इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली अपडेट्स


सामाजिक न्याय

पश्चिम बंगाल "अपराजिता" बलात्कार विरोधी विधेयक

  • 06 Sep 2024
  • 18 min read

प्रिलिम्स के लिये:

बलात्कार अपराध, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013, भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 और लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO), सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये:

बलात्कार अपराध, संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

पश्चिम बंगाल विधानसभा ने अपराजिता महिला एवं बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024 पारित किया है जिसका उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दों का समाधान करना है।

  • इसमें मृत्युदंड तथा बलात्कार एवं यौन उत्पीड़न के लिये कठोरतम दंड का प्रावधान शामिल है।

अपराजिता विधेयक, 2024 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

  • BNS 2023, BNSS 2023 और POCSO 2012 अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव: प्रस्तावित विधेयक का उद्देश्य भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) 2023 तथा लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) सहित कई कानूनी प्रावधानों में संशोधन करना है। विधेयक के प्रावधान सभी आयु समूहों के उत्तरजीवियों और पीड़ितों पर लागू होंगे।  
  • बलात्कार के लिये मृत्युदंड: विधेयक में बलात्कार के दोषियों के लिये मृत्युदंड का प्रस्ताव किया गया है, यदि इस कृत्य के परिणामस्वरूप पीड़िता की मृत्यु हो जाती है या वह अचेतावस्था/वेजेटेटिव स्टेट में चली जाती है।
    • BNS कानून के तहत बलात्कार के लिये दंड इस प्रकार है: बलात्कार के लिये जुर्माना और न्यूनतम 10 वर्ष का कारावास; सामूहिक बलात्कार के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कारावास जिसे आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है; बलात्कार के ऐसे मामले जिनमें पीड़िता की मृत्यु हो जाती है अथवा वह अचेतावस्था में पहुँच जाती है, के लिये न्यूनतम 20 वर्ष का कठोर कारावास या मृत्युदंड।
  • समयबद्ध जाँच और परीक्षण: बलात्कार के मामलों की जाँच प्रारंभिक रिपोर्ट के 21 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिये और परीक्षण 30 दिनों के भीतर पूरा किया जाना चाहिये। किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के लिखित औचित्य के साथ ही समय-सीमा में विस्तार की अनुमति है।
    • BNSS कानून के तहत जाँच और मुकदमे की समय-सीमा FIR की तारीख से 2 महीने है।
  • फास्ट-ट्रैक न्यायालयों की स्थापना: इसमें यौन हिंसा के मामलों के त्वरित निपटारे के लिये समर्पित 52 विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान है।
  • अपराजिता टास्क फोर्स: विधेयक में ज़िला स्तर पर एक विशेष टास्क फोर्स की स्थापना का प्रावधान है, जिसका नेतृत्व पुलिस उपाधीक्षक करेंगे तथा जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ बलात्कार व अन्य अत्याचारों की जाँच के लिये समर्पित होगी।
  • बार-बार अपराध करने वालों के लिये कठोर दंड: इस कानून में बार-बार अपराध करने वालों के लिये आजीवन कारावास का प्रावधान है तथा यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो मृत्युदंड का भी प्रावधान है।
  • पीड़ितों की पहचान की सुरक्षा: विधेयक में कानूनी प्रक्रिया के दौरान पीड़ितों की पहचान की सुरक्षा और उनकी गोपनीयता तथा गरिमा सुनिश्चित करने के प्रावधान शामिल हैं।
  • न्याय में देरी के लिये दंड: इसमें पुलिस और स्वास्थ्य अधिकारियों के लिये दंड का प्रावधान है, जो समय पर कार्रवाई करने में विफल रहते हैं या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में किसी भी लापरवाही के लिये अधिकारियों को जवाबदेह बनाना है।
  • प्रकाशन प्रतिबंध: विधेयक में यौन अपराधों से संबंधित न्यायालय की कार्यवाही के अनधिकृत प्रकाशन पर कठोर दंड का प्रावधान किया गया है, जिसके लिये 3 से 5 वर्ष तक के कारावास का प्रावधान है।

अपराजिता विधेयक 2024 से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • संवैधानिक वैधता: अपराजिता महिला एवं बाल (पश्चिम बंगाल आपराधिक कानून संशोधन) विधेयक, 2024 केंद्रीय कानूनों में संशोधन करने का प्रयास करता है, जिससे इसकी संवैधानिक वैधता और अधिकार क्षेत्र संबंधी मुद्दों पर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत राज्यों को राज्य सूची में सूचीबद्ध मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार है। हालाँकि आपराधिक कानूनों पर समवर्ती अधिकार से जटिलता उत्पन्न होती है। यदि विधेयक केंद्रीय कानून को दरकिनार करता है, तो उसे राष्ट्रपति की सहमति की आवश्यकता होगी।
  • अवास्तविक समय सीमा: बलात्कार के मामलों की जटिलता और कानूनी व्यवस्था में मौजूदा बैकलॉग को देखते हुए 21 दिनों के भीतर जाँच पूरी करना एक बड़ी चुनौती है।
  • कानूनी चुनौतियाँ: ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें केंद्रीय कानूनों में राज्य संशोधनों को न्यायालयों में चुनौती दी गई है। उदाहरण के लिये:
    • पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ मामला (1964): इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की सर्वोच्चता की पुष्टि करते हुए, केंद्रीय भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के साथ विरोधाभासी होने के कारण पश्चिम बंगाल भूमि सुधार अधिनियम, 1955 को अमान्य कर दिया।
    • के.के. वर्मा बनाम भारत संघ मामला (1960): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय कानूनों के साथ असंगतता के कारण मध्य प्रदेश कृषि उपज बाज़ार अधिनियम, 1958 को रद्द कर दिया। 
      • ये मामले राज्य संशोधनों पर केंद्रीय कानून की सर्वोच्चता पर न्यायपालिका के रुख को रेखांकित करते हैं।
  • कार्यान्वयन चुनौतियाँ: विधेयक के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधाएँ आ सकती हैं, जिसके लिये कानून प्रवर्तन अवसंरचना में उन्नयन और पुलिस व न्यायिक अधिकारियों के लिये विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी।
  • अत्यधिक बोझ वाले न्यायालय: भारतीय न्यायालयों को अत्यधिक विलंब का सामना करना पड़ता है, मामलों को हल करने में औसतन 13 वर्ष से अधिक का समय लगता है। यह बैकलॉग त्वरित जाँच के बाद समय पर सुनवाई में बाधा डाल सकता है।
  • अभियुक्त के कानूनी अधिकार: कानूनी तंत्र अभियुक्त के लिये निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है, जो अपील और दया याचिकाओं के माध्यम से प्रक्रिया पूरी होने में विलंब कर सकता है।

नोट: 

भारत में आपराधिक कानून राज्य और केंद्र दोनों सरकारों द्वारा विनियमित किया जाता है, क्योंकि यह संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आता है, जिससे दोनों स्तरों को इस विषय पर कानून बनाने में सक्षम बनाया जाता है।

भारत में बलात्कार से संबंधित कानून क्या हैं?

  • आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013: इसे यौन अपराधों के खिलाफ प्रभावी कानूनी रोकथाम के लिये अधिनियमित किया गया था।
    • अधिनियम के तहत बलात्कार के लिये न्यूनतम सजा को 7 वर्ष से बदलकर 10 वर्ष कर दिया गया। इसके अतिरिक्त  ऐसे मामलों में जहाँ पीड़िता की मृत्यु हो जाती है और वह अचेत अवस्था में चली जाती है, न्यूनतम सजा को विधिवत बढ़ाकर 20 वर्ष कर दिया गया है।
    • इसके अतिरिक्त आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 को 12 वर्ष से कम आयु की लड़की के साथ बलात्कार के लिये मृत्युदंड सहित और भी कठोर दंडात्मक प्रावधानों को निर्धारित करने के लिये अधिनियमित किया गया था।
  • लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO): यह अधिनियम बच्चों को यौन शोषण, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी से बचाने के लिये बनाया गया था।
    • इस अधिनियम ने सहमति की आयु को बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया (जो वर्ष 2012 तक 16 वर्ष थी) और 18 वर्ष से कम आयु के लोगों के लिये सभी यौन गतिविधियों को अपराध घोषित कर दिया, भले ही दो नाबालिगों के बीच सहमति मौजूद हो।
      • इस अधिनियम में वर्ष 2019 में भी संशोधन किया गया था ताकि बच्चों की रक्षा, सुरक्षा और गरिमा सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न अपराधों हेतु सजा बढ़ाने का प्रावधान किया जा सके।
  • बलात्कार पीड़िता के अधिकार:
    • ज़ीरो FIR का अधिकार: ज़ीरो FIR का अर्थ है कि व्यक्ति किसी भी पुलिस स्टेशन में FIR दर्ज करा सकता है, चाहे घटना किसी भी क्षेत्राधिकार में घटित हुई हो।
    • निशुल्क चिकित्सा उपचार: दंड प्रक्रिया संहिता (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 357 C के अनुसार, कोई भी निजी या सरकारी अस्पताल बलात्कार पीड़ितों के उपचार के लिये शुल्क नहीं ले सकता है।
    • टू-फिंगर टेस्ट नहीं: किसी भी डॉक्टर को मेडिकल जाँच करते समय टू फिंगर टेस्ट करने का अधिकार नहीं होगा।
    • मुआवज़े का अधिकार: CrPc की धारा 357A  के रूप में एक नया प्रावधान प्रस्तुत  किया गया है, जो पीड़ितों को मुआवज़े के रूप में कुछ राशि प्रदान करता है।

महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • महिलाओं के खिलाफ अपराधों की अत्यधिक घटनाएँ: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की 'भारत में अपराध' रिपोर्ट के डेटा से पता चलता है कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज अपराध वर्ष 2014 में 3.37 लाख से बढ़कर वर्ष 2022 में 4.45 लाख हो गए, जो 30% से अधिक की वृद्धि है।
    • अपराध दर (प्रति लाख महिलाओं पर अपराध) भी वर्ष 2014 में 56.3 से बढ़कर 2022 तक 66.4 हो गई।
  • पितृसत्तात्मक मानसिकता: समाज में गहनता से व्याप्त पितृसत्ता पुरुष वर्चस्व और अधिकार को बढ़ावा देती है, महिलाओं को वस्तु के रूप में देखती है तथा शत्रुतापूर्ण वातावरण का निर्माण करती है।
    • यह सांस्कृतिक मानसिकता महिलाओं की सुरक्षा और समानता के लिये एक बड़ी बाधा है।
  • मीडिया द्वारा वस्तुकरण: मीडिया चित्रण अक्सर महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश करता है, उनकी स्वायत्तता को कम करता है और ऐसी संस्कृति में योगदान देता है जो महिलाओं के अधिकारों की अवहेलना करती है। यह वस्तुकरण हानिकारक रूढ़ियों तथा सामाजिक दृष्टिकोणों को मज़बूत करता है।
  • विलंबित न्याय और कानूनी चुनौतियाँ: धीमी कानूनी प्रक्रिया और मृत्यु दंड का अनियमित प्रावधान पीड़ितों के लिये आघात को बढ़ाता है। मृत्युदंड की प्रभावशीलता के बारे में चल रही चर्चा के साथ ही समय पर न्याय मिलना भी एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है।
  • जागरूकता और शिक्षा का अभाव: अपर्याप्त यौन शिक्षा और सहमति तथा लिंग संवेदनशीलता के बारे में चर्चा हानिकारक रूढ़ियों एवं अज्ञानता को बनाए रखती है, जिससे प्रभावी हस्तक्षेप में बाधा आती है। 
  • बुनियादी ढाँचा और सुरक्षा उपाय: खराब रोशनी वाली सड़कें, अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों की कमी महिलाओं की भेद्यता को बढ़ाती है। बुनियादी ढाँचे तथा सुरक्षा उपायों में सुधार आवश्यक है।

आगे की राह 

  • व्यापक कानूनी ढाँचा: भारतीय दण्ड संहिता के तहत महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिये सज़ा को मज़बूत करने की आवश्यकता है, स्टॉकिंग, साइबर हेरेसमेंट और घरेलू हिंसा के लिये विशेष कानून लागू करने की आवश्यकता है तथा त्वरित न्याय हेतु  विशेष न्यायालयों व पुलिस इकाइयों की स्थापना करनी चाहिये। 
  • फास्ट-ट्रैक कोर्ट: न्यायमूर्ति वर्मा समिति की सिफारिश के अनुसार फास्ट-ट्रैक कोर्ट स्थापित करें और बलात्कार जैसे गंभीर मामलों के लिये सजा बढ़ाएँ। 
    • न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाएँ। 
  • सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन: स्कूलों और कॉलेजों में लैंगिक समानता शिक्षा को एकीकृत करने, महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने वाली सामुदायिक पहलों का समर्थन करने तथा महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण व निर्णय लेने में भागीदारी हेतु नीतियों को लागू करने की आवश्यकता है।
  • प्रभावी कानून प्रवर्तन और न्याय प्रणाली: पुलिस के लिये लिंग-संवेदनशील प्रशिक्षण प्रदान करें, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के लिये विशेष इकाइयाँ बनाएँ तथा पीड़ित सहायता केंद्र स्थापित करें।
  • बुनियादी ढाँचा और प्रौद्योगिकी: सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों को उन्नत करने, सार्वजनिक क्षेत्रों में सीसीटीवी कैमरे लगाने और सुरक्षा ऐप तथा आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है।
  • सशक्तीकरण और जागरूकता: महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने और हिंसा की रिपोर्टिंग को प्रोत्साहित करने हेतु अभियान चलाएँ तथा महिला संगठनों का समर्थन करें ताकि उनके प्रयासों को मज़बूती से प्रचारित किया जा सके।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

कानूनी सुरक्षा के बावजूद भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई है। ऐसे अपराधों की उच्च दरों में योगदान देने वाले कारकों का विश्लेषण कीजिये और इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये व्यापक सुधारों पर विचार कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

मेन्स 

प्रश्न. हम देश में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के बढ़ते मामलों को देख रहे हैं। इसके खिलाफ मौजूदा कानूनी प्रावधानों के बावजूद ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ रही है। इस खतरे से निपटने के लिये कुछ नवीन  उपाय सुझाएँ। (2014)

close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2