राजराज प्रथम और चोल प्रशासन | 26 Nov 2024
प्रिलिम्स के लिये:राजराज चोल प्रथम, तिरुवलंगडु शिलालेख, कंडालुर सलाई की लड़ाई, सेनुर शिलालेख, राजराज मंडलम, मुमुदी चोल, चोल, पांड्य, चेर, चालुक्य, नागपट्टिनम, स्थानीय स्वशासन, बृहदेश्वर मंदिर, द्रविड़ मंदिर वास्तुकला, यूनेस्को, गंगाईकोंडा चोलपुरम, ऐरावतेश्वर मंदिर, दक्षिण मेरु, भित्ति चित्र, भरतनाट्यम, नटराज प्रतिमा, आनंद तांडव। मेन्स के लिये:भारतीय इतिहास में चोल वंश का योगदान, चोल वंश की कला एवं वास्तुकला। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तमिलनाडु के तंजावुर में साधा विझा (मध्य अक्टूबर से मध्य नवंबर) के दौरान चोल सम्राट राजराज चोल प्रथम की जयंती मनाई गई।
- उनका जन्म 947 ई. में अरुलमोझी वर्मन के रूप में हुआ था तथा उन्होंने "राजराज" की उपाधि धारण की थी, जिसका अर्थ है "राजाओं का राजा"।
राजराज चोल प्रथम के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- परिचय: राजराज चोल प्रथम, परांतक चोल द्वितीय और वनवन महादेवी की तीसरी संतान थे।
- थिरुवलंगडु अभिलेख के अनुसार उत्तम चोल ने अरुणमोझी (राजराज प्रथम) की असाधारण क्षमता को पहचानते हुए उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
- उन्होंने वर्ष 985 से 1014 ई. तक शासन किया तथा वे सैन्य कौशल एवं गहन प्रशासनिक दूरदर्शिता के लिये विख्यात थे।
- उल्लेखनीय सैन्य विजय:
- कंडालूर सलाई का युद्ध (988 ई.): यह केरल के कंडालूर में चेरों (मध्य और उत्तरी केरल) के खिलाफ एक नौसैनिक युद्ध था।
- यह राजराज प्रथम की पहली सैन्य उपलब्धि थी तथा इसके परिणामस्वरूप चेर नौसेना बलों एवं बंदरगाहों की क्षति हुई।
- केरल और पांड्यों की विजय: सेनूर अभिलेख (तमिलनाडु) के अनुसार, राजराज चोल प्रथम ने पांड्यों की राजधानी मदुरै को नष्ट कर दिया और कोल्लम पर विजय प्राप्त की।
- विजय के बाद उन्होंने "पांड्या कुलाशनी" (पांड्यों के लिये वज्र) की उपाधि धारण की तथा उस क्षेत्र का नाम बदलकर "राजराज मंडलम" रख दिया।
- उन्होंने चोलों, पांड्यों और चेरों पर अपने प्रभुत्व को दर्शाने के लिये "मुम्मुडी चोल" (तीन मुकुट पहनने वाला चोल) की उपाधि भी धारण की।
- श्रीलंका पर विजय (993 ई.): राजराज चोल प्रथम ने 993 ई. में श्रीलंका पर आक्रमण किया तथा श्रीलंका के उत्तरी आधे भाग पर कब्जा कर लिया एवं जननाथमंगलम को प्रांतीय राजधानी के रूप में स्थापित किया।
- यह विजय अभियान उनके पुत्र राजेंद्र चोल प्रथम के शासनकाल में 1017 ई. में पूरा हुआ।
- चालुक्यों के साथ संघर्ष: उन्होंने कर्नाटक में चालुक्यों को पराजित किया तथा गंगावडी और नोलम्बपडी जैसे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया।
- उन्होंने विवाहों (जैसे कि कुंदवई का वेंगी के विमलादित्य के साथ विवाह) के माध्यम से गठबंधन को बढ़ावा दिया।
- कंडालूर सलाई का युद्ध (988 ई.): यह केरल के कंडालूर में चेरों (मध्य और उत्तरी केरल) के खिलाफ एक नौसैनिक युद्ध था।
- चोल नौसेना: राजराज चोल प्रथम ने नौसेना को मज़बूत किया, जिससे बंगाल की खाड़ी को "चोल झील" की उपाधि मिली।
- उस दौरान नागपट्टिनम (तमिलनाडु) मुख्य बंदरगाह था, जिससे श्रीलंका एवं मालदीव के सफल अभियानों में सहायता मिली।
- प्रशासन: वंशानुगत स्वामियों के स्थान पर आश्रित अधिकारियों की नियुक्ति के साथ प्रांतों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित किया गया।
- उन्होंने स्थानीय स्वशासन की प्रणाली को मज़बूत किया तथा लेखापरीक्षा और नियंत्रण की एक प्रणाली स्थापित की जिसके माध्यम से सार्वजनिक निकायों पर नजर रखी गई।
- कला और संस्कृति: राजराज चोल प्रथम एक समर्पित शैव थे, लेकिन उन्होंने भगवान विष्णु को कई मंदिर भी समर्पित किये।
- 1010 ई. में, राजराज चोल प्रथम ने तंजावुर में भव्य बृहदेश्वर मंदिर (राजराजेश्वरम मंदिर) का निर्माण कराया। यह भगवान शिव को समर्पित है और द्रविड़ मंदिर वास्तुकला का एक आदर्श उदाहरण है।
- यह मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर का हिस्सा है और इसे "महान जीवित चोल मंदिरों" में से एक माना जाता है, अन्य दो मंदिर गंगईकोंडा चोलपुरम और ऐरावतेश्वर मंदिर हैं।
- चोल मूर्तिकला का एक महत्त्वपूर्ण नमूना तांडव नृत्य मुद्रा में नटराज की मूर्ति थी।
- 1010 ई. में, राजराज चोल प्रथम ने तंजावुर में भव्य बृहदेश्वर मंदिर (राजराजेश्वरम मंदिर) का निर्माण कराया। यह भगवान शिव को समर्पित है और द्रविड़ मंदिर वास्तुकला का एक आदर्श उदाहरण है।
- सिक्का-निर्माण: राजराज चोल प्रथम ने पुराने बाघ-प्रतीक वाले सिक्कों के स्थान पर नए सिक्के जारी किये, जिनमें एक ओर खड़े राजा और दूसरी ओर बैठी हुई देवी की छवि थी।
- उनके सिक्कों की नकल श्रीलंका के राजाओं ने भी की थी।
नोट: चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की थी जिसके कारण शक्तिशाली चोलों का उदय हुआ।
पल्लवों को पराजित किया।
- चोलों का शासन काल (9वीं -13 वीं शताब्दी) 13 वीं शताब्दी तक लगभग पाँच शताब्दियों तक चला।
चोल प्रशासन के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- केंद्रीकृत शासन: चोल प्रशासनिक ढाँचे के शीर्ष पर राजा होता था, जिसकी शक्तियों को मंत्रिपरिषद द्वारा संतुलित किया जाता था।
- राजा के अधीन केंद्रीय सरकार में एक संरचित परिषद होती थी जिसमें उच्च अधिकारी (पेरुन्तारम) और निम्न अधिकारी (सिरुन्तरम) होते थे।
- प्रांतीय प्रशासन: चोल साम्राज्य नौ प्रांतों में विभाजित था, जिन्हें मंडलम भी कहा जाता था।
- मंडलमों को आगे कोट्टम या वलनाड में विभाजित किया गया, जिन्हें आगे नाडु (ज़िलों) और फिर उर (गाँवों) में विभाजित किया गया।
- राजस्व प्रणाली: भू-राजस्व आय का प्राथमिक स्रोत था, जिसमें सामान्य दर भूमि की उपज का 1/6 भाग कर के रूप में एकत्र किया जाता था, चाहे वह नकद, वस्तु या दोनों के रूप में हो।
- चोल प्रशासन ने सीमा शुल्क, टोल, खानों, बंदरगाहों, वनों और नमक के क्षेत्रों पर भी कर लगाया। व्यावसायिक और गृह कर भी वसूल किये जाते थे।
- स्थानीय प्रशासन: चोल प्रशासन की सबसे विशिष्ट विशेषता इसकी स्थानीय शासन प्रणाली थी, जिसने नाडू और गाँवों जैसी स्थानीय इकाइयों को पर्याप्त स्वायत्तता प्रदान की थी।
- नाडु एक महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक इकाई थी, जिसकी अपनी विधानसभा थी और इसका नेतृत्व नट्टार करता था, जबकि नट्टारों की परिषद को नट्टावई कहा जाता था।
- गाँव के स्तर पर, ग्राम सभा सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे को बनाए रखने और बाज़ारों को विनियमित करने के लिये ज़िम्मेदार थी।
- ग्राम सभाओं को स्थानीय शासन के विभिन्न पहलुओं के लिये जिम्मेदार विभिन्न वारियम (समितियों) द्वारा सहायता प्रदान की जाती थी।
- नाडु एक महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक इकाई थी, जिसकी अपनी विधानसभा थी और इसका नेतृत्व नट्टार करता था, जबकि नट्टारों की परिषद को नट्टावई कहा जाता था।
- चोल राजवंश के अंतर्गत व्यापार:
- स्थानीय व्यापार: चोल साम्राज्य में आंतरिक व्यापार में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ, जिसे व्यापारिक निगमों और संगठित संघों द्वारा सुगम बनाया गया।
- ये संघ, जिन्हें प्रायः "नानादेशी" कहा जाता था, व्यापारियों के शक्तिशाली और स्वायत्त निकाय थे।
- कांचीपुरम और मामल्लपुरम जैसे बड़े व्यापार केंद्रों में, "नगरम" नामक स्थानीय व्यापारी संगठन व्यापार और बाज़ार गतिविधियों के समन्वय में मदद करते थे।
- समुद्री व्यापार: चोल राजवंश ने पश्चिम एशिया, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार संबंध स्थापित किये।
- वे मसालों, कीमती पत्थरों, वस्त्रों और अन्य वस्तुओं के लाभदायक व्यापार में लगे हुए थे जिनकी पूरे एशिया में मांग थी।
- स्थानीय व्यापार: चोल साम्राज्य में आंतरिक व्यापार में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ, जिसे व्यापारिक निगमों और संगठित संघों द्वारा सुगम बनाया गया।
बृहदेश्वर मंदिर के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- परिचय: राजराज प्रथम द्वारा निर्मित इस मंदिर का उद्घाटन उनके 19वें वर्ष (1003-1004 ई.) में तथा उनके 25 वें वर्ष (1009-1010 ई.) में किया गया था।
- वास्तुकला महत्त्व: यह द्रविड़ मंदिर डिज़ाइन के शुद्ध रूप का उदाहरण है।
- वास्तुकला:
- डिज़ाइन: इसमें एक विशाल स्तंभयुक्त प्राकार (बाड़ा) है, जिसके साथ आठ संरक्षक देवताओं (अष्टदिक्पालों ) को समर्पित उप-मंदिर हैं।
- गोपुरम: राजराजन्तिरुवासल के नाम से जाना जाने वाला यह मंदिर परिसर के भव्य प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है।
- प्रदक्षिणा पथ: गर्भगृह के चारों ओर एक पथ है, जिससे भक्त पवित्र शिवलिंग के चारों ओर प्रदक्षिणा (परिक्रमा) कर सकते हैं।
- कलात्मक तत्त्व:
- भित्ति चित्र: मंदिर की दीवारें विशाल और उत्कृष्ट भित्ति चित्रों से सुसज्जित हैं, जिनमें भरतनाट्यम के 108 करण (नृत्य मुद्राएँ) में से 81 शामिल हैं।
- तमिलनाडु के बृहदीश्वर मंदिर में राजराज प्रथम और उनके गुरु करुवुरुवर का चित्रण करने वाला एक भित्ति चित्र मिला।
- शिलालेख: इसमें राजराज चोल प्रथम की सैन्य उपलब्धियों, मंदिर अनुदानों और प्रशासनिक आदेशों का विवरण देने वाले शिलालेख हैं।
- भित्ति चित्र: मंदिर की दीवारें विशाल और उत्कृष्ट भित्ति चित्रों से सुसज्जित हैं, जिनमें भरतनाट्यम के 108 करण (नृत्य मुद्राएँ) में से 81 शामिल हैं।
नटराज प्रतिमा के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- नटराज प्रतिमा भगवान शिव को ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में दर्शाती है, जो ब्रह्मांड के निर्माण, संरक्षण और विनाश का प्रतीक है।
- ऐतिहासिक उत्पत्ति: नटराज की सबसे प्रारंभिक मूर्तियाँ 5वीं शताब्दी ई. की हैं।
- यह प्रतिष्ठित और विश्व प्रसिद्ध रूप चोल राजवंश के शासनकाल (9 वीं -13 वीं शताब्दी ई.) के दौरान विकसित हुआ, जो उनकी कलात्मक और सांस्कृतिक उन्नति को दर्शाता है।
- ब्रह्मांडीय नृत्य: आनंद तांडव (आनंद का नृत्य) के रूप में जाना जाता है, यह ब्रह्मांड की शाश्वत लय, सृजन और विनाश के चक्र और समय के सतत प्रवाह का प्रतिनिधित्व करता है।
- प्रमुख प्रतीकात्मक विशेषताएँ:
- ज्वलंत आभामंडल (आभामंडल): यह ब्रह्मांड और समय, विनाश और नवीकरण के चक्र का प्रतिनिधित्व करता है।
- डमरू (ऊपरी दाहिना हाथ): डमरू सृष्टि की प्रथम ध्वनि और ब्रह्मांड की लय का प्रतीक है।
- अग्नि (ऊपरी बायाँ हाथ):अग्नि विनाश का प्रतीक है, जो ब्रह्मांड के अंतहीन चक्र का प्रतीक है।
- अभयमुद्रा (निचला दाहिना हाथ): आश्वासन और सुरक्षा का एक संकेत, भय को दूर करना।
- बाएँ हाथ की मुद्रा: इसमें निचला बायाँ हाथ उठे हुए पैर की तरफ इशारा करता है और मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है।
- वामन आकृति: शिव के दाहिने पैर के नीचे छोटी वामन आकृति अज्ञानता एवं अहंकारी व्यक्ति के अहंकार का प्रतीक है।
- उठा हुआ बायाँ पैर: अनुग्रह और मोक्ष के मार्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
- चोलों का योगदान: चोल कांस्य अपनी उत्कृष्टता, जटिल विवरण और आध्यात्मिक प्रतीकवाद के लिये प्रसिद्ध हैं।
- इसे कांस्य धातु से बनाया गया है, जो चोल युग के धातुकर्मियों और कलाकारों की विशेषज्ञता को दर्शाता है।
- मान्यता: नटराज की मूर्ति की प्रतिकृति सर्न (यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन) के बाहर स्थापित है, जो भौतिकी में कणों के ब्रह्मांडीय नृत्य का प्रतीक है।
चोल शासन की समुद्री गतिविधि:
- नौसैनिक शक्ति: चोलों ने एक शक्तिशाली नौसेना का निर्माण किया जो व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने के लिये दूर-दूर तक के तटों तक फैली हुई थी।
- बंदरगाह: प्रमुख बंदरगाहों में मामल्लपुरम (महाबलीपुरम), कावेरीपट्टिनम, नागपट्टिनम, कांचीपुरम, कुलाचल और थूटुकोडी शामिल हैं।
- दक्षिण-पूर्व एशिया पर आक्रमण: राजा राजेंद्र प्रथम के शैलेन्द्र साम्राज्य (दक्षिण-पूर्व एशिया) पर आक्रमण से मलय प्रायद्वीप, जावा और सुमात्रा चोल नियंत्रण में आ गए।
- चोलों ने दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ अपने व्यापार को बाधित करने के चीनी प्रयासों को विफल कर दिया।
- जहाज निर्माण: जहाज़ निर्माण पर एक ग्रंथ, कप्पल सत्तिरम, उनकी उन्नत समुद्री प्रौद्योगिकी पर प्रकाश डालता है।
निष्कर्ष:
राजराज चोल प्रथम के शासनकाल ने सैन्य, सांस्कृतिक और समुद्री उन्नति में एक महत्त्वपूर्ण युग की शुरुआत की। उनके प्रशासनिक, वास्तुशिल्प और नौसैनिक योगदान, साथ ही चोल समुद्री साम्राज्य की वृद्धि, दक्षिण एशिया और उससे आगे, विशेष रूप से व्यापार और सांस्कृतिक संपर्कों को बढ़ावा देने में साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण प्रभाव को दर्शाया है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: चोल प्रशासन और उसके स्थानीय प्रशासन के पहलुओं पर चर्चा करें। |
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उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: C प्रश्न. भारत ने दक्षिणपूर्वी एशिया के साथ अपने आंरभिक सांस्कृतिक संपर्क तथा व्यापारिक संबंध बंगाल की खाड़ी के पार बना रखे थे। निम्नलिखित में से कौन-सी बंगाल की खाड़ी के इस उत्कृष्ट आरंभिक समुद्री इतिहास की सबसे विश्वसनीय व्याख्या/व्याख्याएं हो सकती है/हैं? (a) प्राचीन काल तथा मध्य काल में भारत के पास दूसरों की तुलना में अति उत्तम सोत-निर्माण तकनीकी उपलब्ध थी उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न : आरंभिक भारतीय शिलालेखों में अंकित तांडव नृत्य की विवेचना कीजिये। (250 शब्द) प्रश्न: मंदिर वास्तुकला के विकास में चोल वास्तुकला का उच्च स्थान है। विवेचना कीजिये। (2013) प्रश्न: शैलकृत स्थापत्य प्रारंभिक भारतीय कला एवं इतिहास के ज्ञान के अति महत्त्वपूर्ण स्रोतों में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। विवेचना कीजिए। (2020) |