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भारतीय राजनीति

तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत

  • 17 Sep 2024
  • 18 min read

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) , राष्ट्रीय लोक अदालत , विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 , गांधीवादी सिद्धांत , वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR ) प्रणालीअर्द्ध-न्यायिक निकाय , स्थायी लोक अदालतें

मेन्स के लिये:

वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली के रूप में लोक अदालत के कार्य और संबंधित चुनौतियाँ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में  राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) द्वारा 27 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के तालुकों, ज़िलों और उच्च न्यायालयों में वर्ष 2024 की तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत का आयोजन किया गया।

  • इसका आयोजन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एवं नालसा के कार्यकारी अध्यक्ष न्यायमूर्ति संजीव खन्ना के नेतृत्व में किया गया।

तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत, 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?

  • निपटाए गए मामलों की संख्या: तीसरी राष्ट्रीय लोक अदालत, 2024 के दौरान 1.14 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया गया। यह अदालतों में बढ़ते लंबित मामलों को कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।
  • निपटाए गए मामलों का विवरण: लोक अदालत में निपटाए गए 1,14,56,529 मामलों में से 94,60,864 मुकदमे-पूर्व मामले थे तथा 19,95,665 मामले विभिन्न अदालतों में लंबित थे।
  • निपटाए गए मामलों के प्रकार: इन मामलों में समझौता योग्य आपराधिक अपराध , यातायात चालान, राजस्व, बैंक वसूली, मोटर दुर्घटना, चेक का विवेचक (dishonor), श्रम विवाद, वैवाहिक विवाद (तलाक के मामलों को छोड़कर), भूमि अधिग्रहण, बौद्धिक संपदा अधिकार और अन्य सिविल मामले शामिल हैं।
  • निपटान का वित्तीय मूल्य: इन मामलों में कुल निपटान राशि का अनुमानित मूल्य 8,482.08 करोड़ रुपए था।
  • सकारात्मक सार्वजनिक प्रतिक्रिया: इस कार्यक्रम में लोगों की भारी भागीदारी देखी गई, जो लोक अदालतों में जनता के मज़बूत विश्वास को दर्शाता है। यह विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 और राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (लोक अदालत) विनियम, 2009 में निर्धारित उद्देश्यों के अनुरूप है।

लोक अदालत क्या है?

  • लोक अदालत या जन अदालत: न्यायालय में लंबित या मुकदमे-पूर्व विवादों को समझौते या सौहार्दपूर्ण समाधान के माध्यम से निपटान हेतु एक वैकल्पिक मंच है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा है कि लोक अदालत न्यायनिर्णयन की एक प्राचीन भारतीय प्रणाली है जो आज भी प्रासंगिक है और गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। 
    • यह वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR ) प्रणाली का एक हिस्सा है, जिसका उद्देश्य लंभित मामले के संदर्भ में भारतीय न्यायालयों को राहत प्रदान करना है।
  • उद्देश्य: इसका उद्देश्य नियमित न्यायालयों में होने वाली लंबी और महँगी प्रक्रियाओं के बिना  त्वरित न्याय प्रदान करना है।
    • लोक अदालत में किसी की हार या जीत नहीं होती है, इसमें विवाद समाधान हेतु एक सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाता है।
  • ऐतिहासिक विकास: स्वतंत्र भारत में पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात में आयोजित किया गया था, जिसकी सफलता के बाद इसका विस्तार संपूर्ण देश में किया गया।
  • कानूनी ढाँचा: प्रारंभ में कानूनी प्राधिकार के बिना एक स्वैच्छिक संस्था के रूप में कार्य करते हुए, विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 द्वारा लोक अदालतों को  वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
    • इस अधिनियम द्वारा संस्था को न्यायालय के आदेश के समान प्रभाव वाले अधिकार प्रदान किये गए।
  • आयोजक एजेंसियाँ: लोक अदालतों का आयोजन नालसा, राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण, सर्वोच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति, उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति या तालुक विधिक सेवा समिति द्वारा आवश्यक समझे जाने वाली अवधि और स्थानों पर किया जा सकता है।
  • संरचना: एक लोक अदालत में आमतौर पर एक न्यायिक अधिकारी (अध्यक्ष), एक वकील और एक सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल होते हैं।
  • क्षेत्राधिकार:
    • लोक अदालत को न्यायालय के क्षेत्राधिकार में आने वाले लंबित मामलों और मुकदमे-पूर्व मामलों सहित विवादों पर क्षेत्राधिकार प्राप्त है।
    • यह वैवाहिक विवाद , समझौता योग्य आपराधिक अपराध, श्रम विवाद, बैंक वसूली, आवास और उपभोक्ता शिकायतों जैसे विभिन्न मामलों का निपटान करता है।
      • लोक अदालत का गैर-समझौता युक्त अपराधों , जैसे गंभीर आपराधिक मामलों पर क्षेत्राधिकार नहीं है , क्योंकि इन्हें समझौते के माध्यम से सुलझाया नहीं जा सकता।
  • लोक अदालत को मामले भेजना: मामले लोक अदालत को भेजे जा सकते हैं, यदि
    • पक्षकार लोक अदालत में विवाद निपटान हेतु सहमत होते हैं।
    • इनमें से एक पक्षकार द्वारा मामले को लोक अदालत में स्थानांतरित हेतु न्यायालय में आवेदन किया जाता है।
    • मामला लोक अदालत द्वारा संज्ञान लेने योग्य है।
    • मुकदमा-पूर्व स्थानांतरण: मुकदमा-पूर्व विवादों को किसी भी पक्ष से आवेदन प्राप्त होने पर स्थानांतरित किया जा सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि विवादों का निपटारा न्यायालय में पहुँचाने से पहले ही कर दिया जाए।
  • शक्तियाँ: लोक अदालत को निम्नलिखित मामलों के संबंध में मुकदमे की सुनवाई करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत सिविल न्यायालय में निहित शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
    • किसी भी गवाह को बुलाना और उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना।
    • किसी भी दस्तावेज़ की खोज और जाँच।
    • शपथ-पत्र पर साक्ष्य प्राप्त करना।
    • न्यायालयों या कार्यालयों से सार्वजनिक अभिलेखों या दस्तावेज़ों की मांग करना।
  • लोक अदालत की कार्यवाही: 
  • निर्णय की बाध्यकारिता:
    • सिविल न्यायालय का निर्णय: लोक अदालत द्वारा दिये गए निर्णयों को सिविल न्यायालय के निर्णय के समान दर्जा प्राप्त होता है, यह अंतिम और सभी पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं।
    • अपील न किये जाने योग्य: निर्णयों के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है,  इसलिये लोक अदालतों में लंबी अपील संबंधी प्रक्रियाओं की आवश्यकता के बिना विवादों का तीव्र निपटान किया जा सकता है।

Types_of_ADR

लोक अदालत के क्या लाभ हैं?

  • न्यायालय शुल्क: लोक अदालत कोई न्यायालय शुल्क नहीं लेती है , बल्कि विवाद का निपटारा लोक अदालत में किया जाता है तो भुगतान की गई शुल्क वापस कर दी जाती है।
  • प्रक्रिया का सरल होना: प्रक्रियाएँ सरल हैं और साक्ष्य या सिविल प्रक्रिया के तकनीकी नियमों के प्रावधानों के अधीन नही हैं, जिसके कारण ही विवादों का शीघ्र निपटारा संभव हो पाता है।
  • प्रत्यक्ष संवाद: विवाद के पक्षकार अपने वकील के माध्यम से सीधे न्यायाधीश के साथ संवाद कर सकते हैं , जो कि  न्यायालयों में संभव नहीं हो पाता है। 
  • अंतिम एवं बाध्यकारी निर्णय: लोक अदालत द्वारा दिया गया निर्णय पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है जिसे सिविल न्यायालय का दर्जा प्राप्त होता है तथा यह अपील योग्य नहीं होता है , जिससे विवादों के अंतिम रूप से निपटान में देरी नहीं होती।
  • निम्न समय अवधि: लोक अदालत शीघ्र समाधान प्रदान करती है, जो औपचारिक लंबी अदालती कार्यवाही से बचाती है।
  • सामंजस्यपूर्ण निर्णय: लोक अदालत सहयोग की भावना को बढ़ावा देती है, जहाँ कोई भी पक्ष यह महसूस नहीं करता कि उसने हार मान ली है तथा विवादित पक्षों के बीच संबंध अक्सर बहाल हो जाते हैं।

लोक अदालत के समक्ष चुनौतियाँ क्या हैं?

  • भागीदारी की स्वैच्छिक प्रकृति: जबकि लोक अदालतों का उद्देश्य सौहार्दपूर्ण विवाद का समाधान करना है, दोनों पक्षों को स्वेच्छा से भाग लेने के लिये सहमत होना चाहिये। यदि कोई भी पक्ष अनिच्छुक है, तो मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है।
  • शीघ्र कार्यवाही पर न्यायिक सावधानी: उच्च न्यायपालिका ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि लोक अदालत की कार्यवाही से किसी भी पक्ष के अधिकारों और निष्पक्ष प्रतिनिधित्व से समझौता नहीं होना चाहिये। 
  • सीमित दायरा: लोक अदालतों का अधिकार सिविल और समझौता योग्य आपराधिक मामलों तक ही सीमित है , जिससे कानूनी मुद्दों की व्यापक श्रेणी को संबोधित करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
  • अपील का अभाव: लोक अदालत का निर्णय अंतिम होता है जिसके निर्णय के बाद अपील नहीं की जा सकती है। यह वादकारी को, खासकर यदि वे परिणाम से असंतुष्ट हैं, तो इस तरह की कार्रवाई करने से हतोत्साहित कर सकता है।
  • पक्षों की अनिच्छा: लोग कभी-कभी औपचारिक अदालती प्रक्रियाओं पर ही अड़े रहते हैं , क्योंकि उन्हें डर रहता है कि अदालत के बाहर समझौता उनके हितों को पूरी तरह से पूरा नहीं कर पाएगा।

आगे की राह: 

  • ADR के मूल सिद्धांतों को मज़बूत करना: लोक अदालतों को अर्द्ध-न्यायिक निकायों के रूप में विकसित होने के बजाय सुलह और निपटान मंच के रूप में अपनी भूमिका की पुष्टि करनी चाहिये।
    • यह सुनिश्चित करने के लिये न्यायाधीशों और कार्मिकों का उचित प्रशिक्षण प्रदान करना आवश्यक है ताकि वे औपचारिक न्यायनिर्णयन की अपेक्षा सौहार्दपूर्ण विवाद समाधान को प्राथमिकता दें।
  • कमज़ोर वर्गों के लिये पहुँच: एक सक्रिय आउटरीच रणनीति में विधिक सेवा प्राधिकरणों को शामिल किया जा सकता है, जो ग्रामीण और दूर-दराज़ के क्षेत्रों में जाकर मुकदमा-पूर्व परामर्श प्रदान कर सकते हैं तथा नागरिकों को यह मार्गदर्शन दे सकते हैं कि लोक अदालतें किस प्रकार उनके विवादों को सुलझाने में मदद कर सकती हैं।
  • तीव्रता बनाम निष्पक्षता के बारे में चिंताओं का समाधान: लोक अदालतें एक स्तरीकृत प्रणाली अपना सकती हैं , जहाँ गहन सुनवाई की आवश्यकता वाले विवादों को अधिक समय तक आवंटित किया जाता है, ताकि जल्दबाज़ी में लिये गए निर्णयों के जोखिम को रोका जा सके, जिसके अन्यायपूर्ण परिणाम हो सकते हैं।
  • स्थायी लोक अदालतों के क्षेत्राधिकार का विस्तार:  स्थायी लोक अदालतों (जो वर्तमान में सार्वजनिक उपयोगिता सेवाओं तक सीमित हैं) के अधिकार क्षेत्र का विस्तार करके छोटे सिविल मामलें, उपभोक्ता संबंधी मामलें और पारिवारिक जैसे मामलों की अधिक श्रेणियों को कवर किया जा सकता है, जिससे न्यायालय में लंबित मामलों को कम करने तथा न्याय तक पहुँच में सुधार करने में मदद मिलेगी।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली के रूप में लोक अदालतों की भूमिका पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रारंभिक:

प्रश्न: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013))

  1. इसका उद्देश्य समाज के कमज़ोर वर्गों को समान अवसर के आधार पर निशुल्क एवं सक्षम विधिक सेवाएँ प्रदान करना है। 
  2. यह पूरे देश में कानूनी कार्यक्रमों और योजनाओं को लागू करने हेतु राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरणों के लिये दिशा-निर्देश जारी करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल  2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


प्रश्न. लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है? (2010)

(a) लोक अदालतों के पास पूर्व-मुकदमेबाज़ी के स्तर पर मामलों को निपटाने का अधिकार क्षेत्र है, न कि उन मामलों को जो किसी भी अदालत के समक्ष लंबित हैं। 
(b) लोक अदालतें उन मामलों का  निपटान कर सकती हैं जो दीवानी हैं और फौजदारी प्रकृति के नहीं हैं। 
(c) प्रत्येक लोक अदालत में या तो केवल सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी होते हैं और कोई अन्य व्यक्ति नहीं होता है। 
(d) उपर्युक्त कथनों में से कोई भी सही नहीं है।

उत्तर: (d)


प्रश्न: लोक अदालतों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)

  1. लोक अदालत द्वारा किया गया अधिनिर्णय सिविल न्यायालय का आदेश (डिक्री) मान लिया जाता है और इसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील नहीं होती। 
  2. विवाह-संबंधी/पारिवारिक विवाद लोक अदालत में सम्मलित नहीं होते हैं ।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो  1 और न ही  2

उत्तर : A


मेन्स:

प्रश्न1. राष्ट्रपति द्वारा हाल ही में प्रख्यापित अध्यादेश के द्वारा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 में क्या प्रमुख परिवर्तन किये गए हैं? इससे भारत के विवाद समाधान तंत्र में  किस सीमा तक सुधार होगा? चर्चा कीजिये। (2015)

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