आंतरिक सुरक्षा
7वाँ राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन, 2024
- 25 Sep 2024
- 16 min read
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन (NSSC) 2024, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, गैर-प्रमुख बंदरगाह, वित्तीय प्रौद्योगिकियाँ, स्थायी बंदोबस्त, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006। मेन्स के लिये:आदिवासियों से संबंधित चुनौतियाँ और उनसे निपटने के गैर-औपनिवेशिक उपाए। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री ने नई दिल्ली में सातवें राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन-2024 का उद्घाटन किया।
- उभरती राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के समाधान के रोडमैप पर शीर्ष पुलिस नेतृत्व के साथ चर्चा की गई है।
- इस सम्मेलन में उभर रही राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के समाधान के रोडमैप पर शीर्ष पुलिस अधिकारी नेतृत्व के साथ चर्चा की गई है।
- शीर्ष पुलिस अधिकारियों ने इस बात पर भी चर्चा की कि जनजातीय समुदायों से संबंधित मुद्दों का अध्ययन “गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण” से कैसे किया जाए।
NSSC, 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- NSSC के बारे में: इसकी परिकल्पना प्रधानमंत्री द्वारा DGP/IGSP सम्मेलन के दौरान की गई थी, जिसका उद्देश्य वरिष्ठ पुलिस नेतृत्व के बीच विचार-विमर्श के माध्यम से प्रमुख राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों का समाधान ढूंढना था।
- प्रतिभागियों की विविधता: यह सम्मेलन राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों का प्रबंधन करने वाले शीर्ष पुलिस नेतृत्व, अत्याधुनिक स्तर पर कार्य करने वाले युवा पुलिस अधिकारियों और विशिष्ट क्षेत्रों के विशेषज्ञों का एक अनूठा मिश्रण है।
- DGP/IGSP सम्मेलन अनुशंसा डैशबोर्ड: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा विकसित एक नया डैशबोर्ड लॉन्च किया गया है।
- इसका उद्देश्य प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में आयोजित पुलिस निदेशकों और महानिरीक्षकों के वार्षिक सम्मेलन के दौरान लिये गए निर्णयों के कार्यान्वयन में सहायता करना है।
- गैर-पश्चिमी दृष्टिकोण के साथ जनजातीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना: चर्चा में जनजातीय समुदायों की शिकायतों के समाधान में गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
- यह इस विचारधारा पर आधारित है कि स्वदेशी आबादी के साथ उस तरह का व्यवहार न किया जाए जैसा कि पश्चिमी मॉडल में किया गया है (जिसमें ऐतिहासिक रूप से उनके प्रति दुराग्रह की भावना बनी रही तथा उन्हें हाशिये पर रखा गया)। इस प्रकार स्वदेशी आबादी को नियंत्रित करने या उनका बहिष्कार करने के बजाय सम्मान, समावेशन और सशक्तीकरण पर ज़ोर दिया जाना चाहिये।
- विविध सुरक्षा चुनौतियों पर चर्चा:
- सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं का कट्टरपंथीकरण, विशेष रूप से " इस्लामिक और खालिस्तानी कट्टरपंथ" पर ध्यान केंद्रित करना।
- मादक पदार्थ और तस्करी आंतरिक सुरक्षा में एक प्रमुख चिंता का विषय बन गया है, जिससे सामाजिक और आर्थिक स्थिरता प्रभावित हो रही है ।
- गैर-प्रमुख बंदरगाहों और मत्स्य संग्रहण वाले बंदरगाहों पर सुरक्षा, जो तस्करी और अन्य अवैध गतिविधियों के लिये महत्त्वपूर्ण जोखिम पैदा करते हैं।
- उभरते खतरे और तकनीकी चुनौतियाँ: सम्मेलन में कई उभरते सुरक्षा खतरों पर चर्चा की गई है।
- फिनटेक धोखाधड़ी: इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि किस प्रकार वित्तीय प्रौद्योगिकियों का आपराधिक गतिविधियों के लिये शोषण किया जा रहा है।
- रूज़ ड्रोन: तस्करी और निगरानी के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले ‘रूज़ ड्रोन’ के विरुद्ध जवाबी उपाय, सत्र का केंद्र बिंदु थे।
- ऐप इकोसिस्टम का शोषण: अपराधी अवैध गतिविधियों के लिये मोबाइल ऐप का उपयोग तेज़ी से कर रहे हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारत में जनजातीय समुदायों के साथ कैसा व्यवहार किया?
- आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871: ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान, आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 में कई जनजातियों को वंशानुगत, आदतन अपराधियों के रूप में वर्गीकृत किया गया।
- अंग्रेज़ों के अनुसार, वे स्वाभाविक रूप से छोटे-मोटे अपराध करने के लिये प्रवृत्त थे।
- किसी भी समय अपराध करने की उनकी कथित संभावना के कारण हर समय उनके विरुद्ध कठोर निगरानी रखी जानी उचित थी।
- भारतीय वन अधिनियम, 1865: इस अधिनियम ने जनजातीय समुदायों की कई दैनिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया, जैसे लकड़ी काटना, मवेशी चराना , फल और जड़ें इकट्ठा करना तथा मत्स्यन।
- जनजातीय समुदायों को वनों से लकड़ियाँ चुराने के लिये मज़बूर किया जाता था, पकड़े जाने पर उन्हें वन रक्षकों को रिश्वत देनी पड़ती थी।
- वन अधिनियम, 1878: यह पहले के अधिनियमों की तुलना में अधिक व्यापक था।
- वनों को आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्राम वन के रूप में वर्गीकृत किया गया, जिससे जनजातीय समुदायों की वनों तक पहुँच प्रतिबंधित हो गई।
- लकड़ी पर शुल्क लगाने का प्रावधान किया गया ।
- भारतीय वन अधिनियम, 1927 : इस अधिनियम ने वनों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया, अर्थात् आरक्षित वन, ग्राम वन और संरक्षित वन ।
- आरक्षित वनों में स्थानीय लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध है, जिसके कारण जनजातीय समुदायों को उनके प्रवेश पर शारीरिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
- स्थायी बंदोबस्त (वर्ष 1793): जनजातीय क्षेत्रों में स्थायी बंदोबस्त की शुरूआत ने भूमि के सामूहिक और पारंपरिक स्वामित्व (खुटकुट्टी प्रथा) की पारंपरिक प्रथाओं को समाप्त कर दिया।
- पुलिस, व्यापारियों और साहूकारों जैसे बाह्य लोगों (दीकूओं) द्वारा शोषण से जनजातीय समुदायों की समस्याएँ और भी बढ़ गई।
भारत सरकार ने जनजातीय समुदायों के लिये गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण कैसे अपनाया है?
- आदतन अपराधी अधिनियम, 1952: स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 को आदतन अपराधी अधिनियम, 1952 से प्रतिस्थापित किया ।
- आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के तहत जिन समुदायों को 'अपराधी' के रूप में अधिसूचित किया गया था वे "विमुक्त जनजाति" बन गए थे और अब उन्हें "जन्मजात अपराधी" नहीं माना जाता था।
- राष्ट्रीय वन नीति 1952: इसने वनों के साथ जनजातीय सहजीवी संबंध को मान्यता दी और वनों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास की अनुमति दी।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: इसका उद्देश्य अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सदस्यों के विरुद्ध अत्याचार के अपराधों को रोकना है।
- इसमें अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों के मामलों की सुनवाई के लिये विशेष अदालतों के गठन का प्रावधान है।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006: FRA 2006 का उद्देश्य औपनिवेशिक युग के वन कानूनों द्वारा वन-निवासी समुदायों के प्रति किये गए अन्याय की क्षतिपूर्ति करना है।
- यह वन में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को आदिवासियों या वनवासियों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर स्वामित्व का अधिकार देता है।
जनजातीय समुदायों को अभी भी किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
- कलंक की औपनिवेशिक विरासत: वर्ष 1952 में "आपराधिक जनजाति" कानून को निरस्त कर दिये जाने के बावजूद , जनजातीय समुदायों के साथ जुड़ा कलंक बना हुआ है।
- जनजातीय समुदायों को बहिष्कृत करने तथा उन्हें मुख्यधारा की आबादी से असमान समझने की औपनिवेशिक मानसिकता स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही है।
- गैर-अनुसूचित जनजातियों के समक्ष चुनौतियाँ: गैर-अनुसूचित जनजातियों के पास विधायी संरक्षण का अभाव है , जिससे वे और भी अधिक असुरक्षित हो जाती हैं।
- जनजातीय समुदायों के विरुद्ध बढ़ती हिंसा: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़े ऐसे अपराधों में लगातार वृद्धि का संकेत देते हैं, जिनकी घटनाएँ वर्ष 2021 में 8,802 मामलों से बढ़कर वर्ष 2022 में 10,064 हो गईं (14.3% की वृद्धि)।
- मध्य प्रदेश (30.61%), राजस्थान (25.66%) और ओडिशा (7.94%) में अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचार के अधिकांश मामले दर्ज किये गये।
- समस्याओं में राज्यवार भिन्नता: मध्य प्रदेश में वेश्यावृत्ति के रैकेट से जनजातीय समुदायों का शोषण होता है जबकि झारखंड और छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ आतंकवाद विरोधी अभियान जनजातीय समुदायों की आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
- बेदखली और विस्थापन: FRA के संरक्षण के बावजूद, कुछ जनजातीय समुदायों को अभी भी प्रवर्तन के निम्न स्तर या उनके अधिकारों की मान्यता की कमी के कारण वन भूमि से बेदखली का सामना करना पड़ रहा है। उदाहरण के लिये, असम में ऑरेंज नेशनल पार्क से बोडो, राभा और मिशिंग जनजाति को बेदखल किया गया।
जनजातीय समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान कैसे करें?
- ऐतिहासिक कलंक को संबोधित करना: जन जागरूकता अभियान, शैक्षिक सुधार और मीडिया चित्रण की रूढ़िवादिता को चुनौती देनी चाहिये और जनजातीय समुदायों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना चाहिये।
- कानून प्रवर्तन को बढ़ावा देना: कानून प्रवर्तन तंत्र को मज़बूत करना, दोषसिद्धि दरों में वृद्धि करना और जनजातीय समुदायों के खिलाफ अपराधों के लिये फास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना करना, न्याय सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
- वन अधिकार अधिनियम (FRA) का प्रभावी कार्यान्वयन: स्थानीय स्तर पर FRA के कार्यान्वयन को मज़बूत करने के प्रयास किये जाने चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जनजातीय समुदायों को उनकी भूमि से अन्यायपूर्ण तरीके से बेदखल न किया जाए।
- भूमि स्वामित्व सत्यापन, वन प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी तथा विस्थापित जनजातीय समुदायों के लिये कानूनी सहायता जैसी व्यवस्थाओं को बढ़ाया जाना चाहिये।
- सांस्कृतिक संरक्षण: जनजातीय समुदायों की संस्कृति, भाषा और परंपराओं को बढ़ावा देने और संरक्षित करने वाली पहलों का समर्थन करना चाहिये, जिससे गौरव एवं पहचान को बढ़ावा मिल सके। जैसे आदि महोत्सव।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: स्थानीय शासन और निर्णय लेने वाले निकायों में जनजातीय समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना ताकि वे अपनी चिंताओं को व्यक्त कर सकें। उदाहरण के लिये, लोकसभा (अनुच्छेद 330), राज्य विधानसभाओं (अनुच्छेद 332) और पंचायतों (अनुच्छेद 243) में एसटी के लिये सीटों का आरक्षण और संविधान की 5 वीं अनुसूची का उचित कार्यान्वयन।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में जनजातीय मुद्दों के समाधान में गैर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न.राष्ट्रीय स्तर पर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये कौन-सा मंत्रालय केंद्रक अभिकरण (नोडल एजेंसी) है? (2021) (a) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय उत्तर: (d) प्रश्न: भारत के संविधान की किस अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019) (A) तीसरी अनुसूची उत्तर: (B) मेन्सप्रश्न: स्वतंत्रता के बाद से अनुसूचित जनजातियों (ST) के खिलाफ भेदभाव को दूर करने के लिये राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहल क्या हैं? (2017) प्रश्न: भारत में आदिवासियों को 'अनुसूचित जनजाति' क्यों कहा जाता है? उनके उत्थान के लिये भारत के संविधान में निहित प्रमुख प्रावधानों को इंगित कीजिये। (2016) |