लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

एडिटोरियल

  • 24 Oct, 2023
  • 18 min read
सामाजिक न्याय

भारत में LGBTQ+ अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

यह एडिटोरियल 18/10/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Law and custom: On the Supreme Court’s verdict on same-sex marriage” लेख पर आधारित है। इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के हाल के एक निर्णय के बारे में चर्चा की गई है जहाँ न्यायालय ने समलैंगिक व्यक्तियों के बीच विवाह को विधिक मान्यता देने से इनकार कर दिया।

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 245 और 246, विशेष विवाह अधिनियम (SMA), सिविल यूनियन, गोद लेने का अधिकार 

मेन्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले और उससे संबंधित मुद्दे, LGBTQ अधिकार, चुनौतियाँ, लैंगिक न्याय

 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिक व्यक्तियों के विवाह को वैधानिक मान्यता देने से इनकार को देश में समलैंगिक या क्वीयर (queer) समुदाय के लिये एक झटके के रूप में देखा जा रहा है। हाल के वर्षों में कानून की प्रगति और व्यक्तिगत अधिकारों के बढ़ते महत्त्व को देखते हुए व्यापक रूप से उम्मीद की जा रही थी कि पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act- SMA)—जो दो व्यक्तियों को विवाह करने की अनुमति देता है—की लिंग-तटस्थ व्याख्या करेगी ताकि समलैंगिक लोगों को भी इसके दायरे में लाया जा सके।

समय के साथ संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे को निजता, गरिमा और वैवाहिक पसंद के अधिकारों को दायरे में लेने के लिये विस्तारित किया गया है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन विवाहों या नागरिक संघों को अनुमति देने के लिये आवश्यक अतिरिक्त कदम उठाने से परहेज किया है जो विषमलैंगिक (heterosexual) नहीं हैं। सभी पाँच न्यायाधीशों ने ऐसा कोई कानून बनाने का निर्णय विधायिका पर छोड़ने का फैसला किया है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई प्रमुख टिप्पणियाँ 

  • कानून निर्माण का उत्तरदायित्व विधायिका पर: न्यायालय ने कहा कि SMA 1954 के दायरे में समलैंगिक लोगों को शामिल करने के लिये वह विशेष विवाह अधिनियम, 1954  को न तो रद्द कर सकती है और न ही इसका निर्वचन कर सकती हैशीर्ष अदालत ने कहा कि इस संबंध में कानून निर्माण का उत्तरदायित्व संसद और राज्य विधानमंडल पर है
    • निर्णय में कहा गया है कि किसी भी केंद्रीय कानून की अनुपस्थिति में राज्य विधानमंडल समलैंगिक विवाह को मान्यता देने और इसे विनियमित करने के लिये अपने कानून बना सकते हैं। अनुच्छेद 245 और 246 के तहत भारतीय संविधान संसद और राज्य विधानमंडल दोनों को विवाह विनियमन लागू करने का अधिकार प्रदान करता है।
      • राज्य विभिन्न नीतिगत परिणामों में से किसी का चयन कर सकता है; वे विवाह और परिवार-संबंधी सभी कानूनों को लिंग-तटस्थ बना सकते हैं या वे समलैंगिक समुदाय को विवाह करने का अवसर देने के लिये लिंग-तटस्थ शब्दावली में विशेष विवाह अधिनियम जैसा एक पृथक उपाय कर सकते हैं। वे विभिन्न अन्य विकल्पों के बीच सिविल यूनियन के सृजन के लिये एक अधिनियम पारित कर सकते हैं या ‘डोमेस्टिक पार्टनरशिप’ के संबंध में विधान का प्रस्ताव कर सकते हैं। 
    • आत्म-सम्मान विवाह या ‘सुयमरियाथाई’ (Suyamariyathai) विवाह की अनुमति देने के लिये तमिलनाडु ने पहले ही वर्ष 1968 में  हिंदू विवाह अधिनियम में संशोधन कर दिया था।
  • ‘सिविल यूनियन’ बनाने का अधिकार: पीठ की अल्पमत राय रही कि राज्य को क्वियर यूनियन को मान्यता देनी चाहिये, भले ही यह विवाह के रूप में न हो। किसी यूनियन में प्रवेश के अधिकार को यौन उन्मुखता के आधार पर प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता (यह अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होगा)। इसके अलावा, विवाह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसके साथ कई अन्य अधिकार संबद्ध हैं और समलैंगिक युगल भी इन अधिकारों का उपभोग कर सकें, इसके लिये यह आवश्यक है कि राज्य ऐसे संबंधों को मान्यता प्रदान करे।
    • हालाँकि, पीठ की बहुमत राय में कहा गया कि सरकार ऐसे यूनियन से संबद्ध विभिन्न अधिकारों को मान्यता देने के लिये बाध्य नहीं है।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार: पीठ ने बहुमत राय से पुष्टि की कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को मौजूदा कानूनी ढाँचे के भीतर विवाह करने का अधिकार है। निर्णय में इस बात पर बल दिया गया कि लैंगिक पहचान (gender identity) यौन उन्मुखता (sexual orientation) से पृथक है और इस बात को रेखांकित किया गया कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति सिस-जेंडर/विषमलैंगिक व्यक्तियों के समान विषमलैंगिक संबंधों में हो सकते हैं। इसलिये, ऐसे विवाहों को विवाह कानूनों के तहत कानूनी रूप से पंजीकृत किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, निर्णय में माना गया कि ‘इंटरसेक्स’ व्यक्ति, जो स्वयं को पुरुष या महिला के रूप में पहचानते हैं, उन्हें भी यह अधिकार प्राप्त है।
  • दत्तक ग्रहण अधिकार: पीठ के बहुमत ने केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (Central Adoption Resource Authority- CARA) के विनियमनों को रद्द करने से इनकार कर दिया, जहाँ समलैंगिक युगलों द्वारा बच्चा गोद लेने को निषिद्ध किया गया है। हालाँकि यह स्वीकार किया गया कि ये विनियमन भेदभावपूर्ण हैं और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं, लेकिन पीठ की बहुमत राय ने समलैंगिक युगलों के दत्तक ग्रहण अधिकार का समर्थन नहीं किया, जहाँ यह हवाला दिया गया कि स्थिर घरों (stable homes) की आवश्यकता रखने वाले बच्चों के लाभ के लिये सभी विषयों पर विचार किया जाना आवश्यक है।
  • पात्रता/हक़दारी: न्यायालय ने राशन कार्ड, संयुक्त बैंक खाते, पेंशन और ग्रेच्युटी जैसे क्षेत्रों में समलैंगिक युगलों के लिये समान अधिकारों की आवश्यकता को स्वीकार किया। हालाँकि, इस बात पर असहमति रही कि इन विषयों को कौन-सी शाखा संबोधित करे, न्यायपालिका या विधायिका या कार्यपालिका।
  • जन्म परिवार की हिंसा और सुरक्षा के मामले में: कई समलैंगिक व्यक्तियों को अपने जन्म परिवारों (Natal family) की ओर से हिंसा का सामना करना पड़ता है और उनके संबंधों की समाप्ति के लिये उन्हें कथित तौर पर बंधक बनाया जाता है। निर्णय में चिह्नित किया गया कि LGBTQ व्यक्तियों का परिवार और साथ ही पुलिसकर्मी ऐसी हिंसा में प्राथमिक अभिकर्ता होते हैं तथा पुलिस विभाग को निर्देश दिया कि वे समलैंगिक व्यक्तियों को अपने परिवार में लौटने के लिये विवश न करें
    • उच्च न्यायालयों के पूर्व के कुछ आदेशों ने समलैंगिक युगलों के लिव-इन संबंधों की वैधता को मान्यता दी है और उन्हें हिंसा से सुरक्षा प्रदान की है।
    • अंबुरी रॉय बनाम भारत संघ और रितुपर्णा बोरा बनाम भारत संघ याचिकाओं में परिवार चुनने के अधिकार के पक्ष में तर्क दिया गया।
  • सेक्स, जेंडर और भेदभाव के मामले में टिप्पणी: निर्णय में सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया गया कि समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक हैं या भारतीय परंपरा के विरुद्ध हैं। इसमें स्वीकार किया गया कि समलैंगिक प्रेम लंबे समय से भारत में अस्तित्व में रहे हैं और समलैंगिक संबंधों की संवैधानिक वैधता सामाजिक स्वीकार्यता के दृष्टिकोण से कमज़ोर नहीं की जा सकती।

निर्णय से संबद्ध प्रमुख मुद्दे

  • मूल अधिकारों का उल्लंघन: यह निर्णय LGBTQIA+ व्यक्तियों के मूल अधिकारों के विरुद्ध है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व के निर्णयों में चिह्नित किया गया था। इन अधिकारों में समानता, गरिमा और स्वायत्तता के अधिकार शामिल हैं, जिन्हें पूर्व में मूल अधिकार माना गया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006), सफीन जहां बनाम अशोकन (2018), शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ (2018) और लक्ष्मीबाई चंद्रांगी बनाम कर्नाटक राज्य (2021) जैसे विभिन्न मामलों में माना है कि जीवन साथी चुनना अनुच्छेद 21 के तहत एक मूल अधिकार है।
  • आनुभविक यथार्थ की अनदेखी करना: यह निर्णय LGBTQIA+ व्यक्तियों के वास्तविक जीवन के अनुभवों को ध्यान में रखने में विफल है, जहाँ प्रायः उनकी यौन उन्मुखता और लैंगिक पहचान के कारण उन्हें समाज में भेदभाव, हिंसा एवं कलंक का सामना करना पड़ता है।
  • संवैधानिक नैतिकता को कमज़ोर करना: आलोचकों का तर्क है कि यह निर्णय संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत को कमज़ोर करता है। उनका मानना है कि राज्य को अल्पसंख्यक समूहों पर बहुसंख्यक के विचार थोपने के बजाय अपने नागरिकों की विविधता एवं बहुलता का सम्मान करना चाहिये।
  • कानूनी लाभों से वंचित करना: यह निर्णय LGBTQIA+ युगलों को विवाह के सामाजिक एवं कानूनी लाभों (जैसे कि विरासत, गोद लेना, बीमा, पेंशन आदि) से वंचित करता है। समलैंगिक विवाह के लिये कानूनी मान्यता की कमी के कारण ये युगल उन अधिकारों और विशेषाधिकारों से वंचित हो जाते हैं जो विषमलैंगिक युगलों को सामान्य रूप से प्राप्त हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के विपरीत: यह निर्णय अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों एवं मानदंडों के विपरीत है। अंतर्राष्ट्रीय मानक सभी व्यक्तियों के लिये विवाह करने और परिवार स्थापित करने के अधिकार को अक्षुण्ण रखते हैं, भले ही उनकी यौन उन्मुखता या लैंगिक पहचान कुछ भी हो। इस दृष्टि से यह निर्णय इन वैश्विक मानदंडों के अनुरूप नहीं है।

LGBT समुदाय के समक्ष अब कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं? 

  • कानूनी विकल्प: एक संभावित विकल्प यह है कि वे कानूनी संघर्ष जारी रखें। इसमें समिति की रिपोर्ट की प्रतीक्षा करना और यदि निष्कर्ष याचिकाकर्ताओं के तर्कों के साथ संरेखित होते हैं तो नए मामले दर्ज कराना शामिल हो सकता है।
    • केंद्र सरकार ने कहा है कि वह समलैंगिक युगलों के लिये लाभ एवं अधिकार पर विचार करने के लिये कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन करेगी।
  • व्यक्तिगत अधिकार: एक अन्य तरीका यह है कि समलैंगिक व्यक्ति भेदभाव को चुनौती दें और विवाह से जुड़े विशिष्ट अधिकारों (जैसे संयुक्त बैंक खाते या पेंशन अधिकार) के लिये अकेले संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ें।
  • राजनीतिक सक्रियता: LGBTQ+ समुदाय को समलैंगिकता को अपने राजनीतिक विमर्श का मुख्य और अभिन्न विषय बनाना चाहिये और निर्वाचित प्रतिनिधियों के समक्ष अपनी मांगों का दबाव बढ़ाना चाहिये। आसन्न लोकसभा चुनाव के परिदृश्य में इसका एक उपयुक्त अवसर भी मौजूद है। इस राजनीतिक सक्रियता में अपनी चिंताओं को प्रबल रूप से प्रकट करने के लिये विभिन्न LGBTQ+ समूहों के बीच एकजुटता का निर्माण करना भी शामिल हो सकता है।
  • विकल्प की तलाश करना: LGBTQ+ समुदाय को अपने अधिकारों का विस्तार करने के लिये वैकल्पिक तरीकों की तलाश करनी चाहिये। न्यायालय निश्चय ही महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन वे ही प्रगति सुनिश्चित करने का एकमात्र साधन नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह है कि समुदाय-निर्माण, शिक्षा और जन जागरूकता अभियान देश में LGBTQ+ अधिकारों का पक्षसमर्थन करने में उल्लेखनीय भूमिका निभा सकते हैं।

निष्कर्ष

  • सर्वोच्च न्यायालय ने विवाह के मामले में भेदभाव न करने की अपेक्षाओं के विपरीत जाकर समलैंगिक युगलों को विवाह के अधिकार से वंचित कर दिया है और यह तय करने का उत्तरदायित्व विधायिका पर छोड़ दिया है। हालाँकि विवाह के लिये कानूनी आवश्यकताएँ होती हैं, इसके माध्यम से मान्यता प्राप्त करने की व्यक्तिगत पसंद कुछ वैधानिक सीमाओं के साथ संविधान द्वारा संरक्षित है। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की बहुमत राय ने समलैंगिक युगलों के लिये दत्तक ग्रहण का भी विरोध किया है, जबकि विषमलैंगिक विवाह में शामिल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का समर्थन किया है।
  • सभी न्यायाधीश इस बात पर सहमत रहे कि समलैंगिक युगलों को बिना किसी दबाव के साथ रहने का अधिकार प्राप्त है। धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों पर आधारित विरोध के कारण विधायिका समलैंगिक विवाह को वैध बनाने में संकोच महसूस कर सकती है। LGBTQIA+ समुदाय समलैंगिक युगलों के अधिकारों पर एक सरकारी समिति का गठन करने के न्यायालय के आह्वान को आशाजनक मान सकते हैं, हालाँकि कानूनी समानता पाने का मार्ग अभी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।

अभ्यास प्रश्न: हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी दर्जा देने से इनकार कर दिया है। न्यायालय के इस निर्णय से संबद्ध मुद्दों और LGBT समुदाय के लिये अब उपलब्ध विकल्पों के बारे में चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय संविधान का कौन-सा अनुच्छेद अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार की रक्षा करता है? (2019)

(a) अनुच्छेद 19
(b) अनुच्छेद 21
(c) अनुच्छेद 25
(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों और निर्णय विधियों की मदद से लैंगिक न्याय के संवैधानिक परिप्रेक्ष्य की व्याख्या कीजिये (2023)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2