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एडिटोरियल

  • 03 Sep, 2024
  • 25 min read
भारतीय राजव्यवस्था

न्यायिक नियुक्तियों में सुधार का आह्वान

यह एडिटोरियल 02/08/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “Reforming the process of judicial appointments” लेख पर आधारित है। इसमें भारत की कॉलेजियम प्रणाली पर जारी बहस पर विचार किया गया है, जहाँ इससे संबद्ध पारदर्शिता एवं जवाबदेही के मुद्दों को उजागर किया गया है। लेख में वर्ष 2015 में NJAC के विघटन के परिप्रेक्ष्य में सुधार लाने से जुड़ी कठिनाइयों की भी चर्चा की गई है।

प्रिलिम्स के लिये:

अनुच्छेद 124(2) और 217(1), राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, सर्वोच्च न्यायालय, प्रथम न्यायाधीश मामला, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, भारत का विधि आयोग, संसदीय स्थायी समिति, विभिन्न देशों में न्यायिक नियुक्ति तंत्र

मेन्स के लिये:

भारत में कॉलेजियम प्रणाली के पक्ष और विपक्ष में तर्क।

भारत में न्यायिक नियुक्तियों—जो अनुच्छेद 124(2) और 217(1) के संवैधानिक उपबंधों द्वारा शासित है, पर जारी बहस वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली (collegium system) की सीमाओं को रेखांकित करती है। न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिये अभिकल्पित किये जाने के बावजूद, इस प्रणाली की पारदर्शिता, जवाबदेही की कमी और भाई-भतीजावाद (nepotism) के प्रति संवेदनशीलता ने गंभीर आलोचनाएँ आमंत्रित की हैं। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC), जिसका उद्देश्य बहु-हितधारक दृष्टिकोण के माध्यम से इन चिंताओं को दूर करना था, दुर्भाग्य से वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया था।

यू.के., दक्षिण अफ्रीका और फ्राँस जैसे अन्य देशों में न्यायिक नियुक्ति प्रणालियों, जहाँ विभिन्न हितधारकों को संलग्न करने वाले आयोग मौजूद हैं, के परीक्षण से प्रकट होता है कि भारत को भी इसी तरह के मॉडल से लाभ मिल सकता है। सभी संबंधित पक्षों से प्राप्त सुझावों को शामिल करते हुए एक संशोधित NJAC का गठन न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन का निर्माण कर सकता है, जिससे नियुक्ति प्रक्रिया अधिक तेज़ और पारदर्शी बन सकती हैं। यह भारत में विलंबित न्याय की दीर्घकालिक समस्या को दूर करने और न्यायपालिका में आम लोगों के विश्वास की पुनर्बहाली में यह सहायक सिद्ध होगा।

कॉलेजियम प्रणाली समय के साथ किस प्रकार विकसित हुई है?

  • प्रथम न्यायाधीश मामला (First Judges Case), 1982: एस. पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (जिसे प्रथम न्यायाधीश मामले के रूप में भी जाना जाता है) मामले में सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने निर्णय दिया कि न्यायिक नियुक्तियों में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के साथ ‘परामर्श’ को ‘सहमति’ नहीं माना जा सकता, जिसका अर्थ यह है कि संविधान के अनुसार CJI की राय प्रधानता नहीं रखती है।
    • निर्णय में आगे स्पष्ट किया गया कि उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों के प्रस्ताव अनुच्छेद 217 में उल्लिखित चार संवैधानिक प्राधिकारों में से किसी के द्वारा भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं, न कि केवल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा।
    • इस निर्णय ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका के पक्ष में संतुलन स्थापित किया और यह अभ्यास अगले 12 वर्षों तक जारी रहा।
  • द्वितीय न्यायाधीश मामला (Second Judges Case), 1993: सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ मामले (जिसे द्वितीय न्यायाधीश मामले के रूप में भी जाना जाता है) में सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 7:2 के बहुमत से प्रथम न्यायाधीश मामले के निर्णय को निरस्त कर दिया।
    • न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्राथमिक भूमिका होनी चाहिये।
      • इसने ‘परामर्श’ का अर्थ ‘सहमति’ माना, जिससे कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना हुई।
    • यह प्रणाली न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में व्यक्तिगत राय के बजाय मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक राय पर निर्भर करती है।
  • तृतीय न्यायाधीश मामला (Third Judges Case), 1998: संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (Presidential reference) के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की पीठ ने द्वितीय न्यायाधीश मामले में लिये गए निर्णय की पुनः पुष्टि की।
    • न्यायालय ने कहा कि न्यायिक नियुक्तियों की अनुशंसा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से की जानी चाहिये।
    • इस निर्णय ने कॉलेजियम प्रणाली को दृढ़ता से स्थापित किया, जहाँ न्यायिक नियुक्तियों के मामलों में मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठ न्यायाधीशों की सामूहिक राय सरकार के लिये बाध्यकारी हो गई।
  • मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (Memorandum of Procedure- MoP): कॉलेजियम प्रणाली की तरह MoP भी एक न्यायिक नवाचार है, जिसे द्वितीय एवं तृतीय न्यायाधीश मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा तैयार किया गया है।
    • इसमें उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये अलग-अलग MoPs हैं।
    • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कॉलेजियम की कार्यवाही में पारदर्शिता बढ़ाने के लिये MoP को संशोधित करने का निर्देश दिया था।
      • हालाँकि, इसके कारण कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच MoP के कुछ प्रावधानों को लेकर एक वर्ष तक गतिरोध बना रहा।
      • सरकार द्वारा MoP के अनुपूरण के लिये प्रस्ताव भेजे गए हैं, जो वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।
  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC): NJAC का प्रस्ताव भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये गठित राष्ट्रीय आयोग (2002) की अनुशंसाओं पर किया गया था।
    • UPA सरकार ने वर्ष 2013 में NJAC विधेयक पेश किया था, लेकिन लोकसभा भंग होने के कारण यह विधेयक व्यपगत हो गया
    • NDA सरकार ने वर्ष 2014 में NJAC विधेयक को पुनः प्रस्तुत किया, जिसके परिणामस्वरूप 99वें संविधान संशोधन के अंतर्गत NJAC अधिनियम, 2014 पारित हुआ।
      • NJAC में अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश के साथ सदस्य के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय विधि और न्याय मंत्री तथा दो ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल किये जाने थे जिन्हें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता से गठित त्रिसदस्यीय समिति द्वारा नामित किया जाना था।
  • चतुर्थ न्यायाधीश मामला (Fourth Judges Case), 2015: NJAC अधिनियम और 99वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने 4:1 के निर्णय से इस अधिनियम और संशोधन दोनों को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया।
    • न्यायालय ने NJAC में अपर्याप्त न्यायिक प्रतिनिधित्व के साथ ही कार्यकारी सदस्यों की संलग्नता पर चिंता व्यक्त करते हुए तर्क दिया कि ये कारक न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत और संविधान की ‘मूल संरचना’ का उल्लंघन करते हैं।

भारत में कॉलेजियम प्रणाली के पक्ष में तर्क:

  • न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखना: कॉलेजियम प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीश अपने समकक्षों की नियुक्ति करें, जिससे न्यायपालिका की कार्यपालिका से स्वतंत्रता बनी रहती है।
    • इससे न्यायिक निर्णयों में राजनीतिक हस्तक्षेप पर रोक लगती है, जिससे विधि के शासन की रक्षा होती है और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित होता है।
  • योग्यता और अनुभव को प्राथमिकता देना: न्यायाधीशों का चयन उनकी योग्यता, अनुभव और न्यायिक कौशल के आधार पर किया जाता है।
    • कॉलेजियम प्रणाली शैक्षणिक योग्यता तक ही सीमित नहीं रहते हुए अन्य कारकों पर भी विचार करते हुए उम्मीदवारों के अधिक सूक्ष्म मूल्यांकन की अनुमति देती है।
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि सबसे योग्य और अनुभवी व्यक्तियों को ही उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाए।
  • विविधता और समावेशिता को बढ़ावा देना: कॉलेजियम प्रणाली न्यायपालिका के भीतर विविधता को बढ़ावा देने में सहायक रही है।
    • इसके परिणामस्वरूप महिलाओं, हाशिये पर स्थित समुदायों और भूभागों सहित विभिन्न पृष्ठभूमियों से न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है।
    • इससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायपालिका भारतीय समाज की विविध प्रकृति को प्रतिबिंबित करती है तथा जनता का विश्वास बढ़ाती है।
    • उदाहरण के लिये, भारत में किसी उच्च न्यायालय की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति लीला सेठ की नियुक्ति समावेशिता के प्रति प्रणाली की प्रतिबद्धता का प्रमाण है।
    • इसके अलावा, न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनने की ओर अग्रसर हैं।
  • संस्थागत स्मृति और निरंतरता सुनिश्चित करना: कॉलेजियम प्रणाली, वरिष्ठ न्यायाधीशों पर निर्भरता के साथ, संस्थागत स्मृति के संरक्षण और न्यायिक प्रथाओं एवं दृष्टांतों की निरंतरता की अनुमति देती है।
    • यह भारत की जटिल विधिक प्रणाली में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है, जहाँ कानूनों की व्याख्या और अनुप्रयोग प्रायः समय के साथ विकसित होते रहते हैं।
    • न्यायिक नियुक्तियों के प्रति एक सुसंगत दृष्टिकोण बनाए रखने की कॉलेजियम की क्षमता ने न्यायपालिका के भीतर सत्ता के सुचारु हस्तांतरण को, यहाँ तक कि राजनीतिक अस्थिरता या सरकार में परिवर्तन के दौरान भी, सुनिश्चित करने में मदद की है।

भारत में कॉलेजियम प्रणाली के विरुद्ध तर्क:

  • पारदर्शिता का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना इसकी अपारदर्शी निर्णयन प्रक्रिया के लिये की जाती रही है, जहाँ नियुक्तियों के लिये किसी सार्वजनिक संवीक्षा या औचित्य सिद्ध करने का अवसर मौजूद नहीं है।
    • पारदर्शिता की यह कमी न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमज़ोर कर सकती है और चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता एवं अखंडता के बारे में चिंताएँ पैदा करती है।
    • कॉलेजियम प्रणाली की सबसे उल्लेखनीय विफलताओं में से एक के रूप में दिसंबर 2003 में कलकत्ता उच्च न्यायालय में सौमित्र सेन की नियुक्ति को देखा जा सकता है। कॉलेजियम ने उन्हें न्यायाधीश के रूप में नियुक्त कर दिया, जबकि उन पर दो सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के बीच के विवाद में न्यायालय द्वारा नियुक्त अधिवक्ता के रूप में कार्य करते समय धन के दुरुपयोग के आरोप थे।
  • ‘अंकल जजेज़ सिंड्रोम’ (Uncle Judges' Syndrome): कॉलेजियम प्रणाली पर, इसके गोपनीय विचार-विमर्श और वरिष्ठ न्यायाधीशों पर निर्भरता के साथ, एक संकुचित या द्वीपीय संस्कृति (insular culture) को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाता है, जो भाई-भतीजावाद (nepotism) और मित्र-वाद (cronyism) को बढ़ावा दे सकती है।
    • ऐसी चिंताएँ व्यक्त की जाती  कि योग्यता के बजाय व्यक्तिगत संबंध और निष्ठा न्यायाधीशों के चयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
    • भारतीय विधि आयोग ने वर्ष 2008 की रिपोर्ट में कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना की थी और इसमें भाई-भतीजावाद तथा नियंत्रण एवं संतुलन के अभाव के मुद्दों पर प्रकाश डाला था।
  • विविधता और प्रतिनिधित्व का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली की न्यायपालिका के भीतर वृहत विविधता को बढ़ावा देने में विफलता के लिये, विशेष रूप से लिंग, जाति एवं क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के संदर्भ में, आलोचना की गई है।
    • कुछ विशेष पृष्ठभूमियों से आने वाले वरिष्ठ न्यायाधीशों के प्रभुत्व के परिणामस्वरूप ऐसी न्यायपालिका का निर्माण हो सकता है जो भारतीय जनसंख्या की विविधता को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करेगी।
  • बाह्य निगरानी और परामर्श का अभाव: कॉलेजियम प्रणाली किसी भी बाह्य निगरानी या अन्य हितधारकों (जैसे कि जनता, विधि विशेषज्ञ या नागरिक समाज संगठन) से प्राप्त परामर्श या इनपुट के बिना संचालित होती है।
    • इसके परिणामस्वरूप निर्णय लेने की प्रक्रिया व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य और चिंताओं से अछूती रह सकती है।
    • विधि एवं न्याय संबंधी संसदीय स्थायी समिति की वर्ष 2016 की रिपोर्ट में न्यायिक रिक्तियों को भरने में होने वाले विलंब पर चिंता व्यक्त की गई और अनुशंसा की गई कि न्यायिक नियुक्तियाँ एक सहभागी कार्य हो, जिसे न्यायपालिका एवं कार्यपालिका द्वारा संयुक्त रूप से निष्पादित किया जाना चाहिये।

विभिन्न देशों में न्यायिक नियुक्ति तंत्र की भिन्नताएँ:

  • संयुक्त राज्य अमेरिका
    • नियुक्ति प्रक्रिया: संघीय न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सीनेट की सलाह एवं सहमति से की जाती है।
    • उम्मीदवारों का अमेरिकी बार एसोसिएशन की एक समिति द्वारा मूल्यांकन किया जाता है और सीनेट मतदान से पहले सीनेट न्यायपालिका समिति द्वारा उनकी समीक्षा की जाती है।
    • कार्यकाल: न्यायाधीशों के लिये कोई निश्चित सेवानिवृत्ति आयु नहीं है; वे ‘अच्छे आचरण’ के आधार पर आजीवन पद पर बने रहते हैं।
  • यूनाइटेड किंगडम
    • नियुक्ति प्रक्रिया: वर्ष 2009 में यू.के. सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के बाद नियुक्ति प्रक्रिया लॉर्ड चांसलर से न्यायिक नियुक्ति आयोग (Judicial Appointments Commission) में स्थानांतरित कर दी गई।
    • इस आयोग में सदस्य के रूप में बैरिस्टर, जज, साधारण प्रतिष्ठित व्यक्ति (laypeople), सॉलिसिटर और मजिस्ट्रेट शामिल होते हैं।
    • यद्यपि, इस बदलाव के बावजूद लॉर्ड चांसलर के पास योग्यता के आधार पर उम्मीदवारों को अस्वीकार करने की शेष शक्ति बनी हुई है।
  • अन्य देश
    • कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और विभिन्न अमेरिकी क्षेत्राधिकार: ये देश एक स्वतंत्र न्यायिक नियुक्ति आयोग प्रणाली का उपयोग करते हैं, जो अपनी प्रभावशीलता के लिये प्रसिद्ध है।
    • आयरलैंड, इज़रायल, न्यूज़ीलैंड और नीदरलैंड: इन देशों ने न्यायाधीशों के चयन की देखरेख के लिये न्यायिक नियुक्ति समितियाँ स्थापित की हैं।

कौन-से सुधार मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को बेहतर बना सकते हैं?

  • पारदर्शिता और जवाबदेही की वृद्धि: जनता का विश्वास बढ़ाने के लिये कॉलेजियम प्रणाली को और अधिक पारदर्शी बनाया जाना चाहिये।
    • न्यायिक नियुक्तियों के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश और प्रक्रियाएँ स्थापित की जानी चाहिये और इस प्रक्रिया में सार्वजनिक परामर्श को भी शामिल किया जाना चाहिये।
    • इससे यह सुनिश्चित होगा कि न्यायपालिका लोगों के प्रति जवाबदेह है।
  • कार्यपालिका की संतुलित भूमिका: जबकि न्यायपालिका को अपनी स्वतंत्रता बनाए रखनी चाहिये, कार्यपालिका की भी न्यायिक नियुक्तियों में वृहत भूमिका होनी चाहिये।
    • न्यायपालिका, कार्यपालिका और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए संशोधित NJAC न्यायिक स्वतंत्रता एवं जवाबदेही के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है।
    • इससे न्यायपालिका को अत्यधिक शक्तिशाली बनने से रोका जा सकेगा तथा यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि नियुक्तियाँ योग्यता और जनहित के आधार पर हों।
  • योग्यता आधारित नियुक्तियाँ: कॉलेजियम प्रणाली को न्यायिक नियुक्तियों के लिये योग्यता आधारित मानदंडों का सख्ती से पालन करना चाहिये।
    • योग्यता, अनुभव और न्यायिक कौशल प्राथमिक विचारणीय बिंदु होने चाहिये।
    • इससे यह सुनिश्चित होगा कि सर्वाधिक सक्षम और योग्य व्यक्तियों को न्यायपीठ में नियुक्त किया जाएगा, जिससे न्यायपालिका की दक्षता एवं प्रभावशीलता बढ़ेगी।
  • समयबद्ध नियुक्तियाँ: न्यायिक नियुक्तियों में विलंब की समस्या को दूर करने के लिये कॉलेजियम प्रक्रिया के लिये सख्त समयसीमा निर्धारित की जानी चाहिये।
    • इससे रिक्तियों के सुदीर्घ विलंबन को रोका जा सकेगा और यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि न्यायपालिका के पास पर्याप्त कार्यबल मौजूद है तथा वह मुक़दमों का भार कुशलतापूर्वक संभाल सकती है।
  • सार्वजनिक भागीदारी: न्यायपालिका को न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में सक्रिय रूप से सार्वजानिक परामर्श भी ग्रहण करना चाहिये।
    • यह सार्वजनिक परामर्श ऑनलाइन मंचों और फीडबैक तंत्र के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
    • सार्वजनिक जन भागीदारी से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि न्यायपालिका अपने लोगों की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं के प्रति उत्तरदायी है।

निष्कर्ष

भारत में न्यायिक नियुक्तियों पर जारी बहस पारदर्शिता, जवाबदेही और विलंबन के मुद्दों को हल करने के लिये कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की आवश्यकता को उजागर करती है। NJAC को संशोधित करने या इसी तरह के सुधारों को अपनाने से इन चुनौतियों को हल करने और न्यायपालिका के समग्र कार्यकरण में सुधार लाने में मदद मिल सकती है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में न्यायिक नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली के विकास एवं प्रभाव पर चर्चा कीजिये। न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने में इसकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये।



UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से वापस बैठने और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिये बुलाया जा सकता है
  2. भारत में उच्च न्यायालय के पास अपने निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) 


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