नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 9 दिसंबर से शुरू:   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

एडिटोरियल

  • 28 Nov, 2024
  • 30 min read
शासन व्यवस्था

भारत के चुनावी लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण

यह संपादकीय 25/11/2024 को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख “Election Commission of India is one of the greatest gifts of the Constitution” पर आधारित है। इस लेख में भारत की चुनाव प्रणाली की ताकत और चुनौतियों को उजागर किया गया है जो निर्वाचन आयोग तथा न्यायिक निगरानी द्वारा की गई प्रगति पर प्रकाश डालता है, साथ ही इसमें व्यापक सुधारों की तत्काल आवश्यकता पर भी बल देता है।

प्रिलिम्स के लिये:

भारत की चुनाव प्रणाली, चुनावी बॉण्ड, भारत सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार), 1919, भारत सरकार अधिनियम, 1935, अनुच्छेद 324, 61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1989, सूचना का अधिकार अधिनियम, उपर्युक्त में से कोई नहीं (NOTA), आदर्श आचार संहिता, लोकतांत्रिक सुधार संघ, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951  

मेन्स के लिये:

भारत में चुनाव प्रणाली का विकास, भारत की चुनाव प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे।

वर्ष 1949 में संविधान द्वारा स्थापित भारत की चुनाव प्रणाली, विश्व स्तर पर प्रशंसित लोकतांत्रिक ढाँचे के रूप में मानी जाती है। विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद, राष्ट्र राजनीतिक अपराधीकरण और प्रणालीगत चुनावी कमज़ोरियों सहित महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करता है। निर्वाचन आयोग ने उल्लेखनीय प्रगति की है, विशेष रूप से मतदाता प्रतिनिधित्व और चुनावी अखंडता में सुधार करने में। लोकतांत्रिक सिद्धांतों की रक्षा में न्यायिक निगरानी महत्त्वपूर्ण रही है, विशेष रूप से हाल ही में चुनावी बॉण्ड के फैसलों में। वास्तव में विकसित होने के लिये, भारत को व्यापक चुनावी सुधारों को तत्काल लागू करने की आवश्यकता है।

भारत में चुनाव प्रणाली किस प्रकार विकसित हुई? 

  • स्वतंत्रता-पूर्व युग: 
    • भारत शासन अधिनियम, 1858: ब्रिटिश क्राउन ने नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया; कोई प्रतिनिधि शासन नहीं।
    • भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 और 1892: विधान परिषदों में भारतीयों की सीमित भागीदारी शुरू की गई, लेकिन चुनावी प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया।
    • भारत सरकार अधिनियम, 1909 (मार्ले-मिंटो सुधार): मुसलमानों के लिये पृथक निर्वाचिका के साथ सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की शुरुआत की गई।
      • भारतीयों के लिये चुनावी प्रतिनिधित्व के सीमित स्वरूप का पहला उदाहरण।
    • भारत सरकार अधिनियम (मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार), 1919: संपत्ति मालिकों और करदाताओं को शामिल करने के लिये निर्वाचन क्षेत्र का विस्तार किया गया।
      • प्रांतीय परिषदों में आंशिक भारतीय प्रतिनिधित्व के साथ द्वैध शासन प्रणाली लागू की गई।
    • भारत सरकार अधिनियम, 1935: प्रांतीय स्वायत्तता और विस्तारित निर्वाचन क्षेत्रों का प्रावधान किया गया।
  • स्वतंत्रता-पश्चात् युग: 
    • संविधान सभा की बहस: सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को एक मौलिक सिद्धांत के रूप में अपनाया गया और चुनावों के लिये एक समावेशी, लोकतांत्रिक प्रक्रिया सुनिश्चित की गई।
  • चुनावों से संबंधित अनुच्छेद:
    • अनुच्छेद 324: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के प्रबंधन के लिये भारत के निर्वाचन आयोग (ECI) की स्थापना।
    • अनुच्छेद 325-329: चुनाव, निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन और भेदभाव के निषेध के लिये रूपरेखा सुनिश्चित करना।
  • चुनाव प्रणाली में प्रमुख विकास: 
    • प्रारंभिक आम चुनाव (वर्ष 1951-52): सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ आयोजित पहला लोकतांत्रिक चुनाव।
      • 173 मिलियन से अधिक मतदाताओं ने इसमें भाग लिया; 85% अशिक्षित थे, जिसके कारण पार्टियों के लिये प्रतीकों जैसे नवीन उपायों की आवश्यकता पड़ी।
    • ECI का संस्थागत सुदृढ़ीकरण: प्रारंभ में, आयोग में केवल एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त शामिल था।
      • वर्ष 1989 में, ECI एक बहु-सदस्यीय निकाय बन गया।
      • वर्ष 1990 में यह कुछ समय के लिये एक सदस्यीय निकाय में बदल गया, लेकिन वर्ष 1993 से यह तीन सदस्यीय निकाय (एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्त) के रूप में कार्य कर रहा है।
    • मतदान की आयु में कमी: 61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1989 ने मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया, जिससे चुनावी प्रक्रिया में युवाओं की भागीदारी संभव हो गई।
    • सूचना का अधिकार अधिनियम (वर्ष 2005): राजनीतिक दलों को सार्वजनिक जाँच के दायरे में लाया गया।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2020 में राजनीतिक दलों को विधानसभा और लोकसभा चुनावों के लिये अपने उम्मीदवारों का संपूर्ण आपराधिक इतिहास प्रकाशित करने का आदेश दिया था।
  • तकनीकी एकीकरण:
    • वर्ष 1989: इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) का प्रावधान किया गया। 
    • वर्ष 2011: पारदर्शिता बढ़ाने के लिये वोटर-वेरिफियेबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) का प्रोटोटाइप विकसित किया गया और वर्ष 2013 में पहली बार इसका इस्तेमाल किया गया।
      • उपर्युक्त में से कोई नहीं (NOTA) का परिचय: वर्ष 2013 में, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद, EVM में NOTA विकल्प पेश किया गया, जिससे मतदाताओं को मतपत्र की गोपनीयता बनाए रखते हुए किसी भी उम्मीदवार को चुनने से परहेज़ (मतदान में भाग नहीं लेने) करने की अनुमति मिली।
      • आदर्श आचार संहिता (MCC): केरल में प्रारंभ (वर्ष 1960) MCC का, राजनीतिक दलों की भागीदारी के साथ वर्ष 1979 तक विस्तार हो गया।
    • टी.एन. शेषन का कार्यकाल (CEC) आदर्श आचार संहिता के सख्त प्रवर्तन तथा वर्ष 1993 में मतदाता फोटो पहचान पत्र (EPIC) की शुरुआत के लिये जाना जाता है।

भारत की चुनाव प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं? 

  • चुनावों में धन-बल: चुनावों में धन का अनियंत्रित प्रयोग स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत को कमज़ोर करता है। 
    • राजनीतिक दल और उम्मीदवार प्रायः बेहिसाब धन पर निर्भर रहते हैं, जिससे वित्तपोषण अस्पष्ट हो जाता है तथा निगमों एवं धनी लोगों का प्रभाव बढ़ जाता है।
    • एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजनीतिक दलों को प्राप्त लगभग 60% धनराशि का पता नहीं लगाया जा सकता है और यह चुनावी बॉण्ड सहित ‘अज्ञात’ स्रोतों से आती है।
      • चुनावी बॉण्ड के माध्यम से अब तक विभिन्न राजनीतिक दलों को 16,000 करोड़ रुपए से अधिक धनराशि प्राप्त हुई है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करने के कारण असंवैधानिक है।
  • राजनीति का अपराधीकरण: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या से शासन में जनता का विश्वास कम हो रहा है। 
    • पार्टियाँ ईमानदारी की अपेक्षा जीतने की संभावना को प्राथमिकता देती हैं तथा प्रायः गंभीर आरोपों वाले उम्मीदवारों को मैदान में उतारती हैं।
    • ADR की वर्ष 2024 की रिपोर्ट से पता चलता है कि 543 नवनिर्वाचित लोकसभा सदस्यों में से 251 (46%) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 27 को दोषी ठहराया गया है। यह आपराधिक आरोपों वाले निर्वाचित उम्मीदवारों की सबसे अधिक संख्या है।
    • आपराधिक रिकॉर्ड प्रकाशित करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के कमज़ोर प्रवर्तन के कारण सीमित प्रभाव पड़ा है।
  • कम मतदान: मतदाताओं की उदासीनता, विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में, एक सतत् मुद्दा बनी हुई है, जो चुनावी प्रक्रिया की वैधता को प्रभावित कर रही है। 
    • जागरूकता की कमी, तार्किक चुनौतियाँ और राजनीति से अलगाव भागीदारी में बाधा उत्पन्न करते हैं। 
    • उदाहरण के लिये, लोकसभा चुनाव वर्ष 2023 के तीसरे चरण में वर्ष 2019 की तुलना में मतदाता मतदान में 2.9% की गिरावट देखी गई। बंगलूरू जैसे शहरी निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान 54% तक कम रहा।
  • चुनावी हिंसा और धमकी: धमकी और हिंसा कई राज्यों में, विशेषकर ग्रामीण एवं संघर्ष-प्रवण क्षेत्रों में, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करती है। 
    • इससे मतदाता की स्वतंत्र अभिव्यक्ति बाधित होती है तथा निष्पक्षता से समझौता होता है। 
    • उदाहरण के लिये, लोकसभा चुनाव वर्ष 2024 के छठे चरण के दौरान पश्चिम बंगाल में हिंसा की खबर।
  • मीडिया का दुरुपयोग: प्रचार-प्रसार एवं गलत सूचना के प्रसार के लिये मीडिया का दुरुपयोग मतदाताओं को ध्रुवीकृत करता है और लोकतांत्रिक संवाद को विकृत करता है। 
    • पेड न्यूज़ तथा नियामक तंत्र की कमी इस समस्या को और बढ़ा देती है। 
    • एक सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में पहली बार मतदान करने वाले लगभग 80% मतदाताओं को लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर फर्ज़ी खबरों का सामना करना पड़ता है।
    • मतदाताओं तक पहुँच बढ़ाने के लिये मनोज तिवारी के डीप फेक वीडियो का इस्तेमाल किया गया।
  • निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता: पक्षपात की धारणा और उल्लंघनों के विरुद्ध विलंब से कार्रवाई के कारण निर्वाचन आयोग (EC) की स्वायत्तता तथा निष्पक्षता पर प्रश्न उठ खड़े हुए हैं।
    • वर्ष 2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त के लिये एक चयन समिति का गठन करने का आदेश दिया ताकि अधिक स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके। हालाँकि इन उपायों की प्रभावशीलता अभी भी देखी जानी बाकी है।
    • वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव कार्यक्रम की अपेक्षित घोषणा से कुछ दिन पूर्व चुनाव आयुक्त अरुण गोयल के इस्तीफे से संदेह उत्पन्न हो गया है।
  • EVM विश्वसनीयता और VVPAT कार्यान्वयन: निर्वाचन आयोग के आश्वासन के बावजूद, EVM से छेड़छाड़ के बारे में संदेह बना हुआ है, विशेष रूप से विपक्षी दलों के बीच। 
    • रिपोर्ट में असम जैसे राज्यों में EVM में खराबी का संकेत दिया गया, जहाँ तकनीकी समस्याओं के कारण लगभग 150 EVM को बदलना पड़ा। 
    • मतगणना में VVPAT पेपर ट्रेल्स के सीमित प्रयोग से संदेह और बढ़ जाता है।
  • लिंग प्रतिनिधित्व अंतर: विधायी निकायों में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व उम्मीदवार चयन में संरचनात्मक पूर्वाग्रह को दर्शाता है। 
    • लोकसभा में महिलाओं की संख्या केवल 13.6% (वर्ष 2024) है। नारी शक्ति वंदन अधिनियम वर्ष 2029 के बाद ही लागू किया जाएगा, जो राजनीतिक सुधार की धीमी गति को दर्शाता है।
  • बार-बार चुनाव और आदर्श आचार संहिता: राज्यों में बार-बार चुनाव होने से शासन व्यवस्था में गतिरोध उत्पन्न होता है, क्योंकि आदर्श आचार संहिता के कारण निर्णय लेने और नीति कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न होती है। 
    • इससे संसाधनों पर भी दबाव पड़ता है तथा एक साथ चुनाव कराने को एक संभावित समाधान के रूप में प्रस्तावित किया गया है। 
    • सात चरणों में आयोजित वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों पर 60,000 करोड़ रुपए की लागत आई, जो खंडित चुनावों के कारण होने वाले रसद और वित्तीय बोझ को उजागर करता है।
  • वोट खरीदने और मुफ्त उपहार देने की संस्कृति: नकदी, शराब और अन्य प्रलोभनों के वितरण से चुनाव की पवित्रता प्रभावित होती है तथा इससे शासन के परिणाम खराब होते हैं। 
    • भारत के निर्वाचन आयोग ने हाल ही में महाराष्ट्र और झारखंड में हुए विधानसभा उपचुनावों के दौरान 1,000 करोड़ रुपए से अधिक की रिकॉर्ड ज़ब्ती की सूचना दी, जो वर्ष 2019 की तुलना में सात गुना अधिक है। 
      • इस ज़ब्ती में नकदी, बहुमूल्य धातुएँ, ड्रग्स, शराब और मुफ्त उपहार शामिल थे तथा ज़ब्ती में महाराष्ट्र सबसे आगे था।
    • इसके अतिरिक्त, राजनीतिक भाषा में फ्रीबीज़ या ‘रेवड़ी कल्चर’ जैसे असंवहनीय मुफ्त उपहारों का वादा, सतत् विकास नीतियों से ध्यान भटकाता है।
  • आंतरिक-पार्टी लोकतंत्र का अभाव: राजनीतिक दलों में प्रायः पारदर्शिता और आंतरिक लोकतंत्र का अभाव होता है, जिसके कारण केंद्रीकृत निर्णय एवं वंशवादी राजनीति को बढ़ावा मिलता है। 
    • वर्तमान में, भारत में राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतांत्रिक विनियमन के लिये कोई वैधानिक समर्थन नहीं है और एकमात्र नियामक प्रावधान जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29A के तहत है।
    • इससे ज़मीनी स्तर के नेताओं के लिये अवसर कम होते हैं और जवाबदेही कमज़ोर होती है। उदाहरण के लिये, वर्ष 2019 के लोकसभा सांसदों में से 30% राजनीतिक परिवारों से थे, जो भारत में वंशवादी राजनीति की गहरी जड़ें जमाए हुए प्रकृति को दर्शाता है। 
  • प्रवासी श्रमिकों का मताधिकार से वंचित होना: लाखों आंतरिक प्रवासी प्रभावी रूप से मताधिकार से वंचित हैं, क्योंकि वे रसद और कानूनी बाधाओं के कारण अपने गृह निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान करने में असमर्थ होते हैं। 
    • रिमोट वोटिंग मशीन (RVM) शुरू करने के निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव को व्यवहार्यता संबंधी मुद्दों के कारण आलोचना का सामना करना पड़ा है। 
    • जनगणना- 2011 के अनुसार, भारत में 450 मिलियन से अधिक आंतरिक प्रवासी हैं, जिनमें से अनेक का प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है।
  • परिसीमन का कुप्रबंधन: प्रतिनिधित्व में समानता बनाए रखने के लिये वर्ष 1976 से रोके गए परिसीमन कार्यों ने प्रतिनिधित्व में बहुत बड़ा असंतुलन उत्पन्न कर दिया है।
    • उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सीटों की संख्या केरल या तमिलनाडु जैसे राज्यों की तुलना में अनुपातहीन रूप से अधिक है, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण उपायों को सफलतापूर्वक लागू किया है। 
  • प्रचार में पर्यावरणीय लागतों की उपेक्षा: रैलियों और पोस्टरों सहित बड़े पैमाने पर प्रचार के पर्यावरणीय प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जाता है। 
    • चुनावों के दौरान उत्पन्न प्लास्टिक अपशिष्ट एक बड़ी चिंता का विषय बन गया है। उदाहरण के लिये, निर्वाचन आयोग ने इस प्रभाव को कम करने के लिये वर्ष 2023 में 'पर्यावरण के अनुकूल चुनाव अभियान' पहल शुरू की, लेकिन इसका अनुपालन बहुत कम हुआ है।

भारत की चुनाव प्रणाली को बेहतर बनाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं? 

  • राजनीति के अपराधीकरण पर ध्यान देना: गंभीर आपराधिक आरोपों वाले उम्मीदवारों के लिये सख्त प्रावधानों की तत्काल आवश्यकता है, जब तक कि उन्हें फास्ट-ट्रैक अदालत द्वारा दोषमुक्त न कर दिया जाए। 
    • आपराधिक रिकॉर्ड को प्रमुखता से प्रकाशित करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के क्रियान्वयन को त्वरित किया जाना चाहिये। सख्त पात्रता मानदंड सुनिश्चित करने के लिये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया जा सकता है।
  • एक साथ चुनाव: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव कराने से रसद संबंधी चुनौतियों तथा वित्तीय लागतों में कमी आ सकती है, साथ ही बार-बार होने वाले चुनावों के कारण शासन में होने वाले व्यवधान को भी कम किया जा सकता है, जैसा कि कोविंद समिति ने सुझाव दिया है।
    • इसके लिये संवैधानिक संशोधन और कार्यकाल में समन्वय की आवश्यकता होगी, लेकिन यह राजनीतिक आम सहमति से संभव है। 
    • कार्यान्वयन में राष्ट्रव्यापी स्तर पर लागू करने से पहले चुनिंदा राज्यों में पायलट परीक्षण शामिल हो सकता है।
  • मतदाता मतदान में सुधार: ऑनलाइन मतदाता पंजीकरण और प्रवासियों के लिये दूरस्थ मतदान तंत्र जैसी पहल से जनसंख्या के बड़े हिस्से के मताधिकार से वंचित होने की समस्या का समाधान किया जा सकता है। 
    • रिमोट वोटिंग मशीन (RVM) के लिये निर्वाचन आयोग का प्रस्ताव एक आशाजनक कदम है, लेकिन इसके लिये सुदृढ़ परीक्षण और सुरक्षा उपायों की आवश्यकता है। 
    • जागरूकता अभियान, विशेषकर कम मतदान वाले शहरी क्षेत्रों को लक्ष्य करके, भागीदारी को बढ़ाया जा सकता है।
  • निर्वाचन आयोग (EC) की स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना: कार्यकारी हस्तक्षेप को रोकने के लिये निर्वाचन आयोग की वित्तीय स्वायत्तता सुनिश्चित किया जाना चाहिये। 
    • स्वतंत्र निकायों द्वारा नियमित निष्पादन लेखापरीक्षा के माध्यम से पक्षपात के आरोपों का समाधान किया जाना चाहिये। 
    • वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए थे, लेकिन ऐसे सुधारों के माध्यम से उसे सुदृढ़ किया जा सकता है। भरोसा बनाए रखने के लिये संस्थागत दायित्व तंत्र ज़रूरी है।
  • अनिवार्य आंतरिक-पार्टी लोकतंत्र: उम्मीदवारों और नेताओं का चयन करने के लिये राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक चुनाव लागू करने के अतिरिक्त पारदर्शिता तथा जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिये।
    • जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करके इसमें गैर-अनुपालन के लिये दंड का प्रावधान शामिल किया जाना चाहिये जैसे कि पार्टियों का पंजीकरण रद्द करना। 
    • निर्वाचन आयोग पार्टी के कामकाज़ की नियमित ऑडिट अनिवार्य कर सकता है। अतिरिक्त सार्वजनिक फंडिंग के माध्यम से अनुपालन करने वाली पार्टियों को प्रोत्साहित करके इस सुधार को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • डिजिटल प्रचार और सोशल मीडिया का विनियमन: चुनावों के दौरान डिजिटल प्लेटफॉर्मों पर गलत सूचना और पेड न्यूज़ पर अंकुश लगाने के लिये कड़े नियम लागू किये जाने चाहिये।
    • व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्मों को फर्जी खबरों को तुरंत चिह्नित करने तथा उन्हें हटाने का अधिकार दिया जाना चाहिये। 
    • EC की निगरानी में तथ्य-जाँच इकाई बनाकर इस चुनौती का समाधान किया जा सकता है। जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये डिजिटल विज्ञापन व्यय में पारदर्शिता लागू की जानी चाहिये।
  • VVPAT कवरेज का विस्तार: इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग में विश्वास बढ़ाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कम-से-कम 5% EVM के लिये VVPAT पर्चियों का सत्यापन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
    • कवरेज बढ़ाने से, यद्यपि संसाधन गहन होते हैं, प्रणाली में विश्वसनीयता बढ़ सकती है। 
    • VVPAT प्रक्रियाओं के संदर्भ में जन जागरूकता अभियान EVM की विश्वसनीयता को लेकर होने वाले संदेह को दूर कर सकता है।
  • मुफ्त उपहार संस्कृति का मुकाबला करना: चुनावी वादों के लिये दिशा-निर्देश स्थापित कर वैध कल्याणकारी उपायों को गैर-धारणीय मुफ्त उपहारों से अलग करने की आवश्यकता है।
    • निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों को अपने वादों के लिये वित्तीय रोडमैप उपलब्ध कराने का आदेश दे सकता है।
    • असंवहनीय योजनाओं का वादा करने वाली पार्टियों को अनिवार्य प्रकटीकरण के माध्यम से सार्वजनिक जवाबदेही का सामना करना चाहिये। मतदाताओं को मुफ्त वस्तुओं के दीर्घकालिक प्रभावों के बारे में शिक्षित करना भी उतना ही आवश्यक है।
  • संघर्ष क्षेत्रों में सुरक्षा बढ़ाना: संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिये उन्नत निगरानी तथा अर्द्धसैनिक बलों की संख्या में वृद्धि करना आवश्यक है।
    • मोबाइल मतदान केंद्रों जैसी बेहतर व्यवस्थागत योजना से उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में मतदाताओं की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है। 
    • स्थानीय समुदायों के साथ भागीदारी करके विश्वास का निर्माण किया जा सकता है, जिससे मतदान में सुधार हो सकता है। स्वतंत्र पर्यवेक्षक गलत कार्यों को रोकने के लिये संवेदनशील क्षेत्रों की निगरानी कर सकते हैं।
  • अभियानों में पर्यावरणीय स्थिरता को बढ़ावा देना: डिजिटल अभियान, बायोडिग्रेडेबल पोस्टर और पेपरलेस/कागज़ रहित मतदान तंत्र जैसी पर्यावरण अनुकूल प्रथाओं को अनिवार्य बनाने की आवश्यकता है।
    • बड़े पैमाने पर होने वाली रैलियों से प्लास्टिक का बहुत ज़्यादा अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिससे पर्यावरण संबंधी लक्ष्य कमज़ोर होते हैं। संधारणीय प्रथाओं को अपनाने वाले दलों को प्रोत्साहन देने से बदलाव लाया जा सकता है।
  • अभियान के बाद सफाई अभियान के लिये गैर-सरकारी संगठनों के साथ सहयोग करने से पर्यावरणीय प्रभाव को और कम किया जा सकता है।

निष्कर्ष: 

भारत के चुनावी लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें अपराधीकरण, मतदाता उदासीनता और संसाधनों के दुरुपयोग जैसी प्रणालीगत कमियों को दूर किया जाना चाहिये। निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता को बढ़ाने, आंतरिक-पार्टी लोकतंत्र को बढ़ावा देने और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने जैसे सुधार आवश्यक हैं। लोकतांत्रिक अखंडता को बनाए रखने के लिये एक पारदर्शी और समावेशी चुनावी प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण है। सुधार के लिये भारत की प्रतिबद्धता जीवंत लोकतंत्रों के लिये एक वैश्विक मानदंड स्थापित कर सकती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. "भारत का चुनावी लोकतंत्र जीवंत है, फिर भी इसे प्रणालीगत चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है।" हाल के चुनावी रुझानों के आलोक में चर्चा करते हुए भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के उपाय सुझाइये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न 1.निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. भारत का निर्वाचन आयोग पाँच-सदस्यीय निकाय है।
  2. संघ का गृह मंत्रालय, आम चुनाव और उप-चुनावों दोनों के लिये चुनाव कार्यक्रम तय करता है।
  3. निर्वाचन आयोग मान्यता-प्राप्त राजनीतिक दलों के विभाजन/विलय से संबंधित विवाद निपटाता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 3

उत्तर: (d)


मेन्स: 

प्रश्न 1. भारत में लोकतंत्र की गुणता को बढ़ाने के लिये भारत के निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2016 में चुनावी सुधारों का प्रस्ताव दिया है। सुझाए गए सुधार क्या हैं और लोकतंत्र को सफल बनाने में वे किस सीमा तक महत्त्वपूर्ण हैं?   (2017)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2