एडिटोरियल (20 May, 2024)



न्यूज़क्लिक पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला: सम्यक प्रक्रिया का पालन

यह एडिटोरियल 17/5/2024 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “SC verdict on Newsclick shows adherence to due process is much more than a procedural requirement” लेख पर आधारित है। इसमें ‘न्यूज़क्लिक’ के संस्थापक-संपादक प्रबीर पुरकायस्थ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर चर्चा की गई है, जिसने किसी सभ्यता की परिपक्वता के आकलन में समय की कसौटी पर खरे उतरे मानदंड के रूप में विधि की सम्यक प्रक्रिया के महत्त्व पर बल दिया है।

प्रिलिम्स के लिये:

विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम, 1967, अनुच्छेद 22(1), विधि की सम्यक प्रक्रिया, आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA), 2002, ए के गोपालन केस (1950), मेनका गांधी केस (1978), राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB), विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 

मेन्स के लिये:

पुरकायस्थ की गिरफ्तारी मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला, विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 एवं विधि की सम्यक प्रक्रिया के बारे में चिंताएँ

पिछले वर्ष दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने न्यूज़क्लिक (NewsClick) के संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ को गिरफ्तार कर लिया था, जहाँ उन पर आरोप लगाया कि वह कथित तौर पर चीन द्वारा वित्तपोषित अपने न्यूज़ पोर्टल के माध्यम से ‘भारत की संप्रभुता को बाधित करने’ का प्रयास कर रहे हैं।

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने पुरकायस्थ को हिरासत से रिहा करने का आदेश दिया, जहाँ न्यायालय ने यह माना कि दिल्ली पुलिस द्वारा विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम (Unlawful Activities Prevention Act- UAPA), 1967 के तहत उनकी गिरफ्तारी एवं रिमांड “विधि के दृष्टिकोण से अवैध” है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि लिखित रूप में आधारों को बताने की आवश्यकता निरोध या हिरासत (detention) के मामले में भी समान रूप से लागू होती है। इसने इस बात पर बल  दिया कि जाँच एजेंसी या पुलिस द्वारा लिखित रूप में गिरफ्तारी या हिरासत के आधारों को बताना “अनुल्लंघनीय है और किसी भी परिस्थिति में इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।”

निर्णय में विधि प्रवर्तन एजेंसियों के लिये उचित प्रक्रिया एवं सम्यक प्रक्रिया का पालन करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है, विशेष रूप से कठोर UAPA मामलों में, जहाँ साक्ष्य प्रस्तुत करने का प्रतिलोम भार अभियुक्त पर रखा गया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को अवैध क्यों ठहराया?

  • गिरफ्तारी का आधार नहीं बताया गया:
    • न्यायालय ने कहा कि इस मामले में गिरफ्तारी के आधार प्रदान नहीं किये गए थे, जो गिरफ्तारी को अवैध साबित करता है और अपीलकर्ता पंकज बंसल मामले (2023) के निर्णय के दृष्टांत पर हिरासत से रिहाई का हक़दार है। पंकज बंसल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि गिरफ्तारी के आधार आरोपी को लिखित रूप में प्रदान किये जाने चाहिये।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि “गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किये जाने का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) से प्राप्त होता है और इस मूल अधिकार का कोई भी उल्लंघन गिरफ्तारी एवं रिमांड की प्रक्रिया को अवैध कर देगा।”
  • गिरफ्तारी के कारणों की एक प्रति पाना मूल अधिकार है:
    • निर्णय में कहा गया, “न्यायालय के मन में कोई संदेह नहीं है कि UAPA के प्रावधानों के तहत अपराध का कृत्य करने के आरोप में या किसी अन्य अपराध के लिये गिरफ़्तार किये गए किसी भी व्यक्ति को लिखित रूप में गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किये जाने का मूल एवं सांविधिक अधिकार प्राप्त है तथा गिरफ्तारी के ऐसे लिखित आधारों की एक प्रति गिरफ़्तार  व्यक्ति को बिना किसी अपवाद के शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध कराई जानी चाहिये।”
  • अपनाई गई प्रक्रिया प्रच्छन्न या संदिग्ध है:
    • मामले के तथ्य बताते हुए पीठ ने कहा कि FIR की प्रति अपीलकर्ता के साथ साझा नहीं की गई, जब तक कि रिमांड आदेश पारित नहीं हो गया।
    • निर्णय में कहा गया कि यह पूरी कार्रवाई प्रच्छन्न (clandestine) तरीके से की गई और यह विधि की सम्यक प्रक्रिया की उपेक्षा करने का मंशापूर्ण प्रयास था जहाँ आरोपी को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में बताए बिना पुलिस हिरासत में रखा गया, पुलिस हिरासत रिमांड के लिये प्रार्थना का विरोध करने एवं जमानत मांगने के लिये अपनी पसंद के विधि व्यवसायी की सेवाओं का लाभ उठाने के अवसर से आरोपी को वंचित किया गया और न्यायालय को गुमराह किया गया।
  • FIR कोई ‘एनसाइक्लोपीडिया’ नहीं है:
    • निर्णय में यह भी कहा गया है कि विधि में यह बात सुस्थापित है कि FIR कोई ‘एनसाइक्लोपीडिया’ नहीं है (यानी इसमें हर विवरण दर्ज किया जाना आवश्यक नहीं है) और इसे केवल आपराधिक न्याय की प्रक्रिया को गति देने के लिये दर्ज किया जाता है। जाँच अधिकारी के पास मामले की जाँच करने और सभी प्रासंगिक सामग्री एकत्र करने का अधिकार है, जो संबंधित न्यायालय में आरोप-पत्र दाखिल करने का आधार बनेगी।
    • गिरफ्तारी के लिखित आधारों में गिरफ़्तार अभियुक्त को वे सभी बुनियादी तथ्य बताए जाने चाहिये, जिनके आधार पर उसे गिरफ़्तार किया जा रहा है, ताकि उसे हिरासत में भेजे जाने के विरुद्ध अपना बचाव करने और जमानत मांगने का अवसर मिल सके।
    • इस प्रकार, ‘गिरफ्तारी का आधार’ हमेशा अभियुक्त के लिये व्यक्तिगत होगा और इसे ‘गिरफ्तारी के कारण’ के समान नहीं माना जा सकता, जो प्रकृति में सामान्य होते हैं।

विधि की सम्यक प्रक्रिया:

  • अर्थ:
    • विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of law) राज्य द्वारा किसी मामले से संबंधित सभी विधिक नियमों एवं सिद्धांतों को लागू करना है, ताकि किसी व्यक्ति को प्राप्त सभी कानूनी अधिकारों का सम्मान किया जा सके।
    • सम्यक प्रक्रिया देश की विधि की शक्ति को संतुलित करती है और व्यक्ति की इससे रक्षा करती है। जब कोई सरकार विधि के निर्धारित मार्ग का पालन किये बिना किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाती है तो यह सम्यक प्रक्रिया का उल्लंघन माना जाता है, जो विधि के शासन का तिरस्कार करता है।
  • महत्त्व:
    • इसमें निष्पक्षता, तर्कसंगतता, न्यायसंगतता और गैर-स्वेच्छाचारिता का अधिकार शामिल है।
    • विधि की प्रक्रिया में शामिल कोई भी असमता अवैध मानी जाएगी।
    • इस आधार पर कोई भी विधि पारित करते समय न्यायालय अपनी विधायी बुद्धि का प्रयोग करता है।
    • विधि की सम्यक प्रक्रिया व्यक्तिगत अधिकारों को महत्त्व देती है।
    • यदि सर्वोच्च न्यायालय को कोई विधि पक्षपातपूर्ण लगती है तो वह उसे निरस्त घोषित कर देगा।
    • राज्य द्वारा स्वीकृति प्राप्त किसी विधि को मूल प्रक्रिया का पालन करते हुए पारित किया जाना चाहिये।
    • भारतीय संविधान में विधि की सम्यक प्रक्रिया शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है।
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • ‘सम्यक प्रक्रिया’ (due process) शब्द का प्रयोग पहली बार ब्रिटिश राजा एडवर्ड तृतीय की संविधि में किया गया था।
    • अमेरिकी संविधान के पाँचवें संशोधन (1791) द्वारा पहली बार संविधान में ‘सम्यक प्रक्रिया’ की अवधारणा को पेश किया गया।
    • वर्ष 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने औपनिवेशिक सरकार से उन सभी विधियों को रद्द करने के लिये कहा जो राज्य के अधिकारियों को बिना सम्यक प्रक्रिया के लोगों को गिरफ़्तार करने या हिरासत में लेने की अनुमति देते थे। बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी ने अन्यायपूर्ण विधियों के विरूद्ध अपने बचाव में सम्यक प्रक्रिया की अवधारणा का सहारा लिया था।
    • 17 मार्च 1947 को संविधान सभा को मूल अधिकार उप-समिति के सदस्य के.एम. मुंशी से एक नोट प्राप्त हुआ। इसमें एक मसौदा उपबंध शामिल था: “किसी भी व्यक्ति को विधि की सम्यक प्रक्रिया के बिना उसके जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा।”
    • बी.एन. राऊ (B N Rau) ने सम्यक प्रक्रिया के स्थान पर ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ शब्द का प्रस्ताव रखा।
  • केस लॉ के माध्यम से विकास:
    • स्वतंत्रता के बाद ए.के. गोपालन (1950) से लेकर ए.डी.एम. जबलपुर (1976) मामले तक,  अपने विभिन्न प्रतिगामी निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय ने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के शाब्दिक अर्थ पर अत्यधिक बल देकर सम्यक प्रक्रिया को कमज़ोर करने में योगदान दिया।
    • न्यायालय ने बैंक राष्ट्रीयकरण के मामले (1970) में अपना रुख बदला और सम्यक प्रक्रिया को सम्पत्ति के अधिकार तक विस्तारित कर दिया।
    • मेनका गांधी (1978) मामले में न्यायमूर्ति फजल अली की असहमति बहुमत की राय बन गई और सम्यक प्रक्रिया को जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंग के रूप में न्यायिक रूप से मान्यता प्रदान कर दी गई। अब प्रत्येक विधि का उचित, न्यायसंगत, निष्पक्ष और गैर-स्वेच्छाचारी होना आवश्यक है।

UAPA, 1967 विधि की सम्यक प्रक्रिया के दृष्टिकोण से किस प्रकार चिंताजनक है?

  • UAPA के प्रावधान नियमित आपराधिक विधि से भिन्न हैं:
    • रिमांड आदेश सामान्य 15 दिनों के बजाय 30 दिनों का हो सकता है और आरोपपत्र दाखिल करने से पहले न्यायिक हिरासत की अधिकतम अवधि सामान्य 90 दिनों से बढ़ाकर 180 दिन की जा सकती है।
      • प्रमोद सिंगला (2023) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निवारक निरोध विधियों को औपनिवेशिक विरासत का बताया, जिसके दुरुपयोग की प्रबल संभावना बनी रहती है। न्यायालय ने कहा कि हर प्रक्रियागत आवश्यकता का सख्ती से पालन किया जाना चाहिये।
  • जमानत प्रावधानों को लेकर विवाद :
    • अधिनियम की धारा 43D(5) के तहत किसी संदिग्ध को जमानत नहीं दी जा सकती, यदि न्यायालय की राय में यह मानने के उचित आधार मौजूद हैं कि आरोप प्रथम दृष्टया सत्य हैं।
    • उपलब्ध साक्ष्यों का मूल्यांकन करने के न्यायालय को संलग्न किये बिना यह सिद्ध करने का उत्तरदायित्व आरोपी पर रखा गया है कि मामला झूठा है। यही कारण है कि मानवाधिकार रक्षकों को लगता है कि यह प्रावधान कठोर है, जो किसी भी व्यक्ति के लिये मुक़दमा पूरा होने तक जमानत प्राप्त करना लगभग असंभव बना देता है।
  • समय के साथ अधिनियम के दायरे में वृद्धि:
    • इसके वर्तमान स्वरूप में (अधिनियम में वर्ष 2004 और 2013 में संशोधन के बाद) संगठनों को गैर-कानूनी घोषित करने, आतंकवादी कृत्यों एवं गतिविधियों के लिये दंडित करने, आर्थिक सुरक्षा (जिसमें राजकोषीय एवं मौद्रिक सुरक्षा, खाद्य, आजीविका, ऊर्जा, पारिस्थितिक एवं पर्यावरणीय सुरक्षा शामिल है) सहित देश की सुरक्षा को खतरा पहुँचाने वाले कृत्यों और आतंकवादी उद्देश्यों के लिये धन के उपयोग (धन शोधन सहित) को रोकने के प्रावधान शामिल हैं।
    • पूर्व में संगठनों पर दो वर्ष के प्रतिबंध का प्रावधान था, लेकिन वर्ष 2013 से प्रतिबंध की अवधि को बढ़ाकर पांच वर्ष कर दिया गया है।
    • आतंकवाद निरोधक अधिनियम (Prevention of Terrorism Act- POTA), 2002 को निरस्त किये जाने के बाद आतंकवादी कृत्यों को UAPA के अंतर्गत लाने के लिये इसके दायरे का विस्तार किया गया।
  • लंबित मामलों की संख्या:
    • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार वर्ष 2021 में ऐसी विधियों के तहत 12,000 से अधिक लोग जेलों में बंद थे और वर्ष 2022 में जेल में बंद 76% लोग विचाराधीन क़ैदी थे।
    • UAPA के केवल 18% मामलों में ही दोषसिद्धि हो सकी और न्यायालयों में UAPA के 89% मामले लंबित पड़े हैं।

विधि की सम्यक प्रक्रिया के ढाँचे के भीतर राज्य सुरक्षा को कैसे संतुलित किया जाए?

  • स्पष्ट विधिक ढाँचा:
    • ऐसी विधियाँ बनाई जाएँ जो सुरक्षा के नाम पर राज्य की कार्रवाइयों की सीमाओं एवं प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करें। दुरुपयोग को रोकने और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये ये विधियाँ सुपरिभाषित होनी चाहिये।
    • सुरक्षा विधान में बदलावों की निगरानी एवं अनुशंसा करने के लिये एक संसदीय समिति का गठन किया जाए।
  • न्यायिक निगरानी:
    • राज्य प्राधिकारियों द्वारा की जाने वाली मनमानी कार्रवाइयों की समीक्षा एवं जाँच के लिये न्यायिक निगरानी तंत्र को सुदृढ़ किया जाए। न्यायालयों के पास हिरासत और अन्य सुरक्षा उपायों की वैधता की जाँच कर सकने का अधिकार होना चाहिये।
    • UAPA जैसी विधियों के तहत हिरासत के मामलों पर विचार करने के लिये एक न्यायिक समीक्षा समिति की स्थापना की जाए।
  • स्वतंत्र निगरानी निकाय:
    • सुरक्षा संबंधी विधियों के क्रियान्वयन की निगरानी करने और दुरुपयोग की जाँच करने के लिये स्वतंत्र निकायों की स्थापना की जानी चाहिये। इन निकायों के पास राज्य प्राधिकारियों को जवाबदेह ठहराने का अधिकार होना चाहिये।
    • सुरक्षा कार्यों की निगरानी में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसी स्वतंत्र संस्थाओं की भूमिका को सशक्त किया जाना चाहिये।
  • मानवाधिकार प्रशिक्षण:
    • विधि प्रवर्तन आधिकारियों एवं सुरक्षा कर्मियों को सुरक्षा बनाए रखते हुए मानवाधिकार मानकों का पालन करने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के महत्त्व को समझने के बारे में प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
    • राष्ट्रीय पुलिस अकादमी के सहयोग से विधि प्रवर्तन अधिकारियों के लिये व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम विकसित किया जाना चाहिये।
  • सार्वजनिक भागीदारी:
    • सुरक्षा नीतियों और अधिकारों पर उनके प्रभाव के बारे में होने वाले विमर्श में नागरिक समाज एवं आम लोगों को संलग्न किया जाए। इससे अधिक संतुलित और व्यापक रूप से स्वीकृत नीतियाँ बनाने में मदद मिल सकती है।
    • MyGov जैसे प्लेटफॉर्मों के माध्यम से सुरक्षा नीतियों पर सार्वजनिक परामर्शों एवं मंचों की सुविधा प्रदान की जाए।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:
    •  UNESCO और अंतर्राष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता समूहों जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग स्थापित किया जाए।
    • पत्रकारों की सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र कार्ययोजना (UN Plan of Action on the Safety of Journalists) का उद्देश्य पत्रकारों और मीडियाकर्मियों के लिये स्वतंत्र एवं सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करना है।

निष्कर्ष

जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ रहा है, उसे यह सुनिश्चित करने के लिये निरंतर प्रयास करना चाहिये कि विधियाँ, विशेष रूप से UAPA जैसी कठोर विधि, व्यक्तियों के मूल अधिकारों पर हावी न हों। भारत के विधिक एवं संवैधानिक लोकाचार में राज्य सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच सामंजस्यपूर्ण संतुलन होना चाहिये। यह संतुलन न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये आवश्यक है, बल्कि हमारी लोकतांत्रिक सभ्यता की परिपक्वता एवं अखंडता के लिये भी आवश्यक है।

अभ्यास प्रश्न: इस बात का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये कि भारत में निवारक निरोध कानूनों का निरंतर अस्तित्व एवं उपयोग देश में विधि की सम्यक प्रक्रिया एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये प्रमुख खतरा उत्पन्न करता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स: 

प्रश्न: भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)

  1. न्यायिक हिरासत का अर्थ है कि अभियुक्त संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में है और ऐसे अभियुक्त को पुलिस स्टेशन के हवालात में रखा जाता है न कि जेल में।
  2.  न्यायिक हिरासत के दौरान, मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी, न्यायालय की अनुमति के बिना संदिग्ध व्यक्ति से पूछताछ नहीं कर सकते।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)

मेन्स:

प्रश्न. भारत सरकार ने हाल ही में विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, (यू. ए.पी. ए.), 1967 और एन. आई. ए. अधिनियम के संशोधन के द्वारा आतंकवाद-रोधी कानूनों को मज़बूत कर दिया है। मानवाधिकार संगठनों द्वारा विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम का विरोध करने के विस्तार और कारणों पर चर्चा करते समय वर्तमान सुरक्षा परिवेश के संदर्भ में परिवर्तनों का विश्लेषण कीजिये। (2019)