भारतीय राजनीति
न्यायिक बहुसंख्यकवाद
- 03 Feb 2023
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प्रिलिम्स के लिये:न्यायिक बहुसंख्यकवाद, सर्वोच्च न्यायालय, विमुद्रीकरण, अनुच्छेद 145(5), अनुच्छेद 145(3)। मेन्स के लिये:न्यायिक बहुसंख्यकवाद, संबंधित चिंताएँ और समाधान। |
चर्चा में क्यों?
विमुद्रीकरण पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के संबंध में बड़ी संख्या में लोगों ने न्यायिक बहुसंख्यकवाद पर चिंता व्यक्त की है और केंद्र सरकार को भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) की संस्थागत सहमति को चुनौती देने की अल्पसंख्यक फैसले की सराहना की गई है।
न्यायिक बहुसंख्यकवाद:
- संख्यात्मक बहुमत उन मामलों के लिये विशेष महत्त्व रखता है जिनमें संवैधानिक प्रावधानों की पर्याप्त व्याख्या शामिल होती है।
- संविधान के अनुच्छेद 145(5) के अनुसार, कुछ परिस्थितियों में बहुमत के समर्थन के बिना कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता है और बहुमत की सहमति की आवश्यकता उत्पन्न होती है। यह न्यायाधीशों के लिये स्वतंत्र रूप से निर्णय या राय देने का भी प्रावधान करता है।
- संविधान के अनुच्छेद 145(3) के अनुसार, महत्त्वपूर्ण मामलों में पाँच या इससे अधिक न्यायाधीशों वाली संवैधानिक पीठों की स्थापना की जाती है। इस तरह की संविधान पीठ में न्यायाधीशों की संख्या आमतौर पर पाँच, सात, नौ, ग्यारह अथवा तेरह होती है।
चिंताएँ:
- डिनायल ऑफ मेरिट:
- एक महत्त्वपूर्ण अल्पसंख्यक फैसला कितना भी तर्कपूर्ण क्यों न हो, उसके परिणामों पर अधिक विचार नहीं किया जाता है।
- इस संदर्भ में एक उदाहरण खड़क सिंह बनाम यूपी राज्य मामला (1962) है जिसमें निजता के अधिकार को कायम रखने के संदर्भ में न्यायमूर्ति सुब्बा राव की राय महत्त्वपूर्ण है जिसके आधार पर के.एस. पुट्टास्वामी बनाम UOI (2017) मामले में अनुमोदन की न्यायिक मुहर लगाई गई।
- ए.डी.एम. जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल (1976) मामले में संवैधानिक विशिष्टता (Constitutional Exceptionalism) की स्थितियों के दौरान भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखने वाली न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना की असहमतिपूर्ण राय इस संदर्भ में एक प्रमुख उदाहरण है।
- यह तर्क दिया जाता है कि हमारे संवैधानिक न्यायालयों द्वारा न्यायिक निर्णयों में संख्यात्मक बहुमत को दिया गया वेटेज़ योग्यता के विपरीत है।
- एक महत्त्वपूर्ण अल्पसंख्यक फैसला कितना भी तर्कपूर्ण क्यों न हो, उसके परिणामों पर अधिक विचार नहीं किया जाता है।
- अस्पष्ट स्थितियाँ:
- एक विशेष खंडपीठ के सभी न्यायाधीश तथ्यों, कानूनों, तर्कों और लिखित प्रस्तुतियों के एक ही सेट पर अपना निर्णय सुनाते हैं। उसी के आलोक में न्यायिक निर्णयों में किसी भी अंतर के लिये या तो अपनाई गई कार्यप्रणाली या न्यायाधीशों द्वारा उनकी व्याख्या में दिये गए तर्क में भिन्नता को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
- ऐसी परिस्थितियों में यह संभव है कि बहुमत का निर्णय पद्धतिगत भ्रम और त्रुटि के कारण प्रभावित हो सकता है या उनके 'न्यायिक श्रेष्ठता' द्वारा सीमित हो सकता है।
- हेड काउंटिंग प्रक्रिया पर प्रश्न:
- एक अध्ययन में यह भी पाया गया कि जहाँ मुख्य न्यायाधीश पीठ का हिस्सा थे, वहाँ असहमति की दर उन मामलों की तुलना में कम थी जहाँ मुख्य न्यायाधीश खंडपीठ में शामिल नहीं थे।
- ऐसी स्थितियाँ राष्ट्रीय और संवैधानिक महत्त्व के मामलों पर न्यायिक निर्धारण के लिये हेड काउंटिंग प्रक्रियाओं की दक्षता एवं वांछनीयता पर सवाल उठाती हैं।
संभावित समाधान:
- एक ऐसी प्रणाली तैयार की जा सकती है जो वरिष्ठ न्यायाधीशों के मत को अधिक महत्त्व देती है, यह देखते हुए कि उनके पास अधिक अनुभव है या कनिष्ठ न्यायाधीशों को क्योंकि वे लोकप्रिय राय का बेहतर प्रतिनिधित्त्व कर सकते हैं। हालाँकि इस तरह के विकल्पों का पता केवल तभी लगाया जा सकता है जब हम न्यायिक निर्णय लेने में हेड-काउंटिंग के दायरे में आने वाले संदर्भों और तर्कों की पहचान करते हैं एवं उन पर सवाल उठाते हैं।
- न्यायिक बहुसंख्यकवाद पर आलोचनात्मक विमर्श का अभाव सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज़ के बारे में हमारी मौजूदा जानकारी में बुनियादी अंतराल का कारण हो सकता है।
- चूँकि लंबित संवैधानिक बेंच के मामले सुनवाई के लिये सूचीबद्ध हैं और निर्णय सुरक्षित हैं, अर्थात् न्यायिक बहुसंख्यकवाद के तर्कों पर विचार करना आवश्यक है जिसके आधार पर इन मामलों का फैसला किया जाना है।
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