शासन व्यवस्था
पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996
- 04 Aug 2021
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प्रिलिम्स के लियेपेसा अधिनियम, 1996, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह मेन्स के लियेपेसा अधिनियम की विशेषताएँ एवं इससे जुड़ी समस्याएँ, भारत में आदिम जनजातीय समूहों की स्थिति |
चर्चा में क्यों?
झारखंड के अधिकांश क्षेत्रों से आदिवासी स्वशासन प्रणाली समाप्त हो गई है।
- भारतीय इतिहास के समय में अधिकांश आदिवासियों (भारत के आदिवासी समुदायों) की अपनी संघीय शासन प्रणाली थी। हालाँकि औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्रता के पश्चात् की प्रशासनिक व्यवस्था ने आदिवासी शासन प्रणाली को काफी हद तक प्रभावित किया है।
- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम , 1996 को पारंपरिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को बनाए रखना था।
प्रमुख बिंदु
केस स्टडी - झारखंड की जनजातीय शासन प्रणाली:
- वर्ष 2000 में झारखंड को बिहार के दक्षिणी भाग से अलग कर भारत के 28वें राज्य के रूप में बनाया गया था।
- यह भाग भूगोल और सामाजिक संरचना की दृष्टि से बिहार के उत्तरी भाग से विशिष्ट रूप से भिन्न था।
- इसमें 32 विभिन्न जनजातियाँ हैं, जिनमें नौ विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) शामिल हैं।
- 2001 की जनगणना के अनुसार, संथाल (34%), उरांव (19.6%), मुंडा (14.8%) और हो (10.5%) संख्या के मामले में प्रमुख जनजातियों में से हैं।
- राज्य में प्रमुख जनजातीय समुदायों में संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को तीन कार्यात्मक स्तरों में संगठित किया गया था।
- पहला ग्राम स्तर पर है; दूसरा पाँच-छह ग्राम स्तरों के समूह में तथा तीसरा सामुदायिक स्तर पर।
- निर्णय लेने की इन प्रक्रियाओं को जन-केंद्रित और लोकतांत्रिक माना जाता था, हालाँकि महिलाओं को ज़्यादातर ऐसी प्रक्रियाओं में भाग लेने की अनुमति नहीं थी।
- उनकी अपनी शासन प्रणाली थी, जो जाति व्यवस्था के विपरीत गैर-श्रेणीबद्ध थी। प्रत्येक आदिवासी गाँव में स्वशासन की मूल इकाई के रूप में एक ग्राम परिषद होती थी।
- ये मंच प्रशासन, संसद और न्यायपालिका से संबंधित सभी मामलों के लिये निर्णय लेने वाले निकायों के रूप में कार्य करते थे।
- प्रशासनिक मामले गाँव के सामान्य (जैसे भूमि, जंगल और जल निकाय), श्रम साझाकरण, कृषि गतिविधियों, धार्मिक आयोजनों और त्योहारों आदि के रखरखाव से संबंधित थे।
- संसदीय मामले मानदंडों और अलिखित कानूनों और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने व व्याख्या करने से संबंधित थे।
- न्यायपालिका के मामले अलिखित मानदंडों और मूल्यों द्वारा निर्देशित संघर्ष, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों आदि के प्रबंधन से संबंधित थे।
- व्यवस्था का क्रमिक पतनः वर्ष 1947 में बिहार पंचायत राज व्यवस्था (BPRS) की शुरुआत के बाद ये आदिवासी पारंपरिक शासन प्रणाली कमज़ोर हो गई।
- गैर-आदिवासी क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए BPRS का गठन किया गया था।
- परिणामस्वरूप गैर-प्राथमिकता और उपेक्षा के कारण पारंपरिक शासन प्रणाली की प्रक्रिया प्रभावित हुई।
- यह औद्योगीकरण, आदिवासियों के विस्थापन और शहरीकरण से बढ़ गया था।
पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक,1996 के बारे में:
- ग्रामीण भारत में स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देने हेतु वर्ष 1992 में 73वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया।
- इस संशोधन द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था के लिये कानून बनाया गया।
- हालांँकि अनुच्छेद 243 (M) के तहत अनुसूचित और आदिवासी क्षेत्रों में इस कानून का आवेदन प्रतिबंधित था।
- वर्ष 1995 में भूरिया समिति की सिफारिशों के बाद भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिये स्व-शासन सुनिश्चित करने हेतु पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक,1996 अस्तित्व में आया।
- पेसा ने ग्राम सभा को पूर्ण शक्तियाँ प्रदान की, जबकि राज्य विधायिका पंचायतों और ग्राम सभाओं के समुचित कार्य को सुनिश्चित करने हेतु एक सलाहकार की भूमिका में है।
- पेसा को भारत में आदिवासी कानून की रीढ़ माना जाता है।
- पेसा निर्णय लेने की प्रक्रिया की पारंपरिक प्रणाली को मान्यता देता है और लोगों की स्वशासन की भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- ग्राम सभाओं को निम्नलिखित शक्तियांँ और कार्य प्रदान किये गए हैं:
- भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार।
- पारंपरिक आस्था और आदिवासी समुदायों की संस्कृति का संरक्षण।
- लघु वन उत्पादों का स्वामित्व।
- स्थानीय विवादों का समाधान।
- भूमि अलगाव की रोकथाम।
- गांव के बाजारों का प्रबंधन।
- शराब के उत्पादन, आसवन और निषेध को नियंत्रित करने का अधिकार।
- साहूकारों पर नियंत्रण का अधिकार।
- अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कोई अन्य अधिकार।
पेसा से संबंधित मुद्दे:
- राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस राष्ट्रीय कानून के अनुरूप अपने अनुसूचित क्षेत्रों के लिये राज्य स्तरीय कानून बनाएँ।
- इसके परिणामस्वरूप पेसा आंशिक रूप से कार्यान्वित हुआ है।
- आंशिक कार्यान्वयन ने आदिवासी क्षेत्रों में, जैसे- झारखंड में स्वशासन को खराब कर दिया है।
- कई विशेषज्ञों ने दावा किया है कि पेसा स्पष्टता की कमी, कानूनी दुर्बलता, नौकरशाही उदासीनता, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, सत्ता के पदानुक्रम में परिवर्तन के प्रतिरोध आदि के कारण सफल नहीं हुआ।
- राज्य भर में किये गए सोशल ऑडिट में यह भी बताया गया है कि वास्तव में विभिन्न विकास योजनाओं को ग्राम सभा द्वारा केवल कागज़ पर अनुमोदित किया जा रहा था, वास्तव में चर्चा और निर्णय लेने के लिये कोई बैठक नहीं हुई थी।
भारत की जनजातीय नीति
- भारत में अधिकांश जनजातियों को सामूहिक रूप से अनुच्छेद 342 के तहत ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में मान्यता दी गई है।
- भारतीय संविधान के भाग X: अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्र में निहित अनुच्छेद 244 (अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन) द्वारा इन्हें आत्मनिर्णय के अधिकार (Right to Self-determination) की गारंटी दी गई है।
- संविधान की 5वीं अनुसूची में अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन एवं नियंत्रण तथा छठी अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी उपबंध किये गए हैं।
- पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 या पेसा अधिनियम।
- जनजातीय पंचशील नीति।
- अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 वन में रहने वाले समुदायों के भूमि और अन्य संसाधनों के अधिकारों से संबंधित है।
आगे की राह
- यदि पेसा अधिनियम को अक्षरश: लागू किया जाता है, तो यह आदिवासी क्षेत्र में मरती हुई स्वशासन प्रणाली को फिर से जीवंत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
- यह पारंपरिक शासन प्रणाली में खामियों को दूर करने और इसे अधिक लिंग-समावेशी एवं लोकतांत्रिक बनाने का अवसर भी देगा।