मानसून के नवीन प्रतिरूप के प्रति अनुकूलन | 29 Jun 2024
यह एडिटोरियल 25/06/2024 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Learning to live with shifts in monsoon” लेख पर आधारित है। इसमें कृषि चक्रों को प्रभावित कर रहे अनियमित मानसून पैटर्न की चर्चा की गई है, जिसकी गंभीरता जलवायु संकट से प्रेरित देरी और परिवर्तनशील वर्षा से और भी बढ़ जाती है। इस परिदृश्य में जल प्रबंधन और कृषि पद्धतियों में तत्काल अनुकूलन की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।
प्रिलिम्स के लिये:भारत का मानसून पैटर्न, पश्चिमी विक्षोभ, आर्कटिक सागर की बर्फ पिघलना, अल नीनो और ला नीना, खरीफ फसलें, सिंचाई, वेक्टर जनित रोग, CRISPR प्रौद्योगिकी। मेन्स के लिये:भारत के लिये मानसून का महत्त्व, भारत के लिये बदलते मानसून प्रारूप के निहितार्थ। |
भारत के मानसून पैटर्न में महत्त्वपूर्ण बदलाव हो रहा है, जहाँ मानसून के देर से आगमन, जून माह में सामान्य से कम वर्षा, जुलाई में आकर मानसून की सामान्य शुरुआत और सितंबर में लगातार भारी वर्षा जैसी घटनाएँ देखी जाती हैं। इस वर्ष का मानसून भी इसी प्रवृत्ति की पुष्टि करता है, जो देश के अधिकांश भू-भागों में देरी से पहुँचा और धीरे-धीरे आगे बढ़ा। हालाँकि इसके सटीक कारणों को पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है, लेकिन माना जाता है कि पश्चिमी विक्षोभ में देरी और आर्कटिक सागर की बर्फ पिघलने जैसे जलवायु परिवर्तन संबंधी कारकों की इसमें भूमिका रही है। मानसून का नया पैटर्न अनियमित वर्षा वितरण, अधिक अवधि तक शुष्क दिन और असामान्य रूप से उच्च रात्रि तापमान जैसे परिदृश्य उत्पन्न कर रहा है, जो पूरे देश में कृषि और जल प्रबंधन के लिये गंभीर चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है।
इस उभरते परिदृश्य में किसानों को आर्थिक क्षति से बचाने के लिये तत्काल शमन उपायों और जल प्रबंधन के लिये (विशेषकर उन जलाशयों के लिये जो ग्रीष्मकाल में मैदानी इलाकों में पेयजल की आपूर्ति करते हैं) दीर्घकालिक अनुकूलन रणनीतियों की आवश्यकता है। जलवायु संकट इन उभरते खतरों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर नीतियों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है।
भारत के लिये मानसून का क्या महत्त्व है?
- कृषि का आधार: मानसून भारतीय कृषि की जीवनरेखा है। 61% भारतीय किसान खेती के लिये वर्षा पर निर्भर हैं, इसलिये मानसून प्रत्यक्ष रूप से खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका को प्रभावित करता है।
- भारत के कुल बुवाई क्षेत्र (139.42 मिलियन हेक्टेयर) के वर्षा पर निर्भर 55% भाग के लिये एक सुवितरित मानसून अत्यंत आवश्यक है, जो देश की 40 प्रमुख फसलों में से 34 को समर्थन प्रदान करता है।
- मानसून वर्षा पर यह भारी निर्भरता इसे कृषि उत्पादकता और समग्र रूप से राष्ट्र के आर्थिक स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक बनाती है।
- जल संसाधन प्रबंधन: भारत में वार्षिक वर्षा का 70-90% भाग मानसून के चार माह (जून से सितंबर) के दौरान प्राप्त होता है।
- वर्षा की यह संकेंद्रित अवधि नदियों, झीलों और भूजल भंडारों सहित विभिन्न जल निकायों को पुनः भरने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- मानसून जल संसाधन प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और पूरे वर्ष सिंचाई क्षमता, पेयजल उपलब्धता और जलविद्युत उत्पादन को प्रभावित करता है।
- आर्थिक ‘रिपल इफेक्ट’: मानसून का प्रभाव कृषि केवल कृषि तक ही सीमित नहीं है। एक अच्छा मानसून वर्ष आम तौर पर ग्रामीण आय को बढ़ाता है, जिससे उपभोक्ता वस्तुओं, ऑटोमोबाइल और सेवाओं की मांग में वृद्धि होती है।
- इसके विपरीत, खराब मानसून से मुद्रास्फीति बढ़ सकती है, विशेषकर खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि हो सकती है, जिससे संपूर्ण अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है।
- मानसून का प्रदर्शन प्रायः मौद्रिक नीति निर्णयों और सरकारी व्यय प्राथमिकताओं को प्रभावित करता है।
- “मानसून ही भारत का वास्तविक वित्त मंत्री है’’ - प्रणब मुखर्जी
- पारिस्थितिकी संतुलन: भारत के विविध पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिये मानसून अत्यंत आवश्यक है। यह वनों, आर्द्रभूमि और अन्य प्राकृतिक पर्यावासों का पोषण कर देश की जैव विविधता का समर्थन करता है।
- मानसून की समयरेखा और तीव्रता वन्यजीव प्रवास पैटर्न, प्रजनन चक्र और समग्र पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।
- मानसून पैटर्न में किसी भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का भारत के वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के लिये दूरगामी परिणाम उत्पन्न हो सकता है।
- जलवायु विनियमन: भारतीय मानसून प्रणाली वैश्विक जलवायु विनियमन का एक प्रमुख घटक है। यह भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं रहते हुए उससे आगे भी वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न को प्रभावित करता है।
- अल नीनो और ला नीना जैसी घटनाओं के साथ मानसून की अंतर्क्रिया का एशिया भर में और यहाँ तक कि वैश्विक स्तर पर मौसम के पैटर्न पर प्रभाव पड़ता है।
- सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व: भारत में मानसून पर्यावरणीय और आर्थिक महत्त्व के अलावा गहन सांस्कृतिक महत्त्व भी रखता है।
- यह विभिन्न त्योहारों (जैसे पोंगल, बैसाखी), परंपराओं और यहाँ तक कि लोक संगीत (जैसे पुरवईया) और साहित्य को भी प्रभावित करता है।
- भारतीय संस्कृति में मानसून के आगमन का सहस्राब्दियों से उत्सव मनाया जाता रहा है और इसने देश की सामाजिक प्रथाओं एवं सामुदायिक अनुष्ठानों को आकार प्रदान किया है।
भारत के लिये बदलते मानसून पैटर्न के क्या निहितार्थ हैं?
- कृषि में व्यवधान: मानसून पैटर्न में परिवर्तन से पारंपरिक फसल चक्र बाधित होता है, जिससे पैदावार में कमी आती है और फसल विफलताएँ बढ़ती हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2018 में मध्य और उत्तर भारत में मानसून में देरी के कारण खरीफ की बुवाई में 9.7% की कमी आई थी।
- ये परिवर्तन भारत भर में लाखों किसानों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।
- जल की कमी और प्रबंधन संबंधी चुनौतियाँ: अनियमित मानसून से जल की कमी की समस्या बढ़ जाती है, जिससे सतह जल और भूजल दोनों संसाधनों पर दबाव पड़ता है।
- वर्ष 2019 में चेन्नई को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ा जब मानसून की विफलता के कारण इसके चार प्रमुख जलाशय सूख गए।
- वर्ष 2023 का मानसून भारत के 150 प्रमुख जलाशयों की क्षमता के केवल 74% जल भंडारण की ही पूर्ति कर सका।
- आर्थिक प्रभाव: भारत में बढ़ते तापमान और मानसून वर्षा के बदलते पैटर्न के कारण जलवायु परिवर्तन से भारतीय अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद के 2.8% तक की हानि हो सकती है।
- किसानों के लिये बढ़ी हुई लागत (सिंचाई, फसल बीमा आदि) के कारण ग्रामीण ऋण में वृद्धि हो सकती है और ग्रामीण-शहरी प्रवास पैटर्न में संभावित बदलाव आ सकता है।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ: मानसून पैटर्न में बदलाव से मलेरिया और डेंगू जैसी वेक्टर-जनित बीमारियों के वितरण में परिवर्तन हो सकता है। बाढ़ के बढ़ते जोखिम से जल जनित बीमारियाँ बढ़ सकती हैं, जबकि खाद्य असुरक्षा पोषण के स्तर को प्रभावित कर सकती है।
- जलवायु-संबंधी तनाव और आर्थिक अनिश्चितताओं के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव में वृद्धि हो सकती है।
- जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन: मानसून पैटर्न में परिवर्तन से पर्यावासों में परिवर्तन हो सकता है, जिससे वनस्पतियों और जीव-जंतुओं का वितरण प्रभावित हो सकता है।
- जैव विविधता के ‘हॉटस्पॉट’ रहे पश्चिमी घाट में पिछले शताब्दी में वर्षा में गिरावट देखी गई है, जिससे इसका विशिष्ट पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हुआ है।
- सुंदरवन में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन और समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण लवणता बढ़ गई है, जिससे मैंग्रोव वनों और लुप्तप्राय बंगाल बाघों की आबादी के लिये खतरा उत्पन्न हो गया है।
- मानसून पर निर्भर ऊर्जा उत्पादन पर प्रभाव: भारत का जलविद्युत उत्पादन, जो कुल विद्युत उत्पादन में लगभग 12% का योगदान देता है, बदलते मानसून पैटर्न के कारण अनिश्चितता का सामना कर रहा है।
- जलाशय स्तर में उतार-चढ़ाव से न केवल विद्युत उत्पादन प्रभावित होता है, बल्कि ग्रिड स्थिरता भी प्रभावित होती है, जिससे भारत के नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को चुनौती मिलती है और भारत के ऊर्जा मिश्रण का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है।
- उदाहरण के लिये, भारत के दक्षिणी क्षेत्र में, जो कुल जल विद्युत उत्पादन में लगभग 22% का योगदान देता है , वर्षा की कमी ने वास्तविक रूप से वर्ष 2023-24 में जल विद्युत क्षमता में कमी लाने में भूमिका निभाई है।
- पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों पर प्रभाव: स्वदेशी और स्थानीय ज्ञान प्रणालियाँ, जो पूर्वानुमानित मानसून पैटर्न के आधार पर लंबे समय से कृषि एवं जल प्रबंधन अभ्यासों को निर्देशित करती रही हैं, कम विश्वसनीय होती जा रही हैं।
- पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान का यह क्षरण सांस्कृतिक क्षरण और संवहनीय संसाधन प्रबंधन अभ्यासों में कमी की चुनौती प्रस्तुत करता है।
भारत किस प्रकार बदलते मानसून पैटर्न के अनुकूल बन सकता है?
- विकेंद्रीकृत जलवायु अनुकूलन: भारत के विशाल जलवायु अनुकूलन को विकेंद्रीत करने की आवश्यकता है, जिसके लिये प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश को जलवायु जोखिमों का आकलन करने तथा शमन एवं अनुकूलन रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है।
- देश के सभी 766 ज़िलों को सूक्ष्म जलवायु परिवर्तन और सामाजिक-आर्थिक आँकड़ों के आधार पर योजनाएँ बनानी चाहिये, जिसमें फसल बीमा, बिजली आपूर्ति और भूजल गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना चाहिये।
- इस वर्ष जोखिम-सूचित ग्रीष्म कार्ययोजना विकसित करने में महाराष्ट्र के ठाणे के लिये CEEW का सहयोग अन्य क्षेत्रों के लिये एक मॉडल बन सकता है।
- अनुकूली फसल आनुवंशिकी और जैव इंजीनियरिंग: उन्नत आनुवंशिक इंजीनियरिंग और CRISPR प्रौद्योगिकी के माध्यम से जलवायु-प्रत्यास्थी फसल किस्मों का विकास किया जाए।
- बेहतर जल-उपयोग दक्षता, ताप सहनशीलता और अल्पावधिक या दीर्घावधिक मौसम में विकास करने की क्षमता रखने वाली फसलें उगाई जाएँ।
- अनुकूल किस्मों का एक ‘राष्ट्रीय बीज बैंक’ स्थापित किया जाए और कृषि जैव विविधता को बनाए रखने के लिये विकेंद्रित एवं सामुदायिक नेतृत्व वाले बीज संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा दिया जाए।
- परिशुद्ध कृषि और AI-संचालित खेती: समयबद्ध फसल एवं मृदा निगरानी के लिये IoT सेंसर, ड्रोन और उपग्रह इमेजिंग के बड़े पैमाने पर उपयोग को लागू किया जाए।
- मौसम पूर्वानुमान के साथ ही डेटा के विश्लेषण करने के लिये AI का उपयोग किया जाए ताकि किसानों को स्थानीय एवं फसल-विशिष्ट अनुशंसाएँ प्रदान की जा सकें।
- ऐसे AI मॉडल विकसित किये जाएँ जो बदलते मानसून पैटर्न के आधार पर इष्टतम रोपण समय और फसल विकल्पों का पूर्वानुमान व्यक्त कर सकें।
- भारतीय मानसून डेटा सम्मिलन और विश्लेषण पुनर्विश्लेषण का लाभ उठाना: जबकि IMD विभिन्न प्रशासनिक स्तरों पर डेटा प्रदान करता है, वर्तमान नेटवर्क में विस्तृत मानचित्रण के लिये घनत्व/डेंसिटी का अभाव पाया जाता है।
- भारतीय मानसून डेटा सम्मिलन और विश्लेषण पुनर्विश्लेषण ((Indian Monsoon Data Assimilation and Analysis Reanalysis) डेटा का उपयोग कर भारत में सभी तहसीलों के लिये मानसून परिवर्तनशीलता का मानचित्रण किया जा सकता है।
- स्थानीय निर्णयकर्ता आपदा तैयारी और प्रतिक्रिया को बेहतर बनाने के लिये इन गणनाओं का उपयोग कर सकते हैं।
- इन योजनाओं में कृषि, जल एवं ऊर्जा क्षेत्रों में विस्तृत जोखिम आकलन के लिये तहसील स्तर के जलवायु डेटा को सामाजिक-आर्थिक और क्षेत्र-विशिष्ट सूचना के साथ एकीकृत किया जाना चाहिये।
- शहरी वर्षा संचयन और ‘वाटर बैंकिंग’: सभी भवनों के लिये वर्षा संचयन प्रणाली को अनिवार्य बनाकर शहरों को विशाल जल संग्रहण क्षेत्रों में परिवर्तित किया जाए।
- एक ‘वाटर क्रेडिट’ प्रणाली लागू किया जाए, जहाँ अतिरिक्त संग्रहित जल को ‘बैंक में जमा’ किया जा सके या उसका व्यापार किया जा सके, ताकि जल संरक्षण को प्रोत्साहन मिले।
- वर्ष भर उपयोग के लिये मानसून वर्षा को संग्रहित करने हेतु शहरी क्षेत्रों में ‘स्पंज सिटीज़’ और भूमिगत जल भंडारण सुविधाओं का विकास किया जाए।
- ‘फ्लोटिंग एग्रीकल्चर’ और ‘एक्वापोनिक्स’ (Floating Agriculture and Aquaponics): बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में ‘फ्लोटिंग’ खेतों और उद्यानों को बढ़ावा दिया जाए देना। इसके लिये बांग्लादेश जैसे देशों में प्रयुक्त तकनीक को अपनाया जाए।
- इन्हें उन्नत एक्वापोनिक्स प्रणालियों के साथ एकीकृत कर प्रत्यास्थी खाद्य उत्पादन इकाइयाँ निर्मित की जा सकती हैं, जो बाढ़ और सूखा दोनों स्थितियों में पनप सकें।
- इससे बाढ़-प्रवण क्षेत्रों को बोझ के बजाय उत्पादक परिसंपत्तियों में बदला जा सकता है।
- जैव अभियांत्रिकी तटीय रक्षा प्रणालियाँ (Bioengineered Coastal Defense Systems): आनुवंशिक रूप से संशोधित मैंग्रोव और अन्य तटीय वनस्पतियों का उपयोग कर ‘जीवित तटरेखाओं’ (living shorelines) का विकास किया जाए, जो बदलते लवणता स्तर और जल स्तर के साथ तेज़ी से अनुकूलन कर सकें।
- इन्हें कृत्रिम रीफ संरचनाओं के साथ संयोजित कर गतिशील एवं स्व-मरम्मत सक्षम (self-repairing) तटीय रक्षा प्रणालियों का निर्माण किया जा सकता है, जो बदलते मानसून और समुद्र-स्तर पैटर्न के साथ विकसित हो सकती हैं।
- विकेंद्रीकृत ऊर्जा माइक्रो-ग्रिड: स्थानीयकृत एवं नवीकरणीय ऊर्जा माइक्रो-ग्रिड का एक नेटवर्क विकसित किया जाए जो बदलते मानसून पैटर्न के अनुकूल बन सके।
- इनमें सौर, पवन और सूक्ष्म-जल विद्युत स्रोतों को सम्मिलित किया जा सकता है, जिससे मौसमी परिवर्तनों के साथ स्वचालित रूप से समायोजन हो सकेगा तथा वर्षा के बदलते स्वरूप के अनुरूप ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी।
अभ्यास प्रश्न: भारत में कृषि उत्पादकता और जल प्रबंधन पर बदलते मानसून पैटर्न के प्रभावों की चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों के प्रभावी शमन के लिये नीतिगत ढाँचों को किस प्रकार अनुकूलित किया जाना चाहिये?
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय मानसून का पूर्वानुमान करते समय कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित ‘इंडियन ओशन डाइपोल (IOD) के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न: आप कहाँ तक सहमत हैं कि भारतीय मानसून का व्यवहार मानवीय परिदृश्य के कारण बदल रहा है? चर्चा कीजिये। (2015) |