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भारतीय राजनीति

संघीय भारत के समक्ष चुनौतियाँ

  • 25 Jan 2022
  • 10 min read

यह एडिटोरियल ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “The Missing Federal Spirit” लेख पर आधारित है। इसमें भारत की संघीय भावना से संबद्ध चुनौतियों पर चर्चा की गई है।

26 जनवरी, 1950 को जब भारतीय संविधान लागू हुआ तो यह एक ऐसे राष्ट्र के लिये एक बड़ा कदम था जो न्याय, समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के आदर्शों की प्राप्ति की लालसा रखता था।

उपमहाद्वीपीय प्रकृति के देश में यह आवश्यक है कि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित आदर्श शासन के सभी स्तरों तक विस्तारित हों। संविधान में समता पर दिया गया समग्र ज़ोर संघीय भावना और विचारों के ईर्द-गिर्द निर्मित सभी व्यवस्थाओं में नज़र आता है।

विभिन्न राज्यों की आबादी की अलग-अलग आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संविधान के प्रारूपकारों ने सरकारों के विभिन्न स्तरों पर शक्तियों और उत्तरदायित्वों के न्यायसंगत हिस्सेदारी के प्रावधान किये। दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में भारत में संघीय व्यवस्था और संस्थानों पर सबसे गहरे हमले हुए हैं।

भारत की संघीय संरचना

  • भारतीय संघवाद की प्रकृति: संघीय सिद्धांतकार के.सी. व्हेयर ने तर्क दिया है कि भारतीय संविधान की प्रकृति अर्द्ध-संघीय (Quasi-federal) है।
    • सतपाल बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1969) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि भारत का संविधान संघीय या एकात्मक की तुलना में अर्द्ध-संघीय अधिक है।
  • संघवाद सुनिश्चित करने हेतु संवैधानिक प्रावधान: राज्यों और केंद्र की संबंधित विधायी शक्तियाँ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 245 से 254 तक वर्णित हैं।
    • 7वीं अनुसूची में शामिल सूचियाँ—संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची भी शक्तियों के न्यायसंगत वितरण की पुष्टि करती हैं, जहाँ सरकार के प्रत्येक स्तर का अपना अधिकार क्षेत्र निश्चित है जो उन्हें संदर्भ-संवेदनशील निर्णयन (Context Sensitive Decision-making) में सक्षम बनाता है।
    • अनुच्छेद 263 में संघ और राज्यों के बीच व्यवहार के सुचारू संक्रमण और विवादों के समाधान के लिये एक अंतर-राज्य परिषद (Inter-State Council ) की स्थापना का उपबंध किया गया है।
    • अनुच्छेद 280 में संघ और राज्यों के बीच वित्तीय संबंधों और शर्तों को परिभाषित करने हेतु वित्त आयोग (Finance Commission) के गठन का प्रावधान किया गया है।
    • इसके साथ ही, ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिये 73वें और 74वें संशोधनों के माध्यम से स्थानीय स्वशासन निकायों के गठन के प्रावधान शामिल किये गए।
  • संघवाद को महत्त्व देते संस्थान: पूर्ववर्ती योजना आयोग के पास राज्यव्यवस्था की संघीय प्रकृति से संबंधित मुद्दों पर चर्चा के लिये हमेशा एक अवसर रहता था और वह राज्यों की विभिन्न विकासात्मक आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील रहा था।
    • अंतर-राज्य न्यायाधिकरण (Inter-State Tribunals), राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council) और अन्य कई अनौपचारिक निकायों ने संघ, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के बीच परामर्श के माध्यम के रूप में कार्य किया है।
    • इन निकायों ने संघ और राज्यों के बीच सहकारी भावना को बनाए रखते हुए विचार-विमर्श के माध्यम से कठिन समस्याओं से लोकतांत्रिक तरीके से निपटने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भारत की संघीय भावना को बनाए रखने के मार्ग में आने वाली चुनौतियाँ

  • कई निकायों का अप्रभावी कार्यकरण: योजना आयोग को समाप्त कर दिया गया है, पिछले सात वर्षों में अंतर-राज्य परिषद की केवल एक बार बैठक हुई है और राष्ट्रीय विकास परिषद की कोई बैठक ही नहीं हुई है।
    • इस घटनाक्रम ने संघ और राज्यों के बीच सहकारी भावना को बनाए रखने में बाधा उत्पन्न की है।
  • कर व्यवस्था की समस्याएँ: दोषपूर्ण वस्तु एवं सेवा कर (GST) ने पहले ही राज्यों को उपलब्ध अधिकांश स्वायत्तता का हरण कर लिया है और देश की अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था को उसकी प्रकृति में एकात्मक बना दिया है।
    • GST व्यवस्था के अंतर्गत राज्यों को प्राप्त मुआवज़े की गारंटी का महामारी काल में केंद्र सरकार द्वारा बार-बार उल्लंघन किया गया। राज्यों को उनके बकाया का भुगतान करने में देरी से आर्थिक मंदी का प्रभाव और सघन हुआ।
  • राज्य सूची के मामले में राज्यों की स्वायत्तता का अतिक्रमण: पिछले कुछ वर्षों में संबंधित राज्यों को संदर्भित किये और उनका परामर्श लिये बिना केंद्र सरकार के स्तर से कई महत्त्वपूर्ण एवं राजनीतिक रूप से संवेदनशील निर्णय लिये गए हैं, जैसे:
  • कोविड-19 का प्रभाव: राज्यों को कोविड-19 प्रबंधन से संबंधित विभिन्न पहलुओं, जैसे परीक्षण किटों की खरीद, टीकाकरण, आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के उपयोग और अनियोजित राष्ट्रीय लॉकडाउन में बेहद सीमित भूमिका ही सौंपी गई।

आगे की राह

  • संघवाद को महत्त्व देना: यह रेखांकित किया जाना चाहिये कि संविधान का अनुच्छेद 1 घोषित करता है कि "इंडिया यानी भारत राज्यों का संघ होगा" और इसलिये ऐसी व्यवस्था में शक्तियों का हस्तांतरण आवश्यक है।
    • भारत के राष्ट्रीय चरित्र की रक्षा के लिये भारत की राजव्यवस्था के संघीय स्वरूप को सचेत रूप से महत्त्व देना आवश्यक है।
    • दूसरे के संघीय अधिकारों को हड़पने की कोशिश करने वालों के विरुद्ध सभी स्तरों पर संघर्ष छेड़ा जाना चाहिये, चाहे वह राज्यों के विरुद्ध स्थानीय सरकार का हो या केंद्र के विरुद्ध राज्य सरकार का।
  • अंतर-राज्यीय संबंधों को मज़बूत बनाना: राज्य सरकारों को विशेष रूप से संघवाद के कोण पर ध्यान केंद्रित करते हुए मानव संसाधनों की तैयारी पर विचार करना चाहिये जो केंद्र द्वारा प्रस्तुत परामर्श प्रक्रियाओं में जवाब तैयार करने में उनका समर्थन कर सके।
    • केवल संकट की स्थिति में एक-दूसरे तक पहुँचने के बजाय मुख्यमंत्रियों को इस मुद्दे पर नियमित संलग्नता के लिये एक मंच का निर्माण करना चाहिये
      • यह GST मुआवजे का विस्तार वर्ष 2027 तक करने और करों के विभाज्य पूल में उपकर (cess) को शामिल करने जैसी प्रमुख माँगों की पैरवी में महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा।
  • संघवाद में संतुलन के साथ सुधारों को लागू करना: भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में संघवाद के स्तंभों (राज्यों की स्वायत्तता, केंद्रीकरण, क्षेत्रीयकरण आदि) के बीच एक उचित संतुलन की आवश्यकता है। अत्यधिक राजनीतिक केंद्रीकरण या अराजक राजनीतिक विकेंद्रीकरण से बचना चाहिये क्योंकि दोनों ही भारतीय संघवाद को कमज़ोर बनाते हैं।
    • विवादास्पद नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक सद्भावना विकसित करने के लिये अंतर-राज्य परिषद के संस्थागत तंत्र का उचित उपयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिये। 

अभ्यास प्रश्न: भारत के संघीय ढाँचे से संबंधित चुनौतियों की चर्चा कीजिये।

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