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प्रिलिम्स फैक्ट्स

  • 06 Aug, 2024
  • 30 min read
प्रारंभिक परीक्षा

पोरजा, बगाटा और कोंडा डोरा जनजातियाँ

स्रोत: द हिंदू 

हाल ही में आंध्र प्रदेश में जनजातीय समुदायों की दुर्दशा, जिन्होंने लोअर सिलेरू हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट (LSP) के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, ने  ध्यान आकर्षित किया है।

  • पोरजा, बागाटा और कोंडा डोरा जनजाति के लोगों ने वर्ष 1970 के दशक में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, इसके बावज़ूद विशाखापत्तनम के आस-पास स्थित उनके द्वारा बसाए गए गाँवों में उन्हें विद्युत और स्वच्छ जल की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है।

पोरजा, बगाटा और कोंडा डोरा जनजातियों के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • पोरजा जनजाति:
    • आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम क्षेत्र में रहने वाली पोरजा जनजाति (उप-समूह: बोंडो पोरजा, खोंड पोरजा और परंगी (Parangi) पोरजा) की जनसंख्या लगभग 16,479 (जनगणना, 1991) है।
      • पोरजा लोग कृषि योग्य भूमि की तलाश में लगभग 300 वर्ष पूर्व ओडिशा से पलायन कर गए थे। ऐतिहासिक रूप से उन्हें पालकी ढोने के अतिरिक्त अन्य छोटे-मोटे कार्यों के लिये नियुक्त किया जाता था।
      • "पोरजा" शब्द उड़िया भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है "राजा का बेटा", जो जयपुर शासकों (Jeypore Rulers) द्वारा उनके ऐतिहासिक रोज़गार को प्रदर्शित करता है। 
      • वे पहाड़ी इलाकों में रहते हैं और स्थानांतरित कृषि करते हैं, जिसे स्थानीय रूप से पोडू के रूप में जाना जाता है।
      • पोरजा लोग पितृ वंश (Patrilineal Descent) के साथ पितृसत्तात्मक प्रणाली (Patriarchal System) का भी पालन करते हैं। संपत्ति विरासत और वंशानुगत संबंधी उत्तराधिकार में इस प्रणाली का पालन किया जाता है, जिसमें सबसे बड़े बेटे को अतिरिक्त हिस्सा मिलता है।
      • उनकी सामाजिक प्रथाओं में अंतर-गोत्रीय (Cross-Cousin) विवाह, जिसमें विवाह पूर्व एवं विवाह के बाद के संबंधों को स्वीकार करना शामिल है। टैटू बनवाना उनकी सामाजिक-धार्मिक संस्कृति का अभिन्न अंग है।
      • पोरजा अंतर्विवाही उप-समूह (Endogamous Sub-Group) हैं, जिनमें से प्रत्येक के अपने अलग-अलग रीति-रिवाज़, भाषाएँ और खान-पान संबंधी आदतें हैं। विशाखापत्तनम में ज़्यादातर पोरजा परंगी पोरजा समूह से संबंधित हैं।
  • बगाटा जनजाति: बगाटा भारत की एक आदिवासी जनजाति है, जो मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश और ओडिशा राज्यों में निवास करती है। उन्हें बगाथा, बागट, बागोडी, बोगद या भक्ता के नाम से भी जाना जाता है।
    • उनके विवाह प्रतिमानों के अनुसार वे वंश-परंपरा (अपने कबीले से बाहर विवाह करना) का सख्ती से पालन करते हैं। विवाह समझौता और भागकर (Elopement) होता है। उनमें तलाक और पुनर्विवाह की अनुमति है।
    • बागथा का मुख्य भोजन विभिन्न किस्मों के कदन्न (Millet) हुआ करते थे, जिसका स्थान अब चावल ने ले लिया है।
    • बागथा अलौकिकता, जादू-टोना, बुरी नज़र, टोना-टोटका, भाग्य, भूत-प्रेत आदि में विश्वास करते हैं। वे कुलदेवता और कुलों के रूप में प्रकृति की पूजा करते हैं।
    • पारंपरिक रूप से आदिवासी मुखिया अंतर-पारिवारिक और अंतर-आदिवासी विवादों को सुलझाता है, जबकि ग्राम प्रधान अंतर-आदिवासी मुद्दों, पारंपरिक रीति-रिवाज़ों के झगड़ों को सुलझाता है।
  • कोंडा डोरा जनजाति: ये ओडिशा की अनुसूचित जनजाति है, जो दक्षिण ओडिशा और आंध्र प्रदेश में विस्तृत पूर्वी घाट के कोंडा कंबेरू पर्वत शृंखला (Kamberu Range) में निवास करती है।
    • 'कोंडाडोरा' नाम का अर्थ है 'पहाड़ी के स्वामी', जो 'कोंडा' (पहाड़ी) और 'डोरा' (स्वामी) से लिया गया है। 'कोंडा कपू', 'ओजा', 'पांडव राजू' और 'पांडव डोरा' के नाम से भी जाने जाने वाले ये लोग स्वयं को पौराणिक पांडवों का वंशज मानते हैं।
    • उनकी मूल भाषा, कुबी/कोंडा, को बड़े पैमाने पर तेलुगु और उड़िया के मिश्रण से बदल दिया गया है।
      • सामान्यतः कोंडा डोरा बस्तियाँ सजातीय (Homogeneous) प्रकार की होती हैं। ये बहुजातीय गाँवों में सामाजिक दूरी और जातीय पहचान बनाए रखने के लिये अलग आश्रय स्थलों में निवास करते हैं।
      • उनके समाज में बहुविवाह और बाल विवाह निषिद्ध नहीं हैं, वयस्क विवाह और एक विवाह प्रथा आमतौर पर प्रचलित है।
        • ये अंतर-गोत्रीय (Cross-Cousin) विवाह को प्राथमिकता देते हैं, जबकि समगोत्रीय (Parallel Cousin) विवाह सख्त वर्जित है।
      • उनके पास एक पारंपरिक ग्राम परिषद् (कुलम पंचायत) है, जिसका नेतृत्व कुला पेडा (Kula Peda) करता है, जिसे पिल्लीपुडामारी (Pillipudamari) द्वारा सहायता प्रदान की जाती है।
        • उनके पास एक अंतर-ग्राम समुदाय परिषद् भी है, ये परिषदें अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में अपने प्रथागत मामलों को संभालती हैं।
    • यह जनजाति अंतर्विवाही है, जो दो मुख्य समूहों में विभाजित है: पेड्डा कोंडुलु (Pedda Kondulu) और चाइना कोंडुलु (China Kondulu), जिनमें से प्रत्येक में कई कबीले हैं। हालाँकि आधुनिकीकरण और सांस्कृतिक संपर्क उनकी पारंपरिक जीवन शैली को परिवर्तित कर रहे हैं।

नोट: लोअर सिलेरू हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट, सिलेरू नदी पर स्थित 460 मेगावाट की जल विद्युत परियोजना है, यह आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम के अधिकृत क्षेत्र में सघन वनों के बीच स्थित है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स

प्रश्न.अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अधीन व्यक्तिगत या सामुदायिक वन अधिकारों अथवा दोनों की प्रकृति एवं विस्तार के निर्धारण की प्रक्रिया को प्रारंभ करने के लिये कौन प्राधिकारी होगा?(2013)

(a) राज्य वन विभाग
(b) जिला कलेक्टर/उपायुक्त
(c) तहसीलदार/खंड विकास अधिकारी/मंडल राजस्व अधिकारी
(d) ग्राम सभा

उत्तर: (d)


प्रारंभिक परीक्षा

HT बासमती चावल की व्यावसायिक खेती

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत सरकार ने पहली बार शाकनाशी-सहिष्णु (Herbicide-Tolerant: HT) बासमती चावल की दो गैर-ट्रांसजेनिक किस्मों: पूसा बासमती 1979 और पूसा बासमती 1985 की व्यावसायिक खेती की अनुमति दी।

नोट:

  • ट्रांसजेनिक एक आनुवंशिकतः रूपांतरित जीव (GMO) या कोशिका को संदर्भित करता है, जिसके जीनोम को कृत्रिम साधनों की सहायता से किसी अन्य प्रजाति से एक या अधिक बाह्य DNA अनुक्रम या जीन को निर्दिष्ट कर रूपांतरित किया गया है।
    • GMO एक ऐसा जीव है जिसमें आनुवंशिक रूप से संशोधित जीनोम होता है।
    • सभी ट्रांसजेनिक जीव GMO होते हैं।
  • गैर-ट्रांसजेनिक में कोई बाह्य DNA सम्मिलित नहीं होता है।

चावल की नई किस्मों की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • इन नई किस्मों में उत्परिवर्तित एसीटो-लैक्टेट सिंथेज़ (ALS) जीन होता है, जिससे किसानों के लिये खरपतवारों को नियंत्रित करने के लिये इमेजेथापायर (एक शाकनाशी) का छिड़काव करना संभव हो जाता है।
    • चूँकि उत्परिवर्तित ALS जीन के कारण ALS एंज़ाइमों में इमेजेथापायर बंधनकारी स्थल/बाइंडिंग साइट (वह साइट/स्थल या पॉकेट जहाँ रासायनिक प्रतिक्रिया होती है।) का अभाव होता है, इसलिये अमीनो एसिड संश्लेषण अप्रभावित रहता है।
    • चावल/धान में ALS जीन फसल की वृद्धि और विकास के लिये आवश्यक अमीनो एसिड के संश्लेषण हेतु उत्तरदायी एंज़ाइम को एनकोड करता है।
      • जबकि, सामान्य धान के पौधों में, शाकनाशी पदार्थ ALS एंज़ाइमों के साथ बंध बनाता है, जिससे अमीनो एसिड का उत्पादन बाधित होता है।
  • इमेजेथापायर प्रभावी रूप से विभिन्न प्रकार के चौड़ी पत्ती वाले, घास वाले और सेज खरपतवारों (सेज वर्गीय खरपतवार भी घास की तरह ही दिखते हैं, परंतु इनका तना बिना जुड़ा हुआ, ठोस तथा कभी-कभी गोल की अपेक्षा तिकोना होता है) को लक्षित करता है, लेकिन फसल एवं आक्रामक पौधों के बीच अंतर नहीं कर सकता।
    • परिणामस्वरूप, ये पौधे शाकनाशी (जो केवल खरपतवारों को समाप्त करता है) सहिष्णु हो सकते हैं
    • चूँकि इस प्रक्रिया में कोई विदेशी जीन शामिल नहीं है, इसलिये उत्परिवर्तन प्रजनन के माध्यम से शाकनाशी सहिष्णुता प्राप्त की जाती है, जिससे ये पौधे गैर-आनुवंशिक तरीके से रूपांतरित जीव (Non-GMO) बन जाते हैं।
  • महत्त्व: चावल की ये HT किस्में कई लाभ प्रदान करती हैं जैसे कि नर्सरी की तैयारी, पोखर, रोपाई व कृष्ट भूमि में जल संभरण की आवश्यकता को समाप्त करना, धान के प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR) विधि के समर्थन द्वारा प्रमुख ग्रीनहाउस गैस मीथेन के उत्सर्जन को कम करना।

चावल की HT किस्म के उपयोग को लेकर विद्यमान चिंताएँ

  • बारंबार प्रयोग से ‘सुपर वीड्स’ विकसित होने का जोखिम है जो शाकनाशी प्रतिरोधी हो जाते हैं तथा उन्हें नियंत्रित करना कठिन हो जाता है।
  • डेवलपर्स ने उपभोक्ताओं को आश्वासन दिया है कि इस किस्म के बीजों द्वारा उत्पादित अनाज शाकनाशी अवशेषों-मुक्त होगा तथापि खाद्य उत्पादों में संभावित शाकनाशी अवशेषों के संचय को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं।
  • जहाँ भारत इमेजेथापायर जैसे कुछ शाकनाशियों के उपयोग की अनुमति देता है वहीं यूरोपीय संघ उन पर प्रतिबंध लगाता है, जो अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं सुरक्षा मानकों को प्रभावित कर सकता है।
  • HT फसलों की दीर्घकालिक संधारणीयता पर इसलिये भी प्रश्चिह्न है क्योंकि समय के साथ शाकनाशियों के बढ़ते उपयोग से पारिस्थितिक चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

धान की रोपाई बनाम प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR)

धान की रोपाई

धान का प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR)

जिस खेत में रोपाई की जाती है, उसमें जल भरकर मृदा को दलदल के समान बनाया जाता है।

अंकुरित बीजों को ट्रैक्टर द्वारा संचालित मशीनों द्वारा सीधे खेत में डाला जाता है।

रोपाई के बाद पहले तीन सप्ताह तक पौधों के लिये लगभग 4-5 सेमी. की जल गहनता बनाए रखने के लिये प्रतिदिन सिंचाई की जाती है।

इस विधि में नर्सरी की तैयारी या रोपाई शामिल नहीं है।

किसान अगले चार-पाँच सप्ताह तक भी 2-3 दिन के अंतराल पर जल से सिंचाई करते रहते हैं, जब फसल टिलरिंग (तना विकास) अवस्था में होती है।

किसानों को केवल अपनी कृष्ट भूमि को समतल करना होता है और बुवाई से पहले एक बार सिंचाई करनी होती है।

धान की रोपाई में श्रम और जल दोनों की आवश्यकता होती है।

यह जल और श्रम दोनों की बचत करता है। तुलनात्मक रूप से जल संग्रहण अवधि एवं मृदा की असंतुलन में वांछनीय कमी होने के कारण मीथेन उत्सर्जन को कम करता है।   

चावल/धान:

  • यह एक खरीफ फसल है जिसके लिये उच्च तापमान (25 डिग्री सेल्सियस से अधिक) और उच्च आर्द्रता एवं वार्षिक तौर पर 100 सेमी. से अधिक की वर्षा की आवश्यकता होती है।
  • दक्षिणी राज्यों और पश्चिम बंगाल में, जलवायु परिस्थितियाँ एक कृषि वर्ष में चावल की दो या तीन फसलों की खेती में सहायक हैं।
    • पश्चिम बंगाल में किसान चावल की तीन फसलें उगाते हैं जिन्हें ‘औस’, ‘अमन’ और ‘बोरो’ कहा जाता है।
  • भारत में कुल फसल वाले क्षेत्र का लगभग एक-चौथाई हिस्सा चावल की खेती के अंतर्गत आता है।
    • प्रमुख उत्पादक राज्य: पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब।
    • उच्च उपज वाले राज्य: पंजाब, तमिलनाडु, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और केरल।
  • भारत चीन के बाद चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
  • बासमती चावल भारत का शीर्ष कृषि-निर्यात उत्पाद है। वर्ष 2022-23 में, भारत ने इसका 4.56 मिलियन टन निर्यात किया, जिसका मूल्य 4.78 बिलियन अमरीकी डॉलर था।
    • बासमती की विशिष्ट सुगंध का श्रेय 2-एसिटाइल-1-पाइरोलाइन (2-AP) को जाता है, जो परिपक्वता के दौरान उत्पन्न होता है और चावल को पौष्टिकता एवं सुगंध प्रदान करने वाला एक कार्बनिक यौगिक है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न. कृषि में शून्य-जुताई (Zero-Tillage) का/के क्या लाभ है/हैं? (2020)

  1. पिछली फसल के अवशेषाें को जलाए बिना गेहूँ की बुआई संभव है।
  2. चावल की नई पौध की नर्सरी बनाए बिना, धान के बीजाें का नम मृदा में सीधे रोपण संभव है।
  3. मृदा में कार्बन पृथक्करण संभव है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये-

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 3 
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: D

व्याख्या:

  • शून्य जुताई (ज़ीरो टिलेज) वह प्रक्रिया है जहाँ बीज को बिना पूर्व तैयारी और बिना मिट्टी तैयार किये तथा जहांँ पिछली फसल के बुलबुले (स्टबल) मौजूद होते हैं, वहाँ ड्रिलर्स के माध्यम से बोया जाता है। एक अध्ययन के अनुसार, यदि किसान अपने फसल अवशेषों को जलाना बंद कर दें तथा इसके बजाय शून्य जुताई खेती की अवधारणा को अपनाएंँ तो उत्तर भारत में किसान न केवल वायु प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकते हैं, बल्कि अपनी मृदा की उत्पादकता में भी सुधार कर सकते हैं और अधिक लाभ कमा सकते हैं। ज़ीरो टिलेज के तहत बिना जुताई वाली मिट्टी में गेहूंँ की सीधी बुवाई और चावल के अवशेषों को छोड़ देना बहुत फायदेमंद साबित हुआ है। इसने जल, श्रम व कृषि रसायनों के उपयोग में कमी, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और मृदा के स्वास्थ्य एवं फसल की उपज में सुधार किया, इस तरह किसानों तथा समाज दोनों को बड़े पैमाने पर लाभ हुआ। अत: कथन 1 सही है।
  • चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण (DSR) जिसे 'बीज बिखेरना तकनीक (Broadcasting Seed Technique)' के रूप में भी जाना जाता है, धान की बुवाई की एक जल बचत विधि है। इस विधि में बीजों को सीधे खेतों में ड्रिल किया जाता है। नर्सरी से जलभराव वाले खेतों में धान की रोपाई की पारंपरिक जल-गहन विधि के विपरीत यह विधि भूजल की बचत करती है। इस पद्धति में कोई नर्सरी तैयारी या प्रत्यारोपण शामिल नहीं है। 
  • किसानों को केवल अपनी ज़मीन को समतल करना होता है और बुवाई से पहले सिंचाई करनी होती है। यह पाया गया है कि 1 किलो धान के उत्पादन के लिये 5000 लीटर तक जल का उपयोग किया जाता है। हालांँकि जल की बढ़ती कमी की स्थिति में न्यूनतम या शून्य जुताई के साथ DSR श्रम की बचत कर इस तकनीक के लाभों को और बढ़ाया जा सकता है। अत: कथन 2 सही है।
  • बिना जुताई वाली मृदा, जुताई वाली मृदा से आंशिक रूप में ठंडी होती है क्योंकि पौधे के अवशेषों की एक परत सतह पर मौज़ूद होती है। मिट्टी में कार्बन जमा हो जाता है तथा इसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा कम होता है। अत: कथन 3 सही है। 

अतः विकल्प (d) सही है।


रैपिड फायर

ASI द्वारा शिलालेखों का प्रतिकृतियन

स्रोत: द हिंदू 

भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) ने तमिलनाडु के तिरुप्पुर ज़िले में थलीश्वरर मंदिर में पत्थर के शिलालेखों की नकल करने के लिये एक परियोजना शुरू की है।

  • एस्टैम्पेज विधि: यह पुरातत्त्वविदों द्वारा विश्लेषण हेतु शिलालेखों की प्रतिकृति के लिये इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक है।
    • इस प्रक्रिया में उत्कीर्ण पत्थर को ब्रश से साफ करना, उत्कीर्णन को स्थानांतरित करने के लिये पत्थर पर पहले से भिगोए गए मैपलिथो पेपर को लगाना और अक्षरों को पुनः उजागर करने के लिये कागज़ पर स्याही लगाना शामिल है।
    • सूखने के बाद, शीट के पीछे शिलालेख के स्थान के बारे में विवरण लिखा जाता है।
    • ये प्रतिकृति शिलालेख ऐतिहासिक शासकों की जीवनशैली, अर्थव्यवस्था, संस्कृतियों और प्रशासनिक प्रथाओं के संदर्भ में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं, जिससे अन्य ऐतिहासिक स्रोतों के साथ पुष्टि के माध्यम से राजवंशीय इतिहास की बेहतर समझ मिलती है।
  • अभिनिर्धारित किये गए शिलालेख: 8 शिलालेख खोजे गए हैं, जिनमें 9वीं शताब्दी का वट्टेझुथु (प्राचीन तमिल लिपि) और 12वीं शताब्दी के तमिल में सात शिलालेख शामिल हैं। ये शिलालेख एक चेर शासक (प्राचीन तमिलनाडु के 3 प्रमुख राजवंशों में से एक, जो कला, वास्तुकला और साहित्य में अपने योगदान के लिये जाना जाता है) द्वारा मंदिर के निर्माण का दस्तावेज़ीकरण करते हैं।
  • टीम ने दो हीरो स्टोन (युद्ध में नायक की सम्मानजनक मृत्यु की स्मृति में एक स्मारक), एक अय्यनार (दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध लोक देवता) मूर्तिकला और मंदिर के समीप एक नंदी (बैल) मूर्तिकला से शिलालेख दर्ज किये।

और पढ़ें: ASI द्वारा खोए हुए स्मारकों को सूची से हटाना


रैपिड फायर

ओलंपिक के लुप्त खेल

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

ओलंपिक खेलों में विविध खेलों को शामिल करने की लंबे समय से परंपरा रही है, लेकिन सामाजिक मूल्यों, खेल भावना और दर्शकों की पसंद में बदलाव के कारण समय के साथ कुछ खेल आयोजनों को हटा दिया गया है।

  • 5 खेल जो अब ओलंपिक कार्यक्रम में शामिल नहीं हैं:
    • लाइव पिजन शूटिंग (1900 में समाप्त): प्रतियोगियों ने लगभग 300 पिजन को मार डाला, जिसके कारण इसकी जगह मिट्टी के पिजन शूटिंग ने ले ली।
    • हॉट एयर बैलूनिंग (1900 में समाप्त): इसमें ऊँचाई और फोटोग्राफी प्रतियोगिताएँ शामिल थीं।
    • टग-ऑफ-वार (1900 से 1920): 1908 लंदन ओलंपिक में ब्रिटिश टीम के भारी जूतों को लेकर हुए विवाद के बाद यह समाप्त हो गया।
    • प्लंज फॉर डिस्टेंस (1904-1908): इस प्रतियोगिता में खिलाड़ियों को पूल में गोता लगाना होता था और बिना हिले-डुले जल के नीचे तैरना होता था।
    • दौड़ते हुए हिरण का शिकार (1908-1924): प्रतियोगी चलती गाड़ी पर रखे लकड़ी के हिरण पर 100 मीटर की दूरी से निशाना साधते थे।
  • ओलंपिक खेल: इन खेलों का आयोजन हर 4 वर्ष में होता है।
    • ओलंपिक खेलों की शुरुआत प्राचीन ग्रीस में लगभग 776 ईसा पूर्व हुई थी और आधुनिक खेलों को वर्ष 1896 में एथेंस में पुनर्जीवित किया गया।
    • आगामी कार्यक्रम:
      • ग्रीष्मकालीन ओलंपिक 2024: पेरिस, फ्राँस
      • शीतकालीन ओलंपिक 2026: मिलान-कॉर्टिना डी'एम्पेज़ो, इटली
      • ग्रीष्मकालीन ओलंपिक 2028: लॉस एंजिल्स, USA
      • ग्रीष्मकालीन ओलंपिक 2032: ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया
    • 2024 पेरिस ओलंपिक में कुल 32 विभिन्न खेल शामिल होंगे।

और पढ़ें: ओलंपिक गेम्स- 2036 की मेज़बानी हेतु भारत की महत्त्वाकांक्षा, मनु भाकर ने ओलंपिक कांस्य जीता


रैपिड फायर

कश्मीरी कारीगरों के लिये WCC द्वारा कार्यक्रम का आयोजन

स्रोत: द हिंदू

विश्व शिल्प परिषद (World Craft Council- WCC) द्वारा कश्मीर के कारीगरों के लिये उन शहरों के साथ ज्ञान विनिमय कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा, जिन्होंने सदियों पहले यहाँ के शिल्प सौंदर्य को प्रभावित किया था। इससे पूर्व जून 2024 में WCC ने श्रीनगर को विश्व शिल्प शहर का नाम दिया था।

  • यह कदम समान संस्कृति और विशेषज्ञता वाले कारीगरों को एक साथ संगठित करेगा, ताकि वे सांस्कृतिक एवं तकनीकी दोनों रूप से एक-दूसरे से लाभान्वित हो सकें।
  • WCC-इंटरनेशनल की स्थापना वर्ष 1964 में हुई थी और श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय इसके संस्थापक सदस्यों में से एक थीं जिन्होंने WCC की पहली आम सभा में भाग लिया था। WCC का मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में शिल्पकला की स्थिति को सुदृढ़ करना है।

कश्मीर के महत्त्वपूर्ण शिल्प:

  • कश्मीर के 7 शिल्पों - कानी शॉल, पश्मीना, सोज़नी, पेपर-मैची, अखरोट की लकड़ी की नक्काशी, खतमबंद और हाथ से बुने कालीनों को भौगोलिक संकेत (GI) प्रमाणन प्राप्त हुआ है।
  • श्रीनगर के शिल्प के विषय में:
    • भारतीय राष्ट्रीय कला एवं सांस्कृतिक विरासत ट्रस्ट- कश्मीर (INTACH-कश्मीर) की वर्ष 2024 की रिपोर्ट के अनुसार श्रीनगर दक्षिण एशिया के प्राचीन शहरों में से एक है, जिसका लगभग 1,500 वर्षों पुराना इतिहास है।
      • INTACH की स्थापना वर्ष 1984 में नई दिल्ली में भारत में विरासत जागरूकता और संरक्षण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। आज, INTACH को विश्व के सबसे बड़े विरासत संगठनों में से एक माना जाता है।
    • यह शहर 'कश्मीरी' ब्रांड और पैस्ले मोटिफ के लिये विश्व स्तर पर जाना जाता है। 
    • ईरान के कारीगरों ने पाँच शताब्दियों पहले ज़ांजान और फिलिग्री जैसे शिल्पों की शुरुआत की थी।
    • श्रीनगर की कालीन परंपरा 14वीं शताब्दी के अंत में सूफी संत सैय्यद अली हमदानी के साथ शुरू हुई। 
    • वर्ष 2021 में श्रीनगर शहर को शिल्प और लोक कलाओं के लिये यूनेस्को क्रिएटिव सिटी नेटवर्क (UNESCO Creative City Network- UCCN) के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई थी।

और पढ़ें: श्रीनगर: यूनेस्को रचनात्मक शहरों का नेटवर्क


रैपिड फायर

भारत द्वारा चिली में लिथियम का अन्वेषण

स्रोत: बिज़नेस लाइन

कोल इंडिया लिमिटेड (CIL), चिली के साल्ट फ्लैट्स (नमक की परत से आवृत समतल क्षेत्र) में लिथियम के अन्वेषण और निष्कर्षण पर विचार कर रहा है।

  • चिली के पास विश्व का सबसे बड़ा लिथियम भंडार (36%) है और यह दूसरा सबसे बड़ा वैश्विक उत्पादक (32%) भी है। लिथियम के वैश्विक व्यापार में इसका योगदान लगभग 36% है।
    • चिली, अर्जेंटीना और बोलीविया के साथ "लिथियम ट्रायंगल" का हिस्सा है।
      • लिथियम के अन्य शीर्ष शीर्ष उत्पादकों में ऑस्ट्रेलिया, चीन और ब्राज़ील शामिल हैं।
  • लिथियम (सफेद सोना या व्हाइट गोल्ड) विविध गुणों से युक्त एक तत्त्व (Versatile Element) है, जिसका उपयोग रिचार्जेबल बैटरी, सिरेमिक, ग्लास, एल्युमीनियम अयस्क और फार्मास्यूटिकल्स में किया जाता है।
    • यह सॉफ्ट/कोमल, चाँदीयुक्त सफेद धातु है, जो आवर्त सारणी का सबसे हल्का धातु है। इसमें उच्च प्रतिक्रियाशीलता, कम घनत्व और उत्कृष्ट विद्युत रासायनिक गुण विद्यमान हैं।
    • भारत के लिथियम भंडार में रियासी ज़िला (जम्मू-कश्मीर), कोरबा ज़िला (छत्तीसगढ़), मार्लागल्ला क्षेत्र (मांड्या ज़िला, कर्नाटक), कोडरमा (झारखंड) आदि शामिल हैं।

और पढ़ें: लिथियम


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