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जैव विविधता और पर्यावरण

हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट

  • 26 Sep 2024
  • 20 min read

प्रिलिम्स के लिये:

हिमालयी क्षेत्र, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व, बहुपरतीय प्लास्टिक, माइक्रोप्लास्टिक, सिंधु, गंगा, ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क, लैंडफिल

मेन्स के लिये:

ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट: चुनौतियाँ, परिणाम और स्थायी समाधान

स्रोत: डी.टी.ई.

चर्चा में क्यों?

हिमालयी क्षेत्र, जो अपने स्वच्छ पर्यावरण के लिये जाना जाता है, प्लास्टिक अपशिष्ट के बढ़ते संकट का सामना कर रहा है। वर्ष 2018 से, “हिमालयन क्लीनअप (THC)” अभियान में कचरे की सफाई करने और इसके स्रोतों का पता लगाने के लिये एकत्रित किये गए अपशिष्ट का ऑडिट करने के लिये प्रत्येक वर्ष स्वयंसेवक शामिल होते रहे हैं। 

  • इस मुद्दे के समाधान के रूप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य, अपशिष्ट को कम करने और स्वच्छता संबंधी स्थानीय प्रयासों का समर्थन करने हेतु सतत् प्रथाओं को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करते हुए विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) का क्रियान्वन करना है, जिससे निर्माताओं का उनके उत्पादों के जीवनचक्र पर उत्तरदायित्व सुनिश्चित होगा।

नोट: हिमालयन क्लीनअप (THC) पर्वतीय क्षेत्रों में प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान से संबोधित सबसे बड़ा अभियान है। प्रत्येक वर्ष, THC शीर्ष प्रदूषणकारी कंपनियों की पहचान करता है और उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित कराने की मांग करता है। यह अभियान व्यक्तियों, संगठनों, अपशिष्ट प्रबंधकों और नीति निर्माताओं को प्लास्टिक अपशिष्ट संकट का समाधान करने हेतु कार्रवाई करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट का स्तर क्या है?

  • अपशिष्ट उत्पादन: हिमालय में ठोस अपशिष्ट उत्पादन (SWG) विभिन्न कारकों जैसे शहरीकरण, पर्यटन और घरेलू आय के स्तर के आधार पर भिन्न-भिन्न है।  
    • अपशिष्ट का एक बड़ा हिस्सा घरों, बाज़ारों और होटलों से आता है जो जैव निम्‍नीकरणीय है। किंतु पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक अपशिष्ट सर्वाधिक है।
    • पर्यटन स्थलों पर काफी मात्रा में प्लास्टिक अपशिष्ट एकत्र होता है। ये पारिस्थितिकी तंत्र महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन फिर भी हिमालयी क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन अपर्याप्त बना हुआ है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट: प्लास्टिक प्रदूषण पर्वतीय क्षेत्रों के सुदूर भागों तक विस्तृत हो चुका है, जहाँ से अपशिष्ट का पुनर्चक्रण या निपटान करने के लिये उसे वापस लाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
    • कुल एकत्रित प्लास्टिक अपशिष्ट में से केवल 25% ही पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (PET), उच्च घनत्व पॉलीइथिलीन (HDPE) और निम्न घनत्व पॉलीइथिलीन (LDPE) से निर्मित थे, जिन्हें पुनर्चक्रण योग्य के रूप में वर्गीकृत किया गया, जबकि अधिकांश (75%) गैर-पुनर्चक्रण योग्य है। संबंधित क्षेत्र में एक अन्य चुनौती बहुपरतीय प्लास्टिक (MLP) की है क्योंकि ये गैर-पुनर्चक्रण योग्य हैं और उनका प्रबंधन करना कठिन है।
    • बड़े प्लास्टिक वस्तुओं के विघटन से निर्मित माइक्रोप्लास्टिक हिमालय के ग्लेशियर, नदियों, झीलों और साथ ही मानव ऊतकों में भी पाए गए हैं।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट में सबसे बड़ी भूमिका शीर्ष खाद्य ब्रांडों, धूम्रपान और तम्बाकू ब्रांडों, तथा पर्सनल केयर उत्पादों से उत्पन्न प्लास्टिक की है।

नोट: भारत विश्व में प्लास्टिक प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान देने वाले देशों में से एक है, जहाँ वर्ष में लगभग 9.3 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है। यह आँकड़ा कुल अपशिष्ट का लगभग 20% है।

  • शहरीकरण में तीव्रता, जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास के कारण एकल-उपयोग प्लास्टिक और पैकेजिंग सामग्री का उपयोग बढ़ गया है।
  • स्विस गैर-लाभकारी संस्था EA अर्थ एक्शन की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल कुप्रबंधित प्लास्टिक अपशिष्ट में भारत का अन्य 11 देशों के साथ 60% का योगदान है। 
    • EA की रिपोर्ट के अनुसार, कुप्रबंधित अपशिष्ट सूचकांक (MWI) 2023 में भारत का स्थान चौथा है, जहाँ उत्पन्न अपशिष्ट का 98.55% कुप्रबंधित है और प्लास्टिक अपशिष्ट के प्रबंधन में इसका प्रदर्शन निम्न है।
      • MWI कुप्रबंधित अपशिष्ट और कुल अपशिष्ट का अनुपात है।

भारत का हिमालयी क्षेत्र

  • इसका आशय भारत के उस पर्वतीय क्षेत्र से है जिसमें देश का संपूर्ण हिमालय पर्वतमाला शामिल है। यह जम्मू-कश्मीर में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग से लेकर भूटान, नेपाल और तिब्बत (चीन) जैसे देशों की सीमा पर स्थित पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तृत है।
  • भारत का हिमालयी क्षेत्र भारत के 13 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में 2500 किलोमीटर में विस्तृत है। 

प्लास्टिक अपशिष्ट कुप्रबंधन के परिणाम क्या हैं?

  • पर्यावरण क्षरण: अपशिष्ट को खुले में फेंकने से न केवल पर्वतों की प्राकृतिक सुंदरता प्रभावित होती है, बल्कि वायु और मृदा प्रदूषण भी बढ़ता है तथा पर्वतीय ढालों में अस्थिरता आती है।
  • जल स्रोतों पर प्रभाव: हिमालय क्षेत्र सिंधु, गंगाऔर ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख भारतीय नदियों की जल आपूर्ति के लिये महत्त्वपूर्ण है। अवैज्ञानिक रीति से प्लास्टिक अपशिष्ट का निपटान इन जल स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है और जैवविविधता को नुकसान पहुँचा रहा है।
  • जैवविविधता के समक्ष खतरा: असम में पाए जाने वाले ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क जैसे वन्यजीव अपने प्राकृतिक आहार के बजाय प्लास्टिक अपशिष्ट का भक्षण करने हेतु विवश हैं।
  • लोक स्वास्थ्य का जोखिम: लैंडफिल में मिश्रित अपशिष्ट से होने वाला प्रदूषण स्थानीय समुदायों के लिये स्वास्थ्य जोखिम उत्पन्न करता है और पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है।

हिमालय में अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • असमतल भूभाग और जलवायु: सुदूर और असमतल भूभाग तथा विषम जलवायु परिस्थितियाँ, अपशिष्ट संग्रहण और निपटान को शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण बना देती हैं।
    • हिमालयी राज्यों में अपशिष्ट उत्पन्न होने के स्रोत पर ही अपशिष्ट का पृथक्करण, संग्रहण और अपशिष्ट परिवहन प्रमुख चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
    • अधिकांश अपशिष्ट को एकत्र कर लैंडफिल में डाल दिया जाता है या नीचे की ओर लुढ़का दिया जाता है, जिससे प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
  • सीमित अवसंरचना: अपशिष्ट उपचार और निपटान के लिये भूमि की उपलब्धता सीमित है और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के लिये अवसंरचना प्रायः या तो अपर्याप्त होती है या इसका अभाव होता है।
    • केंद्रीकृत डम्पिंग की प्रथा वर्तमान में भी व्यापक है तथा रीसाइक्लिंग के लिये बुनियादी ढाँचे का अभाव है।
  • विनियमन और आँकड़ो का अभाव: हिमालयी आवासों में  उत्पन्न अपशिष्ट की मात्रा और प्रकार के बारे में उपलब्ध आँकड़े अपर्याप्त हैं, जिससे अपशिष्ट का प्रभावी प्रबंधन करना कठिन हो जाता है।
  • जागरूकता का अभाव: स्थानीय समुदाय अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के बीच संबंध से अवगत हैं किंतु उचित निपटान प्रथाओं के बारे में उन्हें ज्ञान का अभाव है। 

हिमालयी क्षेत्र में EPR के संबंध में चिंताएँ क्या हैं?

  • सीमित क्रियान्वयन: प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिये अपेक्षित EPR ढाँचे का हिमालयी राज्यों में न्यूनतम क्रियान्वयन हुआ है। स्थानीय निकाय EPR के बारे में पूर्ण रूप से जागरूक नहीं हैं, जिससे प्रभावी संचालन में बाधा आती है।
  • स्थानीय संदर्भ की अमान्यता: वर्तमान EPR नियमों में पर्वतीय समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं और स्थितियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है तथा जनसंख्या घनत्व, स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं और पर्यावरणीय संधारणीयता जैसे कारकों की अनदेखी की गई है
    • सभी के लिये एक समान दृष्टिकोण अपनाने से हिमालय में व्याप्त पारिस्थितिक महत्त्व और चुनौतियों को पहचानने में असफलता मिलती है।
  • भौगोलिक चुनौतियाँ: पर्वतीय भूभाग अपशिष्ट संग्रहण, एकत्रीकरण और परिवहन में अद्वितीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, जिससे पारंपरिक EPR मॉडल का क्रियान्वन कठिन हो जाता है।
    • दुर्गम क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन की समस्याएँ बढ़ जाती हैं, जिससे अपशिष्ट की मात्रा बढ़ जाती है।
  • अपर्याप्त उत्पादक उत्तरदायित्व: अपशिष्ट प्रबंधन के दायित्व का निर्वहन बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं और अपशिष्ट प्रबंधकों को करना पड़ा है तथा उत्पादकों को उनके उत्पादों के जीवनचक्र के लिये पर्याप्त रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है।
    • उत्पादकों का उनके उत्पादों से उत्पन्न अपशिष्ट हेतु उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने हेतु समर्थित तंत्र का निरंतर अभाव है, विशेष रूप से दूरवर्ती क्षेत्रों में।

हिमालयी क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन हेतु विधिक अधिदेश

  • राष्ट्रीय विनियामक ढाँचा: भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (SWM) नियम 2016, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (PWM) नियम 2016 और विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) 2022 प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये ढाँचा तैयार करते हैं।
  • पहाड़ी क्षेत्रों की स्वीकृति: SWM में पहाड़ी क्षेत्रों की विशेष आवश्यकताओं को मान्यता दी गई है लेकिन स्थानीय निकायों और उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों (PIBO) से संबंधित अधिदेशों में यह पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं होता है।
  • राज्य विशिष्ट पहल और नियामक प्रयास:
    • हिमाचल प्रदेश: राज्य ने 2019 में कुछ प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाते हुए कुछ राज्य कानून बनाए और गैर-पुनर्चक्रणीय और एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक के लिये बायबैक नीति की पेशकश की, हालाँकि समस्या अभी भी बनी हुई है।
    • सिक्किम: जनवरी 2022 में पैकेज्ड मिनरल वाटर पर प्रतिबंध लगा दिया गया और एक मज़बूत नियामक प्रणाली विकसित की गई किंतु फिर भी राज्य में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये बुनियादी ढाँचा अपर्याप्त है।
    • त्रिपुरा: एकल-उपयोग प्लास्टिक से निपटने के लिये नगरपालिका उप-नियम बनाए गए तथा राज्य स्तरीय टास्क फोर्स का गठन किया गया किंतु इनके परिणाम सीमित रहे।

आगे की राह 

  • EPR नियमों का स्थानीय अनुकूलन: पर्वतीय क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन की विशिष्ट चुनौतियों के अनुरूप विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व नियम (2022 ) को संशोधित करने की आवश्यकता है।
    • EPR विनियमों के विकास और प्रवर्तन में स्थानीय निकायों को शामिल करना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे व्यावहारिक और प्रभावी हों। निर्माताओं को सतत् प्रथाओं को अपनाने और उनकी पैकेजिंग तथा अपशिष्ट की उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने हेतु उन्हें प्रोत्साहन प्रदान किया जाना चाहिये।
  • ज़ोनिंग विनियमन का क्रियान्वन: राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) द्वारा नैनीताल को निषिद्ध, विनियमित और विकास क्षेत्रों में वर्गीकृत करने के समान, हिमालयी क्षेत्र को निर्दिष्ट क्षेत्रों की स्थापना करनी चाहिये जो पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने और उत्तरदायित्वपुर्ण विकास को बढ़ावा देने के लिये अनुमेय गतिविधियों की सीमा निर्धारित करते हों।
  • पर्वतीय समुदायों का सशक्तीकरण: हिमालय में अपशिष्ट संकट से निपटने के लिये, प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न करने वाले पैकेज्ड सामानों पर निर्भरता को कम करने के लिये स्थानीय कृषि को प्रोत्साहित करना महत्त्वपूर्ण है। समुदाय समर्थित कृषि (CSA) उपभोक्ताओं और स्थानीय किसानों के बीच साझेदारी को बढ़ावा दे सकती है, जिससे ताज़ी उपज तक पहुँच में सुधर हो सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, शैक्षिक पहलों से समुदायों को प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का उपयोग करने के बजाय स्थानीय खाद्य पदार्थों के लाभों के बारे में जानकारी दी जा सकती है, जिससे प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन और समग्र कल्याण को बढ़ावा मिलेगा।
  • चरणबद्ध कार्यान्वयन: एक व्यवस्थित, बहुस्तरीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सरकार और साझेदार ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में संस्थागत क्षमता, नीति निर्माण, प्रवर्तन और तकनीकी प्रगति का प्रबंधन करें।
  • बेहतर डेटा संग्रहण: पर्वतीय क्षेत्रों में अपशिष्ट उत्पादन और प्रबंधन पर पर्याप्त डेटा, बाधाओं को दूर करने और प्रभावी समाधान तैयार करने के लिये आवश्यक है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाएँ: दक्षिण कोरिया द्वारा नानजीदो द्वीप के अपशिष्ट के ढेर को इको-पार्क में परिवर्तित करने जैसे मामले के अध्ययन से हिमालय में पारिस्थितिकी-पुनर्स्थापना और बेहतर SWM प्रथाओं के लिये रणनीतियों को प्रेरणा मिल सकती है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र में जैवविविधता और लोक स्वास्थ्य पर प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाओं के प्रभाव पर चर्चा कीजिये। यह किस प्रकार संवेदनशील पारिस्थितिकी प्रणालियों के समक्ष विद्यमान व्यापक चुनौतियों को दर्शाता है?

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. पर्यावरण में मुक्त हो जाने वाली सूक्ष्म कणिकाओं (माइक्रोबीड्स) के विषय में अत्यधिक चिंता क्यों है? (2019) 

(a) ये समुद्री पारितंत्रों के लिये हानिकारक मानी जाती हैं।
(b) ये बच्चों में त्वचा कैंसर का कारण मानी जाती हैं।
(c) ये इतनी छोटी होती हैं कि सिंचित क्षेत्रों में फसल पादपों द्वारा अवशोषित हो जाती हैं।
(d) अक्सर इनका इस्तेमाल खाद्य पदार्थों में मिलावट के लिये किया जाता है।

उत्तर: (a)


प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसमें एक महत्त्वपूर्ण विशेषता के रूप में 'विस्तारित उत्पादक दायित्व' आरंभ किया गया था? (2019) 

(a) जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 1998
(b) पुनर्चक्रित प्लास्टिक (निर्माण और उपयोग) नियम, 1999
(c) ई-अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 2011
(d) खाद्य सुरक्षा और मानक विनियम, 2011

उत्तर: (c)

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