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भारतीय राजनीति

सशक्त विपक्ष की परिकल्पना

  • 11 Jul 2024
  • 18 min read

यह एडिटोरियल 09/07/2024 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Friction in Parliament reflects political reality” पर आधारित है। इसमें 18वीं लोकसभा में हुए एक महत्त्वपूर्ण बदलाव पर प्रकाश डाला गया है जहाँ सदन में विपक्ष अधिक मज़बूत हुआ है और बढ़ती संवीक्षा एवं मुखर विधायी गतिशीलता के बीच शिष्टाचार बनाए रखने की चुनौतियों पर विचार किया गया है।

प्रिलिम्स के लिये:

संसदीय समिति प्रणाली, विपक्ष के नेता (LOP), संसद, संसदीय विपक्ष, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, मुख्य सूचना आयुक्त, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, लोकपाल, प्रवर्तन निदेशालय (ED), चुनावी बॉण्ड

मेन्स के लिये:

भारत जैसे लोकतंत्र में संसद के समुचित संचालन के लिये विपक्ष का महत्त्व

हाल के वर्षों में एक बदलाव देखने को मिला है, जहाँ संसदीय कार्यवाही में सार्थक चर्चाओं के बजाय व्यवधान अधिक हावी हो रहे हैं। कृषि कानूनों जैसे महत्त्वपूर्ण विधेयकों पर आरोप लगाया गया कि उन्हें उत्साहहीन विपक्ष की सार्थक संवीक्षा के बिना ही पारित कर दिया गया और संसदीय समिति प्रणाली की वृहत रूप से उपेक्षा की गई।

एक कमज़ोर विपक्ष एक कमज़ोर सरकार की तुलना में अधिक जोखिम पैदा करता है, जिसके हानिकारक परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। एक कमज़ोर विपक्ष जनता के उस बड़े हिस्से की आवाज़ और मांगों का प्रतिनिधित्व करने में विफल रहता है, जो सत्तारूढ़ दल का समर्थन नहीं करती।

लोकसभा में 234 सदस्यों के साथ एक मज़बूत विपक्ष और मान्यता प्राप्त विपक्ष के नेता (LoP) की उपस्थिति (जो पद एक दशक से रिक्त रहा था) ने 18वीं लोकसभा में संसद के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को परिलक्षित किया है। 

“लोकतंत्र में विपक्ष को न केवल संवैधानिक होने के रूप में सहन किया जाता है, बल्कि इसे बनाए भी रखना चाहिये, क्योंकि यह अपरिहार्य है।” --- वाल्टर व्हिपमैन

‘विपक्ष का नेता’ क्या है?

  • संसद में विपक्ष का परिचय:
    • संसदीय विपक्ष सत्तारूढ़ सरकार को नियंत्रित करने के लिये, विशेष रूप से वेस्टमिंस्टर आधारित संसदीय प्रणालियों में, एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक उपस्थिति है।
    • ‘आधिकारिक/प्रमुख विपक्ष’ का दर्जा आमतौर पर सरकार के विपक्ष में मौजूद सबसे बड़े राजनीतिक दल को प्राप्त होता है, जिसके नेता को ‘विपक्ष का नेता’ कहा जाता है।
  • विपक्ष का नेता (Leader of Opposition- LoP)
    • सदन की कुल सदस्य संख्या की कम से कम 1/10 सीटें रखने वाले सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा दिया जाता है।
    • ‘विपक्ष का नेता’ कोई संवैधानिक पद नहीं है, बल्कि यह एक सांविधिक पद है।
      • विपक्ष के नेता शब्द को पहली बार संसद द्वारा ‘संसद में विपक्षी नेता - वेतन और भत्ता अधिनियम, 1977’ अधिनियम में परिभाषित किया गया था।
    • विपक्ष का नेता केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के निदेशक, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (CVC) एवं मुख्य सूचना आयुक्त (CIC), राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग  के अध्यक्ष एवं सदस्य, मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य चुनाव आयुक्त और लोकपाल जैसे प्रमुख पदों पर नियुक्ति के लिये उच्चाधिकार प्राप्त समितियों में विपक्ष का प्रतिनिधि होता है।

यूनाइटेड किंगडम के वेस्टमिंस्टर मॉडल में विपक्ष का नेता:

  • वेस्टमिंस्टर मॉडल में विपक्ष के नेता को ‘प्राइममिनिस्टर-इन-वेटिंग’ (Prime Minister-in-waiting) का दर्जा दिया जाता है और वह एक ‘शैडो कैबिनेट’ (shadow cabinet) का गठन करता है।
  • यह शैडो कैबिनेट या छाया मंत्रिमंडल सरकार की नीतियों की आलोचना करता है और वास्तविक मंत्रिमंडल के कार्यों को प्रतिबिंबित करते हुए वैकल्पिक रणनीतियाँ प्रस्तुत करता है।
  • विपक्ष के नेता के विभिन्न उत्तरदायित्वों में प्रभावी संसदीय कार्यप्रणाली सुनिश्चित करना, संसदीय चर्चाओं का नेतृत्व करना, सरकार से जवाबदेही की मांग करना और लोकतांत्रिक मानदंडों को बनाए रखना शामिल है।

भारत जैसे लोकतंत्र में विपक्ष का क्या महत्त्व है?

  • विपक्ष की महत्त्वपूर्ण भूमिका:
    • एक संरचनात्मक विपक्ष निवर्तमान सरकार की दोषपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों के विरुद्ध जनमत के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभा सकता है।
    • विपक्ष की प्राथमिक भूमिका में संसद, समितियों, मीडिया और जनता के बीच प्रतिदिन सरकार के कार्यों पर प्रतिक्रिया देना, प्रश्न उठाना और उनकी समीक्षा करना शामिल है।
    • यह सुनिश्चित करता है कि सरकार संवैधानिक मानदंडों का पालन करे और यह सत्तारूढ़ दल द्वारा प्रस्तावित नीतियों एवं कानूनों का आलोचनात्मक परीक्षण करता है।
    • संसद में विपक्ष न केवल सरकार के कार्यों की आलोचना करता है, बल्कि निर्वाचन क्षेत्र-विशिष्ट आवश्यकताओं की वकालत करने, संशोधन का प्रस्ताव करने और संसदीय प्रक्रियाओं का उपयोग कर आश्वासन की मांग करने में भी भूमिका निभाता है।
  • बेहतर संसदीय कार्यप्रणाली के लिये:
    • वर्तमान में संसदीय कार्यप्रणाली कई चुनौतियों का सामना कर रही है जो इस प्रकार हैं:
      • बैठकों की संख्या में कमी: हाल की लोकसभाओं में बैठक या सत्र के दिनों की संख्या में पूर्व की लोकसभाओं की तुलना में कमी आई है, जहाँ 16वीं और 17वीं लोकसभा में औसतन क्रमशः 66 और 55 दिन ही ऐसे सत्र आयोजित हुए।
      • निम्न उत्पादकता: 17वीं लोक सभा में अधिक सत्रों के आयोजन के बावजूद सदन में विधायी कार्य पर खर्च किये गए घंटों के मामले में उत्पादकता में तेज़ी से गिरावट आई। उदाहरण के लिये, वर्ष 2023 के शीतकालीन सत्र में कुल मिलाकर केवल 62 घंटे कार्य हुआ और विधेयकों पर 37 घंटे खर्च हुए, जबकि वर्ष 2019 के बजट सत्र में क्रमशः 281 घंटे और 125 घंटे कार्य हुए थे।
      • विधेयकों को पारित करने में कमी: 17वीं लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों की संख्या में इसके 15 सत्रों में क्रमिक गिरावट आई, जहाँ 2019 के बजट सत्र में 35 विधेयक पारित किये गए जबकि वर्ष 2023 के बजट सत्र में केवल छह विधेयक ही पारित हुए।
      • चर्चा समय में कमी: लोकसभा में एक तिहाई से अधिक विधेयक एक घंटे से भी कम की चर्चा के साथ पारित हो गए, जो इन विधेयकों की सीमित संवीक्षा को उजागर करता है।
      • संसदीय समितियों की घटती भूमिका: 17वीं लोकसभा में संसद में प्रस्तुत विधेयकों में से केवल 16% को ही विस्तृत संवीक्षा के लिये समितियों को भेजा गया, जो पूर्व की लोकसभाओं की तुलना में निम्न प्रतिशत को इंगित करता है। 
  • संसद की बेहतर उत्पादकता सुनिश्चित करने और उपर्युक्त चुनौतियों का समाधान करने में मज़बूत विपक्ष (संसद में अधिक प्रतिनिधित्व के साथ) की समान हिस्सेदारी होगी।

विपक्ष के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ:

  • संख्यात्मक अलाभ:
    • कई विपक्षी दलों को सत्तारूढ़ दल या गठबंधन की तुलना में संसद में पर्याप्त संख्याबल की कमी की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
      • उदाहरण के लिये, 16वीं और 17वीं लोकसभाओं में विपक्ष के नेता का पद रिक्त बना रहा क्योंकि कोई भी विपक्षी दल कम-से-कम 10% सदस्य संख्या के मानदंड को पूरा नहीं कर सकी।
    • इससे विधायी परिणामों को प्रभावित करने, समिति की सदस्यता सुरक्षित करने और सरकारी नीतियों को प्रभावी ढंग से चुनौती देने की उनकी क्षमता प्रभावित हुई।
    • 8वीं लोकसभा में यह परिदृश्य बद1ला हुआ नज़र आता है लेकिन क्षेत्रीय आकांक्षाओं को व्यक्त कर सकने के लिये संख्या के हिसाब से क्षेत्रीय दलों का प्रतिनिधित्व अभी भी एक मुद्दा है।
  • विखंडन और वैचारिक विविधता:
    • भारत में विपक्ष विखंडित और अकुशल तरीके से संगठित रहा है, जिसके कारण संसद के अंदर और बाहर उठाए जा सकने वाले साझा न्यूनतम कार्यक्रम का अभाव है।
    • विपक्षी नेताओं के बीच आंतरिक प्रतिद्वंद्विता और एकजुटता की कमी सत्तारूढ़ दल को चुनौती देने में उनकी सामूहिक प्रभावशीलता को कमज़ोर कर सकती है।
    • इसके अलावा, भारतीय विपक्षी दल प्रायः विभिन्न विचारधाराओं, क्षेत्रीय हितों और एजेंडों के कारण विखंडित हो जाते हैं, जिससे एकजुट विपक्षी आख्यान प्रस्तुत करने तथा सरकार के विरुद्ध एकीकृत रणनीतियों का समन्वय करने में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है।
  • प्रतिशोधात्मक राजनीति का प्रचलन:
    • यह आरोप लगाया जाता है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियों, नियामक निकायों और चुनावी मशीनरी सहित विभिन्न राज्य संस्थाओं पर सत्तारूढ़ पार्टी का नियंत्रण विपक्षी दलों के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।
    • इससे पक्षपातपूर्ण प्रवर्तन, चुनावी कदाचार तथा विपक्षी दलों की गतिविधियों को कमज़ोर करने के लिये राज्य की शक्ति के दुरुपयोग के आरोप लग सकते हैं।
      • उदाहरण के लिये, राजनीतिक दलों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के अनुसार केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) और प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा जाँच के दायरे में लिये गए लगभग 95% राजनीतिक नेता विपक्षी दलों के हैं।
  • वित्तीय एवं संगठनात्मक बाधाएँ:
    • विपक्षी दल, विशेषकर छोटे दल, प्रायः सीमित वित्तीय संसाधनों और संगठनात्मक क्षमता के साथ संघर्षरत होते हैं।
      • उदाहरण के लिये, हाल में आयोजित लोकसभा या राज्य विधानसभा चुनावों में कम से कम 1% मत हासिल करने वाले राजनीतिक दल चुनावी बॉण्ड के माध्यम से दान लेने के पात्र थे (हालाँकि इसे हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया गया)।
    • इससे ज़मीनी स्तर पर समर्थन जुटाने, प्रभावी चुनाव अभियान चलाने और पूरे चुनाव चक्र के दौरान राजनीतिक गतिविधियों को बनाए रखने की उनकी क्षमता बाधित होती है।
  • मीडिया और सार्वजनिक मंचों तक सीमित पहुँच:
    • सत्तारूढ़ दल को आमतौर पर मुख्यधारा के मीडिया और संचार के लिये सरकार-नियंत्रित प्लेटफॉर्मों तक अधिक पहुँच प्राप्त होती है।
    • विपक्षी दलों को अपने संदेशों का प्रसार करने, सरकार के दावों का प्रतिवाद करने और सार्वजनिक विमर्श में समान दृश्यता प्राप्त करने में चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
  • विधायी एवं प्रक्रियात्मक बाधाएँ:
    • विपक्षी दलों को प्रायः संसद में प्रक्रियागत बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जैसे बोलने का सीमित समय, बहस के अवसरों में कमी और विपक्षी प्रस्तावों को खारिज कर दिया जाना।
    • इससे विधान की संवीक्षा करने, संशोधन प्रस्तावित करने और सरकार को प्रभावी ढंग से जवाबदेह ठहराने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।

आगे की राह:

  • गठबंधन का निर्माण: सामूहिक रूप से संख्यात्मक शक्ति बढ़ाने और सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के विरुद्ध एकीकृत मोर्चा बनाने के लिये विपक्षी दलों द्वारा गठबंधन को मज़बूत करना आम लोगों की चिंताओं की अभिव्यक्ति में मदद कर सकता है।
  • संसदीय निगरानी को सशक्त बनाना: विपक्षी दल संसदीय समितियों, बहसों और विधायी संवीक्षा में सक्रिय रूप से भाग लेकर संसदीय निगरानी तंत्र को मज़बूत बना सकते हैं।
  • संगठनात्मक क्षमता में वृद्धि करना: वे मज़बूत संगठनात्मक संरचनाओं के निर्माण, आउटरीच क्षमताओं को बढ़ाने और ज़मीनी स्तर पर संपर्क में सुधार पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
  • समान मीडिया कवरेज: दूरदर्शन और आकाशवाणी जैसे राज्य स्वामित्व वाले मीडिया चैनलों द्वारा समान कवरेज प्रदान करना।
  • डिजिटल और वैकल्पिक मीडिया का उपयोग: विपक्ष के संदेशों को व्यापक रूप से लोगों तक पहुँचाने के लिये डिजिटल प्लेटफॉर्म और वैकल्पिक मीडिया चैनलों का उपयोग किया जा सकता है।
  • जनमत से संलग्नता: नियमित संवाद, बैठकों और सार्वजनिक परामर्श के माध्यम से जनमत से जुड़ने को प्राथमिकता दी जाए।
  • चुनावी सुधारों की वकालत करना: चुनावी सुधारों की वकालत की जाए जो चुनावी प्रक्रियाओं में पारदर्शिता, निष्पक्षता और न्यायसंगत पहुँच को बढ़ावा देते हैं।
  • चुनावों के लिये  राज्य द्वारा वित्तपोषण करने जैसे सुधार (जिसकी अनुशंसा इंद्रजीत गुप्ता समिति ने की थी) राजनीतिक दलों के लिये  समान अवसर उपलब्ध कराएँगे।

अभ्यास प्रश्न: एक मज़बूत विपक्ष प्रभावी शासन और जवाबदेही में किस प्रकार योगदान देता है? अपनी संवैधानिक भूमिका निभाने में विपक्षी दलों के समक्ष विद्यमान चुनौतियों पर प्रकाश डालिये और भारतीय राजनीतिक संदर्भ में उनकी प्रभावशीलता को सशक्त करने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनाें पर विचार कीजिये:

  1. पहली लोक सभा में विपक्ष में सबसे बड़ा राजनीतिक दल स्वतंत्र पार्टी था। लोक स
  2. भा में ‘‘नेता-प्रतिपक्ष’’ को सर्वप्रथम 1969 में मान्यता दी गई थी। 
  3. लोक सभा में यदि किसी दल के न्यूनतम 75 सदस्य न हों तो उसके नेता को नेता-प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता नहीं मिल सकती है।

उपर्युत्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)

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