यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा "वूमेन" की विधिक परिभाषा | 18 Apr 2025
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
यूनाइटेड किंगडम (UK) सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने निर्णय किया है कि UK के समानता अधिनियम, 2010 के अंतर्गत "वूमेन" (Woman) की विधिक परिभाषा बायोलॉजिकल सेक्स पर आधारित है, जो जेंडर पहचान पर जारी वार्त्ता में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय है।
वूमेन की विधिक परिभाषा पर यूनाइटेड किंगडम के सर्वोच्च न्यायालय का क्या निर्णय है?
- परिभाषित करने वाला कारक के रूप में बायोलॉजिकल सेक्स: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि समानता अधिनियम 2010 में लिंग की परिभाषा "द्विआधारी" (Binary) है तथा जीव विज्ञान पर आधारित है।
- इसका अर्थ यह है कि वे व्यक्ति जिनका जन्म जैविक रूप से महिला के रूप में नहीं हुआ है, वे जेंडर पहचान प्रमाणपत्र के माध्यम से अपना जेंडर परिवर्तन कर अधिनियम के तहत महिलाओं को प्रदत्त विधिक सुरक्षा प्राप्त नहीं कर सकते।
- न्यायालय ने समानता के उद्देश्य से ट्रांसजेंडर महिलाओं को “वूमेन” की इस परिभाषा से अपवर्जित किया।
- ट्रांस महिलाओं को समानता अधिनियम के तहत 'जेंडर रीअसाइनमेंट' की श्रेणी में संरक्षित रखा गया है और उन्हें सुभेद्य अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गई है।
- निहितार्थ: यह निर्णय आश्रय गृह, कारागार और चेंजिंग रूम जैसी केवल महिलाओं के लिये सेवाएँ प्रदान करने वाली संस्थाओं को बायोलॉजिकल सेक्स के आधार पर ट्रांसजेंडर महिलाओं को विधिक रूप से अपवर्जित करने की अनुमति देता है।
- रोज़गार और समान वेतन के मामलों में, बायोलॉजिकल सेक्स विधिक स्थिति का निर्धारण करेगा, जिसका अर्थ है कि ट्रांस महिलाएँ वैध तुलनाकर्ता नहीं हो सकेंगीं और इससे भविष्य में लिंग आधारित सुरक्षा लागू करने में UK के न्यायालयों का मार्गदर्शन होगा।
बायोलॉजिकल सेक्स और जेंडर
- बायोलॉजिकल सेक्स एक व्यक्ति की शारीरिक अभिलक्षणों जैसे गुणसूत्रों और जननांगों को संदर्भित करता है, जिसे सामान्यतः X और Y गुणसूत्रों की उपस्थिति के आधार पर पुरुष अथवा महिला के रूप में विनिर्दिष्ट किया जाता है। पुरुषों में सामान्यतः XY गुणसूत्र होते हैं और महिलाओं में XX गुणसूत्र होते हैं।
- इसके विपरीत, जेंडर एक सामाजिक संरचना है, जो सामाजिक भूमिकाओं, व्यवहारों और रूढ़ियों द्वारा आकार लेती है।
- अपेक्षाएँ समय के साथ सीखी जाती हैं और हो सकता है कि वे किसी व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व या अभिव्यक्ति को प्रतिबिंबित न करें। उदाहरण के लिये, पुरुषों से अपेक्षा की जाती है कि वे दृढ़ और बलवान हों, जबकि महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे देखभाल करने वाली और छोटी व पतली (Petite) हों।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जेंडर और सेक्सुअलिटी को किस प्रकार संबोधित किया है?
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तियों के स्वयं अपने जेंडर की पहचान करने के अधिकार की पुष्टि की, तथा स्वीकार किया कि जेंडर पहचान बायोलॉजिकल सेक्स से परे है, तथा इसमें पुरुष, महिला या ट्रांसजेंडर के रूप में पहचाने जाने का अधिकार भी शामिल है।
- पुट्टास्वामी मामला (2017): न्यायालय ने निजता के अधिकार की पुष्टि करते हुए यौन अभिविन्यास को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया, तथा इस बात पर बल दिया कि यौन अभिविन्यास के आधार पर भेदभाव मानवीय गरिमा और समानता का उल्लंघन करता है।
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (अब भारतीय न्याय संहिता) की धारा 377 को निरस्त करते हुए समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया, जिसके तहत पहले सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता था।
जेंडर और सेक्सुअलिटी के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मानदंड
- योग्याकार्ता सिद्धांत: यह जेंडर पहचान को एक गहन आंतरिक अनुभव के रूप में परिभाषित करता है जो जन्म के समय निर्धारित लिंग (Sex) के साथ संरेखित हो भी सकता है और नहीं भी।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ऐतिहासिक नवतेज सिंह जौहर निर्णय (वर्ष 2018) में योग्याकार्ता सिद्धांतों का संदर्भ दिया, जिसमें समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया।
- माल्टा का कानूनी ढाँचा: माल्टा का जेंडर पहचान, जेंडर अभिव्यक्ति और लैंगिक विशेषता अधिनियम (Sex Characteristics Act) आत्मनिर्णय के आधार पर लैंगिक पहचान को मान्यता देता है।
- यूरोपीय मानवाधिकार मानक: यूरोपीय परिषद के इस्तांबुल कन्वेंशन में जेंडर को सामाजिक रूप से निर्मित भूमिकाओं और विशेषताओं के रूप में परिभाषित किया गया है, तथा इस बात पर बल दिया गया है कि जेंडर का निर्धारण केवल बायोलॉजिकल सेक्स से नहीं होता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: बायोलॉजिकल सेक्स और जेंडर पहचान के बीच अंतर का विश्लेषण कीजिये। भारत में जेंडर अधिकारों को आगे बढ़ाने में न्यायिक व्याख्याओं की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्सप्रश्न. निजता के अधिकार पर उच्चतम न्यायालय के नवीनतम निर्णय के आलोक में, मौलिक अधिकारों के विस्तार का परीक्षण कीजिये। (2017) |