ऐप्स पारदर्शिता बढ़ा सकते हैं।
  • अपशिष्ट से ऊर्जा संयंत्र विकसित करना: अपशिष्ट-से-ऊर्जा (WTE) संयंत्रों की स्थापना से गैर-पुनर्चक्रणीय प्लास्टिक अपशिष्ट को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है, जिससे लैंडफिल दबाव कम हो सकता है और नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों में योगदान मिल सकता है। 
    • दहन के दौरान विषाक्त गैस उत्सर्जन को रोकने के लिये कड़े पर्यावरण नियंत्रण आवश्यक हैं। 
      • सार्वजनिक-निजी भागीदारी इन संयंत्रों का वित्तपोषण और संचालन प्रभावी ढंग से कर सकती है।
    • हैदराबाद का जवाहर नगर WTE संयंत्र एक आदर्श के रूप में काम कर सकता है। 
  • समुदायों को शिक्षित और सक्रिय करना: समुदाय-नेतृत्व वाले अपशिष्ट प्रबंधन मॉडल ज़मीनी स्तर पर ज़िम्मेदारी और कार्रवाई की संस्कृति को बढ़ावा देते हैं। 
    • स्कूल कार्यक्रम, जागरूकता अभियान और प्रोत्साहन पहल नागरिकों को संधारणीय अपशिष्ट प्रबंधन पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रेरित कर सकते हैं। 
    • स्थानीय स्वयं सहायता समूह जागरूकता फैलाने और अपशिष्ट संग्रहण अभियान आयोजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 
    • अलप्पुझा की ‘स्वच्छ शहर’ पहल, जिसने निवासियों को विकेंद्रीकृत अपशिष्ट प्रबंधन में शामिल किया, को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता प्राप्त हुई। 
  • उद्योग में प्लास्टिक के प्रयोग पर कानून बनाना और निगरानी करना: कृषि (प्लास्टिक मल्चिंग फिल्म) और लॉजिस्टिक्स जैसे उद्योग प्लास्टिक पर निर्भर करते हैं, जिसके लिये प्लास्टिक उत्सर्जन को न्यूनतम करते हुए इनके प्रयोग को अनुकूलतम बनाने के लिये क्षेत्र-विशिष्ट विनियमन की आवश्यकता होती है। 
    • कर प्रोत्साहन और अनिवार्य पुनर्चक्रण कोटा के माध्यम से उद्योगों को हल्के, पुनः प्रयोज्य या विघटनीय पैकेजिंग विकल्प अपनाने के लिये प्रोत्साहित करने से प्लास्टिक अपशिष्ट को कम करने में मदद मिल सकती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और वित्तपोषण को बढ़ावा देना: ज्ञान साझाकरण और अंतर्राष्ट्रीय हरित निधियों की सुलभता के लिये वैश्विक संगठनों के साथ सहयोग करने से अपशिष्ट प्रबंधन में नवाचार एवं बुनियादी अवसंरचना विकास को समर्थन मिल सकता है। 
    • ग्लोबल प्लास्टिक एक्शन पार्टनरशिप जैसी वैश्विक पहलों में भाग लेने से तकनीकी और वित्तीय सहायता मिलती है।
    • प्लास्टिक संधि के लिये अंतर-सरकारी वार्ता समिति में भारत की सक्रिय भागीदारी वैश्विक प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने की दिशा में एक प्रशंसनीय कदम है।

निष्कर्ष: 

भारत अपनी प्लास्टिक अपशिष्ट चुनौती से निपटने के लिये एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर है, जिसके लिये एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो आर्थिक अनिवार्यताओं को पर्यावरणीय स्थिरता के साथ संतुलित करे। आगे की राह सरकार, उद्योग और नागरिक समाज के बीच सहयोगात्मक प्रयासों की मांग करती है, जिसमें सर्कुलर इकोनॉमी/चक्रीय अर्थव्यवस्था समाधान विकसित करने एवं संधारणीय विकल्पों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। अंततः, प्लास्टिक अपशिष्ट के प्रबंधन में भारत की सफलता न केवल पर्यावरणीय जोखिमों को कम करेगी बल्कि देश को सतत् विकास में वैश्विक नेतृत्वकार के रूप में भी स्थापित करेगी।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. अनेक विनियामक उपायों के बावजूद, भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन को अभी भी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के कार्यान्वयन में प्रमुख मुद्दों का अभिनिर्धारण करते हुए चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसमें एक महत्त्वपूर्ण विशेषता के रूप में 'विस्तारित उत्पादक दायित्व' आरंभ किया गया था? (2019) 

(a) जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 1998
(b) पुनर्चक्रित प्लास्टिक (निर्माण और उपयोग) नियम, 1999
(c) ई-अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 2011
(d) खाद्य सुरक्षा और मानक विनियम, 2011  

उत्तर: (c) 


प्रश्न. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी.) किस प्रकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी.पी.सी.बी.) से भिन्न है? (2018)

  1. एन.जी.टी. का गठन एक अधिनियम द्वारा किया गया है जबकि सी.पी.सी.बी. का गठन सरकार के कार्यपालक आदेश से किया गया है।
  2. एन.जी.टी. पर्यावरणीय न्याय उपलब्ध कराता है और उच्चतर न्यायालयों में मुकदमों के भार को कम करने में सहायता करता है जबकि सी.पी.सी.बी. झरनों और कुँओं की सफाई को प्रोत्साहित करता है, तथा देश में वायु की गुणवत्ता में सुधार लाने का लक्ष्य रखता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (b) 


प्रश्न. पर्यावरण में निर्मुक्त हो जाने वाली 'सूक्ष्ममणिकाओं (माइक्रोबीड्स)' के विषय में अत्यधिक चिंता क्यों है? (2019)

(a) ये समुद्री पारितंत्रों के लिये हानिकारक मानी जाती हैं।
(b) ये बच्चों में त्वचा कैंसर होने का कारण मानी जाती हैं।
(c) ये इतनी छोटी होती हैं कि सिंचित क्षेत्रों में फसल पादपों द्वारा अवशोषित हो जाती हैं।
(d) अक्सर इनका इस्तेमाल खाद्य-पदार्थों में मिलावट के लिये किया जाता है।

उत्तर: (a) 


मेन्स

प्रश्न. निरंतर उत्पन्न किये जा रहे फेंके गए ठोस अपशिष्ट की विशाल मात्राओं का निस्तारण करने में क्या-क्या बाधाएँ हैं? हम अपने रहने योग्य परिवेश में जमा होते जा रहे जहरीले अपशिष्टों को सुरक्षित रूप से किस प्रकार हटा सकते हैं?  (2018)

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