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सामाजिक न्याय

LGBTQIA हेतु ‘कन्वर्जन थेरेपी’ पर प्रतिबंध

  • 06 Sep 2022
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

ट्रांसजेंडर, NMC, LGBTQIA+, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020 और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 से संबंधित मुद्दे।

मेन्स के लिये:

LGBTQIA और संबद्ध जोखिमों के लिये कन्वर्ज़न थेरेपी।

चर्चा में क्यों?

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) ने सभी राज्य चिकित्सा परिषदों को LGBTQIA+ समुदाय की रूपांतरण चिकित्सा या ‘कन्वर्ज़न थेरेपी पर प्रतिबंध लगा दिया है और इसे "व्यावसायिक कदाचार (Professional Misconduct)" कहा है।

  • NMC ने मद्रास उच्च न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए कहा कि भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार और नैतिकता) विनियम, 2002 के तहत ‘कन्वर्ज़न थेरेपी अवैध है।

LGBTQIA+:

  • LGBTQAI+ लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स और एसेक्सुअल तथा अन्य लोगों को संबोधित करता है। ये ऐसे लोग होते हैं जिनमें सीसजेंडर विषमलैंगिक "आदर्शों" की अनुपस्थिति होती है।
    • '+ ' का उपयोग उन सभी लैंगिक पहचानों और यौन अभिविन्यासों को दर्शाने के लिये किया जाता है जिनका अक्षर और शब्द अभी तक पूरी तरह से वर्णन नहीं कर सकते हैं।
  • भारत में, LGBTQIA+ समुदाय में एक विशिष्ट सामाजिक समूह, एक विशिष्ट समुदाय थर्ड जेंडर भी शामिल है।
  • उन्हें सांस्कृतिक रूप से या तो "न पुरुष, न ही महिला" या एक महिला की तरह व्यवहार करने वाले पुरुषों के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  • वर्तमान में उन्हें थर्ड जेंडर भी कहा जाता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने 6 सितंबर, 2018 को धारा 377[1] को गैर-आपराधिक घोषित कर दिया, जिसमें समलैंगिक संबंधों को "अप्राकृतिक अपराध" कहा गया था।

‘कन्वर्न थेरेप चिकित्सा और संबद्ध जोखिम:

  • कन्वर्ज़न थेरेपी एक हस्तक्षेप है जिसका उद्देश्य किसी व्यक्ति की यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान को बदलना है जिसके लिये मनोवैज्ञानिक उपचार, ड्रग्स, ईविल सेरेमोनियल प्रैक्टिस और यहाँ तक कि हिंसा का भी उपयोग किया जाता है।
  • इसमें उन युवाओं की मूल पहचान को बदलने के प्रयास शामिल हैं जिनकी लिंग पहचान उनके लिंग शरीर रचना के साथ असंगत है।
  • अक्सर, इस मुद्दे से निपटने में बहुत कम विशेषज्ञता वाले नीम हकीमों द्वारा चिकित्सा की जाती है।
  • अमेरिकन एकेडमी ऑफ चाइल्ड एंड अडोलेसेंट साइकियाट्री (AACAP) के अनुसार कन्वर्ज़न थेरेपी के तहत हस्तक्षेप झूठे आधार पर प्रदान किया जाता है कि समलैंगिकता और विविध लिंग पहचान रोगात्मक हैं।
  • कन्वर्ज़न थेरेपी मानसिक स्वास्थ्य स्थितियों को पैदा करती है, जैसे चिंता, तनाव और नशीली दवाओं का उपयोग जो कभी-कभी आत्महत्या का कारण भी बनता है।

मद्रास उच्च न्यायालय के निर्देश:

  • मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले ने LGBTQIA+ (लेस्बियन, गे, उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, क्वीर, इंटरसेक्स, अलैंगिक या किसी अन्य अभिविन्यास के) लोगों के यौन अभिविन्यास को चिकित्सकीय रूप से "ठीक करने" या जबरन बदलने के किसी भी प्रयास को प्रतिबंधित कर दिया है।
  • इसने अधिकारियों से किसी भी रूप या कन्वर्न थेरेपी के तरीके में खुद को शामिल करने वाले पेशेवरों के खिलाफ कार्रवाई करने का आग्रह किया है।
  • न्यायालय ने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को एक आदेश दिया कि वह "एक पेशेवर कदाचार के रूप में 'कन्वर्न थेरेपी' को सूचीबद्ध करके आवश्यक आधिकारिक अधिसूचना जारी करे।
  • न्यायालय ने कहा कि समुदाय को कानून प्रवर्तन एजेंसियों के समन्वय से ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिये।
  • एजेंसियों को ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020 और ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 का अक्षरश: पालन करने के लिये कहते हुए न्यायालय ने कहा कि समुदाय एवं उसकी ज़रूरतों को समझने के लिये हर संभव प्रयास हेतु संवेदीकरण कार्यक्रम आयोजित करना अनिवार्य है।

 LGBTQIA+ की सुरक्षा हेतु निर्णय:

  • नाज़ फाउंडेशन बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (2009):
    • दिल्ली उच्च न्यायालय ने वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक गतिविधियों को वैध बनाने वाली धारा 377 को रद्द कर दिया।
  • सुरेश कुमार कौशल केस (2013):
    • उच्च न्यायालय (2009) के पिछले फैसले को यह तर्क देते हुए पलट दिया कि "यौन अल्पसंख्यकों की दुर्दशा" को कानून की संवैधानिकता तय करने के लिये तर्क के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
  • न्यायमूर्ति केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017):
    • सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि निजता का मौलिक अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के लिये अंतर्निहित है और इस प्रकार यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है। यह माना गया कि "यौन अभिविन्यास गोपनीयता का एक अनिवार्य गुण है"।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (वर्ष 2018):  
    • सुरेश कुमार कौशल मामले (2013) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को खारिज कर, समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया।
  • शफीन जहाँ बनाम अशोकन के.एम. और अन्य (वर्ष 2018):
    • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि साथी या पार्टनर का चयन करना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और यह साथी किसी भी जेंडर से संबंधित हो सकता है।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019:
    • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा और उनके कल्याण के लिये और उससे जुड़े एवं उसके आनुषंगिक मामलों के लिये यह अधिनियम लाया गया।
  • समलैंगिक विवाह:
    • फरवरी 2021 में केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) का विरोध करते हुए कहा कि भारत में विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब बच्चा पैदा करने में सक्षम "जैविक पुरुष" और "जैविक महिला" के बीच विवाह हुआ हो।

आगे की राह:

  • समुदाय की बेहतर समझ के लिये स्कूलों और कॉलेजों को पाठ्यक्रम में बदलाव करना चाहिये ।
    • वर्ष 2018 के अंत तक चिकित्सा पुस्तकों ने समलैंगिकता को "विकृति" के रूप में रेखांकित किया है। एक अलग यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान के लोग प्रायः भेदभाव, सामाजिक कलंक और बहिष्कार का सामना करते रहे हैं।
  • शैक्षणिक संस्थानों और अन्य जगहों पर जेंडर न्यूट्रल टॉयलेट अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये।
  • इस विषय पर माता-पिता को भी संवेदनशील होने की ज़रूरत है, क्योंकि ऐसे बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की शुरुआत सबसे पहले घर से ही होती है, जिसमें किशोरों को "कन्वर्न थेरेपी " को चुनने के लिये बाध्य किया जाता है।
  • सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी का विकल्प चुनने वाले वयस्कों को ऑपरेशन से पहले और बाद में थेरेपी जैसे उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है; जो की एक सामान्य आर्थिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति के लिये अवहनीय भी हो सकती है।

स्रोत: द हिंदू

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