डेली न्यूज़ (29 Aug, 2020)



एक समान मतदाता सूची: अवधारणा और महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये

निर्वाचन आयोग, राज्य निर्वाचन आयोग, संबंधित कानूनी प्रावधान

मेन्स के लिये

एक समान मतदाता सूची की अवधारणा और इसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने बीते दिनों पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची की संभावना पर चर्चा करने के लिये भारत निर्वाचन आयोग और विधि एवं न्‍याय मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की थी। 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची बनाने के विचार को प्रकट चुके हैं।
  • सभी प्रकार के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची बनाने के विचार को ‘एक देश-एक चुनाव’ की अवधारणा से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।

राज्यों में अलग-अलग मतदाता सूची

  • देश के कई राज्यों में, पंचायत और नगरपालिका चुनावों के लिये जिस मतदाता सूची का प्रयोग किया जाता है वह संसद और विधानसभा चुनावों के लिये उपयोग की जाने वाली सूची से भिन्न है।
  • इस प्रकार के अंतर का मुख्य कारण यह है कि हमारे देश में चुनावों की देखरेख और उसके संचालन की ज़िम्मेदारी दो स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकारियों, भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India-ECI) और राज्य निर्वाचन आयोग (State Election Commission-SEC), को दी गई है। 
    • वर्ष 1950 में गठित भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को संविधान के तहत मुख्य तौर पर लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव संपन्न कराने की ज़िम्मेदारी दी गई है। 
    • वहीं दूसरी ओर राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) को राज्य/संघशासित क्षेत्र के निगम, नगरपालिकाओं, ज़िला परिषदों, ज़िला पंचायतों, पंचायत समितियों, ग्राम पंचायतों तथा अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों के संचालन का उत्तरदायित्त्व दिया गया है।
  • विदित हो कि राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) को स्थानीय निकाय चुनावों के लिये अलग निर्वाचन नामावली तैयार करने की स्वतंत्रता है और उनके लिये स्थानीय स्तर के चुनाव आयोजित कराने हेतु निर्वाचन आयोग (ECI) के साथ समन्वय करना अनिवार्य नहीं है।

सभी राज्यों के पास नहीं है अलग सूची

  • प्रत्येक राज्य, राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) संबंधित राज्य के नियमों द्वारा शासित किया जाता है, ऐसे में कुछ राज्य अपने राज्य निर्वाचन आयोग को स्थानीय चुनाव के लिये निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा तैयार की गई मतदाता सूची का उपयोग करने की स्वतंत्रता देते हैं, जबकि कुछ राज्यों में निर्वाचन आयोग (ECI) की मतदाता सूची को केवल आधार के तौर पर प्रयोग किया जाता है।
  • वर्तमान में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा, असम, मध्य प्रदेश, केरल, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश स्थानीय निकाय के चुनावों के लिये चुनाव आयोग (ECI) की मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं।

एक आम मतदाता सूची का महत्त्व

  • सभी प्रकार के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची के निर्माण का समर्थन करने वालों का मत है कि इसके माध्यम से ‘एक देश-एक चुनाव’ की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा सकेगा, जिससे अलग-अलग मतदाता सूची के निर्माण में आने वाले व्यय को कम किया जा सकेगा।
    • प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि दो अलग-अलग संस्थाओं द्वारा तैयार की जाने वाली अलग-अलग मतदाता सूचियों के निर्माण में काफी अधिक दोहराव होता है, जिससे मानवीय प्रयास और व्यय भी दोगुने हो जाते हैं, जबकि एक मतदाता सूची के माध्यम से इसे कम किया जा सकता है।
  • इसके अलावा, अलग-अलग मतदाता सूची होने से मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति पैदा होती है, क्योंकि कई बार एक मतदाता सूची में व्यक्ति का नाम मौजूद होता है, जबकि दूसरे में नहीं।
  • ध्यातव्य है कि देश में सभी प्रकार के चुनावों को लिये एक ही मतदाता सूची बनाने का विचार नया नहीं है। विधि आयोग ने वर्ष 2015 में अपनी 255वीं रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी। 
    • इसके अलावा भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने भी वर्ष 1999 और वर्ष 2004 में इसी तरह का विचार प्रकार किया था।

कैसे लागू होगा नियम

  • पूरे देश में एक मतदाता सूची बनाने के विचार को मुख्यतः दो तरीके से पूरा किया जा सकता है, पहला विकल्प यह है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243K और 243ZA में संशोधन करके देश के सभी चुनावों के लिये एक समान मतदाता सूची को अनिवार्य किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 243K और 243ZA राज्यों में पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव से संबंधित हैं। ये नियम राज्य निर्वाचन आयोग (SEC) को मतदाता सूची तैयार करने और स्थानीय निकायों के चुनावों का संचालन करने का अधिकार देता है।
    • वहीं संविधान का दूसरी ओर, संविधान का अनुच्छेद 324 (1) चुनाव आयोग को संसद और राज्य विधानसभाओं के सभी चुनावों के लिये निर्वाचक नामावली की निगरानी, ​​निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार देता है।
  • दूसरा विकल्प यह है कि निर्वाचन आयोग (ECI) या भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों को अपने कानूनों में संशोधन करने और नगरपालिका तथा पंचायत चुनावों के लिये निर्वाचन आयोग (ECI) की मतदाता सूची को अपनाने के लिये राज़ी किया जाए।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अल्पसंख्यकों का निर्धारण

प्रीलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग, टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन मामला 

मेन्स के लिये:

अल्पसंख्यकों का निर्धारण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने 'राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम' (National Commission for Minority Education Institution Act- NCMEIA), 2004 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा है।

प्रमुख बिंदु:

  • याचिका में तर्क दिया गया है कि ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम’ (NCMEIA) केवल राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करता है, राज्य स्तर पर नहीं, इसलिये यह अधिनियम अल्पसंख्यकों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करता है।

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग

(National Commission for Minority Educational Institutions- NCMEI):

  • संरचना:
    • NCMEI की स्थापना ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम'- 2004 के माध्यम से की गई थी।
    • आयोग एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है, जिसे ‘नागरिक न्यायालय’ (Civil Court) की शक्तियाँ प्राप्त हैं। 
    • आयोग में एक अध्यक्ष (उच्च न्यायालय का न्यायाधीश) और तीन सदस्य होते हैं जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। 

  • उद्देश्य:
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण किया गया है। 
      • अनुच्छेद- 30 के अनुसार, सभी अल्पसंख्यकों, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हों, उन्हें अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। 
    • आयोग इस संबंध में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के कमी या उल्लंघन के बारे में शिकायतों का निपटान करता है।
  • भूमिका:
    • आयोग को तीन प्रकार; सहायक कार्य, सलाहकार कार्य तथा सिफारिश करने, की शक्तियाँ प्राप्त हैं। 

NCMEIA के तहत अल्पसंख्यक:

  • अधिनियम की धारा 2 (f) के अनुसार, अल्पसंख्यक वह है जिसे केंद्र सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिये अल्पसंख्यक से रूप में अधिसूचित किया है। 
  • केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया गया है।
  • यह अधिनियम अल्पसंख्यकों के निर्धारण में राज्य सरकारों को कोई अधिकार नहीं देता है। 

राज्य स्तरीय अल्पसंख्यक निर्धारण की आवश्यकता:

टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन मामला:

  • केवल राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करना, ‘टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य’ (2002) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय की भावना के खिलाफ है।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग की पहचान हेतु दो आधार अर्थात राष्ट्रीय व प्रांतीय बताए गए थे। 

राज्य स्तर बहुलवादी भी अल्पसंख्यक: 

  • हिंदू , यहूदी धर्म का पालन करने वाले लोग अनेक राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों यथा- लद्दाख, मिज़ोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, मणिपुर जैसे क्षेत्रों में अल्पसंख्यक के रूप में हैं। 
  • वे इन राज्यों में अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन नहीं कर सकते हैं।

Hindus-Demand-Minority-Status

संवैधानिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350A तथा 350B में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन इसकी परिभाषा कहीं नहीं दी गई है।
  • अनुच्छेद 29 यह उपबंध करता है कि भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार होगा।
    • सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, अनुच्छेद-29 के तहत प्रदान किये गए अधिकार अल्पसंख्यक तथा बहुसंख्यक दोनों को प्राप्त है।
  • अनुच्छेद-30 के अनुसार, धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार प्राप्त होगा। 
    • अनुच्छेद-30 के तहत प्रदान किये गए अधिकार केवल अल्पसंख्यकों के लिये हैं, बहुसंख्यकों के लिये नहीं।
  • अनुच्छेद- 350 (A) (प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा) और 350(B) (अल्पसंख्यकों के लिये विशेष अधिकारी) केवल भाषायी अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं।

आगे की राह:

  • संविधान में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा कहीं नहीं दी गई है। अत: इस संबंध में 'अल्पसंख्यक' की स्पष्ट परिभाषा को संविधान या किसी संसदीय कानून में शामिल किया जाना चाहिये। 
  • ऐसे राज्य जहाँ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक के रूप में हो, वहाँ अन्य ‘अल्पसंख्यक पहचान’ को मान्यता प्रदान की जानी चाहिये। 

निष्कर्ष:

  • एक लोकतांत्रिक, बहुलवादी राजनीति में अल्पसंख्यक अधिकार आवश्यक हैं। अत: राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु प्रादेशिक स्तर पर भी अल्पसंख्यकों को परिभाषित तथा अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जम्मू और कश्मीर के लिये नियमों की अधिसूचना

प्रीलिम्स के लिये:

जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम-2019, धारा 370 को निरस्त करने के कारण

मेन्स के लिये:

जम्मू और कश्मीर से संबंधित नए नियम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गृह मंत्रालय (Ministry Of Home Affairs- MHA) ने जम्मू और कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश के लिये व्यापार के लेन-देन के नियमों को अधिसूचित किया है।

प्रमुख बिंदु:

  • इन नियमों को जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 की धारा 55 के तहत अधिसूचित किया गया है।
    • अधिनियम की धारा 55 के अनुसार, “उपराज्यपाल (Lieutenant Governor-LG) मंत्रियों को दायित्त्वों के आवंटन के लिये और उपराज्यपाल एवं मंत्रिपरिषद या एक मंत्री के मध्य मतभेद के मामले में व्यापार के अधिक सुविधाजनक लेन देन के लिये मंत्रिपरिषद की सलाह पर नियम बनाएगा।
  • ये नियम जम्मू कश्मीर में कार्य आवंटन, विभागों के मध्य व्यापार का वितरण एवं उनकी शक्तियाँ, उपराज्यपाल की कार्यकारी शक्तियाँ आदि का विवरण प्रदान करते हैं।
  • नियमों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर में स्कूली शिक्षा, कृषि, उच्च शिक्षा, बागवानी, चुनाव, सामान्य प्रशासन, गृह, खनन, बिजली, लोक निर्माण विभाग, आदिवासी मामले और परिवहन जैसे 39 विभाग होंगे।
  • पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था, अखिल भारतीय सेवाएँ और भ्रष्टाचार विरोधी कार्य उपराज्यपाल के कार्यकारी कार्यों के अंतर्गत आएंगे।
    • इसका तात्पर्य यह है कि मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद की कार्यप्रणाली में अधिक अंतर नहीं होगा।
  • ऐसे प्रस्ताव या मामले जो केंद्र शासित प्रदेश की शांति और अमन को प्रभावित करते हैं या किसी अल्पसंख्यक समुदाय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के हित को प्रभावित करते हैं, उन्हें अनिवार्य रूप से मुख्यमंत्री को सूचित करते हुए मुख्य सचिव के माध्यम से उपराज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।
  • केंद्र या राज्य सरकार के विवाद से संबंधित कोई भी ऐसा मामला, जिसमें केंद्र शासित प्रदेश के हस्तक्षेप की आवश्यकता है, उसे जल्द से जल्द, मुख्य सचिव के माध्यम से उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाया जाएगा।
  • केंद्र से प्राप्त सभी महत्त्वपूर्ण आदेशों/दिशा निर्देशों से संबंधित सूचना को जल्द से जल्द मुख्य सचिव, प्रभारी मंत्री, मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के समक्ष लाया जाएगा।
  • उपराज्यपाल और एक मंत्री के मध्य उत्पन्न मतभेद के मामले में एक माह उपरांत भी कोई समझौता नहीं हो पाने पर, उपराज्यपाल के निर्णय को मंत्रिपरिषद द्वारा स्वीकार कर लिया जाएगा।

पृष्ठभूमि:

  • 5 अगस्त 2019 को केंद्र ने संविधान (जम्मू और कश्मीर के लिये आवेदन) आदेश, 2019 के माध्यम से अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द कर दिया था।
  • एक अलग विधेयक जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक 2019 को दो अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेशों जम्मू और कश्मीर (विधायिका के साथ), और लद्दाख (विधायिका के बिना) में विभाजित करने के लिये पेश किया गया था।
  • इस कदम ने कई नागरिक समूहों के साथ विवाद पैदा कर दिया और वे जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे की बहाली की मांग करने लगे। सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त करने की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।
  • इस कदम का लाभ उठाते हुए, पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, सर क्रीक और जूनागढ़ को शामिल करते हुए अपना एक नया राजनीतिक मानचित्र जारी किया।
  • चीन ने भारत के इस कदम को "अवैध और अमान्य" कहा और इस मुद्दे को न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमेरिका) में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (United Nations Security Council- UNSC) में उठाया।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष समिति ने जम्मू और कश्मीर में एक परीक्षण के आधार पर 4G इंटरनेट सेवाओं की बहाली की सिफारिश की, जिसे अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद राज्य में हिंसा से बचने के लिये निलंबित कर दिया गया था।

स्रोत: द हिंदू


हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड में विनिवेश

प्रिलिम्स के लिये

हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, विनिवेश, आरंभिक सार्वजनिक निर्गम

मेन्स के लिये

सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की आवश्यकता और महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (Hindustan Aeronautics Limited-HAL) की 15 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने के प्रस्ताव को निवेशकों से उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली है।

प्रमुख बिंदु

  • हाल ही में सरकार ने राज्य के स्वामित्त्व वाली हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) में 15 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने का प्रस्ताव किया था।
  • इस संबंध में जारी किये गए प्रस्ताव के अनुसार, सरकार हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के 33.4 मिलियन शेयर या अपनी हिस्सेदारी का 10 प्रतिशत हिस्सा बेचेगी, हालाँकि अत्यभिदान (Oversubscription) या अधिक मांग होने की स्थिति में अतिरिक्त 5 प्रतिशत हिस्सेदारी या 16.71 मिलियन शेयर बेचने का विकल्प भी दिया गया है।
  • प्रस्ताव के अनुसार, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के शेयर बेचने के लिये प्रति शेयर 1,001 रुपए न्यूनतम मूल्य निर्धारित किया गया है।

कारण

  • गौरतलब है कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी ने सरकार के राजस्व को काफी बुरी तरह से प्रभावित किया है, और सरकार को महामारी तथा उसके आर्थिक प्रभावों से निपटने के लिये आवश्यक राजस्व के विषय पर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
  • ऐसी स्थिति में राज्य के स्वामित्त्व वाली कंपनियों के विनिवेश को राजस्व एकत्रित करने के सबसे अच्छे विकल्प के रूप में देखा जा सकता है, यही कारण है कि सरकार हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के विनिवेश की प्रक्रिया को इतनी तेज़ी से पूरा कर रही है।
  • ध्यातव्य है कि सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये 2.1 लाख करोड़ रुपए का महत्त्वाकांक्षी विनिवेश लक्ष्य निर्धारित किया है।

पृष्ठभूमि

  • सर्वप्रथम वर्ष 2018 में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) ने अपना आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (IPO) जारी किया था, जिसके माध्यम से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) में भारत सरकार की हिस्सेदारी 100 प्रतिशत से घटकर 89.97 प्रतिशत पर पहुँच गई थी, इसके माध्यम से सरकार ने तकरीबन 4,229 करोड़ रुपए प्राप्त किये थे।
    • इस तरह हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) के विनिवेश की शुरुआत सर्वप्रथम वर्ष 2018 में हुई थी।
    • ध्यातव्य है कि जब कोई कंपनी पहली बार अपने शेयर सार्वजनिक रूप से लोगों या संस्थाओं के लिये जारी करती है तो उसे आरंभिक सार्वजनिक निर्गम (IPO) कहते हैं।

महत्त्वाकांक्षी विनिवेश लक्ष्य

  • सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSUs) में सरकार की हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया विनिवेश कहलाती है। परंतु विनिवेश के अंतर्गत सरकार उस उपक्रम पर अपना स्वामित्व अथवा मालिकाना हक बनाए रखती है।
  • इसी वर्ष फरवरी माह में सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिये 2.1 लाख करोड़ रुपए का विनिवेश लक्ष्य निर्धारित किया है, जबकि सरकार ने 31 मार्च, 2020 को समाप्त हुए वित्त वर्ष के लिये 1.05 ट्रिलियन रुपए का विनिवेश लक्ष्य निर्धारित किया था।
  • इसी माह की शुरुआत में सरकार ने भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (BPCL) के विनिवेश के लिये बोली लगाने की समय सीमा बढ़ा दी थी।
  • सरकार अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) के विनिवेश की भी तैयारी कर रही है।

हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड और उसकी भूमिका

  • हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) एक राज्य के स्वामित्त्व वाली भारतीय एयरोस्पेस और रक्षा कंपनी है जिसका मुख्यालय भारत के बंगलूरू में स्थित है।
  • इसकी स्थापना बंगलूरू में 23 दिसंबर, 1940 को वालचंद हीराचंद ने हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड के रूप में की थी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मार्च 1941 में सरकार ने कंपनी की एक-तिहाई हिस्सेदारी खरीद ली और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनवरी 1951 में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड को रक्षा मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में ले लिया गया।
  • जिसके पश्चात् अक्तूबर, 1964 में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड का नवगठित एयरोनॉटिक्स इंडिया लिमिटेड के साथ विलय कर दिया गया और इस तरह हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) अस्तित्त्व में आया।
  • 50 से अधिक वर्षों के अनुभव के साथ वर्तमान में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) देश के लिये तमाम तरह के सैन्य हेलीकाप्टरों और विमानों का निर्माण कर रहा है।
  • इस माह की शुरुआत में रक्षा अधिग्रहण परिषद (DAC) ने भारतीय वायु सेना के लिये हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा विकसित किये जा रहे 106 HTT-40 बेसिक ट्रेनर एयरक्राफ्ट (BTA) की खरीद को मंज़ूरी दी थी।
  • ध्यातव्य है कि हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) ने भारतीय सेना की सैन्य आवश्यकताओं को पूरा करने में काफी अहम भूमिका अदा की है, किंतु हालाँकि कई अवसरों पर उत्पादन प्रक्रिया मे देरी के कारण इसकी आलोचना की जाती रही है।

स्रोत: द हिंदू


राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान - एशिया

प्रीलिम्स के लिये

NDC- TPA कार्यक्रम, ग्रीनहाउस गैस, राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान

मेन्स के लिये

कार्बनीकृत परिवहन संबंधी पहलों की आवश्यकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नीति आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC)- एशिया के लिये परिवहन पहल (TPA) के भारत घटक को लॉन्च किया है।

प्रमुख बिंदु

  • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान - एशिया के लिये परिवहन पहल (NDC- TPA)

    • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान - एशिया के लिये परिवहन पहल (NDC- TPA) का उद्देश्य भारत, वियतनाम और चीन में गैर कार्बनीकृत परिवहन को प्रोत्साहन देने हेतु एक व्यापक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना है।
    • इस कार्यक्रम की अवधि 4 वर्ष की है और यह कार्यक्रम विभिन्न हितधारकों के साथ समन्वय कर तमाम तरह के हस्तक्षेपों के माध्यम से भारत तथा अन्य भागीदार देशों को अपने दीर्घकालीन लक्ष्य प्राप्त करने में मदद करेगा।
  • कार्यान्वयन

    • यह एक संयुक्त कार्यक्रम है, जिसे जर्मनी के पर्यावरण, प्रकृति संरक्षण एवं परमाणु सुरक्षा मंत्रालय की अंतर्राष्ट्रीय जलवायु पहल (International Climate Initiative-IKI) का समर्थन प्राप्त है और इस कार्यक्रम को 7 अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के समूह द्वारा लागू किया जाएगा।
    • इस कार्यक्रम के भारतीय घटक को कार्यान्वित करने के लिये भारत सरकार की ओर से नीति आयोग कार्यान्वयन भागीदार के रूप में कार्य करेगा।
  • लक्ष्य

    • ग्रीनहाउस गैस और परिवहन मॉडलिंग की क्षमता को मज़बूत करना
    • देश में गैरकार्बनीकृत परिवहन हेतु हितधारकों के लिये संवाद मंच की शुरुआत करना
    • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये तकनीकी सहयोग प्रदान करना
    • जलवायु परिवर्तन से निपटने में परिवहन क्षेत्र संबंधी कार्यों का वित्तपोषण करना
    • इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicle-EV) की मांग और आपूर्ति नीति पर नीतिगत सिफारिश करना
  • लाभ

    • यह कार्यक्रम देश में इलेक्ट्रिक गतिशीलता (Electric Mobility) को बढ़ावा देने में मदद करेगा
    • इस कार्यक्रम से नीतिगत विकास, इलेक्ट्रिक वाहन बुनियादी ढाँचे के विकास और भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों के बड़े स्तर पर प्रयोग को समर्थन मिलेगा।
  • भारतीय परिवहन क्षेत्र

    • भारत में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा रोड नेटवर्क मौजूद है जो परिवहन के सभी माध्यमों द्वारा अधिकतम ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन करता है।
    • तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के चलते वाहनों की बिक्री भी तेज़ी से बढ़ रही है और वर्ष 2030 तक कुल वाहनों की संख्या में दोगुनी वृद्धि होने की संभावना है।
    • ऐसी स्थिति में पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये भारत के परिवहन क्षेत्र के लिये कार्बनीकृत परिवहन की नीति को अपनाना आवश्यक है।

स्रोत: पी.आई.बी


COVID-19 के दौरान परीक्षा अनिवार्यता उच्चतम न्यायलय का निर्णय

प्रीलिम्स के लिये: 

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, आपदा प्रबंधन अधिनियम,

मेन्स के लिये:

परीक्षा आयोजन के संदर्भ में विश्वविद्यालय और UGC के अधिकार

चर्चा में क्यों?

हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया है कि विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा से जुड़े अन्य संस्थान आतंरिक या अन्य मानदंडों के आधार पर अंतिम वर्ष के छात्रों को डिग्री नहीं दे सकते तथा इसके लिये संस्थानों द्वारा अंतिम वर्ष की परीक्षाओं का आयोजन अनिवार्य होगा।

प्रमुख बिंदु:

  • उच्चतम न्यायालय के अनुसार, ‘आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005’ (Disaster Management Act, 2005) के तहत राज्यों को यह अधिकार है कि वे COVID-19 महामारी के बीच मानव जीवन की रक्षा हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission- UGC) द्वारा जारी परीक्षा दिशा-निर्देशों की अवहेलना कर सकते हैं।
  • हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने यह भी माना कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत राज्यों को बिना परीक्षा आयोजित किये आतंरिक मूल्यांकन के आधार पर ही छात्रों को प्रोन्नति (Promote) प्रदान करने का अधिकार नहीं है।
  • न्यायालय ने निर्देश दिया है कि यदि भविष्य में राज्यों को लगता है कि 30 सितंबर तक परीक्षाओं को आयोजित करना संभव नहीं होगा और वे परीक्षाओं को विलंबित करना चाहते हैं, तो वे इस संदर्भ में UGC से संपर्क कर सकते हैं।  

पृष्ठभूमि:

  • ध्यातव्य है कि UGC द्वारा 6 जुलाई, 2020 को जारी एक दिशा-निर्देश में देश के सभी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को 30 सितंबर तक अंतिम वर्ष की परीक्षाएँ आयोजित करने का निर्देश दिया गया था। 
  • UGC के इस फैसले के विरूद्ध 30 से अधिक छात्रों ने उच्चतम न्यायलय में याचिका दायर की थी। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने उच्चतम न्यायलय के समक्ष COVID-19 के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं के साथ ऑनलाइन परीक्षाओं हेतु  इंटरनेट तथा अन्य आवश्यक संसाधनों की चुनौती का मुद्दा उठाया था। 
  • इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति अशोक भूषण के नेतृत्त्व वाली तीन सदस्यीय न्यायाधीश पीठ द्वारा की गई।  

UGC के फैसले का समर्थन: 

  • उच्चतम न्यायलय ने इस आरोप को स्वीकार नहीं किया कि UGC द्वारा जारी संशोधित दिशा निर्देश  में COVID-19 के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों की ध्यान में नहीं रखा गया या यह संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत  छात्रों और परीक्षकों के जीवन के अधिकार का उल्लंघन था। 
  • इसके लिये न्यायलय ने कई तर्क भी दिये जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
    • उच्चतम न्यायालय के अनुसार, 6 जुलाई को जारी दिशा निर्देशों को छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए आर.सी कुहड़ विशेषज्ञ समिति (R.C. Kuhad Expert Committee) की सिफारिशों  के आधार पर तैयार किया गया था।
    • UGC द्वारा जारी दिशा निर्देशों में तीन तरीकों की स्वीकृति दी गई थी- कलम और कागज (Pen and Paper), ऑनलाइन (Online) तथा मिश्रित (भौतिक एवं ऑनलाइन दोनों)। साथ ही परीक्षा देने में असमर्थ छात्रों को एक "विशेष मौका" भी दिया गया था।
    • विश्वविद्यालयों को परीक्षाओं की तैयारी के लिये 31 जुलाई से 30 सितंबर तक का समय भी  दिया गया था।
    • UGC द्वारा जारी दिशा निर्देशों के तहत खंड-6 में इस बात पर विशेष बल दिया गया कि परीक्षाओं का आयोजन विश्वविद्यालय सुरक्षा प्रोटोकॉल के पालन के बाद ही किया जा सकता है। 
    • उच्चतम न्यायलय ने इस तथ्य को भी रेखांकित किया कि COVID-19 महामारी और विश्वविद्यालयों की चुनौतियों को देखते हुए ही पूर्व में निर्धारित 31 जुलाई की तिथि को बढ़ाकर 30 सितंबर कर दिया गया था  

शैक्षणिक कैलेण्डर में एकरूपता :   

  • उच्चतम न्यायालय के अनुसार, कुछ राज्यों में COVID-19 के कारण खराब स्थिति होने के बावजूद भी परीक्षाओं की एक सामान तिथि के निर्धारण का निर्णय UGC के अधिकार क्षेत्र का हिस्सा है और यह उच्च शिक्षा के संस्थानों में मानकों का निर्धारण तथा उनके समन्वय के लिये आवश्यक है।  
  • उच्चतम न्यायालय ने UGC द्वारा पूरे देश शैक्षणिक कैलेंडर में एकरूपता बनाए रखने हेतु अंतिम वर्ष की परीक्षाओं के आयोजन हेतु समान तिथि के निर्धारण को सही बताया।  
  • याचिकाकर्ताओं ने कहा कि संशोधित दिशा निर्देश दो मामलों में संविधान के अनुच्छेद-14 का उल्लंघन करते हैं- 
  • देश के अलग-अलग हिस्सों की परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना पूरे देश में परीक्षाओं के लिये एक तिथि का निर्धारण। 
  • 2- अंतिम वर्ष के छात्रों को परीक्षा में शामिल होने की अनिवार्यता, अंतिम वर्ष और अन्य (प्रथम/द्वितीय वर्ष) छात्रों के बीच भेदभाव है।   
  • उच्चतम न्यायलय के अनुसार, UGC ने 6 जुलाई के दिशा निर्देशों में अंतिम वर्ष के छात्रों को परीक्षा में शामिल होने की अनिवार्यता निर्धारित कर उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया है क्योंकि अंतिम वर्ष की परीक्षाएँ छात्रों को अपनी क्षमता का प्रदर्शन करने का अवसर प्रदान करती हैं और यह शिक्षा अथवा रोज़गार के क्षेत्र में उसके भविष्य का निर्धारण करती हैं।

परीक्षा तिथि निर्धारण के संबंध में UGC के अधिकार:   

  • उच्चतम न्यायलय के अनुसार, UGC 6 जुलाई के दिशा निर्देशों को जारी करने से पहले राज्यों अथवा विश्वविद्यालयों से परामर्श करने के लिये बाध्य नहीं था।
  • राज्य और विश्वविद्यालय UGC के दिशा निर्देशों को मात्र सुझाव बताकर इसे खारिज नहीं कर सकते हैं।
  • विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के ‘औपचारिक शिक्षा के माध्यम से परास्नातक उपाधि प्रदान करने संबंधी निर्देशों के न्यूनतम मानक विनियम, 2003’ के तहत विश्वविद्यालयों द्वारा UGC के दिशा निर्देशों को अपनाना अनिवार्य है।  
  • गौरतलब है कि 31 जुलाई को उच्चतम न्यायालय में UGC द्वारा प्रस्तुत शपथ-पत्र के अनुसार,  देश के 818 विश्वविद्यालयों में से 603 में या तो अंतिम वर्ष की परीक्षाएँ आयोजित की जा चुकी थीं या वे अगस्त-सितंबर में इन्हें आयोजित करने की तैयारी कर रहे थे। 

निष्कर्ष:

COVID-19 महामारी के कारण अन्य क्षेत्रों के साथ शिक्षा के क्षेत्र पर भी गंभीर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है। इस महामारी के दौरान परीक्षाओं का आयोजन छात्रों के साथ-साथ शिक्षा संस्थानों के लिये भी एक बड़ी चुनौती है। हालाँकि देश भर में शिक्षित कैलेण्डर में एकरूपता बनाए रखने और छात्रों के भविष्य को देखते हुए परीक्षाओं का आयोजन आवश्यक है परंतु सरकार को वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए सभी हितधारकों के सहयोग से इस समस्या के समाधान विशेष विकल्पों पर पुनः विचार चाहिये।      

स्त्रोत: द हिंदू 


कृषि अध्यादेश का विरोध

प्रीलिम्स के लिये:

विद्युत (संशोधन) विधेयक, आत्मनिर्भर भारत अभियान, कृषि अवसंरचना कोष , ‘ई-नाम’

मेन्स के लिये:

सहकारी संघवाद, केंद्र और राज्य सरकार की शक्तियों से संबंधित प्रश्न

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पंजाब सरकार ने विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत कृषि अध्यादेशों और प्रस्तावित विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2020 को खारिज कर दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि COVID-19 महामारी से निपटने हेतु केंद्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कृषि क्षेत्र में 11 महत्त्वपूर्ण सुधारों की घोषणा की गई थी।
  • केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने और कृषि आय को दोगुना करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु इन सुधारों के तहत कृषि क्षेत्र के लिये एक लाख करोड़ रुपए के फंड की घोषणा के साथ कुछ कानूनी सुधारों की भी घोषणा की गई थी।
  • ‘कृषि उपज वाणिज्य एवं व्यापार (संवर्द्धन एवं सुविधा) अध्यादेश 2020’:
    • इस अध्यादेश का उद्देश्य किसानों और व्यापारियों को कृषि उत्पाद विपणन समिति’ (Agricultural Produce Market Committee- APMC) की सीमाओं से बाहर व्यापार के अतिरिक्त अवसर उपलब्ध करना था
    • यह अध्यादेश राज्य कृषि उत्पादन विपणन संघों के तहत अधिसूचित बाज़ारों के बाहर अवरोध मुक्त अंतर-राजकीय व्यापार और वाणिज्य को भी बढ़ावा देता है।
    • साथ ही या किसानों को अपनी सुविधा के अनुसार कृषि उत्पाद खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
  • ‘मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020’:
    • इस अध्यादेश में भारतीय कृषि क्षेत्र की प्रमुख चुनौतियों (छोटी जोत, मौसम पर निर्भरता और बाज़ार की अनिश्चितता आदि) को दूर करने के उद्देश्य से कुछ सुधार प्रस्तावित किये गए हैं।
    • इस अध्यादेश में किसानों को अपनी उपज की बिक्री हेतु सीधे प्रसंस्करणकर्त्ताओं, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा कारोबारियों, निर्यातकों आदि से जुड़ने की व्यवस्था दी गई है।
  • आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश, 2020:
    • इस अध्यादेश के माध्यम से सरकार ने अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेलों, प्‍याज और आलू आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रस्ताव किया था।
  • विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2020:
    • केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2020 में राज्य विद्युत नियामक आयोगों के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति हेतु अलग-अलग चयन समिति के स्थान पर एक राष्ट्रीय चयन समिति के गठन का प्रस्ताव किया गया। साथ ही इस विधेयक में विद्युत् वितरण प्रणाली को मज़बूत बनाने हेतु डिस्कॉम (DISCOM) कंपनियों को राज्य विद्युत नियामक आयोग की अनुमति के आधार पर किसी क्षेत्र विशेष में सब-लाइसेंस जारी करने का विकल्प प्रदान किया गया।

आपत्तियाँ:

  • ‘मूल्य आश्वासन पर किसान (बंदोबस्ती और सुरक्षा) समझौता और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020’, के तहत राज्य सरकारों को इस अध्यादेश के तहत किये गए किसी भी कारोबार के लिये किसानों, व्यापारियों या इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म पर किसी भी प्रकार का शुल्क या उपकर लगाने से प्रतिबंधित करता है।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, कृषि क्षेत्र में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित अध्यादेशों से कृषि उपज से राज्यों को होने वाली आय के साथ राज्य सरकारों के हस्तक्षेप की शक्ति में कटौती होगी।
  • कई राज्यों ने विद्युत संशोधन विधेयक में राष्ट्रीय चयन समिति के गठन के प्रावधान को शक्ति के केंद्रीकरण का प्रयास बताया है।
  • पंजाब के मुख्यमंत्री ने विधानसभा में इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करते हुए केंद्र सरकार द्वारा पारित अध्यादेशों और विद्युत (संशोधन) विधेयक को राज्य के लोगों (विशेषकर किसानों और मज़दूरों) के हितों के साथ भारतीय संविधान के खिलाफ बताया है।
  • उन्होंने कहा कि संविधान की सूची-II (राज्य सूची) की प्रविष्टि-14 के तहत कृषि को राज्य के विषय के रूप में शामिल किया गया है , अतः केंद्र सरकार का निर्णय राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप के साथ संविधान में निहित सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) की भावना के खिलाफ है।
  • पंजाब सरकार ने केंद्र सरकार से इन अध्यादेशों को वापस लेते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खाद्यान्न और अन्य कृषि उत्पादों की खरीद हेतु नए अध्यादेश जारी करने का आग्रह किया है।

आगे की राह:

  • वर्तमान में भी देश में किसानों की एक बड़ी आबादी के पास छोटी जोत है और उनके पास आधुनिक उपकरणों का अभाव है, ऐसे में सरकार को कृषि में वैज्ञानिक पद्धति के उपयोग और नवीन उपकरणों हेतु आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने का प्रयास करना चाहिये।
  • सरकार द्वारा कृषि अवसंरचना कोष (Agriculture Infrastructure Fund-AIF) की स्थापना का निर्णय इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम है।
  • कृषि क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिये जाने के साथ APMC में आवश्यक सुधारों के साथ ‘ई-नाम’ (e-NAM) जैसे नवीन प्रयासों को आगे ले जाने पर विशेष बल देना चाहिये।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत राज्य और केंद्र सरकार की विधायी शक्तियों की व्याख्या की गई है।
  • संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत तीन प्रकार की सूचियों को शामिल किया गया है।
    1. संघ सूची (Union List)
    2. राज्य सूची (State List)
    3. समवर्ती सूची (Concurrent List)

संघ सूची (Union List): इस सूची में राष्ट्रीय महत्त्व के ऐसे विषयों को शामिल किया गया है। इस सूची में शामिल विषयों पर केवल संसद को कानून बनाये का अधिकार दिया गया है। इस सूची में रक्षा, विदेशी मामलों, बैंकिंग,संचार और मुद्रा आदिको शामिल किया गया है।

राज्य सूची (State List): स्थानीय महत्व के विषय (जैसे पुलिस, व्यापार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाईआदि) को शामिल किया गया है। इस सूची में शामिल विषयों पर राज्य विधान सभा को कानून बनाने का अधिकार दिया गया है।

समवर्ती सूची (Concurrent List): इस सूची में उन विषयों को शामिल किया गया , है जिनमें केंद्र व राज्य दोनों की ही भागीदारी की आवश्यकता होती है। समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर संसद और राज्य विधानसभा दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। इस सूची में शिक्षा, वन, व्यापार संघ, विवाह आदि विषयों को शामिल किया गया है।

स्रोत: द हिंदू