भारतीय राजव्यवस्था
कॉलेजियम प्रणाली की जटिलताएँ
यह एडिटोरियल 07/12/2024 को द हिंदू में प्रकाशित “The Collegium and changes — it may still be early days” पर आधारित है। यह लेख भारत की कॉलेजियम प्रणाली की जटिलताओं का उल्लेख करता है, जिसमें अस्पष्टता, सरकारी विलंब और उत्तरदायित्व के साथ स्वायत्तता को संतुलित करने की चुनौती से जूझते हुए न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के इसके प्रयासों पर प्रकाश डाला गया है।
प्रिलिम्स के लिये:भारत की कॉलेजियम प्रणाली, सर्वोच्च न्यायालय, भारत के मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रपति, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, 99वाँ संविधान संशोधन अधिनियम- 2014, संविधान की आधारभूत संरचना, पुत्तास्वामी मामला, विधि का शासन सूचकांक मेन्स के लिये:भारत में कॉलेजियम प्रणाली के प्रमुख लाभ, भारत में कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे। |
न्यायिक व्याख्या से उत्पन्न हुई भारत की कॉलेजियम प्रणाली उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये तंत्र के रूप में स्थापित है। साक्षात्कार आयोजित करने और वंशवाद को सीमित करने जैसे हाल के सुधार आशाजनक हैं, लेकिन सरकारी विलंब और औपचारिक बाध्यकारी नियमों की कमी के कारण इस प्रणाली को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यद्यपि इसे न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये तैयार किया गया था, लेकिन नामांकन स्थगित करने की सरकार की शक्ति और इसके संचालन की अपारदर्शिता ने एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जहाँ सैद्धांतिक महत्त्व और वास्तविक दुनिया की सीमाएँ आपस में टकराती हैं। फिर भी न्यायिक स्वायत्तता और जवाबदेही के बीच यह नाजुक संतुलन एक महत्त्वपूर्ण सांविधानिक चुनौती बना हुआ है, भले ही प्रणाली वृद्धिशील सुधारों के माध्यम से विकसित होने का प्रयास कर रही हो।
कॉलेजियम प्रणाली क्या है?
- कॉलेजियम प्रणाली के संदर्भ में: कॉलेजियम प्रणाली भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण के तंत्र को संदर्भित करती है।
- संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के माध्यम से इसका विकास हुआ है।
- संघटन:
- सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम: इसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- उच्च न्यायालय कॉलेजियम: इसका नेतृत्व उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उसके दो वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
- न्यायिक नियुक्तियों के लिये संवैधानिक प्रावधान
- अनुच्छेद 124: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा, आवश्यकतानुसार मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है।
- अनुच्छेद 217: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।
- सरकार की भूमिका: सरकार आपत्ति उठा सकती है या स्पष्टीकरण मांग सकती है।
- हालाँकि, यदि कॉलेजियम अपनी अनुशंसाओं को दोहराती है, तो सरकार उनका अनुपालन करने के लिये बाध्य है।
- कॉलेजियम प्रणाली का विकास
- प्रथम न्यायाधीश केस (वर्ष 1981): निर्णय दिया गया कि मुख्य न्यायाधीश के साथ "परामर्श" का अर्थ "सहमति" नहीं है।
- न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता दी गई।
- द्वितीय न्यायाधीश मामला (वर्ष 1993): प्रथम न्यायाधीश मामले को पलट दिया गया। "परामर्श" को "सहमति" के रूप में पुनः परिभाषित किया गया, जिससे मुख्य न्यायाधीश को प्राथमिक भूमिका दी गई।
- कॉलेजियम की अवधारणा प्रस्तुत की गई, जिसके तहत मुख्य न्यायाधीश को दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करना आवश्यक हो गया।
- तृतीय न्यायाधीश मामला (वर्ष 1998): मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल करने के लिये कॉलेजियम का विस्तार किया गया।
- उन्होंने कहा कि दो कॉलेजियम सदस्यों की असहमति भी किसी अनुशंसा को रोक सकती है।
- प्रथम न्यायाधीश केस (वर्ष 1981): निर्णय दिया गया कि मुख्य न्यायाधीश के साथ "परामर्श" का अर्थ "सहमति" नहीं है।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC): कॉलेजियम प्रणाली को प्रतिस्थापित करने के लिये 99वाँ संविधान संशोधन अधिनियम- 2014 के माध्यम से प्रस्तावित किया गया।
- इसमें शामिल थे: मुख्य न्यायाधीश (अध्यक्ष), सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, विधि एवं न्याय मंत्री और दो प्रख्यात/विशिष्ट व्यक्ति।
- वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक स्वतंत्रता और संविधान के आधारभूत संरचना के उल्लंघन का हवाला देते हुए इसे रद्द कर दिया था।
- प्रक्रिया ज्ञापन (MoP): यह न्यायिक नियुक्तियों के लिये प्रक्रियाओं की रूपरेखा तैयार करने वाला एक कार्यढाँचा है, जिसे सरकार और न्यायपालिका द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया जाता है।
- पारदर्शिता बढ़ाने के लिये वर्ष 2015 में संशोधित MoP की मांग की गई थी, लेकिन इसका समाधान नहीं हो सका।
भारत में कॉलेजियम प्रणाली के प्रमुख लाभ क्या हैं?
- न्यायिक स्वतंत्रता: कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को कार्यपालिका (अनुच्छेद 50 के तहत न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करना) या विधायी हस्तक्षेप से मुक्त रखकर न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
- यह स्वायत्तता न्यायपालिका की एक प्रति-बहुसंख्यकवादी संस्था के रूप में कार्य करने की क्षमता की रक्षा करती है, तथा संवैधानिक मूल्यों एवं मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है।
- इसके अलावा, सरकार अधिकांश मामलों में वादी है, इसलिये न्याय प्रदान करने में सरकार की भूमिका से न्याय से समझौता हो सकता है।
- हाल के निर्णय, जैसे कि चुनावी बंधपत्रों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला, एक ऐसी न्यायपालिका के महत्त्व को रेखांकित करता है जो राजनीतिक दबावों से मुक्त हो।
- चौथे न्यायाधीश मामले (वर्ष 2015) के अनुसार, कॉलेजियम की प्रधानता न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखने के लिये अभिन्न है, जो संविधान की आधारभूत संरचना की एक प्रमुख विशेषता है।
- विशेषज्ञता-संचालित चयन: कॉलेजियम प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि राजनेताओं या लोक सेवकों के बजाय न्यायाधीश ही नियुक्तियों का चयन करें, जिससे योग्यता और न्यायिक क्षमता को बढ़ावा मिलता है।
- यह सहकर्मी-संचालित चयन प्रक्रिया न्यायिक कौशल और निष्ठा वाले उम्मीदवारों का अभिनिर्धारण करने के लिये वरिष्ठ न्यायाधीशों के अनुभव का लाभ उठाती है।
- उदाहरण के लिये, संवैधानिक या वाणिज्यिक विधि के विशेषज्ञों को शामिल करने से न्यायपालिका की जटिल सांविधानिक चुनौतियों से निपटने की क्षमता सुदृढ़ होती है।
- इसके अतिरिक्त, क्रिप्टोकरेंसी विनियमन पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में गहन विधिक विशेषज्ञता की आवश्यकता थी, जो इस प्रणाली के लाभ को उजागर करती है।
- जनरंजकवाद से बचाव: कॉलेजियम प्रणाली जनरंजकवाद/लोकप्रियतावाद के विरुद्ध एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करती है, क्योंकि यह सुनिश्चित करती है कि न्यायिक नियुक्तियाँ क्षणिक सार्वजनिक दबावों से प्रभावित न हों।
- उदाहरण के लिये, पर्यावरण संरक्षण (जैसे: दिल्ली में पटाखों पर प्रतिबंध लगाना) या व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कायम रखने (जैसे: गोपनीयता पर पुत्तास्वामी मामला) पर सर्वोच्च न्यायालय का सक्रिय रुख इस निष्पक्षता को प्रदर्शित करता है।
- ये मामले संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षा में न्यायपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका की पुष्टि करते हैं।
- लचीलापन और जवाबदेही: कॉलेजियम प्रणाली, अपनी अनौपचारिक संरचना के साथ, उभरती न्यायिक आवश्यकताओं और चुनौतियों के अनुकूल होने के लिये लचीलापन प्रदान करती है।
- उच्च न्यायालय के उम्मीदवारों का साक्षात्कार लेने तथा वंशवाद से बचने के हाल के निर्णय, आलोचनाओं का समाधान करने तथा प्रक्रिया की विश्वसनीयता बढ़ाने के लक्ष्य को दर्शाते हैं।
- इस गतिशील दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप महत्त्वपूर्ण परीक्षण न्यायालय अनुभव वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है, जिससे न्यायिक विविधता में लंबे समय से चली आ रही कमी दूर हुई है।
- यह अनुकूलनशीलता यह सुनिश्चित करती है कि न्यायपालिका सामाजिक अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये विकसित हो।
भारत में कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- पारदर्शिता का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली की इसकी अपारदर्शी कार्यप्रणाली के लिये आलोचना की जाती है, जिसमें न्यायिक नियुक्तियों पर निर्णय प्रायः गोपनीय रहते हैं और इसमें जवाबदेही का अभाव होता है।
- चयन के लिये सार्वजनिक रूप से सुलभ मानदंडों का अभाव जनता के विश्वास को कमज़ोर करता है तथा पक्षपात को लेकर प्रश्न उठाता है।
- न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने स्वीकार किया कि “वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता, जवाबदेही और निष्पक्षता का अभाव है”।
- उदाहरण के लिये, न्यायमूर्ति संजय कुमार मिश्रा के विवादास्पद स्थानांतरण ने ऐसे निर्णयों के पीछे के औचित्य पर चिंताएँ उत्पन्न कर दीं।
- वैश्विक स्तर पर, भारत की न्यायपालिका विधि के शासन सूचकांक (वर्ष 2023) में 79वें स्थान पर है, जो इसकी सापेक्ष स्वतंत्रता को दर्शाता है। प्रस्तावों को ऑनलाइन प्रकाशित करने जैसे प्रयासों के बावजूद, खुलासे में असंगति बनी हुई है।
- वंशवाद और पक्षपात (अंकल जज सिंड्रोम): आलोचकों का तर्क है कि कॉलेजियम प्रणाली वंशवाद को बढ़ावा देती है, जिसमें कई न्यायाधीश मौजूदा या पूर्व न्यायाधीशों के रिश्तेदार होते हैं, जिसके कारण न्यायपालिका अभिजात्य और गैर-प्रतिनिधित्व वाली प्रतीत होती है।
- न्यायिक रिश्तेदारी वाले उम्मीदवारों को बाहर करने के हाल के कदमों का स्वागत किया गया है, लेकिन इनका क्रियान्वयन असंगत रूप से किया जा रहा है।
- वर्ष 2015 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उच्च न्यायालयों के लगभग 50% न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के 33% न्यायाधीश "न्यायपालिका के उच्च पदों" पर आसीन लोगों के परिवार के सदस्य थे, जिससे पहली पीढ़ी के वकीलों के लिये बाधाएँ उत्पन्न हो रही थीं।
- नियुक्तियों में कार्यपालिका द्वारा विलंब: कॉलेजियम की सर्वोच्चता के बावजूद, कार्यपालिका प्रायः इसकी अनुशंसाओं को मंज़ूरी देने में विलंब करती है, जिससे प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है और न्यायिक रिक्तियाँ उत्पन्न होती हैं।
- देश भर के उच्च न्यायालयों में 60 लाख से अधिक मामले लंबित हैं, तथा लंबे समय से सरकार की निष्क्रियता के कारण 30 प्रतिशत सीटें रिक्त हैं।
- उदाहरण के लिये, झारखंड के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति विद्युत रंजन सारंगी की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम की अनुशंसा को मंज़ूरी देने में सरकार द्वारा छह महीने के विलंब के परिणामस्वरूप न्यायाधीश को केवल 15 दिनों का कार्यकाल मिला।
- विविधता का अभाव: हाल के सुधारों के बावजूद, कॉलेजियम प्रणाली महिलाओं, सीमांत समुदायों और क्षेत्रीय पहचान के प्रतिनिधित्व के मुद्दों को हल करने में लापरवाह रही है।
- जनवरी 2024 तक, उच्च न्यायालय में केवल 13.4% और सर्वोच्च न्यायालय में 9.3% महिला न्यायाधीश थीं।
- इसी प्रकार, उच्च न्यायालय के 25% से भी कम न्यायाधीश अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं।
- न्यायिक लंबित मामले और अकुशलता: समय पर और सुसंगत नियुक्ति प्रक्रिया का अभाव लंबित मामलों की संख्या को बढ़ाता है, जिससे न्यायपालिका में जनता का विश्वास कम होता है।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय में लगभग 80,000 लंबित मामले न्याय तक पहुँच में बाधा डाल रहे हैं।
- न्यायिक अकुशलता के कारण भारत को प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 1.5% का नुकसान होता है, जिससे महत्त्वपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक सुधारों में विलंब होता है।
- यद्यपि कॉलेजियम का मानदंड योग्यता आधारित नियुक्तियाँ है, इसके संचालन में अकुशलताएँ इसके इच्छित लक्ष्यों के प्रतिकूल हैं।
भारत में न्यायिक नियुक्तियों में सुधार के लिये क्या उपाय अपनाए जा सकते हैं?
- कॉलेजियम प्रक्रियाओं का संहिताकरण: पारदर्शिता, स्थिरता और जवाबदेही लाने के लिये कॉलेजियम कार्यप्रणाली को एक औपचारिक संस्थागत कार्यढाँचे में संहिताबद्ध करना आवश्यक है।
- एक विस्तृत न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में उम्मीदवार के चयन, निर्णय लेने की समयसीमा और पात्रता के मानदंडों पर स्पष्ट दिशानिर्देश शामिल हो सकते हैं।
- इससे यह सुनिश्चित होगा कि साक्षात्कार और वंशवाद को हतोत्साहित करने के कदम जैसी हालिया प्रथाओं को संस्थागत रूप दिया जा सके।
- न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर ने प्रस्ताव दिया कि न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया के दौरान अनुभवी अधिवक्ताओं, न्यायविदों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों सहित "विशिष्ट व्यक्तियों" की एक सलाहकार समिति के परामर्श किया जाना चाहिये। जिसमें:
- कॉलेजियम उनकी राय पर बिना किसी बाध्यता के विचार करेगा।
- इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये, न्यायपालिका, सरकार, बार और शिक्षाविदों के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए एक सांविधिक खोज़ समिति को उम्मीदवारों के चयन में कॉलेजियम की सहायता करनी चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के लिये अलग-अलग समितियों की स्थापना की जानी चाहिये, जिनका नेतृत्व आदर्श रूप से एक सम्मानित सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाना चाहिये।
- एक विस्तृत न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में उम्मीदवार के चयन, निर्णय लेने की समयसीमा और पात्रता के मानदंडों पर स्पष्ट दिशानिर्देश शामिल हो सकते हैं।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुधार: सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के तहत न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रणाली को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की आवश्यकता है, ताकि नागरिकों को चयन प्रक्रिया के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।
- कॉलेजियम द्वारा नियुक्त संदिग्ध निष्ठा वाले न्यायाधीशों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति जैसे तरीकों से हटाया जाना चाहिये।
- "अंकल जज सिंड्रोम" के मुद्दे को उन उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति न करके हल किया जा सकता है जहाँ उनके रिश्तेदार प्रैक्टिस करते हैं।
- लंबित मामलों के निपटारे के लिये तदर्थ या अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति की जानी चाहिये।
- पक्षपात को रोकने की दिशा में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिये एक समान सेवानिवृत्ति लागू की जानी चाहिये, और मुख्य न्यायाधीशों के लिये न्यूनतम कार्यकाल निर्धारित किया जाना चाहिये। दक्षता के लिये न्यायालय प्रबंधन प्रथाओं में सुधार किया जाना चाहिये।
- सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से प्रत्येक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के लिये एक सचिवालय स्थापित करने को भी कहा है, जिसमें उसके कार्यों, कर्त्तव्यों और जिम्मेदारियों का विवरण दिया गया हो।
- नियुक्तियों के लिये प्रवर्तनीय समय-सीमा: कॉलेजियम की अनुशंसाओं पर कार्रवाई करने के लिये कार्यपालिका के लिये सख्त, प्रवर्तनीय समय-सीमा लागू करने से न्यायिक नियुक्तियों में होने वाली दीर्घकालिक विलंब की समस्या का समाधान हो सकेगा।
- सरकार द्वारा अनुशंसाओं को स्वीकृत करने या वापस करने के लिये एक वैधानिक समय-सीमा निर्धारित करने से रिक्तियों में कमी आ सकती है।
- नियुक्तियों में विविधता बढ़ाना: न्यायिक नियुक्तियों के भीतर एक सकारात्मक कार्रवाई ढाँचा महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य सीमांत समुदायों का बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकता है।
- उदाहरण के लिये, सर्वोच्च न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि उच्चतर न्यायालयों में कम से कम 25% न्यायाधीश महिलाएँ हों, जो सामाजिक जनसांख्यिकी को प्रतिबिंबित करता है।
- इस दृष्टिकोण से विविध आबादी की आवश्यकताओं के प्रति अधिक संवेदनशील न्यायपालिका बनाने में मदद मिल सकती है, जिससे न्याय प्रदान करने में जनता का विश्वास बढ़ेगा।
- कॉलेजियम निर्णयों में अधिक पारदर्शिता: उम्मीदवारों के चयन या अस्वीकृति के कारणों सहित कॉलेजियम चर्चाओं और निर्णयों के व्यापक रिकॉर्ड प्रकाशित करने से पारदर्शिता में सुधार हो सकता है।
- इस तरह के खुलासे से पक्षपात और वंशवाद के आरोपों का मुकाबला करने के साथ-साथ जनता का विश्वास भी बढ़ेगा।
- ब्रिटेन जैसे देश न्यायिक रिपोर्ट प्रकाशित करते हैं, जो पारदर्शिता के लिये मानक का काम करती हैं।
- भारत में भी इसी प्रकार की प्रथाएँ कॉलेजियम प्रणाली को अधिक जवाबदेह बना सकती हैं।
- प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन: उम्मीदवारों के लिये प्रदर्शन-आधारित मूल्यांकन के अंगीकरण से योग्यता-आधारित नियुक्तियाँ सुनिश्चित हो सकती हैं तथा क्षमता, ईमानदारी एवं न्यायिक स्वभाव को प्राथमिकता दी जा सकती है।
- इन मूल्यांकनों में दिये गए निर्णयों की संख्या, नवीन कानूनी व्याख्याएँ, तथा उनके निर्णयों में जनता का विश्वास जैसे मानदंडों पर विचार किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिये, सुदृढ़ ट्रैक रिकॉर्ड वाले ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिये वरीयता दी जा सकती है।
- दक्षता के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: योग्य उम्मीदवारों, प्रदर्शन मेट्रिक्स और न्यायिक रिक्तियों पर डेटा प्रबंधित करने के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जैसी प्रौद्योगिकी का उपयोग करने से निर्णय लेने की दक्षता में वृद्धि हो सकती है।
- AI उपकरण वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन सुनिश्चित कर सकते हैं, योग्यता और विविधता मैट्रिक्स के संयोजन के आधार पर सर्वोत्तम उम्मीदवारों का अभिनिर्धारण कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, सर्वोच्च न्यायालय के SUPACE AI टूल जैसी पायलट परियोजनाएँ न्यायपालिका की प्रौद्योगिकी को एकीकृत करने के उद्देश्य को दर्शाती हैं।
- ऐसी पहलों को न्यायिक नियुक्तियों तक विस्तारित करने से मानवीय पूर्वाग्रह और विलंब को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
कॉलेजियम प्रणाली ने न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालाँकि, इसकी पारदर्शिता की कमी, कार्यकारी विलंब और सीमित विविधता महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ पेश करती रहती है। प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने, लागू करने योग्य समयसीमाएँ शुरू करने और विविधता को बढ़ाने जैसे सुधार इन मुद्दों का हल दे सकते हैं। न्यायिक स्वायत्तता और जवाबदेही के बीच संतुलन कॉलेजियम प्रणाली के विकास के लिये आवश्यक है। अंततः, अधिक पारदर्शी, कुशल और समावेशी दृष्टिकोण न्यायपालिका को सुदृढ़ कर सकता है तथा जनता के विश्वास को पुनर्स्थापित कर सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति में भारत की कॉलेजियम प्रणाली की कार्यप्रणाली की विवेचना कीजिये। न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित करने में आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालिये |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |