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न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषणा

  • 30 Sep 2024
  • 16 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सूचना का अधिकार, उच्च न्यायालय, सचिव, सर्वोच्च न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), मंत्रिपरिषद, संसदीय समिति, लोकसभा, भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI)। 

मेन्स के लिये:

न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता की आवश्यकता है ताकि इसके कामकाज में जनता का विश्वास मज़बूत हो सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी से पता चलता है कि कुल उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से केवल 13% की परिसंपत्तियों का विवरण सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है।

  • परिसंपत्तियों के विवरण में न्यायाधीशों, उनके जीवनसाथियों और आश्रितों की चल और अचल संपत्तियाँ, शेयरों, म्यूचुअल फंड, सावधि जमाओं में निवेश और बैंक ऋण जैसी देनदारियाँ शामिल हैं।

न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा से संबंधित मुख्य बिंदु क्या हैं?

  • घोषणाओं की कम दर: भारत के 25 उच्च न्यायालयों में तैनात 749 न्यायाधीशों में से केवल 98 न्यायाधीशों (लगभग 13%) ने अपनी परिसंपत्तियाँ सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध कराई है। पारदर्शिता के लिये किये गए प्रयासों के बावजूद यह आश्चर्यजनक रूप से कम आँकड़ा है।
  • परिसंपत्तियों की घोषणाओं का संकेंद्रण: 80% घोषणाएँ केवल तीन उच्च न्यायालयों- केरल उच्च न्यायालय, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय तथा दिल्ली उच्च न्यायालय से प्राप्त हुई हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय का आंशिक खुलासा: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 33 न्यायाधीशों में से 27 के नाम जारी किये जिन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी परिसंपत्तियाँ घोषित की थी, लेकिन परिसंपत्तियों का विवरण प्रकट नहीं किया गया
  • विविध प्रतिक्रियाएँ: इलाहाबाद और बॉम्बे उच्च न्यायालयों ने कहा कि परिसंपत्तियों की घोषणा RTI अधिनियम, 2005 के तहत सूचना” के रूप में शामिल नहीं है। 
  • गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने में कोई सार्वजनिक हित नहीं है।
  • आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और तेलंगाना उच्च न्यायालय ने परिसंपत्तियों की घोषणाओं को गोपनीय बताया और कहा कि उन्हें ऑनलाइन पोस्ट नहीं किया जा सकता।

न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा के प्रावधान क्या हैं?

  • अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968: सरकार न्यायाधीशों और सिविल सेवकों के बीच तुलना करती है, क्योंकि न्यायाधीशों का वेतन सिविल सेवकों, विशेष रूप से भारत सरकार में सचिव स्तर के अधिकारियों के वेतन के संबंध में निर्धारित किया जाता है।
    • नियमों के नियम 16(1) के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जो सेवा का सदस्य है, उसे अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों का विवरण प्रस्तुत करना होगा, जो न्यायाधीशों पर भी लागू होना चाहिए।
    • न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन, 1997: वर्ष 1997 में, सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ न्यायिक मानदंड अपनाए, जिनमें कहा गया था कि प्रत्येक न्यायाधीश को अपने नाम पर, अपने जीवनसाथी या उन पर निर्भर किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर अचल परिसंपत्तियाँ या निवेश के रूप में रखी गई सभी परिसंपत्तियों की घोषणा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करनी चाहिये।
  • वर्ष 2009 का संकल्प: वर्ष 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आधिकारिक वेबसाइट पर न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषित करने का संकल्प लिया और कहा कि यह "पूर्णतया स्वैच्छिक आधार पर" था।
    • उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें कहा गया कि सभी न्यायाधीश अपनी परिसंपत्तियाँ सार्वजनिक करने पर सहमत हो गए हैं।
  • संवैधानिक प्राधिकारी: अन्य संवैधानिक प्राधिकारी, जैसे नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और मंत्रिपरिषद, द्वारा पहले से ही अपनी परिसंपत्तियों की घोषणा की जा रही है तथा उन्हें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जा रहा है।
    • इससे न्यायाधीशों के लिये भी अपनी परिसंपत्तियाँ का नियमित रूप से और सार्वजनिक रूप से खुलासा करने की मिसाल कायम होती है।
  • समिति की सिफारिशें: कार्मिक, लोक शिकायत तथा विधि एवं न्याय संबंधी संसदीय समिति ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों और देनदारियों के अनिवार्य प्रकटीकरण के लिये कानून बनाने की सिफारिश की है।
  • न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक: न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य परिसंपत्ति घोषणा सहित न्यायिक पारदर्शिता की आवश्यकता को संबोधित करने के लिये "न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010" नामक एक विधेयक तैयार किया गया था।
    • हालाँकि, 15 वीं लोकसभा के भंग होने के बाद यह विधेयक निरस्त हो गया और इसे दोबारा पेश नहीं किया गया।

न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियाँ की घोषणा की क्या आवश्यकता है?

  • सार्वजनिक विश्वास और जवाबदेही: न्यायाधीश नियमित रूप से कानून, सरकारी नीतियों और निविदाएँ देने से संबंधित निर्णयों की समीक्षा करते हैं, जिससे उनके लिये अपनी परिसंपत्तियों के संबंध में  पारदर्शिता सुनिश्चित करना आवश्यक हो जाता है।
    • यदि किसी निविदा के लिये ज़िम्मेदार मंत्री को अपनी परिसंपत्ति का खुलासा करना आवश्यक है, तो मंत्री के निर्णयों की समीक्षा करने वाले न्यायाधीश को भी ऐसा ही करना चाहिये
  • जनता का विश्वास मज़बूत करना: न्यायाधीशों द्वारा अपनी परिसंपत्ति की घोषणा से न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बढ़ाने में मदद मिलेगी, क्योंकि यह निष्पक्षता और निष्पक्षता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है।
  • पारदर्शिता: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) का कार्यालय सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2005 के तहत एक 'सार्वजनिक प्राधिकरण' है और RTI अधिनियम, 2005 के प्रावधानों के अधीन है। परिसंपत्ति की घोषणा न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता की दिशा में एक प्रगतिशील कदम है।
  • धारणा का महत्त्व: सार्वजनिक जीवन में, लोग कार्यों और निर्णयों को किस तरह से देखते हैं, यह विचार और विश्वास को काफी हद तक प्रभावित कर सकता है। न्यायपालिका को पारदर्शी और दोषमुक्त माना जाना चाहिये। 
    • न्यायाधीशों की संपत्ति के बारे में गोपनीयता बनाए रखने से न्यायपालिका में जनता का विश्वास कम हो सकता है।

न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों की घोषणा के संबंध में विकसित देश क्या पद्धतियाँ अपनाते हैं?

  • संयुक्त राज्य अमेरिका: सरकार में नैतिकता अधिनियम, 1978 के तहत संघीय न्यायाधीशों को आय के स्रोत और परिसंपत्तियों का खुलासा करना होगा। 
    • न्यायाधीशों को उन उपहारों के स्रोत, विवरण और मूल्य का भी खुलासा करना होगा जिनका कुल मूल्य एक निश्चित न्यूनतम राशि से अधिक है।
  • दक्षिण कोरिया: लोक सेवा नैतिकता अधिनियम, 1993 के तहत न्यायाधीशों और उनके जीवनसाथियों सहित सभी उच्च पदस्थ सार्वजनिक अधिकारियों को अचल संपत्ति, अमूर्त संपत्ति और गैर-सार्वजनिक व्यावसायिक संस्थाओं में शेयरों के अपने स्वामित्व का खुलासा करना होगा।
  • फिलीपींस: भ्रष्टाचार विरोधी एवं भ्रष्ट आचरण अधिनियम, 1960 के तहत सार्वजनिक अधिकारियों को घोषणा के रूप में अपनी संपत्ति का खुलासा करना आवश्यक है।
  • रूस: भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के तहत न्यायाधीशों और उनके परिवार के सदस्यों तथा न्यायाधीश पद के आवेदकों की परिसंपत्ति और आय पर नियंत्रण अनिवार्य है। 

न्यायाधीशों द्वारा परिसंपत्तियों की घोषणा से संबंधित क्या चिंताएँ हैं?

  • गोपनीयता और सुरक्षा: सार्वजनिक प्रकटीकरण से न्यायाधीशों और उनके परिवारों को उत्पीड़न या जबरन वसूली जैसे जोखिमों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे उनकी सुरक्षा तथा गोपनीयता के बारे में चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
  • सूचना का दुरुपयोग: परिसंपत्तियों के विवरण का राजनीतिक या व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिये दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे न्यायाधीशों पर अनुचित जाँच या दबाव बढ़ सकता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता: कुछ लोग तर्क देते हैं कि अनिवार्य रूप से परिसंपत्तियों की घोषणा, न्यायाधीशों को बाहरी प्रभावों या सार्वजनिक आलोचना के अधीन करके न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर कर सकती है।
  • स्वैच्छिक प्रकृति: चूँकि भारत में परिसंपत्ति प्रकटीकरण स्वैच्छिक है, इसलिये इस व्यवहार में असंगतता के कारण असमान पारदर्शिता की धारणा उत्पन्न हो सकती है।
  • अनुमानित सार्वजनिक दबाव: न्यायाधीश वित्तीय मामलों पर जनता की राय के अनुरूप चलने के लिये बाध्य महसूस कर सकते हैं, जिससे वित्तीय या आर्थिक मुद्दों से जुड़े मामलों में उनकी निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।

आगे की राह:

  • कानून बनाना: अगस्त 2023 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने 'न्यायिक प्रक्रियाएँ और उनके सुधार' शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें सिफारिश की गई कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को उचित प्राधिकारी को वार्षिक परिसंपत्ति रिटर्न प्रस्तुत करने के लिये आवश्यक कानून बनाया जाना चाहिये।
  • स्पष्ट प्रोटोकॉल स्थापित करना: सर्वोच्च न्यायालय को परिसंपत्ति घोषणा के लिये स्पष्ट प्रोटोकॉल स्थापित करना चाहिये, जिसमें समय-सीमा, प्रारूप और प्रकट की जाने वाली विशिष्ट जानकारी शामिल हो।
  • वार्षिक सार्वजनिक रिपोर्ट: न्यायपालिका भी अन्य संवैधानिक प्राधिकारियों की तरह, परिसंपत्तियों की घोषणाओं का सारांश प्रस्तुत करते हुए वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित कर सकती है।
  • गोपनीयता और जवाबदेही में संतुलन: परिसंपत्तियों की घोषणा के ढाँचे में न्यायाधीशों की गोपनीयता बनाए रखने और सार्वजनिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिये। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में न्यायाधीशों द्वारा अनिवार्य संपत्तियों की घोषणा के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से वापस बैठने और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिये बुलाया जा सकता है। 
  2. भारत में उच्च न्यायालय के पास अपने निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1, न ही 2

उत्तर: (c)


प्रश्न. भारत के संविधान के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. किसी भी केंद्रीय विधि को सांविधानिक रूप से अवैध घोषित करने की किसी भी उच्च न्यायालय की अधिकारिता नहीं होगी।
  2. भारत के संविधान के किसी भी संशोधन पर भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2  

उत्तर: (d)


मेन्स

प्रश्न: 'संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से विवेचना कीजिये। (2021) 

प्रश्न: न्यायिक विधायन, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकरणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी, बड़ी संख्या में दायर होने वाली, लोक हित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020)

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