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एडिटोरियल

  • 19 Jul, 2024
  • 24 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में नीली अर्थव्यवस्था

यह एडिटोरियल 12/07/2024 को ‘इकोनॉमिक्स टाइम्स’ में प्रकाशित “Plumbing the depths to scale the heights” लेख पर आधारित है। इसमें पारिस्थितिक संरक्षण और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा को संतुलित करते हुए समुद्री संसाधनों के सतत् उपयोग के लिये ‘डीप ओशन मिशन’ के माध्यम से गहन समुद्र अन्वेषण की दिशा में भारत की पहलों के बारे में चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

डीप ओशन मिशन, नीली अर्थव्यवस्था, प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना, सागरमाला, जहाजों का पुनर्चक्रण अधिनियम, 2019, निम्न तापमान थर्मल विलवणीकरण, सुंदरबन, चक्रवात अम्फान, माइक्रोप्लास्टिक्स, ग्रेट निकोबार द्वीप ट्रांसशिपमेंट पोर्ट परियोजना, राष्ट्रीय चक्रवात जोखिम शमन परियोजना। 

मेन्स के लिये:

भारत में नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रमुख अवसर और प्रमुख चुनौतियाँ।

भूमि आधारित संसाधनों पर दबाव बढ़ने के साथ अब भारत भी महासागर की विशाल क्षमता की ओर ध्यान केंद्रित कर रहा है। ‘समुद्रयान’ या डीप ओशन मिश (Deep Ocean Mission) नीली अर्थव्यवस्था यानीली अर्थव्यवस्था’ (Blue Economy) का दोहन करने के लिये भारत के बहुआयामी दृष्टिकोण को प्रकट करता है। इसमें सजीव (जैव विविधता) और निर्जीव (खनिज) दोनों संसाधनों की खोज तथा उनका संवहनीय तरीके से उपयोग करना शामिल है। इस मिशन में जलवायु परिवर्तन का पूर्वानुमान लगाने के लिये उपकरण विकसित करने, नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन की संभावनाओं की खोज करने और समुद्री जीवन को उत्तरदायी रूप से समझने एवं उसका उपयोग करने के लिये जल के नीचे अनुसंधान प्रयोगशालाएँ स्थापित करने जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र शामिल हैं।

हालाँकि, समुद्र की गहराई या गहरे नीले क्षेत्र के अभियान से जुड़ी विभिन्न चुनौतियाँ भी हैं। नाजुक समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र, जिसके विशाल क्षेत्र अभी भी अज्ञात हैं, के लिये एक सतर्क दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, संसाधन निष्कर्षण की संभावना समुद्र पर अपनी आजीविका के लिये निर्भर समुदायों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में भी चिंताएँ पैदा करती है। भारत को संवहनीय अभ्यासों को प्राथमिकता देकर और नीली अर्थव्यवस्था के उत्तरदायी विकास को सुनिश्चित कर इन चुनौतियों से निपटना होगा।

भारत के लिये नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रमुख अवसर : 

  • सतत् मात्स्यिकी और जलकृषि: भारत की तटरेखा और व्यापक अंतर्देशीय जल संसाधन संवहनीय या सतत् मात्स्यिकी एवं जलकृषि विकास के लिये महत्त्वपूर्ण अवसर प्रदान करते हैं।
  • महासागरीय ऊर्जा (Ocean Energy): भारत की तटरेखा में महासागरीय ऊर्जा—जिसमें ज्वारीय, तरंगीय और अपतटीय पवन ऊर्जा शामिल हैं, के दोहन की अपार संभावनाएँ हैं।
    • IIT मद्रास द्वारा तमिलनाडु तट पर तरंग ऊर्जा जनरेटर स्थापित करना इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
    • वर्ष 2030 तक 30GW अपतटीय पवन ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का सरकार का लक्ष्य इस क्षेत्र की क्षमता को रेखांकित करता है।
  • समुद्री जैव प्रौद्योगिकी (Marine Biotechnology): जैव प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों के लिये भारत की समुद्री जैव विविधता का अन्वेषण अपार संभावनाओं के द्वार खोलता है।
    • यह क्षेत्र नवीन औषधियों, न्यूट्रास्युटिकल्स (nutraceuticals), कॉस्मेस्युटिकल्स (cosmeceuticals) और जैव ईंधन के विकास के अवसर प्रदान करता है।
    • समुद्री जैव प्रौद्योगिकी में निवेश कर भारत इस उभरते क्षेत्र में अग्रणी देश बन सकता है, नवाचार को बढ़ावा दे सकता है और उच्च-मूल्य उत्पादों का सृजन कर सकता है।
  • समुद्र तल खनन (Seabed Mining): भारत सरकार के पास वर्तमान में हिंद महासागर में अन्वेषण के लिये दो अनुबंध हैं।
    • इनमें से पहला अनुबंध केंद्रीय हिंद महासागर बेसिन में पॉलीमेटैलिक नोड्यूल्स (polymetallic nodules) की खोज के लिये है, जबकि दूसरा अनुबंध हिंद महासागर रिज में पॉलीमेटैलिक सल्फाइड्स (polymetallic sulfides) की खोज के लिये है।
    • यह तांबा, निकेल, कोबाल्ट एवं मैंगनीज जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों को सुरक्षित करने का एक महत्त्वपूर्ण अवसर प्रस्तुत करता है, जो उभरती प्रौद्योगिकियों और नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों के लिये आवश्यक हैं।
  • तटीय और ‘क्रूज़’ पर्यटन (Coastal and Cruise Tourism): तटीय और क्रूज़ पर्यटन का विकास भारत के तटीय क्षेत्रों के लिये पर्याप्त आर्थिक लाभ प्रदान कर सकता है।
    • सागरमाला परियोजना के तहत मुंबई और कोचीन जैसे प्रमुख बंदरगाहों पर क्रूज़ टर्मिनल विकसित करने का उद्देश्य वृद्धिशील वैश्विक क्रूज़ बाज़ार का लाभ उठाना है।
    • यह क्षेत्र आतिथ्य से लेकर स्थानीय हस्तशिल्प तक विविध रोज़गार अवसर पैदा कर सकता है, साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान को भी बढ़ावा दे सकता है।
  • जहाज़ निर्माण और जहाज़ पुनर्चक्रण: जहाज़ निर्माण को बढ़ावा देने के लिये भारत की 4,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी योजना न केवल नए जहाज़ निर्माण में बल्कि पर्यावरण के अनुकूल जहाज़ पुनर्चक्रण अभ्यासों को विकसित करने में वृहत अवसर प्रदान करती है।
    • जहाज़ पुनर्चक्रण अधिनियम, 2019 भारत को संवहनीय जहाज़ पुनर्चक्रण में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देश बन सकने का अवसर प्रदान करता है।
    • यह क्षेत्र व्यापक रोज़गार सृजन कर सकता है, निर्यात को बढ़ावा दे सकता है और सहायक उद्योगों के विकास में योगदान दे सकता है।
  • जल विलवणीकरण प्रौद्योगिकियाँ (Desalination Technologies): जल की बढ़ती कमी के परिदृश्य में भारत का लागत-प्रभावी जल विलवणीकरण प्रौद्योगिकियों के विकास पर ध्यान देना समयानुकूल है।
    • NIOT द्वारा लक्षद्वीप में निम्न तापमान थर्मल विलवणीकरण (Low Temperature Thermal Desalination- LTTD) संयंत्र का विकास स्वदेशी विलवणीकरण प्रौद्योगिकी में भारत की क्षमता को प्रदर्शित करता है।
    • यह क्षेत्र घरेलू जल आवश्यकताओं को (विशेष रूप से तटीय और द्वीपीय क्षेत्रों में) पूरा करने के अवसर प्रदान करता है, साथ ही भारत को अन्य जल-संकटग्रस्त देशों के लिये विलवणीकरण प्रौद्योगिकी का निर्यातक बन सकने की स्थिति प्रदान करता है।
  • समुद्री स्थानिक योजना-निर्माण (Marine Spatial Planning): भारत के समुद्री क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों और संरक्षण प्रयासों के बीच संतुलन स्थापित करने के लिये व्यापक समुद्री स्थानिक योजना-निर्माण का क्रियान्वयन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • ‘ब्लू फ्लैग’ प्रमाणन कार्यक्रम—जिसके अंतर्गत शिवराजपुर (द्वारका , गुजरात), घोघला (दीव) जैसे विभिन्न भारतीय समुद्र तटों को प्रमाण-पत्र प्रदान किया गया है, संवहनीय तटीय विकास की दिशा में किये जा रहे प्रयासों का एक प्रमुख उदाहरण है।
  • गहरन समुद्र अन्वेषण और अनुसंधान: वर्ष 2021 में लॉन्च किया गया डीप ओशन मिश गहन समुद्र अन्वेषण के क्षेत्र में भारत के महत्वाकांक्षी प्रयास को चिह्नित करता है।
    • 6,000 मीटर की गहराई तक पहुँचने में सक्षम मानवयुक्त पनडुब्बी वाहन मत्स्य 6000 के विकास से भारत की गहन समुद्र अनुसंधान क्षमताओं में उल्लेखनीय वृद्धि होगी।

भारत के लिये नीली अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ:

  • पर्यावरणीय क्षरण और जैव विविधता हानि: प्रदूषण और असंवहनीय विकास के कारण भारत के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र गंभीर संकट की स्थिति में हैं।
    • हिंद महासागर और मध्य-पूर्व में 65% से अधिक प्रवाल भित्तियाँ (coral reefs) स्थानीय खतरों के कारण संकटग्रस्त हैं।
    • विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन सुंदरवन (Sundarbans) समुद्र-स्तर में वृद्धि और तटीय कटाव के कारण प्रतिवर्ष लगभग 16 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल खोता जा रहा है। 
    • जैव विविधता की इस हानि से न केवल पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा पहुँच रहा है, बल्कि समुद्री संसाधनों पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका के लिये भी खतरा उत्पन्न हो रहा है।
      • उदाहरण: वर्ष 2000 में एमवी वाकाशियो (MV Wakashio) से मॉरिशस के पास हुआ तेल रिसाव मानवीय गतिविधियों के प्रति समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की भेद्यता को उजागर करता है।
  • अत्यधिक मत्स्यग्रहण और असंवहनीय मत्स्यग्रहण अभ्यास (Overfishing and Unsustainable Fishing Practices): भारत का मात्स्यिकी क्षेत्र, जो खाद्य सुरक्षा एवं रोज़गार के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, अत्यधिक मत्स्यग्रहण की चुनौती का सामना कर रहा है।
    • ICAR के केंद्रीय समुद्री मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान (CMFRI) के वर्ष 2022 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत के 135 आकलित मछली स्टॉक में से 8.2% का अत्यधिक मत्स्यग्रहण किया गया, जबकि अन्य 4.4% भी इसकी कगार पर हैं।
    • बॉटम ट्रॉलिंग (bottom trawling) जैसे विनाशकारी मत्स्यग्रहण अभ्यास समस्या को और बढ़ा देते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन और समुद्र-स्तर में वृद्धि: समुद्र का बढ़ता स्तर और चरम मौसमी घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति भारत के तटीय क्षेत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण खतरा उत्पन्न करती है।
    • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का अनुमान है कि समुद्र का स्तर 3 सेमी बढ़ने से समुद्र का जलस्तर लगभग 17 मीटर तक आंतरिक भागों में प्रवेश कर सकता है।
      • इससे तटीय अवसंरचना, कृषि और आजीविका को खतरा पहुँच सकता है।
    • उदाहरण: वर्ष 2020 में आए चक्रवात ‘अम्फान’ ने 13.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य की क्षति पहुँचाई, जिससे जलवायु-जनित आपदाओं के प्रति तटीय क्षेत्रों की भेद्यता उजागर हुई।
  • समुद्री मलबा (Marine Debris): समुद्री प्रदूषण, विशेष रूप से प्लास्टिक अपशिष्ट, एक बड़ी चुनौती है। भारत में हर वर्ष लगभग 9.46 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जिसका एक बड़ा हिस्सा समुद्र तक पहुँच जाता है।
    •  माइक्रोप्लास्टिक्स अब समुद्री खाद्य शृंखलाओं में पाए जा रहे हैं, जिससे समुद्री जीवन और मानव स्वास्थ्य दोनों के लिये खतरा पैदा हो रहा है।
  • आर्थिक विकास और संरक्षण के बीच संतुलन: आर्थिक लाभ के लिये समुद्री संसाधनों के दोहन और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के बीच संतुलन बनाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है।
  • समुद्री सुरक्षा और समुद्री डकैती: हिंद महासागर क्षेत्र (IOR) में समुद्री सुरक्षा सुनिश्चित करना नीली अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत आवश्यक है। समुद्री डकैती (Piracy) और अंतर्राष्ट्रीय अपराध इसके लिये गंभीर चुनौतियाँ पेश करते हैं।
    • IMB की वार्षिक रिपोर्ट में वर्ष 2023 में जहाज़ों के विरुद्ध समुद्री डकैती और सशस्त्र डकैती की 120 घटनाएँ दर्ज की गईं, जो लगातार बनी रही सुरक्षा चुनौतियों को उजागर करती हैं।
  • सीमित अनुसंधान एवं विकास: कई समुद्र विज्ञान अनुसंधान एवं विकास में भारत का निवेश अन्य समुद्री देशों की तुलना में सीमित रहा है।
    • इससे समुद्री जैव प्रौद्योगिकी और महासागर ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में नवाचार करने की देश की क्षमता प्रभावित होती है।अनुसंधान संस्थान होने के बावजूद समुद्री 
    • उदाहरण: भारत का अनुसंधान पर व्यय उसके कुल अनुसंधान एवं विकास बजट के 1% से भी कम है, जो चीन और अमेरिका जैसे देशों की तुलना में पर्याप्त कम है।

सतत् नीली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये भारत कौन-से कदम उठा सकता है?

  • सतत् मात्स्यिकी और जलकृषि प्रबंधन: भारत को अत्यधिक मत्स्यग्रहण की समस्या से निपटने और संवहनीय अभ्यासों को बढ़ावा देने के लिये एक व्यापक मात्स्यिकी प्रबंधन योजना लागू करनी चाहिये।
    • इसमें मत्स्यग्रहण कोटा एवं मौसमी प्रतिबंधों का सख्ती से पालन कराना, पुनः परिसंचरण जलकृषि प्रणालियों (Recirculating Aquaculture Systems- RAS) जैसी संवहनीय जलकृषि तकनीकों को बढ़ावा देना और मत्स्य उत्पादों के लिये ‘ट्रेसेबिलिटी’ प्रणालियों की शुरूआत करना शामिल होना चाहिये।
    • अष्टमुडी शॉर्ट-नेक्ड क्लैम मत्स्यग्रहण के लिये मरीन स्टीवर्डशिप काउंसिल (Marine Stewardship Council- MSC) प्रमाणन की सफलता भारत में सतत् मत्स्यग्रहण अभ्यासों की क्षमता को दर्शाती है।
  • एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन: तटीय प्रबंधन के लिये एक समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है, जिसमें विकास आवश्यकताओं के साथ पर्यावरण संरक्षण को संतुलित किया जा सके।
    • इसमें तटवर्ती निर्माण और प्रदूषण पर सख्त विनियमन लागू करना, तटीय संरक्षण के लिये प्रकृति-आधारित समाधानों को बढ़ावा देना (जैसे कि मैंग्रोव की पुनर्बहाली) और पारिस्थितिकी-पर्यटन (eco-tourism) एवं वैकल्पिक आजीविका कार्यक्रमों के माध्यम से संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को संलग्न करना शामिल है।
    • गुजरात एवं ओडिशा जैसे राज्यों में एकीकृत तटीय क्षेत्र प्रबंधन परियोजना (ICZMP) ने इस क्षेत्र में सफलता दिखाई है और यह राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन के लिये एक मॉडल के रूप में कार्य कर सकती है।
  • समुद्री प्रदूषण नियंत्रण और अपशिष्ट प्रबंधन: समुद्री प्रदूषण से निपटने के लिये रोकथाम और सफाई दोनों पर ध्यान केंद्रित करने वाली बहुआयामी रणनीति की आवश्यकता है।
    • इसमें औद्योगिक अपशिष्ट निर्वहन पर सख्त विनियमन लागू करना, तटीय शहरों में शहरी अपशिष्ट जल उपचार अवसंरचना में सुधार करना और प्लास्टिक पैकेजिंग के लिये विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) को लागू करना शामिल है।
    • समुद्री प्लास्टिक अपशिष्ट के लिये वृत्ताकार अर्थव्यवस्था पहलों (जैसे कि ओशन रिकवरी एलायंस का प्लास्टिक्स डिसक्लोज़र प्रोजेक्ट) को बढ़ावा देने से आर्थिक अवसरों का सृजन करते हुए प्रदूषण को व्यापक रूप से कम किया जा सकता है।
  • उन्नत समुद्री सुरक्षा और निगरानी: भारत की नीली अर्थव्यवस्था संबंधी हितों की रक्षा के लिये समुद्री सुरक्षा को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
    • इसमें अवैध मत्स्यग्रहण, समुद्री डकैती और सीमा-पार अपराधों से निपटने के लिये तटीय निगरानी प्रणालियों को AI-संचालित ड्रोन और उपग्रह निगरानी के साथ उन्नत करना शामिल है।
    • भारतीय तटरक्षक बल और नौसेना की क्षमताओं को सुदृढ़ करना और विभिन्न समुद्री एजेंसियों के बीच समन्वय में सुधार लाना भी आवश्यक है।
    • सूचना संलयन केंद्र - हिंद महासागर क्षेत्र (IFC-IOR) समुद्री क्षेत्र जागरूकता बढ़ाने के लिये सही दिशा में उठाया गया कदम है।
  • समुद्री क्षेत्रों में कौशल विकास और क्षमता निर्माण: समुद्री क्षेत्रों में कौशल अंतराल को दूर करना भारत की नीली अर्थव्यवस्था संबंधी महत्त्वाकांक्षाओं के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • अपतटीय ऊर्जा, समुद्री जैव प्रौद्योगिकी और संवहनीय मात्स्यिकी सहित विभिन्न नीली अर्थव्यवस्था क्षेत्रों को लक्षित करते हुए एक व्यापक कौशल विकास कार्यक्रम शुरू करना आवश्यक है।
    • तटवर्ती सामुदायिक विकास पर सागरमाला​ कार्यक्रम का घटक एक रूपरेखा प्रदान करता है जिसे राष्ट्रव्यापी कौशल विकास पहलों के लिये विस्तारित किया जा सकता है।
  • समुद्री प्रौद्योगिकी में अनुसंधान और नवाचार: भारत के लिये नीली अर्थव्यवस्था क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा कर सकने के लिये समुद्री प्रौद्योगिकी में अनुसंधान एवं नवाचार को बढ़ावा देना आवश्यक है।
    • इसके लिये समुद्र विज्ञान अनुसंधान संस्थानों में निवेश बढ़ाने, शिक्षा जगत एवं उद्योग के बीच सहयोग को बढ़ावा देने और तटीय शहरों में नवाचार केंद्रों की स्थापना करने की आवश्यकता है।
    • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित गहन समुद्र संसाधनों की खोज एवं खनन में प्रौद्योगिकी और नवाचार (Technology and Innovation in Exploration and Mining of Deep-sea Resources- TEM) कार्यक्रम इस दिशा में एक उपयुक्त कदम है, जिसे आगे भी विस्तारित किया जा सकता है।
  • तटीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण और प्रत्यास्थता निर्माण: प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन प्रभावों के प्रति तटीय प्रत्यास्थता बढ़ाना तटीय क्षेत्रों में जीवन और आजीविका की रक्षा के लिये आवश्यक है।
    • इसमें व्यापक तटीय खतरा मानचित्र विकसित करना, तटीय संरक्षण के लिये प्रकृति-आधारित समाधान (जैसे कि मैंग्रोव की पुनर्बहाली) लागू करना और चरम मौसमी घटनाओं के लिये पूर्व-चेतावनी प्रणालियों को सुदृढ़ करना शामिल है।
    • राष्ट्रीय चक्रवात जोखिम न्यूनीकरण परियोजना (National Cyclone Risk Mitigation Project) एक रूपरेखा प्रदान करती है, जिसका विस्तार तटीय खतरों और जलवायु परिवर्तन संबंधी प्रभावों की व्यापक श्रेणी से निपटने के लिये किया जा सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत के लिये नीली अर्थव्यवस्था के महत्त्व पर चर्चा कीजिये और इसके सतत् विकास को सुनिश्चित करने के लिये सरकार द्वारा अपनाये जा सकने वाले प्रमुख उपायों के सुझाव दीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

मेन्स: 

Q. 'नीली क्रांति' को परिभाषित करते हुए भारत में मत्स्यपालन की समस्याओं और रणनीतियों को समझाइये । (उत्तर 250 शब्दों में दें) (2018)


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