भारत में समान नागरिक संहिता की आवश्यकता | 29 Jun 2023
प्रिलिम्स के लिये:समान नागरिक संहिता, संविधान का अनुच्छेद 44, सातवीं अनुसूची, वर्ष 1954 का विशेष विवाह अधिनियम, भारत का 22वाँ विधि आयोग मेन्स के लिये:समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क, भारत में समान नागरिक संहिता के लिये प्रयास, समान नागरिक संहिता को लागू करने में चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भारत में समान नागरिक संहिता (UCC) के कार्यान्वयन के लिये अपना समर्थन व्यक्त किया, जिसमें कहा गया कि भारत "विभिन्न समुदायों के लिये अलग कानूनों" की प्रणाली के साथ कुशलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता है।
समान नागरिक संहिता (UCC):
- उत्पत्ति और इतिहास:
- औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार की वर्ष 1835 की रिपोर्ट में अपराध, साक्ष्य और अनुबंध सहित भारतीय कानून में एक समान संहिताकरण का आह्वान किया गया था।
- हालाँकि, अक्तूबर 1840 की लेक्स लोकी रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताकरण से बाहर रखा जाना चाहिये।
- जैसे-जैसे ब्रिटिश शासन आगे बढ़ा हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिये वर्ष 1941 में बी.एन. राऊ समिति का गठन किया गया। इस गठन के परिणामस्वरूप वर्ष 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू हुआ।
- औपनिवेशिक भारत में ब्रिटिश सरकार की वर्ष 1835 की रिपोर्ट में अपराध, साक्ष्य और अनुबंध सहित भारतीय कानून में एक समान संहिताकरण का आह्वान किया गया था।
- समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा के विचार:
- संविधान सभा में बहस के दौरान समान नागरिक संहिता को शामिल करने पर महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई।
- जहाँ सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में मतदान हुआ और 5:4 के अनुपात में बहुमत मिला जिसके परिमाणस्वरूप मौलिक अधिकारों पर उप-समिति ने निर्णय लिया कि समान नागरिक संहिता को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल नहीं किया जाएगा।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने संविधान का मसौदा तैयार करते समय कहा था कि समान नागरिक संहिता वांछनीय है लेकिन इसे तब तक स्वैच्छिक रहना चाहिये जब तक कि राष्ट्र इसे स्वीकार करने के लिये सामाजिक रूप से तैयार न हो जाए।
- जिसके परिणामस्वरूप समान नागरिक संहिता को राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) (अनुच्छेद 44) में रखा गया।
- संविधान सभा में बहस के दौरान समान नागरिक संहिता को शामिल करने पर महत्त्वपूर्ण चर्चा हुई।
नोट: भारत में विवाह, तलाक, विरासत जैसे पर्सनल लॉ के विषय समवर्ती सूची (7वीं अनुसूची) के अंतर्गत आते हैं।
समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क:
- विविधता में एकता का जश्न मनाना: यह व्यक्तिगत धार्मिक कानूनों के आधार पर भेदभाव और विरोधाभासों को दूर करके तथा सभी नागरिकों के लिये एक समान पहचान स्थापित कर राष्ट्रीय एकता एवं धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देगी।
- यह विविध समुदायों के बीच एकता और सद्भाव की भावना को भी बढ़ावा देगी।
- उदाहरण स्वरूप UCC बिना किसी कानूनी बाधा या सामाजिक दुष्प्रभाव के अंतर-धार्मिक विवाह और संबंधों को सक्षम बनाएगा।
- महिलाओं को सशक्त बनाना: यह विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों, जैसे- बहुविवाह, असमान विरासत आदि में महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण और दमनकारी प्रथाओं को समाप्त करके लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करेगा।
- कानूनी दक्षता के लिये इसे सरल बनाना: भारत की वर्तमान कानूनी प्रणाली जटिल और अतिव्यापी व्यक्तिगत कानूनों की अधिकता है, जिससे भ्रम और कानूनी विवाद पैदा होते हैं।
- एक UCC विभिन्न कानूनों को एक ही कोड में समेकित और सुसंगत बनाकर कानूनी ढाँचे को सरल बनाएगा।
- इससे स्पष्टता बढ़ेगी, कार्यान्वयन में आसानी होगी और न्यायपालिका पर बोझ कम होगा, जिससे अधिक कुशल कानूनी प्रणाली सुनिश्चित होगी।
- सफलता की वैश्विक कहानियों से प्रेरणा लेना: फ्राँस जैसे दुनिया भर के कई देशों ने समान नागरिक संहिता लागू की है।
- UCC एक आधुनिक प्रगतिशील राष्ट्र का संकेत है जिसका अर्थ है कि इससे जातिगत और धार्मिक राजनीति को रोका जा सकेगा।
UCC के विरोध में तर्क:
- अल्पसंख्यकों के अधिकारों को खतरा: भारत की शक्ति उसके विविध समाज में निहित है और इन विविधताओं को समायोजित करने के लिये व्यक्तिगत कानून विकसित किये गए हैं।
- आलोचकों का तर्क है कि एकल संहिता लागू करने से अल्पसंख्यक समुदायों की सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता कमज़ोर हो सकती है, जिससे अलगाव एवं हाशिये की स्थिति की भावना पैदा हो सकती है।
- न्यायिक बैकलॉग: भारत पहले से ही न्यायिक मामलों के एक महत्त्वपूर्ण बैकलॉग का सामना कर रहा है तथा UCC को लागू करने से स्थिति और खराब हो सकती है।
- व्यक्तिगत कानूनों को एक कोड में सुसंगत बनाने के लिये आवश्यक व्यापक महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधारों हेतु समय और प्रयास की आवश्यकता होगी।
- परिणामस्वरूप इस संक्रमणकालीन अवधि के दौरान UCC की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले नए मामलों के उभरने के कारण कानूनी प्रणाली पर बोझ बढ़ सकता है।
- गोवा में UCC को लेकर जटिलताएँ: गोवा में UCC के कार्यान्वयन की वर्ष 2019 में सर्वोच्य न्यायालय ने सराहना की है। हालाँकि ज़मीनी हकीकत राज्य के UCC के भीतर जटिलताओं और कानूनी बहुलताओं को उजागर करती है।
- गोवा में UCC हिंदुओं को एक विशिष्ट प्रकार के बहुविवाह की अनुमति देता है और मुसलमानों हेतु शरीयत अधिनियम का विस्तार नहीं करता है (यह पुर्तगाली और शास्त्री हिंदू कानून पर आधारित हैं)।
- इसके अतिरिक्त कैथोलिक को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हैं, जैसे- विवाह पंजीकरण से छूट तथा कैथोलिक पादरियों की विवाह को विघटित करने की शक्ति।
- यह भारत में व्यक्तिगत कानूनों की जटिलता को उजागर करता है, यहाँ तक कि उस राज्य में भी जो UCC लागू करने के लिये जाना जाता है।
भारत में UCC की दिशा में प्रयास:
- सांविधिक प्रावधान:
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954: इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी धर्म के भारतीय नागरिक को धार्मिक रीति-रिवाज़ से बाहर विवाह करने की अनुमति है।
- UCC की आवश्यकता की सिफारिश करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय:
- शाहबानो केस, 1985
- सरला मुदगल केस, 1995
- पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परेरा (2019)
- UCC से विधि आयोग तक का रुख:
- भारतीय विधि आयोग (2018): इसमें कहा गया है कि UCC, इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है, क्योंकि यह राष्ट्र की सद्भावना के लिये प्रतिकूल होगा।
- इसने यह भी सुझाव दिया कि व्यक्तिगत कानूनों में सुधार संशोधनों द्वारा किया जाना चाहिये, न कि प्रतिस्थापन द्वारा।
- हाल ही में भारत के 22वें विधि आयोग ने UCC के संबंध में सामान्य जनता के साथ-साथ मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों की राय और सुझाव लेने का निर्णय किया है।
UCC को लागू करने में चुनौतियाँ:
- राजनीतिक जड़ता: किसी भी राजनीतिक दल ने इस संहिता को अधिनियमित करने की ईमानदारी पूर्वक और नियमित तौर पर प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है क्योंकि इसे हमेशा से ही एक संवेदनशील और विभाजनकारी मुद्दे के रूप में देखा जाता है जिसका उनके वोट बैंक पर प्रभाव पड़ सकता है।
- इसके अतिरिक्त विभिन्न समूहों के व्यक्तिगत मुद्दों और विविध दृष्टिकोण होने के कारण इस संहिता के दायरे, इसकी विषयवस्तु तथा स्वरूप को लेकर राजनीतिक दलों और हितधारकों के बीच कोई सहमति नहीं है।
- जागरूकता और शिक्षा का अभाव: भारत में बहुत से लोग अपने व्यक्तिगत कानूनों या सामान्य कानूनों के अंतर्गत अपने कानूनी अधिकारों और दायित्वों के बारे में भी नहीं जानते हैं।
- उन्हें UCC के लाभों और कमियों के बारे में या UCC को अपनाने या अस्वीकार करने वाले अन्य देशों के अनुभवों के बारे में भी शिक्षित नहीं किया गया है।
- वे अक्सर निहित स्वार्थी तत्त्वों या सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा फैलाई गई गलत सूचना या प्रचार से प्रभावित होते हैं।
आगे की राह
- तुलनात्मक विश्लेषण: भारत में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों का व्यापक तुलनात्मक विश्लेषण करने की आवश्यकता है। इससे समानताओं और विवाद के क्षेत्रों को समझने में मदद मिलेगी।
- सामान्य सिद्धांतों का अधिनियमन: तुलनात्मक विश्लेषण के आधार पर हम व्यक्तिगत प्रस्थिति/दर्जे का एक कानून बना सकते हैं जिसमें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों द्वारा साझा किये गए सिद्धांतों को शामिल किया गया हो।
- विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों से निकटता से संरेखित होने वाले इन सामान्य सिद्धांतों को एक समान कानूनी ढाँचा स्थापित करने के लिये तुरंत ही लागू किया जा सकता है।
- फैमिली लॉ बोर्ड: पारिवारिक मामलों से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों का अध्ययन करने और उनमें बदलाव की सिफारिश करने के लिये केंद्रीय कानून मंत्रालय के भीतर एक फैमिली लॉ बोर्ड स्थापित करने की आवश्यकता है।
- ब्रिक बाय ब्रिक दृष्टिकोण: वर्तमान में एक समान संहिता की तुलना में एक न्यायसंगत संहिता कहीं अधिक आवश्यक है; समान नागरिक संहिता की व्यवहार्यता, स्वीकृति और व्यावहारिकता के बारे में जानकारी देने के लिये चुनिंदा क्षेत्रों अथवा समुदायों में पायलट परियोजनाएँ शुरू की जा सकती हैं।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित राज्य की नीति निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त में से कौन-से गांधीवादी सिद्धांत राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों में परिलक्षित होते हैं? (a) केवल 1, 2 और 4 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. चर्चा कीजिये कि वे कौन से संभावित कारक हैं जो भारत को राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व में प्रदत्त के अनुसार अपने नागरिकों के लिये समान सिविल संहिता को अभिनियामित करने से रोकते हैं। (2015) |