सामाजिक न्याय
POCSO अधिनियम के कार्यान्वयन में समस्याएँ
यह एडिटोरियल 20/01/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Judging a decade of the POCSO Act” लेख पर आधारित है। इसमें पॉक्सो अधिनियम से संबद्ध मुद्दों पर चर्चा की गई है।
संदर्भ
भारत के संविधान में बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिये कई उपबंधों को शामिल किया गया है। इसके साथ ही, भारत ‘बाल अधिकारों पर अभिसमय’ (Convention on the Rights of the Child) और ‘बच्चों की बिक्री, बाल वेश्यावृत्ति और चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर बाल अधिकार अभिसमय के वैल्पिक प्रोटोकॉल’ (Optional Protocol on the Sale of Children, Child Prostitution and Child Pornography) जैसे ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय उपायों का भी हस्ताक्षरकर्ता है। हालाँकि, भारत में बाल यौन शोषण के विरुद्ध किसी समर्पित उपबंध का अभाव है।
- यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (Protection of Children from Sexual Offences- POCSO) अधिनियम (2012) 14 नवंबर 2012 को लागू हुआ, जिसे बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (वर्ष 1992) के भारत के अनुसमर्थन के परिणामस्वरूप अधिनियमित किया गया। इस विशेष कानून का उद्देश्य बच्चों के यौन शोषण और उनके प्रति यौन दुर्व्यवहार जैसे अपराधों को संबोधित करना था, जिन्हें या तो विशेष रूप से परिभाषित नहीं किया गया था या पर्याप्त रूप से दंडात्मक नहीं बनाया गया था।
POCSO अधिनियम की कुछ महत्त्वपूर्ण बातें
- लिंग-तटस्थ प्रकृति:
- अधिनियम चिह्नित करता है कि बालक एवं बालिकाएँ दोनों ही यौन शोषण के शिकार हो सकते हैं और यह, चाहे पीड़ित किसी भी लिंग का हो, ऐसे कृत्यों को अपराध मानता है।
- यह इस सिद्धांत के अनुरूप है कि सभी बच्चों को यौन दुर्व्यवहार एवं शोषण से सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है और कानूनों को लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिये।
- हालाँकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने पीड़ित बालक और बालिकाओं पर अलग-अलग डेटा प्रकाशित नहीं किया है, छत्तीसगढ़ में पाया गया कि POCSO के प्रत्येक 1,000 मामलों में पीड़ित बालकों की संख्या लगभग आठ थी (0.8%)।
- यह दर्शाता है कि बालकों का यौन शोषण भी एक गंभीर मुद्दा है जो काफी हद तक रिपोर्ट नहीं की जाती है और अधिनियम द्वारा इसे भी संबोधित करने का प्रयास किया गया है।
- मामलों की रिपोर्टिंग में आसानी:
- न केवल व्यक्तियों द्वारा बल्कि संस्थानों द्वारा भी बच्चों के यौन शोषण के मामलों की रिपोर्ट करने के लिये अब पर्याप्त सामान्य जागरूकता पाई जाती है, जहाँ मामलों की गैर-रिपोर्टिंग को भी POCSO अधिनियम के तहत एक विशिष्ट अपराध की श्रेणी में रखा गया है। इससे बच्चों के विरुद्ध अपराधों को छिपाना अब तुलनात्मक रूप से कठिन हो गया है।
- विभिन्न शब्दों की स्पष्ट परिभाषा:
- अधिनियम के तहत चाइल्ड पोर्नोग्राफी सामग्री के भंडारण को एक नया अपराध बनाया गया है।
- भारतीय दंड संहिता में मौजूद ‘किसी महिला के शील को भंग करना’ (Outraging Modesty Of A Woman) की अमूर्त परिभाषा के विपरीत इस अधिनियम में ‘यौन दुर्व्यवहार’ के कृत्य को स्पष्ट शब्दों में (न्यूनतम सज़ा में वृद्धि के साथ) परिभाषित किया गया है।
प्रमुख संबंधित पहलें
- बाल दुर्व्यवहार रोकथाम और अन्वेषण इकाई
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
- किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015
- बाल विवाह निषेध अधिनियम (वर्ष 2006)
- बाल श्रम निषेध और विनियमन अधिनियम, 2016
POCSO अधिनियम से संबद्ध समस्याएँ
- जाँच से जुड़ी समस्या:
- पुलिस बल में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व:
- POCSO अधिनियम में प्रावधान है कि एक महिला उप-निरीक्षक द्वारा प्रभावित बच्चे का बयान बच्चे के निवास स्थान या पसंद के स्थान पर दर्ज किया जाएगा।
- लेकिन इस प्रावधान का पालन करना व्यावहारिक रूप से असंभव हो जाता है जब पुलिस बल में महिलाओं की संख्या मात्र 10% है और कई पुलिस थानों में शायद ही कोई महिला कर्मी उपस्थित होती है।
- जाँच में चूक:
- यद्यपि बयान दर्ज करने के लिये ऑडियो-वीडियो माध्यमों का उपयोग करने का प्रावधान है, फिर भी कुछ मामलों में जाँच में एवं अपराध स्थलों के संरक्षण के मामले में चूक की ख़बरें मिलती रही हैं।
- शफी मोहम्मद बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश (वर्ष 2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जघन्य अपराधों के मामलों में यह जाँच अधिकारी का कर्तव्य है कि वह अपराध स्थल की फोटोग्राफी एवं वीडियोग्राफी करे और साक्ष्य के रूप में इसे संरक्षित करे।
- इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की अखंडता सुनिश्चित करने के लिये उचित अवसंरचना के अभाव में किसी भी ऑडियो-वीडियो माध्यम का उपयोग कर रिकॉर्ड किये गए साक्ष्य की न्यायालय के समक्ष स्वीकार्यता (admissibility) हमेशा एक चुनौती बनी रहेगी।
- यद्यपि बयान दर्ज करने के लिये ऑडियो-वीडियो माध्यमों का उपयोग करने का प्रावधान है, फिर भी कुछ मामलों में जाँच में एवं अपराध स्थलों के संरक्षण के मामले में चूक की ख़बरें मिलती रही हैं।
- न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षण नहीं:
- अधिनियम का एक अन्य प्रावधान न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अभियोजक/अभियोक्त्री के बयान की रिकॉर्डिंग को अनिवार्य बनाता है।
- यद्यपि अधिकांश मामलों में इस तरह के बयान दर्ज किये जाते हैं, लेकिन सुनवाई के दौरान न तो न्यायिक मजिस्ट्रेट को क्रॉस-एग्जामिनेशन के लिये बुलाया जाता है और न ही अपने बयान से मुकरने वालों को दंडित किया जाता है। इस परिदृश्य में ऐसे दर्ज बयान प्रायः निरस्त हो जाते हैं।
- पुलिस बल में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व:
- आयु निर्धारण का मुद्दा:
- यद्यपि किशोर अपराधी का आयु निर्धारण किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम द्वारा निर्देशित है, किशोर पीड़ितों के लिये POCSO अधिनियम के तहत ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है।
- जरनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य (वर्ष 2013) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि प्रदत्त वैधानिक प्रावधान को अपराध के शिकार हुए किसी बच्चे के लिये उसकी आयु निर्धारित करने में भी सहयोगी आधार होना चाहिये।
- हालाँकि, कानून में किसी भी बदलाव या विशिष्ट निर्देशों के अभाव में जाँच अधिकारी अभी भी स्कूल प्रवेश-त्याग रजिस्टर में दर्ज जन्मतिथि पर ही भरोसा बनाये हुए हैं।
- अधिकांश मामलों में माता-पिता (अस्पताल के या किसी अन्य प्रामाणिक रिकॉर्ड के अभाव में) न्यायालय में आयु का बचाव करने में सक्षम नहीं हो पाते हैं।
- चिकित्सकीय मत के आधार पर आयु का अनुमान आम तौर पर इतना व्यापक होता है कि अधिकांश मामलों में अल्प-वयस्कों को वयस्क साबित कर दिया जाता है।
- अल्प-वयस्क के व्यस्क साबित होने के बाद सहमति या यौन अंगों पर आघात न लगने के आधार पर दोषी के बरी होने की संभावना बढ़ जाती है।
- यद्यपि किशोर अपराधी का आयु निर्धारण किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम द्वारा निर्देशित है, किशोर पीड़ितों के लिये POCSO अधिनियम के तहत ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है।
- आरोप-पत्र दाखिल करने में देरी:
- POCSO अधिनियम के अनुसार, अधिनियम के तहत दर्ज मामले की जाँच अपराध होने या अपराध की रिपोर्टिंग की तिथि से एक माह की अवधि के भीतर पूरी कर ली जानी है।
- हालाँकि, व्यवहारिक रूप से पर्याप्त संसाधनों की कमी, फोरेंसिक साक्ष्य प्राप्त करने में देरी या मामले की जटिलता जैसे विभिन्न कारणों से जाँच पूरी होने में प्रायः एक माह से अधिक का समय लगता है।
- इसके परिणामस्वरूप आरोप-पत्र दायर करने और सुनवाई शुरू होने में देरी की स्थिति बन सकती है, जो फिर पीड़ित के लिये न्याय की गति एवं प्रभावशीलता को प्रभावित कर सकता है।
- हाल ही में बने यौन संबंध को साबित करने के लिये शर्त आरोपित नहीं:
- न्यायालयों को यह विचार करने की आवश्यकता होती है कि अभियुक्त ने POCSO अधिनियम के तहत अपराध किया है।
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम (जहाँ अभियोजन पक्ष को साबित करना होता है कि हाल में यौन संबंध बना और इसमें अभियोक्त्री की सहमति शामिल थी) के विपरीत POCSO अधिनियम अभियोजन पक्ष पर कोई शर्त आरोपित नहीं करता है।
- हालाँकि, यह देखा गया है कि पीड़ित/पीड़िता की नाबालिग उम्र साबित होने के बाद भी न्यायालय द्वारा सुनवाई के दौरान ऐसे किसी अनुमान पर विचार नहीं किया जाता है।
- ऐसे परिदृश्यों में दोषसिद्धि दर में अपेक्षित वृद्धि प्राप्त होने की संभावना नहीं है।
आगे की राह
- पर्याप्त संसाधन:
- सरकार को POCSO संबंधी मामलों से संलग्न जाँच एजेंसियों को धन और कर्मियों जैसे पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराने चाहिये। इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि मामले की जाँच समयबद्ध और कुशल तरीके से की जाए।
- जाँच अधिकारियों के लिये प्रशिक्षण:
- POCSO मामलों का प्रबंधन करने वाले जाँच अधिकारियों को उचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये। इसमें साक्ष्य एकत्र करने एवं संरक्षित करने, बाल पीड़ितों एवं गवाहों के बयान लेने और POCSO अधिनियम की कानूनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु उचित तकनीकों पर प्रशिक्षण प्रदान करना शामिल हो सकता है।
- POCSO मामलों के लिये विशेष न्यायालय:
- POCSO मामलों के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना से यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि मामलों को त्वरित गति और कुशलता से संभाला जाएगा। इससे सुनवाई की प्रक्रिया में तेज़ी लाने में भी मदद मिलेगी, जो पीड़ित और उनके परिवार के लिये महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
- समयबद्ध चिकित्सकीय परीक्षण:
- हाल ही में यौन संबंध की पुष्टि करने के लिये दुर्व्यवहार की घटना के तुरंत बाद, जितनी जल्दी हो सके, पीड़ित बच्चे की चिकित्सकीय जाँच की जानी चाहिये।
- जन जागरूकता:
- POCSO अधिनियम, बाल यौन शोषण की रिपोर्टिंग के महत्त्व और बाल पीड़ितों के अधिकारों के संबंध में जन जागरूकता के प्रसार से मामलों की रिपोर्टिंग में वृद्धि और जाँच प्रक्रिया में सुधार लाने में मदद मिल सकती है।
- अंतर-एजेंसी समन्वय:
- पुलिस, बाल कल्याण समिति और चिकित्सा पेशेवरों जैसी विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है कि मामलों को व्यापक एवं समन्वित तरीके से संभाला जाएगा।
- निगरानी और समीक्षा:
- सरकार को निगरानी और समीक्षा की एक प्रणाली स्थापित करनी चाहिये ताकि सुनिश्चित हो सके कि मामलों की जाँच POCSO अधिनियम के अनुरूप की जा रही और बाल पीड़ितों के अधिकार संरक्षित किये जा रहे हैं।
अभ्यास प्रश्न: यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम लागू होने के बाद से भारत में इसके कार्यान्वयन में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है?
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)Q. राष्ट्रीय बाल नीति के मुख्य प्रावधानों का परीक्षण कीजिये तथा इसके कार्यान्वयन की स्थिति पर प्रकाश डालिये। (वर्ष 2016) |