वर्ष 2021 में भारत की विदेश नीति
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों को पूरा करने में वर्तमान की चुनौतियों और अवसरों के साथ इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
किसी भी अन्य देश की तरह ही भारत की विदेश नीति अपने प्रभाव क्षेत्र को व्यापक बनाने, सभी राष्ट्रों में अपनी भूमिका बढ़ाने और एक उभरती हुई शक्ति के रूप में अपने को स्थापित करने की परिकल्पना करती है। वर्ष 2021 विदेश नीति के उद्देश्यों को पूरा करने के लिये कई चुनौतियाँ और अवसर प्रस्तुत करता है। जैसे कि दक्षिण एशिया में एक बड़ी शक्ति के रूप में चीन का उदय और भारत के पड़ोसी देशों पर इसका बढ़ता प्रभाव भारत के लिये एक बड़ी चिंता का कारण है। इसके अतिरिक्त हाल ही में चीन तथा यूरोपीय संघ के बीच निवेश समझौते पर हुई चर्चाओं ने COVID-19 महामारी के बाद चीन के अलग-थलग पड़ने से जुड़े मिथक को भी समाप्त किया है, साथ ही इसने चीन की स्थिति को और अधिक मज़बूत किया है।
इसके अलावा अमेरिका के साथ बढ़ते समन्वय की तरह ही भारतीय विदेश नीति के कई निर्णयों ने रूस और ईरान जैसे पारंपरिक सहयोगियों के साथ इसके संबंधों को कमज़ोर किया है। ऐसे में क्षेत्र में शक्ति संतुलन के लिये भारत को विदेश नीति की चुनौतियों से निपटने के साथ उपलब्ध अवसरों का सावधानी पूर्वक लाभ उठाने की आवश्यकता है।
भारत के समक्ष चुनौतियाँ:
- एक मज़बूत चीन: चीन एकमात्र प्रमुख देश है जिसकी अर्थव्यवस्था में वर्ष 2020 के अंत में सकारात्मक वृद्धि दर देखने को मिली, साथ ही वर्ष 2021 में इसमें और भी तेज़ गति वृद्धि होने की उम्मीद है।
- सैन्य क्षेत्र में भी चीन ने स्वयं को मज़बूत किया है और हाल ही में वर्ष 2021 में अपने तीसरे विमान वाहक पोत को लॉन्च करने की घोषणा के साथ यह हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में अपने प्रभुत्व को मज़बूत करने की दिशा में बढ़ रहा है।
- इस संदर्भ में हालिया परिस्थितियों को देखते हुए चीन-भारत संबंधों में सुधार की संभावना बहुत कम है, इसके अतिरिक्त दोनों देशों के सशस्त्र बलों के बीच टकराव की स्थिति जारी रहने की उम्मीद है।
- चीन-रूस धुरी की प्रगति: हाल के वर्षों में रूस ने अपनी सीमा के अंदर के मामलों में अधिक रुचि दिखाई है। इसके अतिरिक्त वर्ष 2014 में क्रीमिया पर कब्ज़े के बाद रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों ने रूस को चीन के साथ अपने संबंधों को और अधिक मज़बूत करने के लिये प्रेरित किया है।
- यह भारत जैसे देशों में रूस की घटती अभिरुचि का संकेत जैसा प्रतीत होता है।
- साथ ही अमेरिका-भारत के बीच बढ़ती निकटता ने रूस और ईरान जैसे पारंपरिक सहयोगियों के साथ इनके संबंधों को कमज़ोर कर दिया है।
- मध्य-पूर्व के बदलते समीकरण: अमेरिका की मध्यस्थता के तहत इज़रायल और चार अरब देशों- यूएई, बहरीन, मोरक्को और सूडान के बीच संबंधों में सुधार का प्रयास इस क्षेत्र में बदलते समीकरण को परिलक्षित करता है।
- हालाँकि अब्राहम एकार्ड (Abraham Accord) से जुड़े प्रचार और अतिउत्साह के बावजूद यह क्षेत्र पूर्ण स्थिरता की स्थिति से अभी बहुत दूर है तथा इस समझौते ने ईरान एवं इज़रायल के बीच टकराव के जोखिम को कम नहीं किया है।
- इस क्षेत्र में रणनीतिक अनिश्चितता को देखते हुए ईरान अपनी स्थिति को मज़बूत करने हेतु परमाणु क्षमता का उपयोग करने के लिये प्रेरित हो सकता है।
- यह भारत के लिये गंभीर समस्या खड़ी कर सकता है क्योंकि भारत के लिये ईरान एवं इज़रायल दोनों के साथ संबंध बनाए रखना बहुत ही आवश्यक है।
- स्व-अधिरोपित अलगाव: वर्तमान में भारत दो महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय निकायों गुट निरपेक्ष आंदोलन (NAM) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) से अलग-थलग है, जिसका वह एक संस्थापक सदस्य हुआ करता था।
- इसके अतिरिक्त भारत ने ‘क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी’ (RCEP) समझौते से भी अलग रहने का विकल्प चुना है।
- हालाँकि यह स्व-अधिरोपित अलगाव भारत की एक वैश्विक शक्ति बनने की आकांक्षा के साथ तालमेल नहीं रखता है।
- पड़ोसी देशों के साथ कमज़ोर होते संबंध: अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों का कमज़ोर होना भारतीय विदेश नीति के लिये एक बड़ी चिंता का विषय रहा है।
- इसे श्रीलंका के संदर्भ में चीन की ‘चेकबुक कूटनीति’ (Chequebook Diplomacy), NRC के मुद्दे पर बांग्लादेश के साथ संबंधों में तनाव और नेपाल द्वारा नया मानचित्र जारी किये जाने के कारण दोनों देशों के बीच सीमा विवाद आदि के रूप में देखा जा सकता है।
आगे की राह:
- पड़ोस प्रथम या नेबरहुड फर्स्ट नीति: शृंखलाबद्ध कूटनीतिक प्रयासों के माध्यम से भारत को बांग्लादेश, म्याँमार और श्रीलंका जैसे अपने कुछ पड़ोसियों के साथ संबंधों को सुधारने का प्रयास करना चाहिये।
- जैसे-जैसे विश्व इस महामारी से उबर है, भारत को वर्ष 2021 में अपने पड़ोसियों के बीच वैक्सीन कूटनीति के माध्यम से एक मज़बूत बढ़त बनाने का अवसर प्राप्त हुआ है। इसके तहत भारत अपनी वैक्सीन उत्पादन क्षमता के माध्यम से पड़ोसी देशों को मुफ्त या वहनीय दरों पर वैक्सीन की आपूर्ति कर सकता है।
- पर्याप्त मात्रा में वाह्य सहयोग: चीन के साथ हालिया सैन्य गतिरोध ने वर्ष 1963 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा व्यक्त धारणा की पुष्टि की है कि भारत को "पर्याप्त मात्रा में बाहरी सहायता"(External Aid in Adequate Measure) की आवश्यकता है।
- इस संदर्भ में भारत को फ्राँस, जर्मनी और यूके जैसे यूरोपीय देशों के नेताओं के अलावा अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया से निरंतर समर्थन की आवश्यकता होगी।
- संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता: वर्तमान में जब भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में एक अस्थायी सदस्य के रूप में 8वीं बार अपने दो वर्षीय कार्यकाल की शुरुआत कर रहा है, ऐसे में इस मंच के माध्यम से भारत को तिब्बत से लेकर ताइवान तक चीन की आक्रामकता, ईरान-सऊदी प्रतिद्वंद्विता, बांग्लादेश और म्याँमार के बीच शरणार्थी संकट आदि जैसे सभी महत्त्वपूर्ण वैश्विक मामलों को उठाना चाहिये।
- भारत को केवल पाकिस्तान को अलग-थलग करने पर ही अपने ध्यान को सीमित करने से बचना चाहिये, क्योंकि यह भारत को वैश्विक नेतृत्व के रूप में स्वयं को स्थापित करने की उसकी आकांक्षा को विचलित कर सकता है।
- अमेरिका के साथ सहयोग: चूँकि क्वाड (QUAD) और हिंद-प्रशांत रणनीति (Indo-Pacific Strategy) का भविष्य अमेरिका के नए प्रशासन के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करेगा, ऐसे में भारत के लिये आवश्यक है कि अमेरिका के साथ प्रगाढ़ होते रणनीतिक और रक्षा संबंधों को मज़बूत करने के साथ ही व्यापार तथा वीज़ा मुद्दों को भी शीघ्र हल करे।
निष्कर्ष:
वर्तमान समय में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य की बदलती वास्तविकताओं के बीच यदि भारत मात्र एक आकांक्षी भागीदार के बजाय एक अंतर्राष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करना चाहता है तो उसे अपनी विदेश नीति के साथ सावधानी पूर्वक आगे बढ़ना होगा।
अभ्यास प्रश्न: वर्तमान समय में बदलती वैश्विक व्यवस्था के बीच एक मज़बूत अंतर्राष्ट्रीय शक्ति के रूप में स्वयं को स्थापित करने के लिये भारत को अपनी विदेश नीति के साथ सावधानी पूर्वक आगे बढ़ना होगा। टिप्पणी कीजिये।