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परंपरा का संरक्षण: जल्लीकट्टू पर ऐतिहासिक फैसला

  • 23 May 2023
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 19/05/2023 को ‘हिंदू बिजनेस लाइन’ में प्रकाशित ‘‘Supreme Court upholds Tamil Nadu law allowing jallikattu: What is this decade-old case?’’ लेख पर आधारित है। इसमें जल्लीकट्टू और इसी तरह के अन्य खेलों के संदर्भ में पशु अधिकारों और सांस्कृतिक परंपराओं के प्रसंग में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

जल्लीकट्टू अनुच्छेद 29, भारतीय पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए. नागराज मामला, पोंगल, कंबाला,

मेन्स के लिये:

जल्लीकट्टू का पारंपरिक और सांस्कृतिक महत्त्व, जल्लीकट्टू से जुड़े मुद्दे

दक्षिणी भारतीय राज्य तमिलनाडु समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएँ रखता है जिसके दर्शन उसके पर्व-त्योहारों और विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों में होते रहते हैं। ऐसे ही सांस्कृतिक आयोजनों में से एक है जल्लीकट्टू (Jallikattu) जो स्थानीय लोगों और आगंतुकों को समान रूप से लुभाता रहा है। साँडों (bull) को वश में करने का यह प्राचीन खेल, जिसका इतिहास लगभग 2000 वर्ष तक प्राचीन है, तमिलनाडु के लोगों के लिये गर्व और विरासत का प्रतीक रहा है।

  • हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य विधानसभाओं द्वारा पशु क्रूरता निवारण (Prevention of Cruelty to Animals- PCA) अधिनियम, 1960 में किये गए संशोधनों उचित करार दिया; इस प्रकार, जल्लीकट्टू, कंबाला (kambala) और बैलगाड़ी दौड़ जैसे खेलों को अनुमति प्रदान की।

जल्लीकट्टू क्या है?

  • जल्लीकट्टू, जिसे एरुथालुवुथल/एरुथाझुवुथल (eruthazhuvuthal) के नाम से भी जाना जाता है, साँडों को वश में करने का खेल है जिसमें प्रतियोगी पुरस्कार के लिये साँड को वश में करने का प्रयास करते हैं और यदि वे असफल होते हैं फिर साँड का मालिक पुरस्कार जीत जाता है।
  • जल्लीकट्टू जल्ली (Calli: coins) और कट्टू (tie) दो शब्दों से मिलकर बना है, जो साँड के सींगों पर सिक्कों के बंडल को जोड़ने की प्रथा को इंगित करता है।
  • इसे जनवरी के दूसरे सप्ताह में पोंगल (एक फसल त्यौहार) के दौरान आयोजित किया जाता है और यह प्रकृति का उत्सव मनाने तथा अच्छी फसल के लिये धन्यवाद ज्ञापित करने का भी प्रतीक है जहाँ पशु-पूजा भी अनुष्ठान का एक अंग है।
  • इसे तमिलनाडु के मदुरै, तिरुचिरापल्ली, थेनी, पुदुक्कोट्टई और डिंडीगुल ज़िलों में आयोजित किया जाता है, जिसे ‘जल्लीकट्टू बेल्ट’ के रूप में जाना जाता है।
  • जल्लीकट्टू का ऐतिहासिक महत्त्व 
  • जल्लीकट्टू सदियों से चली आ रही एक सुदीर्घ परंपरा रही है जिसकी उत्पत्ति का सूत्र मोहनजोदड़ो में पाई गई एक प्राचीन मुहर से भी जुड़ता है, जो लगभग 2,500 ईसा पूर्व से 1,800 ईसा पूर्व के बीच की मानी जाती है।
  • जल्लीकट्टू का संदर्भ संगम युग के प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य ‘शिलप्पादिकारम’ (Silappadikaram) में भी पाया जाता है।

निर्णय में क्या कहा गया है?

  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में कहा गया है कि जल्लीकट्टू पर वर्ष 2017 का संशोधन अधिनियम एवं नियम संविधान की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 17 (पशु क्रूरता का निवारण) और अनुच्छेद 51 A(g) (प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखना) के अनुरूप हैं
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि संशोधन अधिनियम ने इसमें भागीदारी करने वाले पशुओं की पीड़ा और उनके प्रति क्रूरता में उल्लेखनीय कमी की है।
    • न्यायालय ने कहा कि ‘सांस्कृतिक परंपरा’ के नाम पर वैधानिक कानून का कोई भी उल्लंघन (इस मामले में वर्ष 2017 का कानून) दंडात्मक कानून के दायरे में होगा।
  • याचिकाकर्ताओं ने यहाँ तक तर्क दिया था कि पशुओं को भी गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, लेकिन न्यायालय ने माना कि राज्य का कानून संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 का उल्लंघन नहीं करता है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि विधायिका द्वारा आयोजित ‘विधायी अभ्यास’ में पाया गया कि जल्लीकट्टू तमिलनाडु में पिछली कुछ शताब्दियों से आयोजित किया जा रहा है तथा इसकी सांस्कृतिक विरासत का अंग है और इसलिये वह विधायिका के दृष्टिकोण को बाधित नहीं करना चाहता है
  • घटनाक्रम की समयरेखा:
    • भारतीय पशु कल्याण बोर्ड ने सर्वोच्च न्यायालय को एक रिपोर्ट सौंपी जिसमें कहा गया कि जल्लीकट्टू पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के प्रावधानों के अनुरूप पशुओं के प्रति दयापूर्ण व्यवहार का अनुपालन नहीं करता है।
    • वर्ष 2006 में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा जल्लीकट्टू पर राज्यव्यापी प्रतिबंध लगाया गया था। इसके तुरंत बाद ही, राज्य सरकार द्वारा इस प्रतिबंध को अप्रभावी करने के लिये तमिलनाडु जल्लीकट्टू विनियमन अधिनियम 2009 (Tamil Nadu Regulation of Jallikattu Act of 2009) पेश किया गया था।
    • वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने उन पशुओं की सूची में साँडों/बैलों को भी शामिल करने का कदम उठाया, जिनके प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन पर प्रतिबंध है, जिससे जल्लीकट्टू पर रोक लग गई।
    • वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जल्लीकट्टू साँडों के प्रति क्रूरता के समान है और देश में साँडों को वश में करने तथा बैलगाड़ी दौड़ जैसे सभी खेलों पर प्रतिबंध लगा दिया
    • वर्ष 2016 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2011 की अपनी उस अधिसूचना को रद्द कर दिया, जिसके आधार पर शीर्ष न्यायालय ने प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था।
    • तमिलनाडु राज्य सरकार ने पशु क्रूरता निवारण (तमिलनाडु संशोधन) अधिनियम 2017 और पशु क्रूरता निवारण (जल्लीकट्टू का आयोजन) नियम 2017 पारित किया, जिससे एक बार फिर इस खेल के आयोजन के द्वार खुल गए।
    • फरवरी 2018 में भारतीय पशु कल्याण बोर्ड (AWBI) और PETA ने तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित वर्ष 2017 के कानूनों को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया

संघर्ष के क्या कारण थे?

  • परिचय:
    • 2000 के दशक की शुरुआत से ही जल्लीकट्टू पर राज्यव्यापी प्रतिबंध लगाने के लिये पशु अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा संघर्ष किया जा रहा है
    • वर्तमान मामले/केस में वादी के रूप में पशु कल्याण बोर्ड, पीपल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (PETA), कम्पैशन अनलिमिटेड प्लस एक्शन (CUPA), फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गनाइजेशन (FIAPO) और एनिमल इक्वेलिटी (Animal Equality) जबकि प्रतिवादी के रूप में भारत संघ और तमिलनाडु राज्य शामिल हैं।
      • वादियों ने वर्ष 2017 में तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित पशु क्रूरता निवारण अधिनियम में संशोधन को चुनौती देते हुए कुछ याचिकाएँ दायर की हैं।
  • जल्लीकट्टू के पक्ष में तर्क :
    • तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि सदियों पुरानी जल्लीकट्टू प्रथा एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है जिस पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध नहीं लगाया जाना चाहिये।
    • उनके अनुसार, समाज के विकास के साथ-साथ इस अभ्यास को विनियमित और संशोधित किया जा सकता है। इसके सांस्कृतिक महत्त्व को उच्च विद्यालय पाठ्यक्रम में पढ़ाया जा रहा है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिये संरक्षित रहे।
    • यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 29 (1) के तहत संरक्षित है।
    • जल्लीकट्टू को ‘‘पशुओं की इस मूल्यवान स्वदेशी नस्ल के संरक्षण के लिये एक साधन’’ बताते हुए सरकार ने तर्क दिया है कि यह पारंपरिक आयोजन दया भाव एवं मानवता के सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता है।
    • जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध को तमिलनाडु की संस्कृति और समुदाय के प्रति शत्रुता के रूप में देखा जाएगा।
  • विपक्ष में तर्क:
    • जल्लीकट्टू के विरोधियों का तर्क है कि पशु जीवन मानव जीवन से जुड़ा हुआ है और प्रत्येक जीवित प्राणी में अंतर्निहित स्वतंत्रता होती है जिसका सम्मान किया जाना चाहिये
    • उनका दावा है कि जल्लीकट्टू पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रतिबंध को निष्प्रभावी करने के लिये तमिलनाडु का कानून लाया गया था और इस प्रथा के परिणामस्वरूप मनुष्यों तथा साँडों दोनों के लिये मृत्यु एवं आघात की घटनाएँ सामने आई हैं।
    • आलोचकों का तर्क है कि भागीदार प्रतियोगियों द्वारा जिस तरह साँडों पर झपटा जाता है, वह ‘पशुओं के प्रति अत्यधिक क्रूरता’ को प्रकट करता है।
    • उनका तर्क है कि संस्कृति के अंग के रूप में जल्लीकट्टू का कोई औचित्य नहीं है और उन्होंने इसकी तुलना सती एवं दहेज जैसी प्रथाओं से की है, जिन्हें कभी संस्कृति के अंग के रूप में मान्यता दी गई थी, लेकिन बाद में कानून के माध्यम से उन्हें प्रतिबंधित किया गया।

निष्कर्ष:

  • जल्लीकट्टू, कंबाला और बैलगाड़ी दौड़ जैसे साँडों को वश में करने वाले खेलों की अनुमति देने का सर्वोच्च न्यायालय का हाल का निर्णय जारी बहस में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है।
  • जहाँ न्यायालय का निर्णय जल्लीकट्टू के सांस्कृतिक महत्त्व को मान्यता देता है, वहीं यह पशुओं के प्रति क्रूरता को रोकने और वैधानिक कानून को बनाए रखने के महत्त्व पर भी बल देता है।
  • सांस्कृतिक प्रथा और पशु कल्याण के बीच संतुलन बनाए रखना ही इस मामले में उपयुक्त दृष्टिकोण होगा, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में भी निहित है।

अभ्यास प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जल्लीकट्टू पर अपने पिछले निर्णय को, जहाँ इसे साँडों के प्रति क्रूर माना गया था और देश में साँडों को वश में करने एवं बैल दौड़ जैसे सभी खेलों को प्रतिबंधित कर दिया गया था, हाल के निर्णय में पलट देने का क्या महत्त्व है? इस परिप्रेक्ष्य में हाल के निर्णय का विश्लेषण कीजिये।

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