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प्रश्न :
क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक परिसंघीय संविधान निर्धारित कर दिया था? चर्चा कीजिये।
05 Mar, 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहासउत्तर :
भूमिका:
परिसंघीय व्यवस्था ऐसी राजनीतिक प्रणाली होती है, जिसमें विभिन्न राज्य समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिये एक साथ संयुक्त होते हैं। इसमें इनकी अपनी कार्यकारिणी तथा विधायिका होती है, परंतु उनकी शक्तियों पर केंद्र की सीमाएँ होती है।
विषय-वस्तु
परिसंघीय व्यवस्था की उपस्थिति का दावा प्राचीन भारत, रोम एवं ग्रीस में किया जाता है, परंतु उसके स्वरूप को लेकर राजनीतिशास्त्र के विद्वानों में एकमत का अभाव रहा है। आधुनिक युग में संयुक्त राज्य अमेरिका प्रथम एवं आदर्शपरिसंघ के रूप में माना जाता है, जबकि कनाडा एवं भारत को अर्द्ध-परिसंघीय की संज्ञा दी जाती है। किसी भी देश की राजनीतिक व्यवस्था परिसंघीय है अथवा नहीं, इसका निर्णय निम्नलिखित आधारों पर किया जाता है-
- द्वि स्तरीय सरकार (संघ एवं प्रांत)
- लिखित संविधान
- संविधान की सर्वोत्त्यता
- शक्तियों का बँटवारा
- संघीय विवाद समाधान हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान
- संघ के स्तर पर राज्यों का प्रतिनिधित्व
भारत में संघीय व्यवस्था अपनाने की प्रथम कोशिश भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से की गई थी। इसके द्वारा एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की संकल्पना का निर्धारण किया गया। राज्य एवं रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। इसके द्वारा प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर प्रांतीय स्वायत्तता को प्रारंभ किया गया। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के कुछ प्रावधानों ने एक परिसंघीय संविधान का प्रारूप निर्धारित कर दिया था, जो निम्नलिखित हैं-
- इसमें द्विस्तीय सरकार का प्रावधान निर्धारित किया गया था- प्रांतीय स्तर तथा केेंद्र स्तर पर
- इनके कार्यों के निष्पादन एवं उन्हें सुविधाजनक बनाने हेतु एक लिखित संविधान का निर्माण किया गया, जिसमें 321 अनुच्छेद एवं 10 अनुसूचियाँ तथा हस्तांतरित एवं संरक्षित विषयों का समावेश किया गया।
- इसके अंतर्गत शक्तियों का बँटवारा राज्य सूची (54), केंद्र सूची (59) तथा समवर्ती सूची (36) में किया गया।
- प्रांतों को स्वायत्तता, पृथक पहचान, विधि बनाने का दायित्व एवं उसको लागू करने का अधिकार दिया गया।
- प्रांतीय विषयों का संचालन मंत्रियों के द्वारा किया जाता था, जो मुख्यमंत्री के अधीन कार्य करते थे तथा विधानमंडल के प्रति जाबदेह थे।
- इसके द्वारा एक संघीय न्यायपालिका की स्थापना की गई।
1935 के अधिनियम के प्रस्तावित संघ में रियासतों का सम्मिलित होना वैकल्पिक था। संघ के अस्तित्व में आने के लिये आवश्यक था कि रियासती प्रतिनिधियों में न्यूनतम आधे प्रतिनिधि चुनने वाली रियासतें शामिल हैं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं इसलिये संघ अस्तित्व में नहीं आया। 1935 के अधिनियम के निम्न प्रावधान संघीय भावना के विपरीत थे-
- गवर्नर जनरल केंद्र में समस्त संविधान का केंद्र बिंदु था, जो परिसंघीय व्यवस्था के भिन्न था। उसे अनुदान मांगों में कटौती करने, विधान मंडल द्वारा अस्वीकार किये गए विधेयक के अनुमोदन, विभिन्न विषयों पर अध्यादेश जारी करने एवं सरकारी कारनों पर रोक लगाने का अधिकार प्राप्त था। इससे अधिनियम के वास्तविक क्रियान्वयन में रूकावटें आई।
- इसमें संघीय न्यायपालिका के ऊपर प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी, जो परिसंघीय व्यवस्था के विपरीत था।
- इस अधिनियम के द्वारा एक अनम्य संविधान प्रस्तुत किया गया, जिसमें आंतरिक विकास की कोई संभावना नहीं थी।
- संविधान संशोधन की शक्ति ब्रिटिश संसद में निहित थी।
- संघीय बजट का लगभग 80 प्रतिशत भाग ऐसा था, जिस पर विधानमंडल मताधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता था।
- सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी ब्रिटिश हितों को बढावा देना तथा भारतीय संप्रभुता को सीमित रखना।
निष्कर्ष
अंत में संक्षिप्त, संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें-
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार अधिनियम 1935 ने अप्रत्यक्ष रूप से तो परिसंघीय संधिान की अवधारणा को निरूपित कर दिया था, लेकिन गवर्नर-जनरल की भूमिका एवं ब्रिटिश हितों की प्रमुखता के कारण कभी अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं आ पाया।
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