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बिहार में चल रहे जातिगत सर्वेक्षण की जटिलताएँ

  • 19 Aug 2023
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना, भारत में जनगणना, सर्वोच्च न्यायालय, जाति-आधारित सर्वेक्षण, इंद्रा साहनी मामला, संविधान का अनुच्छेद 16(4) 

मेन्स के लिये:

जाति आधारित सर्वेक्षण का उद्देश्य, जाति आधारित सर्वेक्षण के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू

चर्चा में क्यों? 

बिहार में चल रहे जाति-आधारित सर्वेक्षण ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, जिससे इसकी संवैधानिकता, आवश्यकता और संभावित निहितार्थों से संबंधित कानूनी बहस छिड़ गई है।

जाति आधारित सर्वेक्षण का उद्देश्य:

  • जाति-आधारित सर्वेक्षण 7 जनवरी, 2023 को बिहार सरकार द्वारा शुरू किया गया था। सरकार ने कहा कि इससे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों पर विस्तृत जानकारी प्राप्त करने एवं वंचित समूहों के लिये बेहतर नीतियाँ और योजनाएँ बनाने में मदद मिलेगी।
  • इस सर्वेक्षण में बिहार के 38 ज़िलों में 12.70 करोड़ की आबादी की जातिगत जानकारी के साथ-साथ आर्थिक स्थिति का डेटा जुटाना भी शामिल है।

नोट: वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) की। हालाँकि डेटा अशुद्धियों के कारण लगभग 1.3 बिलियन भारतीयों से एकत्र किये गए डेटा का कभी प्रदर्शन नहीं किया गया।

जाति-आधारित सर्वेक्षण को कानूनी चुनौतियों का सामना क्यों करना पड़ रहा है? 

  • जाति-आधारित सर्वेक्षण को लेकर आलोचकों का विरोध:
    • इस सर्वेक्षण को कई याचिकाकर्ताओं ने पटना उच्च न्यायालय में विभिन्न आधारों पर चुनौती दी थी, जैसे कि संविधान का उल्लंघन, गोपनीयता का उल्लंघन, राज्य सरकार की क्षमता से परे होना, राजनीति से प्रेरित होना और अविश्वसनीय तरीकों पर आधारित होना।
    • याचिकाकर्ताओं का कहना है कि राज्य सरकार के पास केंद्र सरकार द्वारा जारी जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत किसी अधिसूचना के बिना डेटा संग्रह के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट और स्थानीय अधिकारियों को नियुक्त करने की कानूनी क्षमता का अभाव है। 
      • साथ ही सभी नागरिकों की एक जातिगत पहचान निर्दिष्ट करना (भले ही इससे राज्य के लाभों का उपयोग सुलभ हो) संविधान के विरुद्ध है। 
        • यह अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत पहचान के अधिकार, गरिमा के अधिकार, सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार और पसंद के अधिकार के खिलाफ है।

नोट: सातवीं अनुसूची की संघ सूची में संविधान की एकमात्र प्रविष्टि संख्या 69, केंद्र सरकार को जनगणना करने का अधिकार देती है।  

  • दूसरे चरण पर हाईकोर्ट द्वारा रोक:
    • सर्वेक्षण के पहले चरण में घरों को सूचीबद्ध करना शामिल था। सरकार दूसरे चरण में थी जब 4 मई, 2023 को उच्च न्यायालय के आदेश के कारण सर्वेक्षण रोक दिया गया था।
  • सर्वेक्षण को उच्च न्यायालय की मान्यता:
    • हालाँकि हाल ही में उच्च न्यायालय के फैसले के बाद इस कदम का विरोध करने वाली सभी याचिकाएँ खारिज हो गईं, सरकार ने सर्वेक्षण के दूसरे चरण पर काम फिर से शुरू कर दिया।
      • दूसरे चरण में सभी लोगों की जाति, उपजाति और धर्म से संबंधित डेटा एकत्र किया जाना है।
    • न्यायालय ने इंद्रा साहनी वाद (Indra Sawhney Case) के फैसले पर विश्वास करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत सामाजिक पिछड़ेपन को सुधारने के लिये जाति की पहचान करना गलत नहीं है।
  • चल रहे जाति सर्वेक्षण को बरकरार रखने वाले पटना उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएँ भी दायर की गई हैं।

जाति आधारित सर्वेक्षण के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू: 

  • सकारात्मक:
    • सूचित नीति निर्माण: जाति-आधारित असमानताओं के बारे में सटीक और अद्यतन जानकारी नीति निर्माताओं को हाशिये पर रहने वाले समुदायों के उत्थान तथा सामाजिक असमानताओं को कम करने के लिये अधिक प्रभावी नीतियों और कार्यक्रमों को डिज़ाइन एवं कार्यान्वित करने में मदद कर सकती है।

      • अंतिम जाति-आधारित जनगणना, जो जनता के लिये खुले तौर पर उपलब्ध है, वर्ष 1931 की गई।
    • अंतर्विभागीयता को संबोधित करना: यह जाति लिंग, धर्म और क्षेत्र जैसे अन्य कारकों के साथ अंतर्विरोध करता है, जिससे हानि होती है।
      • एक सर्वेक्षण इन अंतर्संबंधों को उजागर कर सकता है, जिससे अधिक सूक्ष्म नीतिगत दृष्टिकोण सामने आ सकते हैं जो हाशिये के कई आयामों को लक्षित करते हैं।
  • नकारात्मक: 
  • संभावित कलंक: जाति की पहचान का खुलासा करने से कुछ जातियों से जुड़ी पूर्वकल्पित धारणाओं के आधार पर व्यक्तियों को कलंकित किया जा सकता है या उनके साथ भेदभाव किया जा सकता है।
    • यह ईमानदार प्रतिक्रियाओं को बाधित कर सकता है और सर्वेक्षण की सटीकता को कमज़ोर कर सकता है।
  • राजनीतिक हेर-फेर: राजनेताओं द्वारा अल्पकालिक लाभ के लिये जाति-आधारित डेटा का उपयोग किया जा सकता है, जिससे पहचान-आधारित वोट बैंक की राजनीति हो सकती है। यह वास्तविक नीतिगत मुद्दों से ध्यान भटका सकता है और विभाजनकारी राजनीति को कायम रख सकता है।
  • जाति पहचान की फ्लुईडीटी: सरलीकृत व्याख्याएँ अंतर-जातीय विविधताओं और ऐतिहासिक परिवर्तनों को नज़रअंदाज कर सकती हैं, जिससे ऐसी नीतियाँ बन सकती हैं जो समकालीन जाति गतिशीलता की बारीकियों को संबोधित करने में विफल रहती हैं।
    • इसके अलावा जाति की पहचान स्थिर नहीं है; अंतर-जातीय विवाह जैसे कारकों के कारण उनमें बदलाव आ सकता है। एक सर्वेक्षण को इन गतिशील परिवर्तनों को पहचानने में कठिनाई हो सकती है, जिससे वास्तविकता में गलत प्रतिनिधित्व हो सकता है।

निष्कर्ष:

जन जागरूकता अभियान, नियमित समीक्षा और क्षमता निर्माण पहल संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्य-10 के सिद्धांतों के अनुरूप असमानताओं को कम करने और सामाजिक एकीकरण को बढ़ावा देने की दीर्घकालिक दृष्टि से योगदान कर सकते हैं।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)

  1. जनगणना 1951 और जनगणना 2001 के बीच, भारत की जनसंख्या का घनत्व तीन गुना से अधिक बढ़ गया है।
  2. जनगणना 1951 और जनगणना 2001 के बीच, भारत की जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि दर (घातीय) दोगुनी हो गई है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल  1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न. आप उन आँकड़ों को किस प्रकार स्पष्ट करते हैं, जो दर्शाते हैं कि भारत में जनजातीय लिंगानुपात, अनुसूचित जातियों के बीच लिंगानुपात के मुकाबले, महिलाओं के अधिक अनुकूल हैं। (2015)

प्रश्न. यद्यपि भारत में निर्धनता के अनेक विभिन्न प्राक्कलन किये गए हैं, तथापि सभी समय गुज़रने के साथ निर्धनता  स्तरों में कमी आने का संकेत देते हैं। क्या आप सहमत हैं? शहरी और ग्रामीण निर्धनता संकेतकों का उल्लेख के साथ समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2015)

स्रोत: द हिंदू 

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