भारतीय राजव्यवस्था
न्याय तक पहुँच के अधिकार की सीमाएँ
- 13 Feb 2025
- 10 min read
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, विशेष अनुमति याचिका मेन्स के लिये:लंबित वाद, मूल अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध, भारतीय न्यायपालिका से संबंधित प्रमुख मुद्दे |
स्रोत: लाइवलॉ
चर्चा में क्यों?
भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा न्यायिक समय और संसाधनों के दुरुपयोग का हवाला देते हुए एक याचिकाकर्त्ता पर अनावश्यक मुकदमेबाजी के लिये जुर्माना लगाया गया।
- इस मामले से विधिक प्रणाली के दुरुपयोग पर प्रकाश पड़ता है, जिसमें याचिकाकर्त्ता ने सेवा बर्खास्तगी को रद्द करने के लिये बार-बार आधारहीन याचिकाएँ दायर कीं।
न्याय तक पहुँच के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या है?
- मामले की पृष्ठभूमि: याचिकाकर्त्ता ने बार-बार खारिज होने के बावजूद औद्योगिक न्यायाधिकरण, उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय सहित कई मंचों पर कदाचार के आधार पर अपनी बर्खास्तगी को चुनौती दी।
- अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी याचिकाओं को खारिज करते हुए फोरम शॉपिंग के लिये उस पर जुर्माना लगाया।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि न्याय तक पहुँच का अधिकार एक मूल अधिकार (अनुच्छेद 21) है, परंतु यह निरपेक्ष नहीं है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अनावश्यक याचिकाओं से न्यायिक समय बर्बाद होने एवं न्याय में देरी होने के साथ विधिक प्रणाली की शुचिता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- न्याय तक पहुँच के अधिकार पर न्यायिक निर्णय:
- अनीता खुश्वा बनाम पुष्पा सदन, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि न्याय तक पहुँच अनुच्छेद 21 और 14 के तहत एक मूल अधिकार है और इसके द्वारा न्याय तक पहुँच के लिये 4 प्रमुख घटकों की पहचान की गई:
- प्रभावी न्यायिक तंत्र।
- दूरी के संदर्भ में उचित पहुँच।
- त्वरित निर्णय।
- न्यायिक प्रक्रिया तक सुलभ पहुँच।
- बुद्धि कोटा सुब्बाराव बनाम के. परासरण, 1996 मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने जासूसी के आरोप में मुकदमे का सामना कर रहे एक सेवानिवृत्त नौसेना कप्तान की याचिकाएँ खारिज कर दीं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने साक्ष्यों के अभाव के कारण उनके धोखाधड़ी के दावों को खारिज कर दिया, न्यायिक अंतिमता को बरकरार रखा और यह निर्णय दिया कि बिना नए साक्ष्यों के उच्च न्यायालय के फैसलों को अंतहीन चुनौती नहीं दी जा सकती।
और पढ़ें: सर्वोच्च न्यायालय ने SLP निपटान को प्राथमिकता दी
न्याय तक पहुँच के अधिकार से संबंधित प्रावधान क्या हैं?
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार): अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी व्याख्या न्याय तक पहुँच के अधिकार को शामिल करते हुए की है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के विधिक संरक्षण पाने का समान अवसर मिले।
- अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार): अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता और विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार): अनुच्छेद 21 यह सुनिश्चित करता है कि व्यक्ति अपनी शिकायतों के लिये न्यायिक उपचार प्राप्त कर सकते हैं, इस प्रकार उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा होती है।
- अनुच्छेद 39A (निःशुल्क विधिक सहायता): अनुच्छेद 39A नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय से वंचित न होना पड़े।
- इसका उद्देश्य समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देना है, यह विशेष रूप से समाज के वंचित वर्गों पर केंद्रित है।
- अनुच्छेद 32 और 226: अनुच्छेद 32 और 226 पीड़ित पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जाकर न्याय तक पहुँच के अपने अधिकार को लागू करने की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 39A (निःशुल्क विधिक सहायता): अनुच्छेद 39A नि:शुल्क विधिक सहायता प्रदान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय से वंचित न होना पड़े।
- विधिक ढाँचा:
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 ने समाज के वंचित वर्गों को मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करने के लिये नालसा की स्थापना की।
- अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत पात्र समूहों में महिलाएँ, बच्चे, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, विकलांग व्यक्ति और निम्न आय वाले व्यक्ति शामिल हैं, जिससे कमज़ोर आबादी के लिये कानूनी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।
- लोक अदालतें अधिनियम के अंतर्गत त्वरित एवं सुलभ विवाद समाधान उपलब्ध कराती हैं।
- टेली-लॉ हाशिए पर स्थित समुदायों को विधिक परामर्श प्रदान करता है, जबकि ई-लोक अदालतें उन लोगों के लिये पहुँच सुनिश्चित करती हैं जो भौतिक सुनवाई में भाग लेने में असमर्थ हैं।
- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 ने समाज के वंचित वर्गों को मुफ्त विधिक सहायता प्रदान करने के लिये नालसा की स्थापना की।
- लोकहित वाद (PIL):
- लोकहित वाद से सुने जाने के अधिकार (locus standi) का विस्तार हुआ, जिससे न कि केवल प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित व्यक्तियों को अपितु जनहितैषी व्यक्तियों या संगठनों को भी अधिकारों को प्रवर्तित करने के हेतु मामले दर्ज कराने की सुविधा मिली।
- उदाहरण: एमसी मेहता बनाम भारत संघ (1987) दिल्ली में पर्यावरण प्रदूषण पर दायर पहला लोकहित वाद था।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका में मामलों के लगातार लंबित रहने के मुद्दे पर चर्चा कीजिये और इसे हल करने के लिये पर्याप्त उपायों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) प्रश्न. राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) प्रश्न. निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने के हकदार कौन है? निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रतिपादन में राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एन.ए.एल.एस.ए.) की भूमिका का आकलन कीजिये। (2023) |