लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 30 Mar, 2021
  • 46 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

अफ्रीकी हाथी

चर्चा में क्यों?

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) द्वारा अफ्रीकी वन हाथी और अफ्रीकी सवाना (या बुश) हाथियों को क्रमशः गंभीर संकटग्रस्त’(Critically Endangered) और 'संकटग्रस्त’ (Endangered) घोषित किया गया है।

  • इससे पहले अफ्रीकी हाथियों को एक ही प्रजाति के रूप में माना जाता था,  जिसे  सुभेद्य (Vulnerable) प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। यह पहली बार है जब IUCN की रेड लिस्ट में इनका दो अलग-अलग प्रजातियों के रूप में मूल्यांकन किया गया है।

अफ्रीकी हाथी के बारे में:

  • अफ्रीकी हाथी पृथ्वी पर सबसे बड़े भू-जानवर (Land Animals ) हैं। ये एशियाई हाथियों से थोड़े बड़े आकार के होते हैं।
  • अफ्रीकी हाथियों की सूंँड़ के अंत में दो अंगुलीनुमा संरचनाएँ पाई जाती हैं, जबकि एशियाई हाथियों की सूंँड़ में यह सिर्फ एक ही उभार के रूप में होता है।
  • हाथी मातृसत्तात्मक होते हैं, अर्थात् समूह का नेतृत्व मादा द्वारा किया जाता है।
  • अफ्रीकी हाथी एक कीस्टोन प्रजाति (keystone Species) है, जिसका अर्थ है कि वे अपने पारिस्थितिकी तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिसे "पारिस्थितिक तंत्र इंजीनियर" (Ecosystem Engineers) के रूप में भी जाना जाता है। हाथियों द्वारा कई तरीकों से अपने निवास स्थान को आकार दिया जाता है।
  • हाथियों की गर्भावस्था (लगभग 22 महीने) किसी भी अन्य स्तनपायी की तुलना में अधिक लंबी होती है। यह हाथियों के संरक्षण को और चुनौतीपूर्ण बना देता है, क्योंकि अवैध शिकार के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई के लिये जन्म लेने वाले हाथियों की संख्या काफी कम होती है।
  • अफ्रीकी हाथियों की दो उप-प्रजातियांँ हैं, सवाना (या झाड़ी) हाथी और वन हाथी। इन दोनों में सवाना हाथी बड़े हैं।

अफ्रीकी सवाना हाथी: 

  • वैज्ञानिक नाम: लोक्सोडोंटा अफ्रीकाना (Loxodonta Africana)  
  • आबादी में कमी: पिछले 50 वर्षों में 60% की गिरावट ।  
  • IUCN स्थिति: संकटग्रस्त।
  • निवास स्थान: उप-सहारा अफ्रीका के मैदान।

अफ्रीकी वन हाथी: 

  • वैज्ञानिक नाम: लोक्सोडोंटा  साइक्लोटिस (Loxodonta Cyclotis)
  • आबादी में कमी: पिछले 31 वर्षों में 86% की गिरावट।   
  • IUCN स्थिति: अति संकटग्रस्त।
  • निवास स्थान: मध्य और पश्चिम अफ्रीका के वन। इनके द्वारा शायद ही कभी सवाना हाथी की सीमा का उल्लंघन किया जाता है। 
    • वन हाथी का प्राकृतिक वितरण अत्यधिक सीमित है। इसलिये इसकी आबादी में गिरावट विशेष रूप से चिंता का विषय है। 
    • यदि सवाना हाथी की आबादी को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाए तो उनकी आबादी में फिर से बढ़ोतरी होने की संभावना है, जबकि वन हाथी के मामले में यह बढ़ोतरी काफी धीमी है।
    • मध्य अफ्रीका के कई देश जिन्हें वन हाथियों का घर माना जाता है, वहाँ कानून लागू करने में कई प्रकार की समस्याएँ विद्यमान हैं। 

खतरा: 

  • हाथी दांँत के व्यापार हेतु अवैध शिकार। 
    • ऐसा क्षेत्र जहाँ गरीबी और भ्रष्टाचार का उच्च स्तर पाया जाता है, ऐसे क्षेत्रों में अवैध शिकार की दर अधिक होने की संभावना है। इससे पता चलता है कि समुदायों के लिये स्थायी आजीविका के साधन विकसित करने से अवैध शिकार पर अंकुश लगाया जा सकता है।
  • आवास की क्षति: मानव आबादी में वृद्धि और कृषि एवं विकास हेतु भूमि का रूपांतरण होने से आवास की समस्या उत्पन्न हुई है।

एशियाई हाथी:

  • एशियाई हाथी की तीन उप-प्रजातियाँ हैं: भारतीय, सुमात्रन तथा श्रीलंकन।
  • वैश्विक आबादी: 
    •  कुल आबादी लगभग 20,000 से  40,000 
  • भारतीय उप-प्रजाति की संख्या सर्वाधिक है, जो कि महाद्वीप पर शेष हाथियों की संख्या अधिक होने का भी एक मुख्य कारण है।
  • भारत में हाथियों की कुल संख्या लगभग 28,000 है, इनमें से लगभग 25% हाथी कर्नाटक में पाए जाते हैं।
  • IUCN की लाल सूची में स्थिति: 
    • लुप्तप्राय। 
  • CITES:
  • परिशिष्ट I
  • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972:
    • अनुसूची-1 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय राजव्यवस्था

हेट क्राइम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने फेसबुक पोस्ट के लिये एक वरिष्ठ पत्रकार के विरुद्ध शुरू की गई हेट क्राइम की कार्यवाही को रद्द कर दिया है।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि याचिकाकर्त्ता की सोशल मीडिया पोस्ट उत्पीड़न के संदर्भ में केवल सच की अभिव्यक्ति थी।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि

  • सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय मेघालय उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153(a) (घृणा), 500 (मानहानि) और 505(c) (किसी समुदाय या जाति को दूसरे के विरुद्ध अपराध करने के लिये उकसाने) के तहत कार्यवाही को रद्द करने से इनकार करने के खिलाफ दायर की गई अपील के तहत लिया गया है।

 धारा 153(a): 

  • धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव के प्रतिकूल कार्य करना।
  • यह दंडनीय अपराध होगा, जिसमें आरोपी को पाँच वर्ष तक के कारावास और आर्थिक जुर्माने की सज़ा दी जा सकती है।

धारा 505(c)

  • किसी भी वर्ग या समुदाय के विरुद्ध अपराध करने हेतु किसी भी वर्ग या समुदाय के लोगों को उकसाना अथवा इस संबंध में प्रयास करना।
  • यह एक दंडनीय अपराध होगा, जिसमें आरोपी को अधिकतम तीन वर्ष तक के कारावास अथवा आर्थिक जुर्माना अथवा दोनों दोनों सज़ा दी जा सकती है।

हेट क्राइम

परिचय

  • हेट क्राइम ऐसे आपराधिक कृत्यों को संदर्भित करता है जो कुछ मतभेदों, प्रमुख रूप से धार्मिक प्रथाओं और रीति-रिवाजों आदि के कारण एक व्यक्ति या सामाजिक समूह के विरुद्ध पूर्वाग्रह से प्रेरित होते हैं।
  • मौजूदा दौर में इसकी परिभाषा के तहत मॉब लिंचिंग, भेदभाव और आपत्तिजनक भाषणों के साथ-साथ अपमानजनक तथा ऐसे भाषणों को भी शामिल किया जाता है, जो एक समुदाय विशिष्ट को हिंसा के लिये उकसाते हों।
  • समग्र तौर पर हेट क्राइम को एक व्यक्ति के अधिकारों पर हमले के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो न केवल उस व्यक्ति विशिष्ट को प्रभावित करता है, बल्कि संपूर्ण सामाजिक संरचना को नुकसान पहुँचाता है, जिसके कारण इसे अन्य आपराधिक कृत्यों की तुलना में अधिक जघन्य माना जाता है।
  • ‘हेट स्पीच’ में मुख्य तौर पर जाति, नस्ल, धर्म या वर्ग आदि के आधार पर की गई टिप्पणियाँ शामिल होती हैं।

भारत में हेट क्राइम

  • भारत में हेट क्राइम को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और ‘हेट स्पीच’ (अभद्र भाषा) के परिणामस्वरूप होने वाले नुकसान के बजाय एक समुदाय को व्यापक पैमाने पर होने वाले नुकसान के संदर्भ में परिभाषित किया गया है।
  • भारत में धर्म, जातीयता, संस्कृति या नस्ल पर आधारित कोई भी अभद्र भाषा अथवा टिप्पणी पूर्णतः निषिद्ध है।

‘हेट क्राइम’ के विरुद्ध भारतीय कानून

  • यद्यपि भारतीय कानूनों में कहीं भी ‘हेट क्राइम’ शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, किंतु भारतीय संविधान और देश के अलग-अलग कानूनों में इसके विभिन्न पहलुओं की पहचान की गई है।
  • धारा 153(a), 153(b), 295(a), 298, 505(1) और 505(2) के तहत भारतीय दंड संहिता (IPC) यह घोषित करती है कि धर्म, जातीयता, संस्कृति, भाषा और क्षेत्र आदि के आधार पर अपमान और घृणा को बढ़ावा देने वाला कोई भी शब्द (लिखित अथवा मौखिक) कानून के तहत दंडनीय है।
  • कुछ अन्य कानून, जिनमें ‘हेट क्राइम’ और इसकी रोकथाम से संबंधित प्रावधान शामिल हैं

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2021 : विश्व बैंक

चर्चा में क्यों?

हाल ही में  विश्व बैंक द्वारा वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2021 : डेटा फॉर बेटर लाइव्स का प्रकाशन किया गया।

  • वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट का नवीनतम संस्करण 2021 विकास के लिये डेटा की शक्ति का दोहन या उपयोग करने हेतु एक खाका प्रदान करता है, ताकि कोई भी पीछे न रह जाए।

प्रमुख बिंदु:

  • डेटा के लिये सामाजिक अनुबंध में तीन तत्त्व शामिल होते हैं: वैल्यू, इक्विटी और ट्रस्ट।
    • डेटा के लिये सामाजिक अनुबंध:  सामाजिक अनुबंध किसी डेटा से अधिक-से-अधिक वैल्यू (जानकारी) प्राप्त करने हेतु सुरक्षित सहयोग का एक प्रवर्तक है। डेटा उपयोगकर्त्ताओं के बीच बेहतर सहयोग से, हम सबसे गरीब समुदायों की मदद कर सकते हैं और विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह में आगे बढ़ सकते हैं।

सार्वजनिक हित के लिये एक बल के रूप में डेटा:

  • सार्वजनिक हित डेटा (सार्वजनिक कार्यक्रमों और नीतियों की रूपरेखा, निष्पादन, निगरानी और मूल्यांकन के बारे में जानकारी प्रदान कर जनता की सेवा करने के उद्देश्य से एकत्र किया गया डेटा) विभिन्न सरकारी कार्यों के लिये एक आधार प्रदान करता है।
  • सार्वजनिक हितों के लिये एकत्रित डेटा अनेक मार्गों के माध्यम से विकास के लिये मूल्य की महत्ता को बढ़ा सकते है जैसेः
    • सरकारों को जवाबदेह बनाना और व्यक्तियों को सशक्त बनाना।
    • सेवा वितरण में सुधार।
    • दुर्लभ संसाधनों को प्राथमिकता देना।
  • असीमित संभावनाएँ:
    • सार्वजनिक और निजी हित के उद्देश्य से एकत्रित डेटा का अनन्य उपयोग हेतु अनुकूलन और एकीकरण रियल टाइम एवं परिष्कृत अंतर्दृष्टि प्रदान करने, डेटा अंतराल को भरने तथा प्रत्येक डेटा प्रकार से संबंधित सीमाओं को समाप्त करने में मदद कर सकता है।
  • दुनिया को जोड़ना :  डेटा इन्फ्रास्ट्रक्चर गरीब लोगों और गरीब देशों के लिये डेटा तक समान पहुँच सुनिश्चित करने का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
  • सीमाएँ पार करना: डेटा एक व्यापारिक संपत्ति है, लेकिन उसे सीमा-पार भेजने के मामले में पर्याप्त डेटा सुरक्षा की आवश्यकता होती है।
  • शासी डेटा: डेटा में शासन की भूमिका दोगुनी है:
    • पहला, डेटा और सिस्टम से जुड़ी सुरक्षा, अखंडता और संरक्षण को सुनिश्चित करके उनके जोखिमों को नियंत्रित करना।
    • दूसरा, नियमों और तकनीकी मानकों को पर अधिकार स्थापित करके  डेटा को अधिक प्रभावी ढंग से स्थानांतरण कर संयुक्त रूप से  आदान-प्रदान करने के लिये सक्षम बनाना।
  • डेटा सिस्टम में सुधार: डेटा के महत्त्व का पूरी तरह से उपयोग या दोहन करने के लिये एक एकीकृत राष्ट्रीय डेटा सिस्टम (INDS) को स्थापित करने की आवश्यकता है।
    • INDS, ब्लूप्रिंट के रूप में सामाजिक अनुबंध के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए विकास के लिये डेटा क्षमता तक पहुँच स्थापित करने हेतु देशों के लिये मार्ग प्रशस्त करता है ।
    • INDS फ्रेमवर्क एक देश के लिये समान रूप से अधिकतम लाभ सुनिश्चित करते हुए सुरक्षित रूप से राष्ट्रीय प्रतिभागियों के बीच डेटा साझा करने की अनुमति देता है।
  • रिपोर्ट द्वारा चिह्नित मुद्दे:
    • लेवलिंग प्लेइंग फील्ड नहीं: डेटा प्लेटफॉर्म व्यवसायों का तीव्र विस्तार प्रतिस्पर्द्धा संबंधी चिंताओं को बढ़ावा दे रहा है और साथ ही विनियमन के लिये नई चुनौतियाँ पेश कर रही है।
  • डेटा प्लेटफॉर्म:  यह एक एकीकृत प्रौद्योगिकी प्लेटफॉर्म है जो डेटाबेस में शामिल डेटा के  चालन, परिचालन, और रणनीतिक व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये उपयोगकर्त्ताओं, डेटा अनुप्रयोगों या अन्य तकनीकों को वितरित करने की अनुमति देता है।
    • ओपन डेटा की कमी: रिपोर्ट में कहा गया है कि निम्न-आय वाले देशों में शामिल  केवल 11% देश  लगातार लाइसेंस श्रेणी के माध्यम से अपने  ओपन डेटा स्रोत्रों (नॉट एक्सेसिबल टू जनरल पब्लिक या रिसर्च इंस्टीट्यूट) का उपयोग करते हैं ।
      • निम्न-मध्यम आय वाले देशों के  लिये तुलनीय दर 19% थी, जबकि  उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिये 22% और उच्च आय वाले देशों हेतु 44% थी।
    • सार्वजनिक हित के डेटा सिस्टम में आंतरिक निवेश: वर्ष 2019 तक केवल कुछ देशों के पास एक राष्ट्रीय सांख्यिकीय योजना थी जो पूरी तरह से वित्तपोषित थी, जबकि 93% उच्च आय वाले देशों में पूरी तरह से वित्तपोषित राष्ट्रीय सांख्यिकीय योजना थी इनमें एक भी निम्न-आय वाला देश शामिल नहीं था।
    • निम्न-आय वाले देशों से संबंधित मुद्दे: रिपोर्ट के अनुसार, निम्न-आय वाले देश संस्थानों की कमी, निर्णय लेने की स्वायत्तता और वित्तीय संसाधनों की कमी के कारण डेटा क्षमता का दोहन करने में असमर्थ थे, ये सभी डेटा सिस्टम और प्रशासन के ढाँचे के प्रभावी कार्यान्वयन और प्रभावशीलता को बाधित करते हैं।
    • महिलाओं और बालिकाओं से संबंधित डेटा अंतराल: इस संदर्भ डेटा अंतराल की स्थिति विशेष रूप से गंभीर है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र जनादेश-आधारित सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) में 54 लिंग-विशिष्ट संकेतकों (19 प्रतिशत) में से केवल 10 ही व्यापक रूप से उपलब्ध थे। 
    • डेटा का दुरुपयोग: डेटा को अधिक उपयोगकर्त्ताओं के लिये सुलभ बनाना और उसके पुन: उपयोग की सुविधा प्रदान करने वाले सिस्टम से डेटा के दुरुपयोग का रास्ता खुल जाता है जो व्यक्तियों या विकास के उद्देश्यों को नुकसान पहुँचा सकता है।
      • रिपोर्ट के अनुसार, व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा (जैसे- गलत जानकारी; सॉफ्टवेयर, नेटवर्क और डेटा सिस्टम पर साइबर हमला) संबंधी चिंताओं को भी चिह्नित किया गया।
    • डेटा का ढाँचागत अंतराल: अमीर और गरीब लोगों के बीच प्रमुख रूप से स्पष्ट  ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी अंतराल है और डेटा इन्फ्रास्ट्रक्चर की उपलब्धता के कारण अमीर और गरीब देशों के बीच पर्याप्त विभाजन दिखाई देता है।

भारत में डेटा अंतराल:

  • विश्व बैंक द्वारा वैश्विक गरीबी के आकलन पर  चिंता व्यक्त की गई है, जो गरीबी पर  भारत में डेटा के अभाव के कारण विषम स्थिति पैदा करता है।
  • भारत 130 SDG संकेतकों में से 54 पर ध्यान केंद्रित करता है। हालाँकि कुल मिलाकर केंद्रित संकेतकों की संख्या बढ़ गई है और देश ने अपनी आकलन सूची से चार संकेतकों को हटा दिया है।
  • रिपोर्ट में मौजूदा डेटा के रणनीतिक पुनरुत्थान का आह्वान किया गया है।

भारत द्वारा उठाए गए कुछ कदम:

  • राष्ट्रीय डेटा साझाकरण और सुगम्यता नीति (NDSAP):
    • राष्ट्रीय नीति से यह अपेक्षा की जाती है कि पंजीकृत उपयोगकर्त्ताओं के बीच गैर-संवेदनशील डेटा और सहज स्थानांतरण की सुविधा बढ़ाई जाए ताकि वैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक विकासात्मक उद्देश्यों की पूर्ति सुनिश्चित की जा सके।
  • ओपन गवर्मेंट डेटा प्लेटफॉर्म (OGD):
    • यह सक्रिय प्लेटफॉर्म को सक्षम बनाने के साथ-साथ उत्पन्न डेटा तक पहुँच प्रदान करने का प्रावधान करता है
    • पारदर्शिता, जवाबदेही, नागरिक सहभागिता, सहयोग, सुशासन, निर्णय लेने और नवाचार में वृद्धि करना।
    • शासन में नवाचार को बढ़ावा: नागरिकों को सेवाओं के प्रत्यक्ष वितरण में सहयोग के लिये एक मंच स्थापित कर नागरिक सेवाओं  के  वितरण में नवाचार को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

आगे की राह:

  • गरीबों की भागीदारी: डेटा कार्यक्रमों और नीतियों में सुधार, अर्थव्यवस्थाओं का संचालन और नागरिकों को सशक्त बनाने के लिये धन अर्जित करने की अधिक क्षमता प्रदान करता है। डेटा गवर्नेंस पर वैश्विक बहस में गरीब लोगों का दृष्टिकोण बहुत हद तक अनुपस्थित रहा है, जिसमें  तत्काल सुनवाई की आवश्यकता है।.
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: रिपोर्ट ने नियमों को सामंजस्यपूर्ण बनाने और नीतियों के समन्वय के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का आह्वान किया ताकि सभी को लाभान्वित करने के लिये और हरित, लचीले और समावेशी सुधार की दिशा में प्रयासों को सूचित करने के लिये डेटा वैल्यू का उपयोग किया जा सके। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


शासन व्यवस्था

‘नो परमिशन-नो टेकऑफ (NPNT) अनुपालन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नागरिक उड्डयन मंत्रालय ने देश में ड्रोन संचालन को सुविधाजनक, सुगम बनाने और बढ़ावा देने के लिये 34 अतिरिक्त ग्रीन ज़ोन में ‘नो परमिशन-नो टेकऑफ’ (NPNT) के अनुपालन की अनुमति दी है।

प्रमुख बिंदु:

परिचय:

  • NPNT एक सॉफ्टवेयर प्रोग्राम है जिसके द्वारा भारत में परिचालन से पहले डिजिटल स्काई प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रत्येक रिमोटली पायलटेड एयरक्राफ्ट (नैनो को छोड़कर) को वैध अनुमति प्राप्त करनी होगी।
    • रिमोटली पायलटेड एयरक्राफ्ट (RPA) को एक मानवरहित एयरक्राफ्ट (UA) के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे एक दूरस्थ पायलट स्टेशन से संचालित किया जाता है। ड्रोन मानवरहित एयरक्राफ्ट (UA)  के लिये एक सामान्य शब्दावली है।
    • डिजिटल स्काई, नागरिक उड्डयन मंत्रालय की एक पहल है, जो एक अत्यधिक सुरक्षित और मापनीय प्लेटफॉर्म है और NPNT जैसे तकनीकी ढाँचे का समर्थन करता है। यह उड़ान अनुमति को डिजिटल रूप से सक्षम बनाने और मानव रहित विमान संचालन तथा यातायात को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने के लिये तैयार किया गया है।
  • यदि एक NPNT अनुपालन ड्रोन भू-आबद्ध के लिये निर्धारित सीमा (हवाई क्षेत्र में अनुमेय सीमा से आगे जाने के लिये ) को भंग करने की कोशिश करता है, तो इसमें अंतर्निहित सॉफ्टवेयर ड्रोन को वापस लौटने (रिटर्न-टू-होम ) के लिये मजबूर करेगा।
  • ग्रीन ज़ोन क्षेत्रों में ड्रोन उड़ानें मानव रहित विमान प्रणाली (UAS) नियम, 2021 की लागू शर्तों के अनुरूप होंगी।
  • इन अनुमोदित ग्रीन ज़ोन ’में उड़ान भरने के लिये  डिजिटल स्काई पोर्टल या एप के माध्यम से केवल उड़ानों के समय और स्थान की सूचना की आवश्यकता होगी।
    • ‘येलो ज़ोन’ में उड़ान भरने के लिये अनुमति लेनी आवश्यक है तथा ‘रेड ज़ोन’ में किसी भी उड़ान की अनुमति नहीं है।

मानव रहित विमान प्रणाली (UAS) नियम, 2021 

  • UAS को हवाई जहाज़, रोटरक्राफ्ट और हाइब्रिड के रूप में वर्गीकृत किया गया था, वर्तमान में इसे  रिमोटली पायलटेड एयरक्राफ्ट, मॉडल रिमोटली पायलटेड एयरक्राफ्ट, और स्वायत्त मानव रहित विमान प्रणाली के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • UA को अधिकतम भार के आधार पर नैनो, सूक्ष्म, लघु, मध्यम और बड़े मानवरहित विमानों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
  • व्यक्तियों और कंपनियों द्वारा नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ( DGCA ) से अनिवार्य रूप से आयात, निर्माण, व्यापार, मानव सहित या ड्रोन संचालित करने के लिये अनुमोदन प्राप्त करना होगा।
  • नो परमिशन- नो टेक-ऑफ (NPNT) पॉलिसी को सभी UAS (नैनो को छोड़कर) के लिये अपनाया गया है।
  • सूक्ष्म और लघु  UAS को क्रमशः 60 मीटर और 120 मीटर से ऊपर उड़ान भरने की अनुमति नहीं है।
  • UAS को  गृह मंत्रालय द्वारा हवाई अड्डों, रक्षा हवाई अड्डों, सीमावर्ती क्षेत्रों, सैन्य प्रतिष्ठानों/सुविधाओं और रणनीतिक स्थानों/महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के रूप में चिह्नित क्षेत्रों सहित रणनीतिक और संवेदनशील स्थानों में उड़ान भरने से प्रतिबंधित किया गया है।
  • अनुसंधान और विकास (R&D) संगठन, जिसमें स्टार्ट-अप, अधिकृत UAS निर्माता, भारत में स्थित उच्च शिक्षा के किसी भी मान्यता प्राप्त संस्थान शामिल हैं, को  DGCA से प्राधिकार प्राप्त करने के बाद ही UAS के R&D को आगे बढ़ाने की अनुमति है।
  • व्यक्तियों पर 10 हज़ार रुपए  से 1 लाख रुपए तक के दंड का प्रावधान है, जबकि संगठनों के लिये संगठन के आकार के आधार पर 200, 300 और 400% राशि निर्दिष्ट की गई है

स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया


शासन व्यवस्था

आरटीआई अनुरोधों की अस्वीकृति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रस्तुत केंद्रीय सूचना आयोग (Central Information Commission) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र ने वर्ष 2019-20 में सूचना का अधिकार (Right to Information) के तहत किये गए कुल अनुरोधों में से  4.3% को अस्वीकार कर दिया है।

  • यह अस्वीकृति दर वर्ष 2005-06 में 13.9% और वर्ष 2014-15 में 8.4% थी।

प्रमुख बिंदु

  • बिना कारण अस्वीकृति: इनमें से लगभग 40% अस्वीकृति में कोई वैध कारण शामिल नहीं था, क्योंकि उन्होंने सूचना के अधिकार अधिनियम (Right to Information Act) के कुछ उन खंडों का  उपयोग नहीं किया जिसके अंतर्गत छूट दी गई है।
    • इन अस्वीकृतियों को CIC डेटा में 'अन्य' श्रेणी के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है।
    • अकेले वित्त मंत्रालय ने अधिनियम के तहत वैध कारण प्रदान किये बिना अपने कुल आरटीआई अनुरोधों का 40% खारिज कर दिया।
    • प्रधानमंत्री कार्यालय, दिल्ली उच्च न्यायालय, नियंत्रक और महालेखा परीक्षक से संबंधित 90% से अधिक अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया गया, इन अनुरोधों को "अन्य" श्रेणी में रखा गया।
  • अधिकतम अस्वीकृतियाँ: गृह मंत्रालय की अस्वीकृति दर उच्चतम थी, क्योंकि इसने अपने पास आए कुल आरटीआई के 20% अनुरोधों को खारिज कर दिया।
    • दिल्ली पुलिस और सेना में भी आरटीआई के अस्वीकृति की दर में वृद्धि देखी गई।

आरटीआई अनुरोधों की अस्वीकृति का आधार:

  • धारा 8 (1) सूचना प्रकटीकरण में छूट से संबंधित है:
    • यह धारा सरकार को किसी भी ऐसी सूचना जो देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, आर्थिक हितों आदि से संबंधित है, को अस्वीकार करने की अनुमति देती है।
    • वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता या बौद्धिक संपदा आदि जानकारियाँ।
    • ऐसी सूचना, जिसके प्रकटन से किसी भी व्यक्ति का जीवन या शारीरिक सुरक्षा खतरे में पड़ जाए।
    • ऐसी सूचना जो अपराधियों की जाँच या अभियोजन की प्रक्रिया को बाधित करेगी।
    • ऐसी व्यक्तिगत जानकारी जिसके प्रकटीकरण का किसी भी सार्वजनिक गतिविधि या हित से कोई संबंध नहीं है।
    • आरटीआई अनुरोधों  की अस्वीकृति के मामलों में लगभग 46% में धारा 8 (1) का उपयोग किया गया था।
  • धारा 9:
    • यह केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी को सूचना के अनुरोध को अस्वीकार करने का अधिकार देता है, जिसमें कॉपीराइट का उल्लंघन शामिल है।
  • धारा 24:
    • यह भ्रष्टाचार और मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों को छोड़कर सुरक्षा और खुफिया संगठनों से संबंधित सूचनाओं को प्रस्तुत करता है।
    • इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले पाँच में से लगभग एक (20%) आरटीआई अस्वीकार किया गया।

सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019

  • इस अधिनियम में प्रावधान है कि मुख्य सूचना आयुक्त (Chief Information Commissioner) और सूचना आयुक्तों का कार्यकाल केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
    • इनका कार्यकाल इस संशोधन से पहले 5 वर्ष का था।
  • नए विधेयक के तहत केंद्र और राज्य स्तर पर मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते तथा अन्य रोज़गार की शर्तें भी केंद्र सरकार द्वारा ही तय की जाएंगी।
    • इस संशोधन से पहले मुख्य सूचना आयुक्त के वेतन, भत्ते और अन्य सेवा शर्तें मुख्य चुनाव आयुक्त के समान थीं और सूचना आयुक्तों की चुनाव आयुक्तों (राज्यों के मामले में राज्य चुनाव आयुक्त) के समान थीं।
  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 यह प्रावधान करता है कि यदि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त पद पर नियुक्त होते समय उम्मीदवार किसी अन्य सरकारी नौकरी की पेंशन या सेवानिवृत्ति लाभ प्राप्त करता है तो उस लाभ के बराबर राशि उसके वेतन से घटा दी जाएगी, लेकिन इस नए संशोधन विधेयक में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है।

केंद्रीय सूचना आयोग

  • स्थापना:
    • केंद्रीय सूचना आयोग की स्थापना सूचना का अधिकार अधिनियम (Right to Information Act), 2005 के प्रावधानों के अंतर्गत वर्ष 2005 में केंद्र सरकार द्वारा की गई थी। यह संवैधानिक निकाय नहीं है।
  • सदस्य:
    • केंद्रीय सूचना आयोग में एक मुख्य सूचना आयुक्त तथा अधिकतम 10 केंद्रीय सूचना आयुक्तों का प्रावधान है और इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
      • वर्ष 2019 में आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त के अलावा छह सूचना आयुक्त थे।
  • नियुक्ति: 
    • ये नियुक्तियाँ प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनी समिति की अनुशंसा पर की जाती हैं, जिसमें लोकसभा में विपक्ष का नेता और प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत कैबिनेट मंत्री बतौर सदस्य होते हैं।
  • कार्यकाल: 
    •  ऐसे पदों हेतु मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित या 65 वर्ष की आयु (जो भी पहले हो) तक पद धारण करेंगे।
    • इनकी पुनर्नियुक्ति नहीं की जा सकती है। 
  • सीआईसी की शक्ति और कार्य:
    • आयोग का कर्तव्य है कि वह सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत किसी विषय पर प्राप्त शिकायतों के मामले में संबंधित व्यक्ति से पूछताछ करे।
    • आयोग उचित आधार होने पर किसी भी मामले में स्वतः संज्ञान (Suo-Moto Power) लेते हुए जाँच का आदेश दे सकता है।
    • आयोग के पास पूछताछ करने हेतु सम्मन भेजने, दस्तावेज़ों की आवश्यकता आदि के संबंध में एक सिविल कोर्ट की शक्तियाँ होती हैं।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

उच्च न्यायालय में तदर्थ न्यायाधीश

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों (Pendency of Cases) से निपटने के लिये सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति पर ज़ोर दिया है।

short-staffed

प्रमुख बिंदु

  • सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव:
    • एक तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये दिशा-निर्देश: अदालत ने तदर्थ न्यायाधीश (Ad-hoc Judge) की नियुक्ति और उसकी कार्यपद्धति हेतु मौखिक दिशा-निर्देश दिये हैं।
    • न्याय में एक निश्चित सीमा से अधिक देरी: यदि किसी विशेष अधिकार क्षेत्र में न्याय प्रदान करने में एक निश्चित सीमा से आठ या 10 साल अधिक की देरी हो जाती है, तो मुख्य न्यायाधीश संबंधित क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीश को एक जज के रूप में नियुक्त कर सकता है।
      • ऐसे न्यायाधीश का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है।
    • स्थिति: तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति अन्य न्यायाधीशों की सेवाओं के लिये खतरा नहीं होगी क्योंकि इन्हें कनिष्ठ माना जाएगा।
    • चयन: सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विवाद के एक विशेष क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता के आधार पर चुना जाएगा और कानून के उस क्षेत्र में लंबित मुद्दों को निपटाने के बाद उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाएगा।
  • सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये तर्क:
    • यदि संबंधित क्षेत्र में 15 साल से अधिक अनुभव रखने वाले सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को इन क्षेत्रों से संबंधित विवादों को निपटाने के लिये तदर्थ न्यायाधीश के रूप में पुनः नियुक्त किया जाएगा तो ऐसे विवादों से जल्दी निपटा जा सकेगा।
  • संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
    • संविधान के अनुच्छेद 224A (उच्च न्यायालयों की बैठकों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति) के अंतर्गत सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।
    • किसी राज्य के उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से किसी व्यक्ति, जो उस उच्च न्यायालय या किसी अन्य उच्च न्यायालय में न्यायाधीश का पद धारण कर चुका है, से उस राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने का अनुरोध कर सकेगा।
  • न्याय में देरी का कारण:
    • सरकार सबसे बड़ी पक्षकार: आर्थिक सर्वेक्षण वर्ष 2018-19 के अनुसार, देरी से आए निर्णयों के परिणामस्वरूप जीडीपी के 4.7% के बराबर कर राजस्व की हानि हुई और यह हानि अभी भी बढ़ रही है।
    • कम बजटीय आवंटन: न्यायपालिका को आवंटित बजट सकल घरेलू उत्पाद का 0.08 और 0.09% के बीच है। केवल चार देशों (जापान, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया और आइसलैंड) के पास कम बजट आवंटन है लेकिन उनके यहाँ भारत की तरह न्याय में देरी की समस्या नहीं है।
    • लंबे अवकाश की प्रथा: आमतौर पर निचली अदालतें में लंबे अवकाश की प्रथा है, जो मामलों के लंबित होने का एक प्रमुख कारण है।
    • मूल्यांकन का अभाव: जब एक नया कानून बनता है तो सरकार द्वारा न्यायपालिका पर कितना बोझ डाला जाना है, इसका कोई न्यायिक प्रभाव आकलन नहीं होता है।
      • अधिक न्यायाधीशों की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
    • न्यायिक नियुक्ति में देरी: उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों को भरने के लिये कॉलेजियम (Collegium) द्वारा की गई सिफारिशें सरकार के पास सात महीने से एक वर्ष तक लंबित रही हैं।
      • सभी 25 उच्च न्यायालयों में स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 1,080 है। हालाँकि मार्च 2021 तक इनमें से केवल 661 न्यायाधीश (419 रिक्तियाँ) ही कार्यरत हैं।
      • सरकार का मानना है कि इन खाली पदों पर नियुक्ति प्रक्रिया में देरी के लिये कॉलेजियम और उच्च न्यायालय ज़िम्मेदार हैं।

आगे की राह

  • नियुक्ति प्रणाली को सुव्यवस्थित करना: रिक्तियों को बिना किसी अनावश्यक विलंब किये भरा जाना चाहिये।
    • न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये एक उचित समय-सीमा निर्धारित करके इन नियुक्तियों के लिये अग्रिम सिफारिशें करनी चाहिये।
    • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (All India Judicial Service) का गठन भारत को एक बेहतर न्यायिक प्रणाली स्थापित करने में निश्चित रूप से मदद कर सकता है।
  • प्रौद्योगिकियों का उपयोग: लोग अपने अधिकारों के बारे में अधिक-से-अधिक जागरूक हो रहे हैं और यही कारण है कि अदालत में दायर मामलों की संख्या बढ़ रही है।
    • इससे निपटने के लिये न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है, न्यायाधीशों के रिक्त पदों को शीघ्रता से भरा जाना चाहिये और इसके अलावा प्रौद्योगिकी के उपयोग हेतु विशेष रूप से कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence) को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • अदालत से बाहर समझौता: हर मामले को अदालत परिसर के भीतर हल करना अनिवार्य नहीं है, अन्य संभावित प्रणालियों का भी उपयोग किया जाना चाहिये।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है, जिसके लिये मध्यस्थता और सुलह अधिनियम (Arbitration and Conciliation) में तीन बार संशोधन किया गया है ताकि सुलह या मध्यस्थता द्वारा मुकदमेबाज़ी को कम किया जा सके।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय इतिहास

गढ़वाल के किले

चर्चा में क्यों?

हाल ही में किये गए एक अध्ययन में गढ़वाल हिमालय (Garhwal Himalayas) के उत्तर, पूर्व और दक्षिणी क्षेत्र में फैले 193 स्थलों की पहचान की गई है जिनमें गढ़वाल के किलों और दुर्गों के खंडहर शामिल हैं।

  • यह अपने तरह का पहला डेटाबेस है। इसमें कुल 36 प्रमुख किलों और 12 प्रमुख किलों के समूह की पहचान की गई है।

प्रमुख बिंदु:

  • गढ़वाल के किले:
    • उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय में अधिकांश मध्ययुगीन किलों का निर्माण रणनीतिक रूप से समूह में किया गया था।
    • 8वीं शताब्दी से पूर्व के किलों का निर्माण घाटियों और पर्वतों के साथ कई अन्य स्थानों पर किया गया था, जो कि गढ़वाल हिमालय में समुद्र तल (Mean Sea Level- MSL) से 3,000 मीटर से अधिक की ऊंँचाई पर स्थित हैं।
    • इन सुव्यवस्थित किलों का निर्माण कत्यूरी राजवंश (Katyuri Dynasty) के पतन के दौरान या बाद में हुआ था।
    • महत्त्व:
      • भौगोलिक रूप से इन किलों का निर्माण एक-दूसरे से दूर किया गया था। किंतु तत्कालीन शासकों ने यह सुनिश्चित किया कि सभी बड़े किलों के चारों ओर छोटे दुर्गों का निर्माण किया जाए ताकि वे छोटे दुर्ग मुख्यतः प्रहरी दुर्ग के रूप में कार्य कर सकें।
      • इन दुर्गों का निर्माण मुख्य किले के लगभग 15 किमी. की परिधि में किया गया था। 
      • उस समय कई ऐसे किले एक रणनीतिक नेटवर्क का गठन करते थे ताकि दुश्मन द्वारा हमला किया जाने पर जानकारी को प्रसारित किया जा सके  
        • संदेशों को संप्रेषित करने हेतु आग, धुआंँ या इसी तरह के प्रकाश संकेत सामान्य साधन हुआ करते थे।

      गढ़वाल का इतिहास:

      • कत्यूरी राजवंश:
          • इतिहासकारों के अनुसार, 700 ई. से 800 ई. के मध्य कत्यूरी राजवंश के शासकों ने प्रशासनिक उद्देश्यों हेतु इस क्षेत्र को कई छोटे मंडलों या इकाइयों में विभाजित किया था। 
          • हालाँकि जब राजवंश सहस्राब्दी के अंत के आसपास राजनीतिक रूप से कमज़ोर होने लगा, तो ये इकाइयाँ गढ़पतियों या सरदारों के अधीन आ गईं, जिनमें से प्रत्येक गढ़पति या सरदार द्वारा अलग-अलग किलों का निर्माण किया गया।
        • विदेशी आक्रमण:
          • चूँकि गढ़वाल हिमालय में कई धार्मिक स्थल स्थित है और यह अक्सर विदेशी हमलों ( मुख्य रूप से नेपाली और तिब्बतियों ) का शिकार रहा है।
          • 1100–1200 ई. के दौरान दो नेपाली राजाओं अशोक चल्ल और क्राचल्ल द्वारा किये गए आक्रमण को यहाँ पर पहला विश्वव्यापी हमलों में शामिल किया जाता है।
        • एकीकरण:
          • 15वीं शताब्दी तक परमार वंश के 37वें राजा, राजा अजयपाल ने इस क्षेत्र में कई प्रमुखों क्षेत्र को एकीकृत कर एक राज्य के रूप में स्थापित किया जो वर्तमान गढ़वाल राज्य के रूप में स्थापित है।

        कत्यूरी राजवंश (परिचय):

        • कत्यूरी राजा वर्तमान भारत के उत्तराखंड राज्य में एक मध्यकालीन शासक कबीले थे। उन्होंने इस क्षेत्र पर 700 से 1200 शताब्दी के मध्य शासन किया जो अब कुमाऊंँ के रूप में जाना जाता है।
        • कत्यूरी राजवंश की स्थापना वासुदेव कत्यूरी (Vashudev Katyuri) द्वारा की गई थी। जिसे वासुदेव या बसुदेव के रूप में भी जाना जाता है। 
        •  12वीं शताब्दी तक विभिन्न रियासतों में विभाजित होने से पूर्व कुमाऊँ का कत्यूरी राजवंश अपने चरम पर था जो पूर्व में सिक्किम से पश्चिम में काबुल, अफगानिस्तान तक फैला हुआ था।

        स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


        close
        एसएमएस अलर्ट
        Share Page
        images-2
        images-2