शासन व्यवस्था
भारत की पुलिस प्रणाली में सुधार की आवश्यकता
यह एडिटोरियल 18/03/2025 को बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित “Law and disorder: States must spend more on adequate police forces” पर आधारित है। इस लेख में भारत के पुलिस बलों में 21% रिक्तियों की चिंताजनक स्थिति को उजागर किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप गंभीर रूप से कम कर्मचारी हैं जो कानून एवं व्यवस्था को कमज़ोर करते हैं, सार्वजनिक सुरक्षा को खतरे में डालते हैं तथा आर्थिक विकास को बाधित करते हैं।
प्रिलिम्स के लिये:पुलिस अधिनियम- 1861, मलिमथ समिति, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, स्मार्ट पुलिसिंग, सामुदायिक पुलिसिंग, मॉडल पुलिस अधिनियम, रिबेरो समिति, पद्मनाभैया समिति मेन्स के लिये:भारत में पुलिस व्यवस्था और पुलिस सुधार, भारत में पुलिस व्यवस्था से जुड़े प्रमुख मुद्दे |
भारत की सुरक्षा-शासन संरचना गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है, क्योंकि राज्य पुलिस बलों में 21% से अधिक पद रिक्त हैं, जिससे पुलिस की कमी गंभीर हो गई है। यह कमी अकुशल कानून-व्यवस्था के लिये कुख्यात राज्यों में सबसे अधिक स्पष्ट है, जहाँ पश्चिम बंगाल, मिज़ोरम और हरियाणा में सबसे अधिक रिक्तियाँ दर्ज की गई हैं। अपर्याप्त पुलिस व्यवस्था न केवल सार्वजनिक सुरक्षा को खतरे में डालती है, विशेष रूप से कमज़ोर आबादी के लिये, बल्कि छोटे और मध्यम उद्यमों, जो भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, के लिये प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके आर्थिक विकास को भी बाधित करती है।
भारत में पुलिस व्यवस्था और पुलिस सुधारों का विकास समय के साथ किस प्रकार हुआ है?
- औपनिवेशिक नींव और पुलिस अधिनियम- 1861: आधुनिक भारतीय पुलिस प्रणाली वर्ष 1861 के पुलिस अधिनियम के तहत स्थापित की गई थी, जिसे अंग्रेज़ों द्वारा जनता की सेवा करने के बजाय औपनिवेशिक नियंत्रण बनाए रखने के लिये डिज़ाइन किया गया था।
- इसने एक केंद्रीकृत और पदानुक्रमित बल बनाया जिसने सामुदायिक सेवा की अपेक्षा कानून एवं व्यवस्था को प्राथमिकता दी।
- यह कार्यढाँचा आज भी प्रभावी बना हुआ है, जिससे पुलिस बल नागरिकों की अपेक्षा सरकार के प्रति अधिक जवाबदेह बन गया है।
- स्वतंत्रता-पश्चात सुधार (वर्ष 1950-1970):
- स्वतंत्रता के बाद भी भारत ने औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था को बरकरार रखा, जिसके कारण अकुशलता, भ्रष्टाचार और जनता में अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हुई।
- गोर समिति (वर्ष 1971) ने पेशेवर, सेवा-उन्मुख पुलिस व्यवस्था की ओर बदलाव की सिफारिश की।
- राष्ट्रीय पुलिस आयोग (वर्ष 1977-1981) ने कानून और व्यवस्था को जाँच से अलग करने तथा अधिकारियों के लिये निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित करने जैसे प्रमुख सुधारों का प्रस्ताव रखा।
- हालाँकि, इन सिफारिशों को राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिससे उनका कार्यान्वयन सीमित हो गया।
- 1990-2000 के दशक- सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप और प्रमुख समितियाँ:
- बढ़ते अपराध, सांप्रदायिक हिंसा और राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण पुलिस सुधार की मांग तेज़ हो गई।
- रिबेरो समिति (वर्ष 1998) और पद्मनाभैया समिति (2000) ने पहले की सिफारिशों को सुदृढ़ किया तथा स्वतंत्र निरीक्षण निकायों, आधुनिक प्रशिक्षण और सामुदायिक पुलिसिंग की वकालत की।
- मलिमथ समिति (वर्ष 2002-2003) ने विशेष फोरेंसिक क्षमताओं और संघीय अपराधों के लिये एक केंद्रीय कानून प्रवर्तन एजेंसी की स्थापना पर ज़ोर दिया, लेकिन अधिकांश सुधार लागू नहीं किये गये।
- सर्वोच्च न्यायालय के प्रकाश सिंह निर्णय (वर्ष 2006) ने राज्यों को महत्त्वपूर्ण सुधारों को लागू करने का निर्देश दिया, जिसमें राज्य सुरक्षा आयोगों की स्थापना, वरिष्ठ अधिकारियों के लिये निश्चित कार्यकाल और कानून एवं व्यवस्था से जाँच को अलग करना शामिल है।
- हालिया विकास और आधुनिकीकरण की आवश्यकता (वर्ष 2010 से वर्तमान तक)
- साइबर अपराध, आतंकवाद और संगठित अपराध के कारण पुलिस संबंधी चुनौतियाँ बढ़ने के साथ ही आधुनिकीकरण के प्रयासों में भी तेज़ी आई है।
- स्मार्ट पुलिसिंग (वर्ष 2015) जैसी पहल AI, डेटा एनालिटिक्स और सामुदायिक सहभागिता का लाभ उठाती हैं।
- पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (MPF) योजना का उद्देश्य हथियार, फोरेंसिक प्रयोगशालाओं और साइबर अपराध इकाइयों में सुधार करना है।
- मॉडल पुलिस अधिनियम (वर्ष 2006) और NHRC की सिफारिशें (वर्ष 2021) स्वायत्तता, जवाबदेही एवं निगरानी उपायों पर ज़ोर देती हैं।
- हालाँकि, गहन संरचनात्मक सुधारों का अभाव पुलिस की कार्यकुशलता में बाधा उत्पन्न करता रहता है।
भारत में पुलिस व्यवस्था से जुड़े प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- कार्मिकों की भारी कमी: भारत में पुलिस कार्मिकों की भारी कमी है, जिसके कारण कार्यभार अत्यधिक है और कानून प्रवर्तन की स्थिति गंभीर है।
- संयुक्त राष्ट्र प्रति 100,000 लोगों पर 222 पुलिस अधिकारियों की अनुशंसा करता है, लेकिन भारत में यह संख्या प्रति 100,000 पर केवल 154.84 है, जो वैश्विक मानकों से काफी नीचे है।
- उच्च रिक्तियों ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है- पश्चिम बंगाल (39.42%), मिज़ोरम (35.06%) और हरियाणा (32%) में रिक्तियों की दर सर्वाधिक है।
- इससे न केवल अपराध की रोकथाम प्रभावित होती है, बल्कि प्रतिक्रिया समय, जाँच की गुणवत्ता और जनता का विश्वास भी प्रभावित होता है।
- अत्यधिक कार्यभार और अल्प वेतन वाला पुलिस बल: कार्मिकों की कमी के कारण मौजूदा अधिकारियों को प्रतिदिन 16-18 घंटे काम करना पड़ता है, जिसके कारण तनाव, अकुशलता और समझौतापूर्ण पुलिसिंग की स्थिति उत्पन्न होती है।
- कई अधिकारी कानून प्रवर्तन से लेकर चुनाव ड्यूटी तक अनेक भूमिकाएँ निभाते हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त आराम या उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता।
- कम वेतन से व्यावसायिकता हतोत्साहित होती है और भ्रष्टाचार की संभावना बढ़ती है, जिससे जनता का विश्वास प्रभावित होता है।
- इसके अलावा हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि अधिकांश पुलिस कर्मियों में तनाव का स्तर बहुत अधिक तथा बहुत अधिक (83.8%) है, जो उनके प्रदर्शन एव्न्न मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।
- राजनीतिकरण और बाह्य प्रभाव: पुलिस कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप ने व्यावसायिकता और स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया है।
- बार-बार स्थानांतरण, राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध कार्रवाई करने का दबाव और जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग ने कानून प्रवर्तन की विश्वसनीयता को कमज़ोर कर दिया है।
- राजद्रोह कानूनों का मनमाना प्रयोग तथा कार्यकर्त्ताओं और पत्रकारों की लक्षित गिरफ्तारियाँ इस बात को उजागर करती हैं कि पुलिसिंग प्रायः विधि के शासन के बजाय राजनीतिक हितों से प्रेरित होती है।
- उदाहरण के लिये, दिल्ली की वर्ष 2019 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 72% पुलिस अधिकारियों ने मामलों की जाँच करते समय राजनीतिक दबाव का अनुभव किया है।
- पुलिस का सैन्यीकरण और बल का अत्यधिक प्रयोग: पुलिस प्रायः अत्यधिक बल का प्रयोग करती है, विशेषकर विरोध प्रदर्शनों और नागरिक अशांति से निपटने में।
- प्रदर्शनकारियों पर आँसू गैस, रबड़ की गोलियाँ और लाठीचार्ज की आलोचना हुई है, विशेष रूप से किसानों के विरोध प्रदर्शन एवं CAA-NRC प्रदर्शनों के दौरान।
- इससे जनता का विश्वास कम होता है तथा मानवाधिकार उल्लंघन की चिंताएँ बढ़ती हैं।
- वर्ष 2023 के पहलवानों/कुश्तीगीर के विरोध प्रदर्शन में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को बलपूर्वक हटाया गया, जिसकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निंदा हुई।
- अप्रैल, 2017 से मार्च, 2022 तक पिछले पाँच वर्षों में देश भर में पुलिस हिरासत में मौत के कुल 669 मामले दर्ज किये गए, जो एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे को उजागर करता है।
- प्रदर्शनकारियों पर आँसू गैस, रबड़ की गोलियाँ और लाठीचार्ज की आलोचना हुई है, विशेष रूप से किसानों के विरोध प्रदर्शन एवं CAA-NRC प्रदर्शनों के दौरान।
- अपर्याप्त प्रशिक्षण और पुरानी पुलिस पद्धतियाँ: कई पुलिस कर्मियों के पास आधुनिक अपराध-सुलझाने की तकनीक, फोरेंसिक विज्ञान और साइबर अपराध जाँच में उचित प्रशिक्षण का अभाव है।
- इसका परिणाम अकुशल जाँच, गलत गिरफ्तारियाँ और लंबित मामले हैं। लिंग-संवेदनशील मामलों से निपटने के लिये अपर्याप्त प्रशिक्षण भी है, जिससे घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न एवं तस्करी के पीड़ितों के लिये न्याय प्रभावित होता है।
- CAG के अनुसार, अधिकांश राज्यों में प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों का प्रतिशत बहुत कम है।
- अंकेक्षण में आयुध प्रशिक्षण में खामियों के साथ-साथ पर्याप्त प्रशिक्षण बुनियादी अवसंरचना की कमी का भी उल्लेख किया गया।
- इसके अलावा, भारत में अपराध विज्ञान के क्षेत्र में इतने सारे अवसर होने के बावजूद, प्रति 0.1 मिलियन जनसंख्या पर केवल 0.33 फोरेंसिक वैज्ञानिक हैं, जबकि विदेशों में प्रति 0.1 मिलियन जनसंख्या पर 20 से 50 वैज्ञानिक हैं, साथ ही पुलिस अधिकारियों का अपर्याप्त प्रशिक्षण इस मुद्दे को और भी गंभीर बना देता है।
- कमज़ोर सामुदायिक पुलिस व्यवस्था और सार्वजनिक विश्वास की कमी: सक्रिय सामुदायिक सहभागिता का अभाव है, जिसके कारण पुलिस बल दूरस्थ, भयभीत करने वाला और अभिगम से परे प्रतीत होता है।
- कई सीमांत समुदाय - दलित, जनजातीय और अल्पसंख्यक– भेदभाव और क्रूरता के पिछले अनुभवों के कारण प्रायः पुलिस पर भरोसा करने के बजाय उससे डरते हैं।
- मज़बूत सामुदायिक संबंधों के बिना, खुफिया जानकारी एकत्र करना और अपराध की रोकथाम कमज़ोर बनी रहेगी।
- बढ़ते शहरीकरण के बावजूद, केरल में ‘जनमैत्री’ या महाराष्ट्र में ‘मोहल्ला समितियाँ’ जैसी सामुदायिक पुलिस व्यवस्था पहल, आदर्श के बजाय अपवाद बनी हुई हैं।
- धीमी आधुनिकीकरण प्रक्रिया और पुराने उपकरण: कई पुलिस स्टेशनों में बुनियादी फोरेंसिक उपकरण, निगरानी तकनीक और साइबर अपराध ट्रैकिंग तंत्र की कमी है, जिससे आधुनिक अपराधों से निपटना मुश्किल हो जाता है।
- यहाँ तक कि बड़े शहरों में भी पुराने अस्त्र और अपर्याप्त सुरक्षात्मक उपकरण पुलिस को आतंकवादी खतरों सहित गंभीर स्थितियों में असुरक्षित बना देते हैं।
- कई पुलिस स्टेशन अभी भी डिजिटल केस प्रबंधन प्रणाली के बजाय मैन्युअल कागज़ी कार्रवाई पर निर्भर हैं।
- एक हालिया रिपोर्ट में पाया गया कि देश में 11 राज्य पुलिस कर्मियों के लिये केवल एक कंप्यूटर/लैपटॉप था, जबकि कुछ बड़े राज्यों में वर्ष 2022 में 30 या उससे अधिक कर्मियों के लिये केवल एक प्रणाली थी।
- पुलिस बलों में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व: महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों के बावजूद, पुलिस बल में लैंगिक प्रतिनिधित्व निराशाजनक बना हुआ है।
- केंद्र सरकार द्वारा महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लगातार प्रयासों के बावजूद देश में पुलिस बलों में केवल 11.75% महिलाएँ हैं।
- प्रतिनिधित्व की यह कमी महिलाओं को अपराधों की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करती है और लिंग आधारित हिंसा के मामलों को ठीक से नहीं निपटा पाती।
भारत में पुलिस व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- जनशक्ति की कमी और कार्यभार में कमी को पूरा करना: पुलिस कर्मियों की भारी कमी को त्वरित भर्ती, बेहतर कार्य स्थितियों और बजटीय आवंटन में वृद्धि के माध्यम से निपटाया जाना चाहिये।
- प्रकाश सिंह मामले में दिये गए निर्देश के अनुसार पुलिस अधिकारियों के लिये दो वर्ष का न्यूनतम कार्यकाल लागू करने से राजनीतिक हस्तक्षेप कम हो सकता है तथा उनकी दक्षता में सुधार हो सकता है।
- पुलिस का राजनीतिकरण समाप्त करना तथा पुलिस की स्वायत्तता सुनिश्चित करना: राष्ट्रीय पुलिस आयोग (NPC) की सिफारिश के अनुसार राज्य सुरक्षा आयोग (SSC) को लागू करने से पुलिस बलों को अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाया जा सकता है।
- रिबेरो समिति के सुझाव के अनुसार, पुलिस स्थापना बोर्ड (PEB) को स्थानांतरण और पदोन्नति को स्वतंत्र रूप से संभालने का अधिकार दिया जाना चाहिये।
- मॉडल पुलिस अधिनियम (वर्ष 2006) के अनुरूप पुलिस अधिनियम, 1861 में संशोधन करके इन सुधारों को कानूनी रूप से स्थापित किया जा सकता है।
- पुलिस बुनियादी अवसंरचना और उपकरणों का आधुनिकीकरण: पुलिस बलों को पुराने अस्त-शस्त्र और कागज़-आधारित प्रणालियों से तकनीक-संचालित पुलिसिंग में बदलाव करना चाहिये, जिसमें AI-आधारित पूर्वानुमानित पुलिसिंग, बिग डेटा एनालिटिक्स एवं ड्रोन निगरानी शामिल है।
- पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (MPF) योजना का विस्तार CCTV निगरानी, फोरेंसिक प्रयोगशालाओं, बॉडी कैमरों और GPS-सक्षम गश्ती वाहनों पर लक्षित व्यय के साथ किया जाना चाहिये।
- पद्मनाभैया समिति की सिफारिश के अनुरूप साइबर अपराध प्रकोष्ठों को उन्नत करना, बढ़ती ऑनलाइन धोखाधड़ी और डिजिटल अपराधों से निपटने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- सभी पुलिस थानों में नाइट विज़न वाले CCTV कैमरे लगाने के NHRC के वर्ष 2021 के निर्देश को लागू करने से जवाबदेही बढ़ेगी तथा हिरासत में यातना कम होगी।
- जाँच को कानून एवं व्यवस्था से अलग करना और विशेषज्ञता प्रदान करना: मलिमथ समिति की सिफारिशों के अनुरूप, पुलिस थानों में जाँच और कानून एवं व्यवस्था प्रबंधन के लिये अलग-अलग शाखाएँ होनी चाहिये ताकि कार्यकुशलता में सुधार हो सके।
- विशेषीकृत अपराध जाँच कैडर के निर्माण से अधिकारियों को वित्तीय धोखाधड़ी, संगठित अपराध और साइबर अपराध जैसे जटिल मामलों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिल सकती है।
- फोरेंसिक साइंस, कानूनी प्रक्रियाओं और डिजिटल जाँच तकनीकों को शामिल करने के लिये प्रशिक्षण मॉड्यूल को अद्यतन किया जाना चाहिये।
- पद्मनाभैया समिति के सुझाव के अनुसार, बीट पुलिसिंग प्रणाली को पुनर्जीवित करने से ज़मीनी स्तर पर खुफिया जानकारी जुटाने और अपराध की रोकथाम में सुधार हो सकता है।
- सामुदायिक पुलिसिंग और सार्वजनिक विश्वास निर्माण: पुलिस और नागरिकों के बीच विश्वास की कमी को पूरा करने के लिये सामुदायिक पुलिसिंग मॉडल की आवश्यकता है, जैसा कि मॉडल पुलिस अधिनियम (वर्ष 2006) और NHRC की सिफारिशों (वर्ष 2021) में सुझाया गया है।
- केरल की जनमैत्री सुरक्षा परियोजना और महाराष्ट्र की मोहल्ला समितियों जैसी पहलों का देश भर में विस्तार किया जाना चाहिये।
- पुलिस थानों में सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और मनोवैज्ञानिकों की भर्ती करने से घरेलू हिंसा एवं किशोर अपराध जैसे संवेदनशील मामलों को निपटाने में सहायता मिल सकती है।
- नियमित सार्वजनिक-पुलिस संवाद और आउटरीच कार्यक्रम सीमांत समुदायों के बीच संबंधों को बेहतर बना सकते हैं तथा विश्वास बढ़ा सकते हैं।
- लैंगिक संवेदनशीलता और पुलिस में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना: पद्मनाभैया समिति द्वारा अनुशंसित पुलिस बलों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 33% के लक्ष्य तक बढ़ाना, लिंग-संवेदनशील पुलिसिंग सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- प्रत्येक ज़िले में पूर्णतया महिला पुलिस स्टेशन स्थापित करने तथा प्रत्येक पुलिस स्टेशन में महिला अधिकारियों की उपस्थिति अनिवार्य करने से महिलाओं द्वारा अपराध की रिपोर्टिंग में सुधार आएगा।
- NHRC द्वारा सुझाए गए अनुसार अनिवार्य लैंगिक संवेदीकरण प्रशिक्षण पुलिस शिक्षा का हिस्सा होना चाहिये। चाइल्डकैअर सुविधाएँ, लचीले कार्य घंटे और अलग शौचालय की सुविधा प्रदान करने से महिला अधिकारियों के बीच प्रतिधारण दर में सुधार हो सकता है।
- न्यायिक-पुलिस समन्वय और विचाराधीन मामलों में कमी: पुलिस और न्यायपालिका के बीच अपर्याप्त समन्वय के कारण लंबित मामलों, विलंब और अनुचित हिरासत की स्थिति उत्पन्न होती है।
- मलिमथ समिति की सिफारिशों के अनुरूप, FIR का डिजिटलीकरण, ई-कोर्ट एकीकरण और विचाराधीन मामलों में तेज़ी लाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- प्रत्येक ज़िले में पुलिस-न्यायपालिका संपर्क अधिकारी की बहाली से मामले की बेहतर ट्रैकिंग और साक्ष्य प्रबंधन में सुविधा हो सकती है।
- दलील सौदाकारी तंत्र का विस्तार करने से विचाराधीन कैदियों की संख्या कम करने और तेज़ी से न्याय प्रदान करने में मदद मिल सकती है।
- पुलिस प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण में सुधार: पद्मनाभैया समिति के सुझाव के अनुसार, एक राष्ट्रीय स्तर की पुलिस प्रशिक्षण सलाहकार परिषद (PTAC) को आधुनिक अपराध-विरोधी तकनीक, फोरेंसिक विज्ञान, मानवाधिकार कानून और प्रौद्योगिकी-संचालित पुलिसिंग सुनिश्चित करने के लिये प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की देखरेख करनी चाहिये।
- पुलिस अकादमियों को सार्वजनिक संपर्क और सीमांत समुदायों के प्रति संवेदनशीलता में सुधार लाने के लिये सॉफ्ट स्किल प्रशिक्षण को शामिल करना चाहिये।
- उन्नत अपराध विज्ञान और फोरेंसिक पाठ्यक्रमों के लिये छात्रवृत्ति के माध्यम से पुलिसिंग में उच्च शिक्षा एवं विशेषज्ञता को प्रोत्साहित करने से पेशेवर मानकों में सुधार हो सकता है।
- CBI, NIA और IB के साथ क्रॉस-एजेंसी प्रशिक्षण से राज्य पुलिस को अपनी आतंकवाद-रोधी एवं खुफिया जानकारी जुटाने की क्षमता में सुधार करने में मदद मिल सकती है।
निष्कर्ष:
भारत के पुलिस संकट को शमन करने की दिशा में दक्षता और सार्वजनिक विश्वास सुनिश्चित करने के लिये तत्काल संरचनात्मक सुधार, पर्याप्त भर्ती और गैर-राजनीतिकरण की आवश्यकता है। तकनीकी क्षमताओं को सुदृढ़ करना, प्रशिक्षण को आधुनिक बनाना और सामुदायिक पुलिस व्यवस्था को लागू करना कानून प्रवर्तन में अंतराल को समाप्त कर सकता है। लैंगिक समावेशिता, जवाबदेही तंत्र और स्वायत्तता एक जन-केंद्रित पुलिसिंग मॉडल के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. “भारत में पुलिस सुधार लंबे समय से लंबित आवश्यकता रही है, फिर भी राजनीतिक, प्रशासनिक और संरचनात्मक चुनौतियों के कारण कार्यान्वयन धीमा रहा है।” अधिक जवाबदेह और कुशल पुलिस प्रणाली सुनिश्चित करने के उपाय सुझाइये। |