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एडिटोरियल

  • 10 Apr, 2024
  • 31 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भारतीय सेना में तकनीकी

यह एडिटोरियल 09/04/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Marching ahead with technology absorption” लेख पर आधारित है। इसमें भारतीय रक्षा क्षेत्र के आधुनिकीकरण की तत्काल आवश्यकता की पड़ताल की गई है और इन पहलुओं पर विचार किया गया है कि आवश्यकताओं को सूक्ष्म तरीके से समझते हुए प्रौद्योगिकी के अवशोषण को बनाए रखने की चुनौती से कैसे निपटा जाए।

प्रिलिम्स के लिये:

रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO), अग्नि और पृथ्वी श्रृंखला की मिसाइलें, हल्के लड़ाकू विमान, तेजस, सैन्य मामलों का विभाग (DMA), एकीकृत निर्देशित मिसाइल विकास कार्यक्रम, S-400 वायु रक्षा प्रणाली, सुखोई-30 MKI विमान

मेन्स के लिये:

रक्षा क्षेत्र का स्वदेशीकरण, रक्षा क्षेत्र से संबंधित चुनौतियाँ, भारत के रक्षा क्षेत्र में तकनीकी दोहन।

भारतीय सेना वर्ष 2024 को ‘प्रौद्योगिकी अवशोषण वर्ष’ (Year of Technology Absorption) के रूप में मना रही है। सैन्य भाषा में अवशोषण (Absorption) का तात्पर्य मौजूदा संरचनाओं—जिन्हें विरासत प्रणाली (legacy systems) कहा जाता है, में प्रौद्योगिकियों के अधिग्रहण, अनुकूलन एवं एकीकरण (acquisition, adaptation and integration) से है। इस थीम का चयन स्वयं को रूपांतरित करने के लिये प्रौद्योगिकी के अवशोषण पर सेना के दृढ़ फोकस को रेखांकित करता है ताकि युद्ध के नए उभरते चरित्र के संदर्भ में शत्रुओं से बेहतर स्थिति में रहा जा सके। इस संबंध में साधन और साध्य की कल्पना आत्मनिर्भरता के दायरे में की जा रही है।

अनिश्चितता के इस युग में ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘मेक इन इंडिया’ के लक्ष्य अत्यंत आवश्यक आपूर्ति शृंखलाओं में व्यवधान या हेरफेर के कारण होने वाले जोखिमों को कम करेंगे। ये उस तरह की चुनौतियाँ हैं जिन्होंने यूक्रेन को रूस के साथ संघर्ष में कमज़ोर रखा है।

प्रौद्योगिकी का यह अवशोषण मुख्य रूप से विघटनकारी प्रौद्योगिकी (Disruptive Technology- DT) के संदर्भ में होगा जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), ड्रोन जैसी स्वायत्त हथियार प्रणालियाँ, सेंसर, रोबोटिक्स, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और हाइपरसोनिक हथियार प्रणालियाँ शामिल होंगी । अमेरिका और चीन सहित कई देशों ने DT के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं। भविष्य में रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा और संलग्नताएँ अनिवार्य रूप से इस बात से तय होंगी कि किसी राष्ट्र के पास इन प्रौद्योगिकियों को आत्मसात करने की कितनी क्षमता है।

Technological_Absorption_n_Military

रक्षा क्षेत्र में विघटनकारी प्रौद्योगिकी के विभिन्न पहलू:

  • परिचय:
    • विघटनकारी प्रौद्योगिकी उन नवाचारों को संदर्भित करती है जो उद्योगों या क्षेत्रों के मौजूदा परिदृश्य को महत्त्वपूर्ण रूप से बदल देते हैं, प्रायः पिछली प्रौद्योगिकियों को अप्रचलित बना देते हैं और पारंपरिक अभ्यासों को नया आकार प्रदान करते हैं।
    • रक्षा क्षेत्र में, विघटनकारी प्रौद्योगिकियों में युद्ध को व्यापक रूप से बदल देने, सैन्य क्षमताओं को पुनर्परिभाषित करने और राष्ट्रीय सुरक्षा की गतिशीलता को रूपांतरित कर देने की क्षमता है।
  • विशेषताएँ:
    • ‘गेम-चेंजिंग’ प्रभाव: DT में युद्ध-क्षेत्र में शक्ति संतुलन को उल्लेखनीय रूप से बदल देने वाली नवीन क्षमताओं या दृष्टिकोणों के प्रवेश के माध्यम से युद्ध के तरीके को व्यापक रूप से रूपांतरित कर देने की क्षमता है।
    • द्रुत प्रगति: वे प्रायः AI, रोबोटिक्स, साइबर सुरक्षा, नैनो टेक्नोलॉजी और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में द्रुत प्रगति से उभरते हैं, जिससे सैन्य क्षमताओं में तेज़ी से सुधार होता है।
    • लागत-दक्षता: विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ पारंपरिक प्रणालियों की तुलना में लागत-प्रभावी समाधान प्रदान कर सकती हैं, जो सेनाओं को कम संसाधनों के साथ अधिक प्रभावशीलता प्राप्त करने में सक्षम बनाती हैं।
  • विघटनकारी प्रौद्योगिकियों के उदाहरण:
    • मानवरहित हवाई वाहन (Unmanned Aerial Vehicles- UAVs): UAVs, जिन्हें आमतौर पर ड्रोन के रूप में जाना जाता है, ने सैन्य टोही, निगरानी और हमला क्षमताओं में क्रांति ला दी है। वे त्वरित रूप से खुफिया जानकारी एकत्र करने, सटीक लक्ष्यीकरण और परिचालन लचीलेपन में सक्षम बनाते हैं, जिससे सैन्य रणनीतियों एवं चालों का रूपांतरण हो रहा है।
    • साइबर युद्ध (Cyber Warfare): साइबर युद्ध में शत्रुओं की प्रणालियों और आधारभूत संरचना को बाधित करने, अक्षम करने या उन्हें क्षति पहुँचाने के लिये कंप्यूटर नेटवर्क का उपयोग करना शामिल है। साइबर हमले महत्त्वपूर्ण अवसंरचना, संचार नेटवर्क और कमांड-एंड-कंट्रोल सिस्टम को लक्षित कर सकते हैं, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।
    • हाइपरसोनिक हथियार (Hypersonic Weapons): हाइपरसोनिक हथियार मैक 5 (Mach 5) से अधिक गति से यात्रा करते हैं, जिससे उन्हें रोकना अत्यंत कठिन हो जाता है और वे दूरस्थ लक्ष्यों के विरुद्ध द्रुत गति से हमला करने की क्षमता प्रदान करते हैं। इन हथियारों में प्रतिक्रिया समय को कम कर और परिचालन लचीलेपन को बढ़ाकर पारंपरिक युद्ध के समीकरण को बदल देने की क्षमता है।
  • सैन्य अभियानों पर प्रभाव:
    • उन्नत स्थितिजन्य जागरूकता: उन्नत सेंसर, डेटा एनालिटिक्स और AI जैसी विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ सेना की स्थितिजन्य जागरूकता में सुधार करती हैं, जिससे सैन्य कमांडरों को वास्तविक समय में सूचित निर्णय लेने और गतिशील युद्धक्षेत्र दशाओं के अनुकूल बनने की सक्षमता प्राप्त होती है।
    • परिशुद्धता और घातकता: विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ परिशुद्धता-निर्देशित युद्ध सामग्री (precision-guided munitions), स्वायत्त प्रणाली और उन्नत लक्ष्यीकरण क्षमता प्रदान करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सैन्य संचालन में अधिक सटीकता एवं घातकता प्राप्त होती है जबकि संपार्श्विक क्षति कम हो जाती है।
    • असममित युद्ध: विघटनकारी प्रौद्योगिकियाँ छोटे लेकिन प्रौद्योगिकीय रूप से उन्नत सैन्य बलों को साइबर हमले, ड्रोन स्वार्म (drone swarms) और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सहित विभिन्न असममित युद्ध रणनीतियों के माध्यम से पारंपरिक सैन्य शक्तियों को चुनौती देने में सक्षम बनाती हैं।

रक्षा क्षेत्र के आधुनिकीकरण में ‘आत्मनिर्भर भारत’ की प्रासंगिकता: 

  • परिचय:
    • भारत उन कुछ देशों में से एक है जिसने चौथी पीढ़ी के लड़ाकू विमान, परमाणु पनडुब्बी, सफल सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल (SAM) प्रणाली, मुख्य युद्धक टैंक (MBT), एक ICBM और एक स्वदेशी बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा प्रणाली का डिज़ाइन निर्माण एवं उत्पादन किया है।
      • ऐसी उच्च-स्तरीय क्षमताओं के प्रदर्शन के बावजूद रक्षा अधिग्रहण बजट का 50% से अधिक प्रत्यक्ष रूप से आयात की ओर जाता है।
    • अन्य 50% (जो भारतीय विक्रेताओं को जाता है) में से 60% हथियार प्रणाली में आयातित घटकों के उपयोग के कारण अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों को जाता है। मेक-इन-इंडिया कार्यक्रम और आत्मनिर्भर भारत को ध्यान में रखते हुए रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (DAP)- 2020 शुरू की गई थी।
      • यह यात्रा ‘सेल्फ-सफिशियेंट’ से ‘सेल्फ-रिलायंट’, फिर ‘को-प्रोडक्शन’ से ‘प्राइवेट सेक्टर पार्टिसिपेशन’ से ‘मेक इन इंडिया’ की ओर आगे बढ़ती हुई अंततः ‘आत्मनिर्भर भारत’ तक पहुँची है।
  • रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया (Defence Acquisition Procedure- DAP)- 2020:
    • रक्षा अधिग्रहण प्रक्रिया- 2020 ने खरीद अनुबंधों में 50% स्वदेशी सामग्री (indigenous content- IC) निर्धारित की है। भारत में रखरखाव और विनिर्माण सुविधाएँ स्थापित करने के लिये विदेशी मूल उपकरण निर्माताओं (OEMs) को प्रोत्साहित करने के लिये एक नई खरीद श्रेणी— Buy (Global-Manufacture in India) — शुरू की गई है।
    • इससे स्पेयर पार्ट्स का आरंभिक स्वदेशीकरण संभव हो सकेगा। रक्षा मंत्रालय (MoD) ने विभिन्न ‘सकारात्मक स्वदेशीकरण सूचियाँ’ (Positive Indigenisation Lists) जारी की हैं जिनमें उन वस्तुओं का उल्लेख है जिन्हें केवल घरेलू स्रोतों से खरीदा जाना चाहिये। 
      • रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों (DPSUs) द्वारा लगभग 5,000 वस्तुओं का आयात किया जाता है और तीनों सेनाएँ इस सूची में शामिल हैं।
  • रक्षा क्षेत्र में मेक-इन-इंडिया: ‘मेक इन इंडिया’ के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए और ‘सैन्य क्षमता शून्यता’ (Military Capability Voids) को पूरा करने के लिये पूंजी अधिग्रहण के स्रोत को मोटे तौर पर ‘भारतीय’ या ‘गैर-भारतीय’ में वर्गीकृत किया गया है।
    • भारतीय: किसी उत्पाद को ‘भारतीय’ के रूप में वर्गीकृत करने और ‘मेक इन इंडिया’ के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिये विक्रेता और उसकी हथियार प्रणाली को निम्नलिखित में से एक या सभी शर्त की पूर्ति करनी होगी: 
      • प्रोडक्शन लाइन भारत में स्थापित हो।
      • प्रौद्योगिकी का स्वामित्व एक भारतीय फर्म के पास हो।
      • भारतीयों के लिये रोज़गार सृजन किया जाता हो।
      • करों का भुगतान भारत सरकार को किया जाता हो।
      • आपूर्ति शृंखला प्रबंधन भारत में स्थापित किया गया हो।
      • बाज़ार में एक ‘भारतीय ब्रांड’ के रूप में आता हो।
      • ‘भारतीय’ वर्गीकरण से खरीद की प्राथमिकता इस तरह हो सकती है: -
        • प्राथमिकता- I: भारत में अभिकल्पित, विकसित और विनिर्मित; या
        • प्राथमिकता- II: भारत में विकसित और विनिर्मित; या
        • प्राथमिकता- III: भारत में अधिग्रहित और विनिर्मित; या
        • प्राथमिकता- IV: एक विदेशी विक्रेता के साथ साझेदारी, लेकिन भारत में विनिर्मित।
      • ‘भारतीय’ श्रेणी के अंतर्गत उपर्युक्त सभी ‘मेक इन इंडिया’ के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को पूरा करेंगे और रक्षा उत्पादन विभाग द्वारा इसका विश्लेषण एवं प्रमाणन किया जाना चाहिये।
    • गैर-भारतीय: जो उपकरण ‘मेक इन इंडिया’ के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को पूरा नहीं करते हैं, उन्हें ‘गैर-भारतीय’ के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिये, जहाँ न तो प्रौद्योगिकी भारत में आती है और न ही विनिर्माण लाइन भारत में स्थापित की जाती है: 
      • क्षमता प्रदान करने के लिये भारत में एक अस्थायी विनिर्माण लाइन, या
      • एक विदेशी विक्रेता से प्रत्यक्ष आयात।

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रक्षा क्षेत्र में विभिन्न प्रौद्योगिकी:

  • सह-विकास और सह-उत्पादन:
    • अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी प्रेरण एवं अवशोषण में सह-विकास और सह-उत्पादन को एक अत्यंत प्रभावी तंत्र के रूप में देखा जाता है। संयुक्त विकास कार्यक्रमों में ऐसी प्रौद्योगिकी तक पहुँच अत्यंत कम लागत एवं समय में प्राप्त की जाती है जिसे व्यक्तिगत रूप से भागीदार कंपनियाँ या देश विकसित नहीं कर सकते थे।
  • उप-अनुबंधीकरण/अनुबंध विनिर्माण:
    • उप-अनुबंधीकरण/अनुबंध विनिर्माण (Sub-Contracting/Contract Manufacturing) तब होता है जब एक विदेशी विक्रेता निर्यात के लिये उन देशों के उद्योगों से रक्षा-संबंधी घटकों, उप-प्रणालियों या उत्पादों की खरीद करता है जहाँ विक्रेता को ऑफसेट दायित्वों को पूरा करना होता है।
  • संयुक्त उपक्रम:
    • संयुक्त उद्यमों (Joint Ventures- JVs) की स्थापना के माध्यम से प्रौद्योगिकी प्रवाह प्रभावित हो सकता है। हालाँकि, संयुक्त उद्यम की सफलता को प्रभावित करने वाला निवेश स्तर एक महत्त्वपूर्ण कारक बना हुआ है।
    • 26% तक सीमित विदेशी इक्विटी भागीदारी वाले संयुक्त उद्यम में, मूल उपकरण निर्माता (OEMs) सहयोगी भागीदारों को अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी लाने से रोक सकते हैं क्योंकि वे अपनी बौद्धिक संपदा की रक्षा करते हैं। 
  • लाइसेंस प्राप्त उत्पादन:
    • प्रौद्योगिकी के अवशोषण में सक्षम स्थानीय रक्षा उद्योग को प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण (Transfer of Technology- ToT), जहाँ आपूर्तिकर्ता और प्राप्तकर्ता दोनों सक्षम संगठन हैं, यदि सच्ची भावना से लागू हो तो स्थानीय उद्योग प्रौद्योगिकी को आगे और विकसित करने में सक्षम होगा तथा इसके परिणामस्वरूप मौजूदा प्रौद्योगिकी अंतराल को तेज़ी से दूर किया जा सकेगा।
  • रखरखाव ToT और प्रशिक्षण:
    • दीर्घकालिक ग्राहक सहायता गतिविधियाँ अनिवार्य हो गई हैं। प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लागू स्तर के माध्यम से सिस्टम के रखरखाव में स्थानीय औद्योगिक भागीदारों और उपयोगकर्ता एजेंसियों का प्रशिक्षण प्रभावी एवं प्रतिबद्ध रखरखाव समर्थन सुनिश्चित करता है। साझेदारी के आधार पर MRO (Maintenance Repair and Overhaul) सुविधा की स्थापना इस उद्देश्य को प्राप्त करने का एक विकल्प हो सकता है।

रक्षा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के दोहन से संबद्ध विभिन्न चुनौतियाँ:

  • अनुसंधान एवं विकास व्यय का निम्न स्तर:
    • रक्षा अनुसंधान एवं विकास (R&D) पर भारत के ध्यान की कमी और समग्र शोधकर्ता के निम्न घनत्व के परिणामस्वरूप भारत अब तक किसी भी महत्त्वपूर्ण सैन्य प्रौद्योगिकी या हथियार प्रणाली को विकसित करने में असमर्थ रहा है तथा विश्व में सैन्य उपकरणों के सबसे बड़े आयातक देशों में से एक बना हुआ है।
      • भारत समस्त अनुसंधान एवं विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का महज 0.8% खर्च करता है और यहाँ प्रति मिलियन जनसंख्या पर 156 शोधकर्ता ही मौजूद हैं। इसकी तुलना में संयुक्त राज्य अमेरिका R&D पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.8% खर्च करता है और वहाँ प्रति मिलियन जनसंख्या पर 4231 शोधकर्ता मौजूद हैं। इसी प्रकार, चीन सकल घरेलू उत्पाद का 2.0% खर्च करता है और वहाँ प्रति मिलियन जनसंख्या पर 1113 शोधकर्ता पाए जाते हैं, जबकि इज़राइल R&D पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 4.8% खर्च करता है और वहाँ प्रति मिलियन जनसंख्या पर 8255 शोधकर्ता मौजूद हैं।
  • अप्रभावी प्रासंगिकता और प्रौद्योगिकी की गहराई:
    • विक्रेता (DAP-2020 के तहत) ऐसे प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की पेशकश कर सकता है जो खरीदे जाने वाले उत्पाद या प्रणाली से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित नहीं हैं। इसलिये, विदेशी विक्रेताओं के प्रस्तावों के सतर्क एवं गहन जाँच की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पेश की जा रही प्रौद्योगिकी वर्तमान और भविष्य के रक्षा अनुप्रयोगों के लिये प्रासंगिक हो।
  • लाइसेंसिंग संबंधी मुद्दे:
    • प्रायः यह पाया जाता है कि प्रौद्योगिकी विशेष विदेशी सरकार की मंज़ूरी के अधीन होती है और इसलिये नवीनतम प्रौद्योगिकी प्राप्त करना कठिन हो जाता है। अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के कई क्षेत्रों में विदेशी आपूर्तिकर्ता पेटेंट, बौद्धिक संपदा अधिकार (IPRs) आदि का हवाला देते हुए अपनी प्रौद्योगिकियाँ सौंपने को तैयार नहीं होते या इसके लिये भारी कीमतें तय कर सकते हैं।
    • यहाँ तक कि ऐसे मामलों में भी जहाँ आपूर्तिकर्ता एक कीमत पर प्रौद्योगिकी बेचने को तैयार होते हैं, उनकी संबंधित सरकारें अपने संबंधित निर्यात नियंत्रण शासन के तहत इसकी अनुमति नहीं देती हैं।
  • गुणक कारक के निर्धारण के संबंध में चिंताएँ:
    • चूँकि प्रौद्योगिकी अवशोषण ऑफसेट समझौते का एक प्रमुख घटक बन जाता है, इसलिये आवश्यक प्रौद्योगिकी को स्थानांतरित करने के इच्छुक विदेशी आपूर्तिकर्ता को बढ़ावा देने और प्रेरित करने के लिये, यदि आवश्यक हो तो उपयुक्त गुणक कारकों पर कार्य करने की आवश्यकता पड़ सकती है।
    • प्रौद्योगिकी पर सहमत मूल्य प्रायः R&D में विदेशी आपूर्तिकर्ता के पूर्व निवेश, प्रौद्योगिकी के बाज़ार मूल्य या भारत में प्रौद्योगिकी विकसित करने की लागत पर आधारित होता है, जो इसे असंगत रूप से महंगा बनाता है।
  • साइबर सुरक्षा की कमज़ोरियाँ:
    • रक्षा क्षेत्र में डिजिटल प्रौद्योगिकियों और नेटवर्क सिस्टम पर बढ़ती निर्भरता इसे विभिन्न साइबर खतरों एवं हमलों के प्रति संवेदनशील बनाती है। सुदृढ़ साइबर सुरक्षा ढाँचे, घटना प्रतिक्रिया तंत्र और बढ़ते साइबर जोखिमों के शमन के लिये तैयारियों का अभाव चुनौतियाँ बढ़ा सकता है।
  • प्रौद्योगिकीय अप्रचलन (Technological Obsolescence):
    • भारतीय सेना द्वारा उपयोग किये जाने वाले उपकरण और प्लेटफ़ॉर्म सुदीर्घ सेवा जीवन रखते हैं, जिसके परिणामस्वरूप तेज़ी से विकसित हो रहे तकनीकी परिदृश्य के साथ मेल नहीं खाते हैं। आधुनिकीकरण और उन्नयन कार्यक्रमों में देरी के कारण सशस्त्र बल पुरानी या अप्रचलित होती जा रही प्रणालियों के साथ कार्य कर रहे हैं।
      • कमज़ोर उद्योग-अकादमिक संबंध और विदेशी सहयोग से प्राप्त सीमित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकियों के विकास में बाधक है।
  • प्रौद्योगिकी— युद्ध का एकमात्र निर्धारक नहीं:
    • नई प्रौद्योगिकियों के कारण सैन्य क्रांति का सुझाव देने वाले विश्लेषकों का तर्क है कि आधुनिक युद्धक्षेत्र अधिक घातक हैं। हालाँकि, रूस-यूक्रेन और आर्मेनिया-अज़रबैजान (नागोर्नो-काराबाख) जैसे हालिया संघर्षों से पता चलता है कि अनुभव की गई वास्तविक घातकता पहले के युद्धों से बहुत अलग नहीं है। यह इंगित करता है कि यद्यपि प्रौद्योगिकीय प्रगति महत्त्वपूर्ण है, लेकिन वे युद्ध में परिणाम निर्धारित करने वाले एकमात्र कारक नहीं हैं।

सुचारू प्रौद्योगिकी दोहन सुनिश्चित करने के लिये सुझाव:

  • प्रौद्योगिकीय, परिचालनात्मक और सामरिक अनुकूलन:
    • युद्धों में तकनीकी प्रतिकारी उपाय किसी शत्रु द्वारा नियोजित नवीन प्रौद्योगिकी-सक्षम हथियारों के प्रदर्शन को तुरंत सीमित कर देते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण अनुकूलन प्रायः तकनीकी नहीं, बल्कि परिचालनात्मक और सामरिक होते हैं, यानी, इस पर निर्भर करती है कि कोई सेना विभिन्न स्तरों पर किस प्रकार मुक़ाबला करती है। इनमें सेनाओं द्वारा अपने पास मौजूद उपकरणों के इस्तेमाल के तरीके में बदलाव लाना शामिल है।
    • वर्तमान युद्ध स्थितियों में, टैंक जैसे हथियार प्लेटफॉर्मों को अधिक उत्तरजीवी बनने के लिये अनुकूलित होना चाहिये। इसके लिये रणनीति में बदलाव और विभिन्न प्रकार की क्षमताओं के व्यापक एकीकरण की आवश्यकता होगी। युद्ध-क्षेत्र में भारी मात्रा में सेंसर के नियोजन के साथ इन टैंकों को छिपाना लगभग असंभव हो गया है।
  • पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ प्रौद्योगिकीय प्रगति का उपयोग:
    • पूर्णतः डिजिटल समाधानों के पक्ष में पारंपरिक प्लेटफॉर्मों को त्यागने के बजाय प्रौद्योगिकी और इसकी विशेषताओं को भविष्य की योजनाओं के लिये योजना के केंद्र में रखने की आवश्यकता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया होगी जो भेद्यताओं और संवेदनशीलताओं तथा उनके बीच के अंतर को स्वीकार करने के साथ शुरू होगी।
    • युद्ध के मैदान में यूक्रेन पर रूस का पलड़ा भारी होने के पीछे एक कारण यह माना जा रहा है कि रूसी सेना द्वारा युद्ध लड़ने के पारंपरिक तरीकों को अपनाया गया है। पारंपरिक रक्षा लाइनों को मज़बूत करने और प्रौद्योगिकीय प्रगति पर निर्भर एक सुदृढ़ सैन्य औद्योगिक आधार बनाए रखने जैसे पहलू अंततः अधिक मायने रखते हैं।
  • नवीनतम प्रौद्योगिकियों की क्षमता को समझना:
    • नवीनतम प्रौद्योगिकियों, उनकी क्षमता और जिस संदर्भ में उनका उपयोग किया जा सकता है, की समझ होना आवश्यक है। प्रौद्योगिकी अवशोषण को इकाई स्तरों पर स्पष्ट रूप से स्वयं को प्रतिबिंबित करना होगा, न कि केवल उच्च स्तरों पर उन्हें नियंत्रित करने तक सीमित रहें। अत्याधुनिक स्तरों पर प्रौद्योगिकी को नियोजित करने का यह लोकतंत्रीकरण सच्चे परिवर्तन की शुरूआत के लिये अनिवार्य है।
  • प्रौद्योगिकी अवशोषण में आवश्यक रूप से कई पहलू शामिल हैं:
    • प्रौद्योगिकी अवशोषण में आवश्यक रूप से कई प्रासंगिक पहलू शामिल होंगे जैसे कि संगठनात्मक पुनर्गठन, मानव संसाधनों का प्रबंधन एवं विशेषज्ञों का संपोषण (न केवल उच्च स्तर पर बल्कि निष्पादन स्तरों पर विकेंद्रीकृत रूप में), असैन्य एवं सैन्य का संलयन, डेटा अखंडता सुनिश्चित करने के लिये एक संरचना एवं नीतियों का होना और एक ऐसी खरीद नीति का होना जो विघटनकारी प्रौद्योगिकियों पर लागू हो।
  • iDEX और DISC की क्षमता का दोहन:
    • सरकार द्वारा हाल ही में कुछ अत्यंत व्यावहारिक पहलें की गई हैं, जैसे कि iDEX (innovation for Defence Excellence) और DISC (Defence India Start-up Challenge), जो नवाचार पारितंत्र को सुदृढ़ करेंगे। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य सशस्त्र बलों के लिये उत्पाद विकसित करने और देश के भीतर उपलब्ध प्रतिभा का दोहन करने के लिये वृहत भारतीय स्टार्ट-अप पारितंत्र में उपलब्ध क्षमताओं को लामबंद करना है।

निष्कर्ष:

रक्षा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के सफल अवशोषण के लिये एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो न केवल प्रौद्योगिकीय चुनौतियों को बल्कि संगठनात्मक, मानव संसाधन संबंधी और नीति संबंधी पहलुओं को भी संबोधित करे। संगठनात्मक पुनर्गठन, मानव संसाधन प्रबंधन, विशेषज्ञता के विकेंद्रीकरण, असैन्य एवं सैन्य का संलयन, डेटा अखंडता सुनिश्चित करने और विघटनकारी प्रौद्योगिकियों के लिये उपयुक्त खरीद नीतियों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना महत्त्वपूर्ण है। रक्षा प्रतिष्ठान इन स्थूल स्तर के पहलुओं को संबोधित कर नई प्रौद्योगिकियों को प्रभावी ढंग से अवशोषित एवं एकीकृत कर सकते हैं, जिससे उभरते सुरक्षा परिदृश्य में उनकी क्षमताओं एवं पूर्व-तैयारी/तत्परता में वृद्धि हो सकती है।

अभ्यास प्रश्न: रक्षा क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के उपयोग के आधुनिक युद्ध तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर संभावित प्रभावों की चर्चा कीजिये। भारत इन प्रगतियों का किस प्रकार प्रभावी ढंग से लाभ उठा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा 'INS अस्त्रधारिणी' का सबसे अच्छा विवरण है, जो हाल ही में खबरों में था? (2016)

 (A) उभयचर युद्ध पोत
(B) परमाणु संचालित पनडुब्बी
(C) टॉरपीडो लॉन्च और रिकवरी वेसल
(D) परमाणु संचालित विमान वाहक

 उत्तर: (C) 


प्रश्न 3. हिंद महासागर नौसेना परिसंवाद (सिम्पोज़ियम) (IONS) के संबंध में निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2017) 

  1. प्रारंभी (इनाॅगुरल) IONS भारत में 2015 में भारतीय नौसेना की अध्यक्षता में हुआ था।
  2.  IONS एक स्वैच्छिक पहल है जो हिंद महासागर क्षेत्र के समुद्रतटवर्ती देशों (स्टेट्स) की नौसेनाओं के बीच समुद्री सहयोग को बढ़ाना चाहता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर:(b)


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