भारतीय इतिहास
मुस्लिम लीग और भारत में सांप्रदायिक राजनीति का उदय
- 02 Jan 2025
- 19 min read
प्रिलिम्स के लिये:अखिल भारतीय मुस्लिम लीग, अलीगढ़ आंदोलन, नेहरू रिपोर्ट, उत्तर-पश्चिम प्रांत, सांप्रदायिक पुरस्कार, विनायक दामोदर सावरकर, खिलाफत आंदोलन, प्रस्तावना मेन्स के लिये:भारत के विभाजन में अखिल मुस्लिम भारतीय लीग, भारत में सांप्रदायिक राजनीति का विकास, सांप्रदायिकता से संबंधित चुनौतियाँ |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
30 दिसंबर, 1906 को ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की गई, जिसने एक ऐसे राजनीतिक संगठन की शुरुआत की, जिसने भारत के विभाजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- समय के साथ लीग कुलीन मुस्लिम व्यक्तियों के एक समूह से विकसित होकर मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में एक व्यापक राजनीतिक पार्टी के रूप में विकसित हो गई, जो पाकिस्तान के विभाजन का समर्थन करने लगी।
अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का इतिहास और प्रभाव क्या था?
- संस्थापक: संभ्रांत मुस्लिम नेता, जिसमें ढेका के नवाब सैयदा, नवाब विकार-उल-मुल्क, नवाब मोहसिन उल-मुल्क और आगा खान शामिल हैं।
- अलीगढ़ आंदोलन, जिसने मुस्लिम राजनीतिक चेतना और शिक्षा को बढ़ावा दिया तथा शिमला प्रतिनिधिमंडल (1906), जिसमें मुस्लिम नेताओं ने विशेष प्रतिनिधित्व की मांग के लिये लॉर्ड मिंटो द्वितीय (1905-1910) से मुलाकात की, ये सभी अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना से पहले हुए थे।
- प्रारंभिक उद्देश्य: विधायी निकायों में मुसलमानों का विशेष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना तथा उनके धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों की रक्षा करना।
- जिन्ना के नेतृत्व का उदय: मुहम्मद अली जिन्ना ने लीग को एक व्यापक राजनीतिक शक्ति में बदल दिया, विशेष रूप से चौदह सूत्री समझौते (1929) के बाद, जिसमें संघवाद, अल्पसंख्यक सुरक्षा और स्वायत्तता जैसी मुस्लिम राजनीतिक मांगों को रेखांकित किया गया था।
- प्रमुख अधिनियम और संकल्प:
- लखनऊ समझौता (1916): कॉन्ग्रेस-मुस्लिम लीग सहयोग का एक अनूठा उदाहरण लखनऊ समझौता (1916) था। इस समझौते पर मुहम्मद अली जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक सहित कई नेताओं ने हस्ताक्षर किये थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिये सहयोग करने की प्रतिबद्धता जताई थी।
- कॉन्ग्रेस ने मुसलमानों के लिये अलग निर्वाचन क्षेत्र को स्वीकार कर लिया, जो लीग की एक महत्त्वपूर्ण मांग थी। हालाँकि इससे भारत में सांप्रदायिक राजनीति का उदय भी हुआ।
- इस अधिनियम में विधानमंडल और कार्यकारी परिषदों में भारतीय प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की बात कही गई थी। यह स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू-मुस्लिम एकता का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु था।
- लाहौर प्रस्ताव (1940): वर्ष 1940 तक, जिन्ना के नेतृत्व में लीग ने विभाजन के पक्ष में रुख अपना लिया।
- लाहौर (1940) में अपने अधिवेशन में लीग ने उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में मुसलमानों के लिये "स्वतंत्र राज्यों" का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जहाँ वे बहुसंख्यक थे।
- यह प्रस्ताव, जिसे बाद में पाकिस्तान प्रस्ताव कहा गया, वर्ष 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के लिये वैचारिक आधार बन गया।
- प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस: 16 अगस्त, 1946 को मनाया जाने वाला प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस, पाकिस्तान के निर्माण के लिये दबाव बनाने हेतु मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा आहूत एक सांप्रदायिक आंदोलन है।
- इसके कारण बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे हुए, खासतौर पर कोलकाता में, जिसके परिणामस्वरूप हज़ारों लोग मारे गए और संपत्ति नष्ट हो गई। हिंसा ने हिंदू-मुस्लिम विभाजन को आक्रामक तथा विभाजन की मांग को और तेज़ कर दिया।
- विभाजन में भूमिका: जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग का नेतृत्व किया, उनका तर्क था कि हिंदू बहुल भारत में मुसलमानों के साथ उचित व्यवहार नहीं किया जाएगा। इस प्रयास का परिणाम वर्ष 1947 में विभाजन के रूप में सामने आया, जिससे भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ।
- विभाजन के बाद: लीग पाकिस्तान की प्रमुख पार्टी बन गई, लेकिन समय के साथ इसका कई गुटों में विभाजन हो गया। भारत में इसकी भूमिका कम हो गई और कुछ पिछड़े लोगों ने क्षेत्रीय राजनीतिक समूह का निर्माण किया।
जिन्ना का चौदह सूत्रीय फार्मूला, 1929
पृष्ठभूमि:
- नेहरू रिपोर्ट: वर्ष 1928 में साइमन कमीशन आयोग द्वारा प्रस्तावित संसदीय सुधारों के लिये सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया था।
- मोतीलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट ने भारत के लिये डोमिनियन स्टेटस की वकालत की, जबकि बंगाल एवं पंजाब में पृथक निर्वाचिका और मुस्लिम सीट आरक्षण को अस्वीकार कर दिया।
- मुस्लिम प्रतिक्रिया: मुस्लिम नेताओं ने नेहरू रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि यह मुस्लिम हितों के विरुद्ध है। मार्च 1929 में मुहम्मद अली जिन्ना ने दिल्ली में मुस्लिम लीग के एक सत्र की अध्यक्षता की, जहाँ उन्होंने अपने चौदह सूत्र प्रस्तुत किये, जो लीग का घोषणा-पत्र और उसकी राजनीतिक रणनीति का आधार बन गए।
जिन्ना के चौदह सूत्र:
- संघीय संविधान: एक संघीय प्रणाली जिसमें शेष शक्तियाँ प्रांतों को आवंटित होती हैं।
- प्रांतीय स्वायत्तता: प्रांतों के लिये पूर्ण स्वायत्तता।
- संवैधानिक संशोधन: राज्यों की सहमति की आवश्यकता वाले केंद्रीय संशोधन।
- विधानमंडलों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व: बहुमत को कम किये बगैर पर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व।
- सेवाओं में प्रतिनिधित्व: सरकारी सेवाओं और स्वशासी निकायों में उचित प्रतिनिधित्व।
- केंद्रीय विधानमंडल: केंद्रीय विधानमंडल में एक तिहाई मुस्लिम प्रतिनिधित्व।
- कैबिनेट प्रतिनिधित्व: केंद्रीय और प्रांतीय मंत्रिमंडलों में एक तिहाई मुस्लिम प्रतिनिधित्व।
- पृथक निर्वाचन क्षेत्र: पृथक निर्वाचन क्षेत्रों का जारी रहना।
- अल्पसंख्यक सुरक्षा: अल्पसंख्यक समूह के तीन-चौथाई भाग द्वारा विरोध किये गए विधेयक पारित नहीं हो सकते।
- प्रादेशिक पुनर्वितरण: प्रादेशिक परिवर्तन से पंजाब, बंगाल और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को कोई नुकसान नहीं होगा।
- सिंध पृथक्करण: सिंध का बंबई से पृथक्करण।
- संवैधानिक सुधार: उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (NWFP) और बलूचिस्तान में सुधार, ताकि इन क्षेत्रों में मुसलमानों को अधिक राजनीतिक स्वायत्तता प्रदान की जा सके।
- धार्मिक स्वतंत्रता: सभी समुदायों के लिये धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी।
- मुस्लिम अधिकारों का संरक्षण: धर्म, संस्कृति, शिक्षा और भाषा के लिये सुरक्षा।
सांप्रदायिक राजनीति क्या है?
- सांप्रदायिकता: इसका तात्पर्य अपने समुदाय, प्रायः धार्मिक, के प्रति प्रबल लगाव से है, जिसमें समूह के भीतर एकता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- सांप्रदायिकता के सकारात्मक पहलुओं में यह शामिल है कि यह समुदाय के भीतर सामाजिक और आर्थिक उत्थान को बढ़ावा दे सकती है।
- सांप्रदायिकता के नकारात्मक पहलू समूह की श्रेष्ठता पर ज़ोर देते हैं, जिससे अन्य समुदायों के साथ असहिष्णुता, विभाजन और संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
- यह आंतरिक विविधता का शोषण करता है, अपने हितों को प्राथमिकता देता है, जिससे सामाजिक विभाजन को बढ़ावा मिलता है।
- सांप्रदायिक राजनीति: इसका तात्पर्य राजनीतिक सत्ता के लिये धार्मिक समुदाय को संगठित करना है, जो प्रायः इस विश्वास पर आधारित होता है कि धार्मिक पहचान साझा आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हितों के समान होती है।
- स्वतंत्रता पूर्व काल:
- ब्रिटिश प्रभाव: सांप्रदायिक राजनीति ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत नौकरियों, शिक्षा और राजनीतिक पदों जैसे विशेषाधिकारों के लिये सौदेबाज़ी के एक उपकरण के रूप में उभरी है।
- अंग्रेज़ों ने राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर करने के लिये हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच विभाजन को बढ़ावा देते हुए “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई।
- अंग्रेज़ों ने वर्ष 1932 के सांप्रदायिक पंचाट के माध्यम से सांप्रदायिक शक्तियों को समर्थन दिया, जिससे मुस्लिम लीग मज़बूत हुई तथा कॉन्ग्रेस के साथ उसके मतभेद और गहरे हो गए।
- प्रारंभिक लक्ष्य: सैयद अहमद खान जैसे नेताओं द्वारा समर्थित प्रारंभिक सांप्रदायिक राजनीति ने मुस्लिम समुदायों के लिये उच्च पदों की मांग की।
- धार्मिक लामबंदी: अकाली आंदोलन (वर्ष 1919-1926), खिलाफत आंदोलन (वर्ष 1920-21) जैसे उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों ने सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने में योगदान दिया।
- कॉन्ग्रेस और सांप्रदायिकता: हिंदू-मुस्लिम एकता के लिये प्रतिबद्ध होने के बावजूद, भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस (कॉन्ग्रेस) के प्रभुत्व और हिंदू सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रयोग ने मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया।
- बंगाल विभाजन (वर्ष 1905) और पृथक निर्वाचिका मंडलों की स्थापना (वर्ष 1909) के साथ सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया।
- मुस्लिम लीग और सांप्रदायिकता: लीग ने कॉन्ग्रेस को एक हिंदू-प्रभुत्व वाली इकाई के रूप में चित्रित किया, जिससे एकीकृत भारत में मुसलमानों के हाशिये पर चले जाने का भय बढ़ गया।
- द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का उदय: हिंदुत्व (विनायक दामोदर सावरकर) जैसी सांप्रदायिक विचारधाराएँ और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग भारत के विभाजन के रूप में सामने आई।
- ब्रिटिश प्रभाव: सांप्रदायिक राजनीति ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत नौकरियों, शिक्षा और राजनीतिक पदों जैसे विशेषाधिकारों के लिये सौदेबाज़ी के एक उपकरण के रूप में उभरी है।
- स्वतंत्रता के बाद की अवधि:
- वैधता और खुलापन: सांप्रदायिक राजनीति को मुख्यधारा में स्वीकृति मिली, विशेष रूप से वर्ष 1980 के दशक में धार्मिक पहचान आधारित विचारधाराओं के उदय के साथ।
- इसने धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद को चुनौती देना आरंभ कर दिया तथा बहुसंख्यक धार्मिक पहचान पर केंद्रित राष्ट्र की वकालत की।
- हिंसा का प्रयोग: चुनावी और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये प्रायः दंगों एवं नरसंहारों की योजना बनाई जाती है।
- सोशल मीडिया: सोशल प्लेटफॉर्म पर अभद्र भाषा और फर्जी खबरों का प्रसार, सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाता है।
- जाति और सांप्रदायिक राजनीति: जाति और धार्मिक पहचान की राजनीति का अंतर्संबंध, जिससे और अधिक विभाजन उत्पन्न होता है।
- न्यायपालिका की भूमिका: सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप का धीमा होना, जिसमें न्याय चयनात्मक है।
- वैधता और खुलापन: सांप्रदायिक राजनीति को मुख्यधारा में स्वीकृति मिली, विशेष रूप से वर्ष 1980 के दशक में धार्मिक पहचान आधारित विचारधाराओं के उदय के साथ।
नोट: भारत में धार्मिकता सदैव आध्यात्मिकता और व्यक्तिगत सद्भाव में निहित रही है, जो सामाजिक जीवन का मार्गदर्शन करती है, जबकि सांप्रदायिकता बड़े पैमाने पर ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों के कारण उभरी।
- धार्मिकता आंतरिक शांति और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देती है, सांप्रदायिकता प्रायः राजनीति तथा समुदायों के बीच शिकायतों से प्रेरित होती है।
सांप्रदायिक राजनीति को लोकप्रियता क्यों मिलती है?
- आर्थिक पिछड़ापन: गरीबी, बेरोज़गारी और बुनियादी ढाँचे की कमी से समुदाय सांप्रदायिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनते हैं।
- राजनीतिक अवसरवाद: सांप्रदायिक मुद्दे सत्ता हासिल करने में सहायक होने के साथ शासन की विफलताओं एवं आर्थिक मुद्दों से ध्यान भटकाने में भूमिका निभाते हैं।
- राजनीतिक दल (विशेषकर सांप्रदायिक विचारधारा वाले दल) अक्सर विभाजनकारी रणनीति से वोट बैंक का लाभ उठाते हैं।
- संसाधनों पर नियंत्रण: सांप्रदायिक हिंसा का प्रयोग अक्सर प्रतिस्पर्द्धा को खत्म करने या संपत्तियों को ज़ब्त करने (विशेष रूप से आर्थिक रूप से प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्रों में) के लिये किया जाता है।
- ध्रुवीकरण पर बल: आर्थिक मुद्दों के लिये किसी समुदाय को दोषी ठहराने से, विशेष रूप से हाशिये पर स्थित समूहों के बीच विभाजन को बढ़ावा मिलता है।
- इससे खराब प्रशासन से परे अंतर-सामुदायिक प्रतिद्वंद्विता को महत्त्व मिलता है, जिससे विभाजन और गहरा हो जाता है।
- कमज़ोर कानूनी प्रवर्तन: सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ अपर्याप्त कानून से लोग राजनीतिक लाभ के लिये सांप्रदायिक हिंसा का उपयोग करने हेतु प्रोत्साहित होते हैं।
आगे की राह
- धर्मनिरपेक्षता: भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित धर्मनिरपेक्षता के प्रति संवैधानिक प्रतिबद्धता को सुदृढ़ करना चाहिये।
- सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक, 2011 को लागू किया जाए ताकि हिंसा एवं धार्मिक वोट बैंक की राजनीति पर अंकुश लगाया जा सके।
- बंधुत्व: भारत की विविधता के साथ संविधान में उल्लिखित बंधुत्व और समानता के मूल्यों के अनुरूप प्रगति, न्याय एवं सभी समुदायों के लिये सम्मान के साझा दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिये।
- आर्थिक समानता: असमानताओं को दूर करने एवं सांप्रदायिक तनाव को कम करने के लिये समावेशी आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- चुनावी सुधार: हेट स्पीच के माध्यम से सांप्रदायिक प्रचार में शामिल लोगों पर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत कठोर दंड लगाया जाना चाहिये।
- भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को सांप्रदायिक प्रचार की प्रभावशाली निगरानी रखने एवं उसके खिलाफ कार्रवाई करने हेतु सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- नागरिक समाज एवं मीडिया को मज़बूत बनाना: धार्मिक विचारधारा को प्रबंधित करने के क्रम में नागरिक समाज एवं मीडिया को मज़बूत बनाना चाहिये।
- सांप्रदायिक राजनीति के सिद्धांतों के बारे में जनता को शिक्षित करने के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने के लिये मीडिया को तथ्य-आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिये।
- सांप्रदायिक राजनीति के सिद्धांतों के बारे में जनता को शिक्षित करने के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने के लिये मीडिया को तथ्य-आधारित दृष्टिकोण अपनाना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत के विभाजन में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की भूमिका एवं भारत की सांप्रदायिक राजनीति पर इसके प्रभाव का परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)मेन्सQ. भारतीय समाज की विविधता और बहुलवाद पर वैश्वीकरण के प्रभावों की चर्चा कीजिये। अपने उत्तर के समर्थन में उपयुक्त उदाहरण दीजिये। (2020) |