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सूचना का अधिकार

  • 25 Jan 2017
  • 6 min read

गौरतलब है कि हाल ही में “द हिन्दू” समाचार पत्र द्वारा किये गए एक विश्लेषण में यह पाया गया कि सरकारी एजेंसियाँ तथा संस्थाएँ सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 (Right to Information Act) के अंतर्गत आने वाली सूचनाओं में कमी करने के तरीकों में बढ़ोतरी कर रही हैं| इस विश्लेषण में यह पाया गया कि सूचना तक पहुँच बनाने के लिए लाये गए सूचना के अधिकार अधिनियम का उपयोग करने का नागरिकों का अनुभव संतुष्टि के स्तर से अत्यधिक कम रहा है|

प्रमुख बिंदु

  • गौरतलब है कि सरकार तथा इससे संबद्ध एजेंसियों द्वारा यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि आखिर किस प्रकार आरटीआई अधिनियम में निहित उद्देश्य को प्राप्त किया जाए|
  • ध्यातव्य है कि वर्तमान में आरटीआई अधिनियम नागरिकों को प्राप्त एक अप्रभावी साधन (Ineffective tool) मात्र बनकर रह गया है| वस्तुतः यह उस उद्देश्य से बहुत दूर हो गया है जिसकी प्राप्ति हेतु इस अधिनियम को लागू किया गया था|  
  • यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस कानून को सार्वजनिक कार्यालयों में भ्रष्टाचार को कम करने तथा सरकार के कार्यों में पारदर्शिता को बढ़ाने में सहायता प्रदान करने तथा शासन व्यवस्था को सुधारने में मदद करने के उद्देश्य से लाया गया था| समय के साथ-साथ वह कानून राजनीतिक तथा नौकरशाही असुरक्षा का बंधक बनकर रह गया है|
  • गौरतलब है कि आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (1) का सर्वाधिक अनुप्रयोग किया गया है| इसके प्रावधान के अंतर्गत सरकार को किसी भी ऐसी सूचना को अस्वीकार करने की अनुमति प्रदान की गई है  जो देश की संप्रभुता, अखंडता, सुरक्षा, सामरिक और आर्थिक हितों अथवा अपराध को तो शह देता ही हो साथ ही शासकीय प्राधिकरण के संसाधनों का ध्यान भी नाहक ही व्यर्थ के क्षेत्रों पर केन्द्रित करना चाहता हो|
  • हालाँकि यह बहुत ही दुखद बात है कि यह वही आरटीआई अधिनियम है जो पूर्व के कुछ वर्षों में केंद्र तथा राज्य स्तर पर बड़े-बड़े घोटालों का खुलासा करने में सहायता प्रदान कर चुका है|
  • ध्यातव्य है कि आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला (जिसके कारण महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को त्यागपत्र देना पड़ा था), राष्ट्रमंडल खेल घोटाला तथा 2जी इत्यादि घोटालों का खुलासा भी आरटीआई आवेदनों के परिणामस्वरूप ही हुआ था| 
  • परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि ऐसे खुलासों के अनायास नतीजे भी निकल कर सामने आते हैं| आरटीआई अधिनियम के तहत उजागर हुए बहुत से घोटालों के माध्यम से अक्सर विपक्षी दलों द्वारा सत्ताधारी दल का घेराव किया जाता रहा है, इसका सबसे जीवंत उदाहरण यूपीए के दूसरे कार्यकाल के दौरान नज़र आया था| ऐसी गतिविधियों से सत्ताधारी सरकार के निणर्य लेने की क्षमता में धीमापन आना सामान्य बात है|
  • अपने शुरुरूआती समय में आरटीआई अधिनियम एक क्रांतिकारी राज्य परिवर्तन संबंधी अधिनियम था, जिसे वर्ष 2002 में लागू किये गए सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम (Freedom of Information Act) के माध्यम से और अधिक प्रभावी बनाने का काम किया गया|
  • इस अधिनियम के अंतर्गत नागरिकों की सरकारी पदाधिकारियों के कार्य एवं उनकी प्रशासनिक गतिविधियों पर पकड़ को और मज़बूत बनाने का काम किया गया| इस अधिनियम के अंतर्गत प्रशासन को सुदृढ़ बनाए रखने तथा इसकी कार्यप्रणाली पर पैनी नज़र रखने का भी वायदा किया गया है|
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2013 में एक संशोधन के माध्यम से राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित किया गया किउन्हें आरटीआई के कार्यक्षेत्र के अंतर्गत शामिल नहीं किया गया है| अत: वे अपने द्वारा किये गए किसी भी कार्य के लिये सामान्य नागरिकों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं|

निष्कर्ष

सम्भवतः किसी भी सरकार को यह नहीं भूलना चाहियेए कि किसी भी अन्य अधिनियम की भाँति इस अधिनियम के यदि कुछ सकारात्मक पक्ष है तो कुछ नकारात्मक भी अवश्य होंगे| ऐसी कोई भी सरकार जो लोकतान्त्रिक मूल्यों को बनाए रखने का वादा करती है, को शासन व्यवस्था में पारदर्शिता संबंधी सुधार लाने के सन्दर्भ में हमेशा प्रयासरत रहने चाहिये| साथ ही उसे उन लोगों के प्रति भी अधिक जवाबदेह होने की आवश्यकता है, जिनकी सेवा करने के लिये उसे चुना गया है| इसके लिये आवश्यक है कि सूचना के अधिकार अधिनियम में वर्णित शब्दों एवं भावों का उचित एवं यथार्थवादी उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इसका सटीक अनुपालन किया जाना चाहिये|

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