सर्वोच्च न्यायालय में मामलों की अधिकता को कम करना | 30 Nov 2023
यह एडिटोरियल 28/11/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “It’s time to revamp the structure of the Supreme Court” लेख पर आधारित है। इसमें चर्चा की गई है कि समय आ गया है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना में सुधार किया जाए जो वर्तमान में देश में एकल शीर्ष न्यायालय है।
प्रिलिम्स के लिये:भारत सरकार अधिनियम, 1935, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 124, CJI, ई-फाइलिंग, भारत का विधि आयोग, जनहित याचिकाएँ, विशेष अनुमति याचिकाएँ (SLP), अनुच्छेद 145, अनुच्छेद 143, सर्वोच्च न्यायालय का विकास मेन्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामले: लंबित मामलों से संबंधित आँकड़े, लंबित मामलों के पीछे के कारण और लंबित मामलों को कम करने के लिये आगे की राह |
वर्तमान में न्यायिक प्रणाली में लंबित मामलों की बड़ी संख्या या ‘बैकलॉग’ की स्थिति पाई जाती है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय के 34 न्यायाधीशों के समक्ष 80,000 से अधिक मामले समाधान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह बैकलॉग एक उल्लेखनीय चुनौती को प्रकट करता है जिसने शीर्ष न्यायालय के भीतर संरचनात्मक सुधारों के बारंबार आह्वान को प्रेरित किया है। लंबित मामलों की विशाल संख्या न केवल मौजूदा न्यायिक अवसंरचना पर दबाव को उजागर करती है बल्कि एक अधिक कुशल एवं सुव्यवस्थित कानूनी प्रक्रिया की आवश्यकता को भी रेखांकित करती है।
हम सर्वोच्च न्यायालय के बारे में क्या जानते हैं?
- संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत स्थापित सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) देश का सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है।
- इसके पास संविधान की व्याख्या, कानूनों की वैधता और मूल अधिकारों की सुरक्षा से जुड़े मामलों को सुनने तथा उन पर निर्णय लेने की शक्ति है।
- यह सभी नागरिक और आपराधिक मामलों के लिये अपील की अंतिम अदालत के रूप में भी कार्य करता है।
- इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India- CJI) और 34 से अनधिक अन्य न्यायाधीश शामिल होते हैं, जिनकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के अपने नियम एवं प्रक्रियाएँ हैं और वह विभिन्न प्रकार के आदेश और निर्णय जारी कर सकता है।
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय का विकास कैसे हुआ?
- औपनिवेशिक काल के दौरान देश में तीन सर्वोच्च न्यायालय: बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में थे।
- भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 ने सर्वोच्च न्यायालयों को अलग-अलग क्षेत्रों के लिये उच्च न्यायालयों से प्रतिस्थापित कर दिया।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने प्रिवी काउंसिल और उच्च न्यायालयों के लिये एक अपीलीय निकाय के रूप में भारत के संघीय न्यायालय (Federal Court of India) का निर्माण किया।
- भारत ने 26 नवंबर, 1949 को अपना संविधान अंगीकृत किया जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। सर्वोच्च न्यायालय (जैसा इसका वर्तमान स्वरूप है) की स्थापना 28 जनवरी, 1950 को संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत भारत के स्वतंत्र और लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के दो दिन बाद की गई।
- अनुच्छेद 130 के तहत इसे दिल्ली में अधिविष्ट किया गया जो अभी भी इसका स्थान है।
- स्वतंत्रता के बाद स्थापित पहले सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश सहित आठ न्यायाधीश शामिल थे।
- साल-दर-साल कार्य के बढ़ते बोझ और अनसुने मुकदमों की बढ़ती संख्या के साथ भारतीय संसद ने न्यायाधीशों की संख्या वर्ष 1950 में 8 से बढ़ाकर 1956 में 11, 1960 में 14, 1978 में 18, 1986 में 26, 2009 में 31 और वर्ष 2019 में 34 कर दी।
- अनुच्छेद 124 के तहत संविधान संसद को सर्वोच्च न्यायालय की सदस्य संख्या बढ़ाने की शक्ति प्रदान करता है।
सर्वोच्च न्यायालय के कितने क्षेत्राधिकार हैं?
- संविधान के तहत भारत के सर्वोच्च न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार: मूल, अपीलीय और सलाहकारी हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय एक संवैधानिक न्यायालय (Constitutional Court) के साथ-साथ अपील न्यायालय (Court of Appeal) के रूप में भी कार्य करता है। न्यायालय अलग-अलग आकार की पीठ (benches) के रूप में मामले की सुनवाई करता है, जिसका निर्धारण भारत के मुख्य न्यायाधीश (जो ‘मास्टर ऑफ द रोस्टर’ है) के निर्देशों पर रजिस्ट्री द्वारा किया जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ (Constitution Benches) में आमतौर पर पाँच, सात या नौ न्यायाधीश शामिल होते हैं जो संवैधानिक विधि से संबंधित किसी विशिष्ट मुद्दे पर विचार-विमर्श करते हैं।
- संविधान के अनुच्छेद 145(3) में संविधान पीठ के गठन का उपबंध किया गया है।
- इसमें कहा गया है कि “जिस मामले में संविधान के निर्वचन के बारे में विधि का कोई सारवान प्रश्न अंतर्वलित है उसका विनिश्चय करने के प्रयोजन के लिये या अनुच्छेद 143 (जो राष्ट्रपति की परामर्श लेने की शक्ति से संबंधित है) के अधीन निर्देश की सुनवाई करने के प्रयोजन के लिये बैठने वाले न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या पाँच होगी।”
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कितने मामले लंबित हैं?
- राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों के अनुसार (सितंबर 2023 तक की स्थिति):
- सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों की संख्या 80,344 थी।
- इनमें से 78% दीवानी मामले हैं जबकि 22% आपराधिक मामले हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित मामलों की संख्या 80,344 थी।
- उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसके समक्ष अब तक दायर कुल 37,777 मामलों में से 36,164 का निपटारा वर्ष 2023 तक कर लिया था।
- सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित 4,000 से अधिक मामले एक दशक से अधिक समय से लंबित पड़े हैं।
लंबित मामलों की इस बड़ी संख्या के पीछे के प्रमुख क्या कारण हैं?
- न्यायाधीशों की कम संख्या: वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में 34 न्यायाधीश नियुक्त किये जा सकते हैं लेकिन अगस्त 2023 तक की स्थिति के अनुसार केवल 32 न्यायाधीश ही नियुक्त किये गए थे। इस प्रकार दो रिक्तियाँ मौजूद हैं जिन्हें तत्काल भरने की आवश्यकता है।
- भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात (judge-to-population ratio) भी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है।
- राज्यसभा में विधि मंत्री द्वारा प्रस्तुत उत्तर के अनुसार भारत में प्रति दस लाख जनसंख्या पर लगभग 21 न्यायाधीश मौजूद हैं।
- यह प्रति दस लाख लोगों पर 50 न्यायाधीशों के वैश्विक औसत से व्यापक रूप से कम है।
- इसके अलावा, न्यायालयों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम (collegium) द्वारा की जाने वाली अनुशंसाओं की पूर्ति में सरकार प्रायः देरी कर देती है।
- न्यायाधीशों की अनुपस्थिति: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को प्रायः विभिन्न आधिकारिक एवं गैर-आधिकारिक समारोहों (जैसे सम्मेलन, सेमिनार, उद्घाटन आदि) में भाग लेना पड़ता है, जिसमें उनका बहुमूल्य समय बर्बाद होता है और मामलों की सुनवाई के लिये उनकी उपलब्धता प्रभावित होती है।
- इसके अलावा, स्वास्थ्य, व्यक्तिगत या अवकाश जैसे विभिन्न कारणों से भी उनकी अनुपलब्धता की स्थिति बनती है।
- सर्वोच्च न्यायालय वार्षिक ग्रीष्मावकाश पर भी रहता है, जो आमतौर पर मई माह के अंत से सात सप्ताह की अवधि का होता है।
- भारत के विधि आयोग (Law Commission of India) की एक रिपोर्ट के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के पास अपने न्यायिक कार्यकरण के लिये वर्ष में 193 कार्यदिवस ही हैं।
- इसके अलावा, स्वास्थ्य, व्यक्तिगत या अवकाश जैसे विभिन्न कारणों से भी उनकी अनुपलब्धता की स्थिति बनती है।
- अवसंरचना की कमी: सर्वोच्च न्यायालय को कोर्ट रूम, कर्मचारी, प्रौद्योगिकी इत्यादि के रूप में पर्याप्त अवसंरचना की कमी का सामना करना पड़ता है, जो इसकी दक्षता एवं उत्पादकता को बाधित करता है।
- उदाहरण के लिये, सर्वोच्च न्यायालय में केवल 17 कोर्ट रूम मौजूद हैं, जो सभी पीठों और मामलों को समायोजित कर सकने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
- न्यायालय के कर्मचारियों को कम वेतन, खराब प्रशिक्षण और उच्च कार्यभार जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने मामलों के द्रुत और सुगम निपटान के लिये वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ई-फाइलिंग, डिजिटल लाइब्रेरी आदि जैसी आधुनिक प्रौद्योगिकियों का प्रयोग शुरू किया है, लेकिन वे आम जनता के बीच अधिक लोकप्रिय नहीं हैं।
- उच्च न्यायालयों से प्राप्त अपील: यह पाया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त अपीलों में से अधिकांश उन उच्च न्यायालयों से आए हैं जो सर्वोच्च न्यायालय के निकट स्थित हैं।
- अर्थात्, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय से प्राप्त अपीलें एक बड़ी हिस्सेदारी रखती हैं, जबकि दिल्ली में अवस्थित सर्वोच्च न्यायालय से दूर अवस्थित न्यायालयों से पहुँच एवं लागत संबंधी कठिनाइयों के कारण कम अपीलें दायर की गईं।
- निरर्थक/अगंभीर/तुच्छ मामले दायर करना: सर्वोच्च न्यायालय भारत में अपील का सर्वोच्च न्यायालय है और इसके पास देश में किसी भी न्यायालय या न्यायाधिकरण के किसी भी निर्णय या आदेश के विरुद्ध अपील सुनने की शक्ति है। हालाँकि, इस शक्ति का प्रायः उन वादियों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है जो सर्वोच्च न्यायालय में निरर्थक/अगंभीर/तुच्छ या तंग करने वाले अपील (frivolous or vexatious appeals) दायर करते हैं।
- अपने अत्यंत व्यापक क्षेत्राधिकार के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न निरर्थक जनहित याचिकाओं पर भी विचार किया है, जैसे कि कुरान से कुछ अंशों को हटाने या संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता को हटाने की मांग।
- ‘पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च’ (PRS Legislative Research) की एक रिपोर्ट के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2016 में दायर विशेष अनुमति याचिकाओं (Special Leave Petitions- SLPs) में से 86% को स्वीकार कर लिया था।
- यह न्याय तक पहुँच पर भारत के विधि आयोग के वर्ष 2009 की रिपोर्ट में अनुशंसित 25% की स्वीकृति दर से काफी अधिक है।
लंबित मामलों को कम करने के लिये कौन-से सुधार उपाय किये जाने चाहिये?
- सर्वोच्च न्यायालय को दो प्रभागों में विभाजित करना: भारत के 10वें विधि आयोग ने प्रस्तावित किया था कि सर्वोच्च न्यायालय को दो प्रभागों में विभाजित किया जाए: संवैधानिक प्रभाग और विधिक प्रभाग। प्रस्ताव में कहा गया कि केवल संवैधानिक विधि से संबंधित मामलों को ही प्रस्तावित संवैधानिक प्रभाग के समक्ष लाया जाए।
- इस प्रस्ताव को दोहराते हुए 11वें विधि आयोग ने वर्ष 1988 में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को पृथक भागों में विभाजित करने से न्याय अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध होगा और वादियों द्वारा भुगतान किये जाने वाले शुल्क में उल्लेखनीय कमी आएगी।
- SLPs के लिये एक राष्ट्रीय अपील न्यायालय की स्थापना करना: बिहार लीगल सपोर्ट सोसाइटी बनाम भारत के मुख्य न्यायाधीश (1986) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक राष्ट्रीय अपील न्यायालय (National Court of Appeal) की स्थापना करना ‘वांछनीय’ है जो विशेष अनुमति याचिकाओं पर विचार करने में सक्षम होगा। इससे सर्वोच्च न्यायालय को केवल संवैधानिक और सार्वजनिक कानून से संबंधित प्रश्नों पर विचार करने की अनुमति मिल सकेगी।
- सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठों की स्थापना करना: सर्वोच्च न्यायालय को और अधिक सुलभ बनाने की दिशा में एक कदम के रूप में 229वें विधि आयोग की वर्ष 2009 की रिपोर्ट में गैर-संवैधानिक मुद्दों की सुनवाई करने के लिये दिल्ली, चेन्नई या हैदराबाद, कोलकाता और मुंबई में चार क्षेत्रीय पीठें स्थापित करने की अनुशंसा की गई।
- इसने चार क्षेत्रीय पीठों में प्रत्येक क्षेत्र से छह न्यायाधीशों को अपीलीय उत्तरदायित्व सौंपने की सिफ़ारिश की, जबकि नई दिल्ली अवस्थित संविधान पीठ नियमित रूप से कार्य करती रहती।
- इसने कहा कि गैर-संवैधानिक मामलों के भारी बैकलॉग को क्षेत्रीय पीठों के बीच विभाजित कर सर्वोच्च न्यायालय “संवैधानिक मुद्दों और राष्ट्रीय महत्त्व के अन्य मामलों को दिन-प्रतिदिन के कार्यकरण के आधार पर निपटा सकता है।”
- कार्यदिवसों की संख्या बढ़ाना: मलिमथ समिति (Malimath Committee) ने सुझाव दिया कि लंबित मामलों की बड़ी संख्या को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के 206 कार्यदिवस होने चाहिये और इसकी अवकाश अवधि को 21 दिनों तक कम किया जाना चाहिये।
- वर्ष 2009 के विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में सुझाव दिया कि लंबित मामलों को कम करने में मदद करने के लिये न्यायपालिका के सभी स्तरों पर अवकाश अवधि में 10-15 दिनों की कटौती की जानी चाहिये।
- एक अंतिम अपील न्यायालय और एक स्थायी संविधान पीठ की स्थापना करना: एक अंतिम अपील न्यायालय और एक स्थायी संविधान पीठ के गठन के साथ सर्वोच्च न्यायालय के कार्य का बँटवारा किया जाना चाहिये।
- इससे संवैधानिक प्राधिकरण के तहत दायर मामलों को अपीलीय एवं समीक्षा क्षेत्राधिकार के तहत दायर मामलों से स्पष्ट रूप से पृथक कर अधिक न्यायिक स्थिरता एवं निरंतरता सुनिश्चित की जा सकेगी।
- अवसंरचना के लिये एक समर्पित प्राधिकरण स्थापित करना: भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (National Judicial Infrastructure Authority of India- NJIAI) स्थापित करने का प्रस्ताव रखा, जो न्यायिक अवसंरचना को बेहतर बनाने में मदद करेगा जिस पर वर्तमान में तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों का भारी बोझ तत्काल सुधारों की आवश्यकता को उजागर करता है। न्यायाधीशों की कमी, अपर्याप्त अवसंरचना और निरर्थक अपील जैसे मुद्दों को संबोधित करना अत्यंत आवश्यक है। कार्यदिवस की संख्या बढ़ाने, क्षेत्रीय पीठों की स्थापना करने और विशेष अदालतों संभावना तलाशने जैसे उपाय दक्षता एवं पहुँच को बढ़ा सकते हैं। इन सुधारों को अपनाने से भारत में अधिक संवेदनशील और प्रभावी न्यायपालिका का निर्माण किया जा सकता है।
अभ्यास प्रश्न: भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की बड़ी संख्या में योगदान देने वाले कारकों की चर्चा कीजिये। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विद्यमान चुनौतियों का समाधान करने के लिये आवश्यक प्रमुख सुधारों पर विचार कीजिये।
विधिक दृष्टिकोण:https://www.drishtijudiciary.com/hin/Important-institutions-organizations/supreme-court-of-india
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर:(c) मेन्सप्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |