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डेली न्यूज़

  • 25 May, 2022
  • 73 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा

प्रिलिम्स के लिये:

इंडो-पैसिफिक, क्वाड, पेरिस समझौता, सीईपीए (व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता)।

मेन्स के लिये:

भारत से जुड़े समूह एवं समझौते और/या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले द्विपक्षीय समूह तथा समझौते, क्वाड, इंडो-पैसिफिक एवं इसका महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री ने हिंद-प्रशांत आर्थिक ढाँचा (IPEF) को लॉन्च करने के लिये टोक्यो में एक कार्यक्रम में भाग लिया।

  • यह आर्थिक पहल टोक्यो में क्वाड लीडर्स (भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान) के दूसरे इन-पर्सन समिट से एक दिन पहले संपन्न हुई।

क्वाड (QUAD): 

  • यह चार लोकतांत्रिक देशों- भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया का समूह है।
  • इन चारों देशों का एक समान आधार है, इनका लोकतांत्रिक होने के साथ-साथ ये निर्बाध समुद्री व्यापार और सुरक्षा के साझा हितों का समर्थन भी करते हैं।
  • क्वाड को "मुक्त, खुला और समृद्ध" हिंद-प्रशांत क्षेत्र सुनिश्चित करने तथा समर्थन करने का साझा उद्देश्य रखने वाले चार लोकतंत्रों के रूप में पहचाना गया है।
  • क्वाड की अवधारणा औपचारिक रूप से सबसे पहले वर्ष 2007 में जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे द्वारा प्रस्तुत की गई थी, हालाँकि चीन के दबाव में ऑस्ट्रेलिया के पीछे हटने के कारण इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सका।
  • अंतत: वर्ष 2017 में भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान ने एक साथ आकर इस "चतुर्भुज" गठबंधन का गठन किया।

IPEF का महत्त्व:

  • परिचय:  
    • यह अमेरिका के नेतृत्व वाली एक पहल है जिसका उद्देश्य हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लचीलापन, स्थिरता, समावेशिता, आर्थिक विकास, निष्पक्षता और प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने के लिये भाग लेने वाले देशों के बीच आर्थिक साझेदारी को मज़बूत करना है।
    • IPEF को 12 देशों के प्रारंभिक भागीदारों के साथ लॉन्च किया गया था जो सामूहिक रूप से विश्व सकल घरेलू उत्पाद में 40% की हिस्सेदारी रखते हैं।
  • भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिये अवसर:
    • इसका उद्देश्य भारत-प्रशांत क्षेत्र को वैश्विक आर्थिक विकास का प्रमुख गंतव्य बनाना है।
  • आर्थिक दृष्टि:
    • हिंद-प्रशांत क्षेत्र दुनिया की आधी आबादी और वैश्विक जीडीपी के 60% से अधिक में अपनी हिस्सेदारी रखता है तथा जो राष्ट्र भविष्य में इस ढाँचे में शामिल होंगे, वे आर्थिक प्रगति को दिशा प्रदान करने में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर इससे समान रूप से लाभान्वित होंगे।
  • लक्षित क्षेत्र: पारंपरिक व्यापार क्षेत्रों के विपरीत IPEF टैरिफ या बाज़ार पहुँच पर बातचीत न कर यह ढाँचा चार क्षेत्रों में भागीदार देशों को एकीकृत करने पर ध्यान केंद्रित करेगा जिसमें निम्नलिखित लक्ष्य शामिल हैं:
    • व्यापार: यह उच्च मानक, समावेशी, मुक्त और निष्पक्ष-व्यापार प्रतिबद्धताओं का निर्माण करने एवं व्यापार व प्रौद्योगिकी नीति में नए तथा रचनात्मक दृष्टिकोण विकसित करने का इरादा रखता है जो आर्थिक गतिविधि और निवेश को बढ़ावा देने वाले उद्देश्यों के व्यापक उपायों को आगे बढ़ाता है एवं सतत् व समावेशी आर्थिक विकास को बढ़ावा देकर श्रमिकों तथा उपभोक्ताओं को लाभान्वित करता है। 
    • आपूर्ति शृंखला: IPEF आपूर्ति शृंखलाओं में पारदर्शिता, विविधता, सुरक्षा और स्थिरता में सुधार लाने के लिये प्रतिबद्ध है ताकि उन्हें अधिक लचीला और अच्छी तरह से एकीकृत किया जा सके।
      • संकट के समय प्रतिक्रिया उपायों का समन्वय करना, व्यापार निरंतरता को बेहतर ढंग से सुनिश्चित करने के लिये व्यवधानों के प्रभावों को बेहतर ढंग से दूर  करने और कम करने के लिये सहयोग का विस्तार करना, रसद दक्षता एवं समर्थन में सुधार, प्रमुख कच्चे माल तथा प्रसंस्कृत सामग्री, अर्द्धचालक, महत्त्वपूर्ण खनिजों और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी तक पहुँच सुनिश्चित करना।
    • स्वच्छ ऊर्जा, डीकार्बोनाइज़ेशन और अवसंरचना: पेरिस समझौते के लक्ष्यों और लोगों एवं श्रमिकों की आजीविका का समर्थन करने के प्रयासों के अनुरूप यह हमारी अर्थव्यवस्थाओं को डीकार्बोनाइज़ करने और जलवायु प्रभावों के प्रति लचीली बनाने के लिये स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के विकास व तैनाती में तेज़ी लाने की योजनाओं पर काम कर रहा है।
      • इसमें प्रौद्योगिकियों पर सहयोग को मज़बूत करना, रियायती वित्त सहित तकनीकी सहायता प्रदान करके प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार और कनेक्टिविटी बढ़ाने के तरीकों की तलाश करना शामिल है।
    • कर और भ्रष्टाचार-रोधी: यह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में कर चोरी और भ्रष्टाचार को रोकने के लिये मौजूदा बहुपक्षीय दायित्वों, मानकों तथा समझौतों के अनुरूप प्रभावी एवं मज़बूत टैक्स-एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग और रिश्वत-विरोधी शासन लागू करके निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने के लिये प्रतिबद्ध है। 
      • इसमें विशेषज्ञता साझा करना और जवाबदेह तथा पारदर्शी प्रणालियों को आगे बढ़ाने के लिये आवश्यक क्षमता निर्माण का समर्थन करने के तरीकों की तलाश करना शामिल है।

भारत-प्रशांत क्षेत्र के लिये भारत का दृष्टिकोण: 

  • इस क्षेत्र में भारत का व्यापार तेज़ी से बढ़ रहा है, विदेशी निवेश को पूर्व की ओर निर्देशित किया जा रहा है, उदाहरण के लिये जापान, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर के साथ व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते तथा आसियान (दक्षिणपूर्व एशियाई राष्ट्र संघ) एवं थाईलैंड के साथ मुक्त व्यापार समझौते।
  • भारत एक स्वतंत्र और खुले इंडो-पैसिफिक का सक्रिय समर्थक रहा है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तथा आसियान के सदस्यों ने इस क्षेत्र में भारत की बड़ी भूमिका को लेकर समान विचार व्यक्त किया है।
  • भारत अपने क्वाड पार्टनर्स के साथ हिंद-प्रशांत में अपने प्रयासों को आगे बढ़ा रहा है।
  • भारत का विचार हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अन्य समान विचारधारा वाले देशों के साथ मिलकर काम करना है ताकि नियम-आधारित बहुध्रुवीय क्षेत्रीय व्यवस्था का सहकारी प्रबंधन किया जा सके तथा किसी एक शक्ति को इस क्षेत्र या इसके जलमार्गों पर हावी होने से रोका जा सके।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

बहिर्वाह प्रेषण प्रवृत्ति

प्रिलिम्स के लिये:

उदारीकृत प्रेषण योजना, प्रेषण, आरबीआई।

मेन्स के लिये:

उदारीकृत प्रेषण योजना का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

आरबीआई की उदारीकृत प्रेषण योजना के तहत कुल बहिर्वाह प्रेषण, मार्च 2022 में 12.684 बिलियन अमेरिकी डॉलर के मुकाबले मार्च 2022 के अंत तक 19.61 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सर्वकालिक उच्च स्तर पर पहुँच गया था।

  • मार्च 2022 को समाप्त वित्तीय वर्ष के दौरान निवासी भारतीयों द्वारा देश से बाहर ले जाए जाने वाले अमेरिकी डॉलर और यूरो सहित विदेशी मुद्रा में 54.60% की वृद्धि हुई है।

going-abroad

प्रेषण:

  • प्रेषण से आशय प्रवासी कामगारों द्वारा धन अथवा वस्तु के रूप में अपने मूल समुदाय/परिवार को भेजी जाने वाली आय से है।
  • यह मूल रूप से दो मुख्य घटकों का योग है- निवासी और अनिवासी परिवारों के मध्य नकद या वस्तु के रूप में व्यक्तिगत स्थानांतरण तथा कर्मचारियों का मुआवज़ा, यह उन श्रमिकों की आय को संदर्भित करता है जो सीमित समय के लिये दूसरे देश में काम करते हैं।
  • प्रेषण प्राप्तकर्त्ता देशों में आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में सहायता करते हैं, लेकिन यह ऐसे देशों को प्रेषण अर्थव्यवस्था पर अधिक निर्भर भी बना सकता है।

बहिर्वाह प्रेषण:

  • विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा), 1999 के अनुसार, बहिर्वाह प्रेषण का आशय किसी भी वास्तविक उद्देश्य से भारत से किसी व्यक्ति द्वारा भारत के बाहर एक लाभार्थी (नेपाल और भूटान को छोड़कर) को विदेशी मुद्रा के रूप में धन का हस्तांतरण करना है।

बहिर्वाह प्रेषण प्रवृत्ति:

  • कुल बहिर्वाह प्रेषण:
    • कुल बहिर्वाह प्रेषण वित्त वर्ष 2022 में अपने सर्वकालिक उच्च स्तर पर था क्योंकि इसने कोविड-19 व्यवधान में कमी के कारण पिछले वर्ष के कमज़ोर प्रदर्शन की तुलना में मज़बूत वापसी की।
    • इस वापसी को अंतर्राष्ट्रीय यात्रा और विदेशी शिक्षा पर भारतीयों के अधिक खर्च किये जाने की वजह से समर्थन मिला।
  • बहिर्वाह प्रेषण के भाग:
    • अंतर्राष्ट्रीय यात्रा: वित्त वर्ष 2022 में अंतर्राष्ट्रीय यात्रा में तेज़ी आई, जिसके परिणामस्वरूप भारत ने यात्रा पर 6.91 बिलियन अमेरिकी डॉलर खर्च किया, जो कि वित्त वर्ष 2021 में यात्रा पर किये गए खर्च के दोगुने से अधिक है।
      • हालांँकि वित्त वर्ष 2020 में भी भारतीयों द्वारा यात्रा पर किया गया खर्च लगभग 6.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
    • विदेशी शिक्षा: विदेशी शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण खंड है जिसने वित्त वर्ष 2022 में समुचित विकास देखा है क्योंकि भारतीयों ने वर्ष में 5.17 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का प्रेषण किया है।
      • इसमें वित्त वर्ष 2021 से 35% की वृद्धि देखी गई है, जब भारतीयों ने 3.83 बिलियन अमेरिकी डॉलर का प्रेषण किया था।
      • वित्त वर्ष 2020 में विदेशी शिक्षा के लिये प्रेषण लगभग 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
    • उपहार: भारतीयों ने वित्त वर्ष 2022 में उपहार के रूप में 2.34 बिलियन अमेरिकी डॉलर का प्रेषण किया, जो वित्त वर्ष 2021 की तुलना में 47.28% अधिक है।
      • वित्त वर्ष 2020 में भारतीयों ने LRS योजना के तहत उपहार के रूप में लगभग 1.91 बिलियन अमेरिकी डॉलर भेजे।

विदेशी इक्विटी और ऋण में निवेश:

  • भारतीयों द्वारा विदेशी इक्विटी और ऋण में निवेश भी वित्त वर्ष 2022 में बढ़कर 746.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया, जबकि पिछले वर्ष यह 471.80 मिलियन अमेरिकी डॉलर था।

उदारीकृत प्रेषण योजना:

  • यह योजना भारतीय रिज़र्व बैंक के तत्त्वावधान में फरवरी 2004 में प्रारंभ की गई थी।
  • वर्तमान समय में LRS के तहत सभी निवासी व्यक्तियों जिसमें नाबालिग भी शामिल हैं, को किसी भी अनुमेय चालू या पूंजी खाता लेन-देन या दोनों के संयोजन के लिये प्रत्येक वित्तीय वर्ष (अप्रैल-मार्च) तक 2,50,000 डॉलर तक की छूट दी जाती है।
  • यह योजना किसी कॉर्पोरेट, फर्म, हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) एवं ट्रस्ट आदि के लिये उपलब्ध नहीं है।
  • LRS के तहत प्रेषण की आवृत्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं है, किंतु एक वित्तीय वर्ष के दौरान भारत में सभी स्रोतों से प्रेषित अथवा उनके माध्यम से खरीदे गए विदेशी मुद्रा की कुल राशि 2,50,000 डॉलर की निर्धारित संचयी (Cumulative) सीमा के भीतर होनी चाहिये।

चालू और पूंजी खाता विनिमय:

  • चालू खाता विनिमय: एक निवासी द्वारा किये गए सभी लेन-देन जो भारत के बाहर आकस्मिक देनदारियों सहित उसकी संपत्ति या देनदारियों को परिवर्तित नहीं करते हैं, चालू खाता विनिमय कहलाते हैं।
    • उदाहरण: विदेश व्यापार के संबंध में भुगतान, विदेश यात्रा के संबंध में खर्च, शिक्षा आदि।
  • पूंजी खाता विनिमय: इसमें वे लेन-देन शामिल हैं जो भारत के निवासी द्वारा किये जाते हैं जिसमें भारत के बाहर उसकी संपत्ति या देनदारियाँ परिवर्तित हो जाती हैं (या तो बढ़ जाती है या घट जाती है)।
    • उदाहरण: विदेशी प्रतिभूतियों में निवेश, भारत के बाहर अचल संपत्ति का अधिग्रहण आदि।

विगत वर्ष के प्रश्न:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा पूंजी खाता है? (2013)

  1. विदेशी ऋण
  2. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
  3. निजी प्रेषण
  4. पोर्टफोलियो निवेश

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(A) केवल 1, 2 और 3
(B) केवल 1, 2 और 4
(C) केवल 2, 3 और 4
(D) केवल 1, 3 और 4

उत्तर: B

व्याख्या:

  • भुगतान संतुलन (BoP) के दो प्राथमिक घटकों में एक पूंजी खाता, जबकि दूसरा चालू खाता है। चालू खाता देश की शुद्ध आय को दर्शाता है, जबकि पूंजी खाता राष्ट्रीय संपत्ति के स्वामित्व में शुद्ध परिवर्तन को दर्शाता है।
  • पूंजी खाते में निम्नलिखित मदें शामिल होती हैं:
    • विदेशी ऋण। अतः कथन 1 सही है।
    • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI)। अतः कथन 2 सही है।
    • पोर्टफोलियो निवेश। अतः कथन 4 सही है।
    • अन्य निवेश।
    • रिज़र्व खाता।
  • निजी प्रेषण चालू खाते के अंतर्गत आते हैं। 

अतः विकल्प (B) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भूगोल

असम में मानसून-पूर्व भारी क्षति

प्रिलिम्स के लिये:

भूस्खलन, बाढ़, मानसून।

मेन्स के लिये:

असम और अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में मानसून-पूर्व बाढ़ और भूस्खलन का कारण।

चर्चा में क्यों?

मानसून का आना अभी बाकी है लेकिन उससे पहले ही असम बाढ़ और भूस्खलन से बुरी तरह प्रभावित है, जिसके कारण 15 लोगों की मौत गई तथा 7 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं।

  • दीमा हसाओ का पहाड़ी ज़िला, विशेष रूप से बाढ़ और भूस्खलन से क्षतिग्रस्त हो गया है, जिससे राज्य के बाकी हिस्सों से उसका संपर्क टूट गया है।

इस क्षतिग्रस्तता के कारक:

  • मानसून-पूर्व अति वर्षा:
    • असम में 1 मार्च से 20 मई की अवधि में औसत वर्षा 434.5 मिमी. होती है, जबकि इस वर्ष की इसी अवधि में 719 मिमी. वर्षा हुई है जो कि 65% अधिक है।
    • पड़ोसी राज्य मेघालय में यह 137% से भी अधिक दर्ज की गई है।
  • ज़लवायु परिवर्तन:
    • वर्षा के समय और पैमाने के लिये जलवायु परिवर्तन को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
    • जलवायु परिवर्तन के कारण अधिक केंद्रित और भारी वर्षा की घटनाएँ होती हैं।

प्री-मानसून के दौरान भूस्खलन का कारण:

  • यह "पहाड़ियों के नाजुक भूदृश्य पर अवांछित, अव्यावहारिक, अनियोजित संरचनात्मक हस्तक्षेप" का कारण है।
  • पिछले कुछ वर्षों में रेलवे लाइन और फोर लेन राजमार्ग के विस्तार के लिये न केवल बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, बल्कि ज़िला अधिकारियों की मिलीभगत से बड़े पैमाने पर नदी के किनारे खनन भी किया गया है।
  • असम और पड़ोसी राज्यों में बुनियादी ढांँचे के विकास के रूप में नदियों और झरने जैसे जल स्रोतों पर तेज़ी से सड़कों का निर्माण किया जा रहा है, परिणामस्वरूप हाल के वर्षों में राज्य में भूस्खलन में वृद्धि हुई है।

आगे की राह

  • निर्माण कार्यों को क्षेत्र की पारिस्थितिक संवेदनशीलता के अनुरूप किये जाने की आवश्यकता है तथा "सजगता के साथ निर्माण" और "राज्य की सीमाओं के पार एकीकृत समग्र दृष्टिकोण" समय की आवश्यकता है।
  • "पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों" को ध्यान में रखने और "सतत् बुनियादी ढाँचे" के निर्माण के लिये स्थानीय समुदाय को शामिल करने का सुझाव दिया गया है।
  • हर चीज़ के लिये जलवायु परिवर्तन को दोष देना उचित नहीं है, ऐसी आपदाओं के प्रति जलवायु परिवर्तन के संयोजन में हमने ज़मीनी स्तर पर जो समस्याएँ पैदा की हैं, उन पर पुनः विचार करने की ज़रूरत है।

भूस्खलन:

  • परिचय:
    • भूस्खलन को सामान्य रूप से शैल, मलबा या ढाल से गिरने वाली मिट्टी के बृहत संचलन के रूप में परिभाषित किया जाता है।
      • यह एक प्रकार का वृहद् पैमाने पर अपक्षय है, जिससे गुरुत्वाकर्षण के प्रत्यक्ष प्रभाव में मिट्टी और चट्टान समूह खिसक कर ढाल से नीचे गिरते हैं।
      • भूस्खलन के अंतर्गत ढलान संचलन के पाँच तरीके शामिल हैं: गिरना (Fall), लटकना (Topple), फिसलना (Slide), फैलना (Spread) और प्रवाह (Flow)।

landslide

  • संबंधित कदम:
    • भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) ने देश में पूरे 4,20,000 वर्ग किलोमीटर के भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र के 85% भाग के लिये एक राष्ट्रीय भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्रण जारी किया है। इस मानचित्र में आपदा की प्रवृत्ति के अनुसार क्षेत्रों को अलग-अलग ज़ोन में बाँटा गया है।
      • पूर्व चेतावनी प्रणालियों में सुधार, निगरानी और संवेदनशीलता, क्षेत्रीकरण से भूस्खलन के नुकसान को कम किया जा सकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


भारतीय अर्थव्यवस्था

वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट: ILO

प्रिलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, वर्साय की संधि, राष्ट्र संघ।

मेन्स के लिये:

वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट पर ILO मॉनिटर के निष्कर्ष और सिफारिशें।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट पर ILO मॉनिटर का नौवाँ संस्करण ज़ारी किया, जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2021 की अंतिम तिमाही के दौरान महत्त्वपूर्ण लाभ के बाद वर्ष 2022 की पहली तिमाही में वैश्विक स्तर पर काम के घंटों की संख्या में गिरावट आई है, जो कोविड-19 से पहले रोज़गार की स्थिति से 3.8 प्रतिशत कम है।

  • इसका मुख्य कारण हाल ही में चीन में लॉकडाउन, यूक्रेन एवं रूस के बीच संघर्ष और खाद्य एवं ईंधन की कीमतों में वैश्विक वृद्धि है।
  • रिपोर्ट इस संदर्भ में वैश्विक अवलोकन प्रदान करती है कि देश कैसे अनियमित श्रम बाज़ार में सुधार कर रहे हैं, जो यूक्रेन के खिलाफ रूसी आक्रामकता, बढ़ती मुद्रास्फीति और सख्त कोविड-19 रोकथाम उपायों की निरंतरता जैसे कारकों से बाधित हुआ है।

रिपोर्ट के अन्य निष्कर्ष:

  • वैश्विक:
    • कार्यावधि में कमी:
      • भारत और निम्न-मध्यम-आय वाले देशों ने वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही में कार्यावधि गिरावट में लैंगिक अंतर का अनुभव किया।
      • हालाँकि भारत में महिलाओं के काम के घंटों का प्रारंभिक स्तर बेहद कम था, भारत में महिलाओं द्वारा किये गए कार्य के घंटों में कमी का निम्न-मध्यम-आय वाले देशों के समग्र प्रदर्शन पर मामूली प्रभाव पड़ा है।
      • इसके विपरीत भारत में पुरुषों द्वारा कार्य करने के घंटों में कमी का समग्र प्रदर्शन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।
    • विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बीच अंतर:
      • विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बीच महत्त्वपूर्ण व बढ़ती असमानता बनी हुई है।
      • जहांँ उच्च आय वाले देशों में काम के घंटों में सुधार देखा गया, वहीं निम्न और निम्न-मध्यम-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में संकट-पूर्व आधार रेखा की तुलना में वर्ष की पहली तिमाही में 3.6 एवं 5.7 प्रतिशत की गिरावट देखी गई।
    • कार्यस्थल बंद होने की प्रवृत्ति:
      • वर्ष 2021 के अंत और वर्ष 2022 की शुरुआत में संक्षिप्त उछाल के बाद वर्तमान में कार्यस्थल बंद होने की प्रवृत्ति में गिरावट आई है।
      • जबकि अधिकांश श्रमिक किसी-न-किसी प्रकार के कार्यस्थल प्रतिबंध वाले देशों में रहते हैं, लेकिन प्रतिबंध का सबसे गंभीर रूप (आवश्यक कार्यस्थलों को छोड़कर सभी के लिये अर्थव्यवस्था-व्यापी आवश्यक बंद) अब लगभग समाप्त हो गया है।
      • हाल ही में सख्ती के साथ कार्यस्थलों को बंद करने में यह कटौती यूरोप और मध्य एशिया में विशेष रूप से स्पष्ट की गई थी, जहांँ वर्तमान में 70% श्रमिकों को या तो केवल अनुशंसित बंद का सामना करना पड़ता है या बिल्कुल भी नहीं।
    • रोज़गार पुनः प्राप्ति प्रवृत्तियों में विचलन:
      • काम के घंटों में समग्र विचलन के अनुरूप वर्ष 2021 के अंत तक अधिकांश उच्च-आय वाले देशों में रोज़गार के स्तर में सुधार हुआ था, जबकि अधिकांश मध्यम-आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में घाटे की प्रवृत्ति बनी रही।
      • वर्ष 2019 की अंतिम तिमाही से रोज़गार-से-जनसंख्या अनुपात में अंतर वर्ष 2021 के अंत तक समाप्त हो गया था।
    • श्रम आय की अब तक पुनः प्राप्ति नहीं हुई है:
      • वर्ष 2021 में पाँच में से तीन श्रमिक उन देशों में रहते थे जहाँ औसत वार्षिक श्रम आय अभी तक वर्ष 2019 की चौथी तिमाही के अपने स्तर तक नहीं पहुँच पाई थी।
      • निम्न, निम्न-मध्यम और उच्च-मध्यम आय वाले देशों (चीन को छोड़कर) में श्रमिकों को वर्ष 2021 में क्रमशः -1.6%, -2.7% और -3.7% की दर से कम श्रम आय भुगतान पर कार्य करना पड़ा।
    • अनौपचारिक रोज़गार अधिक प्रभावित हुआ, विशेष रूप से महिलाओं के मामले में लेकिन औपचारिक रोज़गार की तुलना में विपरीत स्थिति विद्यमान है:
      • उदाहरण के लिये औपचारिक रोज़गार से विस्थापित श्रमिक आजीविका चलाने के लिये अनौपचारिक रोज़गार का सहारा लेते हैं, जबकि जो पहले से ही अनौपचारिक रोज़गार में हैं, वे वहीं पर बने रहते हैं।
      • इस कारण से आर्थिक मंदी के दौरान अनौपचारिक रोज़गार में औपचारिक रोज़गार की तुलना में कम परिवर्तन देखा गया।
  • भारत:
    • महामारी से पहले रोज़गार में संलग्न हर 100 महिलाओं में से महामारी की इस पूरी अवधि के दौरान औसतन 12.3 महिलाओं ने अपना रोज़गार खो दिया।
    • इसके विपरीत प्रत्येक 100 पुरुषों पर यह आँकड़ा 7.5 है।
    • इसलिये ऐसा लगता है कि महामारी ने देश में रोज़गार भागीदारी में पहले से ही व्याप्त लैंगिक असंतुलन को बढ़ा दिया है।
    • भारत में महिला रोज़गार में कमी आई है, विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के परिणामस्वरूप स्वास्थ्य सेवा जैसे क्षेत्रों में।

अनुशंसाएँ:

  • श्रमिकों की क्रय क्षमता में सुधार किया जाना चाहिये। ILO अच्छी नौकरियों और अच्छे वेतन की वकालत करता है।
    • भारत में अधिकांश लोग बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के संविदा पर कार्य कर रहे हैं। यदि उचित मज़दूरी नहीं मिलती है, तो क्रय शक्ति भी कम हो जाएगी। वेतन संहिता वर्ष 2019 में पारित हुई थी, लेकिन अभी तक लागू नहीं हुई है।
  • एक मानव-केंद्रित पुनः प्राप्ति जो काम के उज्जवल और अधिक समावेशी भविष्य की दिशा में सतत् विकास पथ स्थापित करती है, पहले से कहीं अधिक ज़रूरी है। जून 2021 में 109वें अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में ILO के 187 सदस्य राज्यों की त्रिपक्षीय सहमति से इस तरह के दृष्टिकोण पर सहमति बनी, जिसने कोविड-19 संकट से ‘मानव-केंद्रित पुनः प्राप्ति के लिये वैश्विक कार्रवाई’ को अपनाया, जो समावेशी, टिकाऊ व लचीला है तथा विस्तृत जानकारी प्रदान करता है। यह कार्रवाई सरकारों, नियोक्ताओं एवं श्रमिक संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को संबोधित अनुशंसाओं का समूह है।
  • जोखिम के आकलन के साथ विशेष रूप से कमज़ोर वर्गों को समय पर प्रभावी समर्थन के लिये श्रम आय और समग्र जीवन स्तर की क्रय शक्ति की रक्षा व रखरखाव की आवश्यकता है।
  • मुद्रास्फीति संबंधी समस्या के एक नीतिगत चुनौती के रूप में उभरने के साथ समष्टि आर्थिक नीतियों को सावधानीपूर्वक समायोजित करने की आवश्यकता है। साथ ही उभरते बाज़ारों और विकासशील देशों को उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक नीति के सख्त होने के परिणामस्वरूप प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा, जिसके लिये वित्तीय प्रवाह के विवेकपूर्ण प्रबंधन की आवश्यकता होगी।
  • लंबी अवधि में वसूली को बढ़ावा देने के लिये औपचारिकता, स्थिरता और समावेशिता के लक्ष्य के साथ अच्छी नौकरियों के सृजन को बढ़ावा देने हेतु अच्छी तरह से डिज़ाइन की गई क्षेत्रीय नीतियों की आवश्यकता है।
  • पुनर्प्राप्ति अवधि के दौरान लोगों को संक्रमण में सहायता प्रदान करने के लिये लक्षित नीतियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं, जिसमें कमज़ोर समूहों पर ध्यान केंद्रित करना और अनौपचारिक रोज़गार में काम करने वालों के लिये काम की स्थिति में सुधार करना तथा उन्हें औपचारिक अर्थव्यवस्था में संक्रमण के दौरान मदद करना शामिल है।
  • श्रम बाज़ार में लचीलापन और निष्पक्षता के साथ योगदान करने के लिये इन प्रयासों को मज़बूत श्रम बाज़ार संस्थानों, सामूहिक सौदेबाज़ी एवं उन सामाजिक संवादों से जोड़ने की ज़रूरत है जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों का सम्मान करते हैं।
  • तत्काल आवश्यक सामाजिक सुरक्षा (स्वास्थ्य संबंधी उपायों सहित) सुनिश्चित करने और उचित बदलाव को बढ़ावा देने के लिये अच्छे रोज़गार सृजन को बढ़ावा देने की दिशा में व्यापक दृष्टिकोण एक बड़ा अंतर ला सकता है।
    • इस संबंध में ‘ग्लोबल एक्सेलेरेटर फॉर जॉब्स एंड सोशल प्रोटेक्शन फॉर जस्ट ट्रांज़ीशन’, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक मुख्य रूप से हरित, डिजिटल अर्थव्यवस्था में कम-से-कम 400 मिलियन नौकरियाँ सृजित करना है एवं वर्तमान में 4 बिलियन से अधिक लोगों के लिये सामाजिक सुरक्षा का विस्तार करना एक महत्त्वपूर्ण पहल है।
  • कई अन्य लक्ष्यों के अलावा इसे उद्यम-सक्षम वातावरण को बढ़ावा देने, मानवीय क्षमताओं को विकसित करने की आवश्यकता है जो उत्पादक क्षमताओं का विस्तार कर सके, लोगों की रक्षा कर सके और सामाजिक संवाद व श्रम मानकों की पूर्णता के संदर्भ में अधिक रोज़गार पैदा कर सके।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन:

  • यह संयुक्त राष्ट्र की एकमात्र त्रिपक्षीय संस्था है। यह श्रम मानक निर्धारित करने, नीतियाँ को विकसित करने एवं सभी महिलाओं तथा पुरुषों के लिये सभ्य कार्य को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम तैयार करने हेतु 187 सदस्य देशों की सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिकों को एक साथ लाता है।
    • वर्ष 1969 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन को नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।
  • वर्ष 1919 में वर्साय की संधि द्वारा राष्ट्र संघ की एक संबद्ध एजेंसी के रूप में इसकी स्थापना हुई।
  • वर्ष 1946 में यह संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध पहली विशिष्ट एजेंसी बन गया।
  • मुख्यालय: इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में है।

ILO का कन्वेंशन नंबर 144:

  • वर्ष 1976 का कन्वेंशन 144 जिसे त्रिपक्षीय परामर्श (अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक) पर कन्वेंशन के रूप में भी जाना जाता है, एक आवश्यक सिद्धांत के अनुप्रयोग को बढ़ावा देता है, जिस पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना की गई थी, जो है:
    • अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों के विकास और कार्यान्वयन में त्रिपक्षीय सामाजिक संवाद।
  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानकों के संबंध में त्रिपक्षीयवाद व्यापक सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर सामाजिक संवाद की राष्ट्रीय संस्कृति को बढ़ावा देता है।

विगत वर्ष के प्रश्न:

प्रश्न. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन कन्वेंशन 138 और 182 किससे संबंधित हैं?

(a) बाल श्रम, (2018)
(b) वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिये कृषि प्रथाओं का अनुकूलन
(c) खाद्य कीमतों और खाद्य सुरक्षा का विनियमन
(d) कार्यस्थल पर लिंग समानता

उत्तर: a

  • वर्ष 2017 में केंद्रीय मंत्रिमंडल, भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के न्यूनतम आयु सम्मेलन, 1973 (नंबर 138) और बाल श्रम कन्वेंशन के सबसे खराब रूप, 1999 (संख्या 182) के अनुसमर्थन को मंज़ूरी दी।
  • कन्वेंशन 138: भारत कन्वेंशन 138 की पुष्टि करने वाला 170वाँ ILO सदस्य राज्य है, जिसके लिये राज्य पार्टियों को न्यूनतम आयु निर्धारित करने की आवश्यकता होती है, इसके तहत किसी को भी रोज़गार या किसी भी व्यवसाय में काम करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, सिवाय हल्के काम और कलात्मक प्रदर्शन के।
  • कन्वेंशन 182: कन्वेंशन 182 की पुष्टि करने के लिये भारत ILO का 181वाँ सदस्य राज्य भी बन गया है। यह गुलामी, जबरन श्रम और तस्करी सहित बाल श्रम के सबसे खराब रूपों के निषेध तथा उन्मूलन का आह्वान करता है; सशस्त्र संघर्ष में बच्चों का उपयोग; वेश्यावृत्ति, अश्लील साहित्य एवं अवैध गतिविधियों (जैसे मादक पदार्थों की तस्करी) के लिये किसी बच्चे का उपयोग और खतरनाक काम आदि।
  • ये सभी बाल श्रम (निषेध और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2016 के अनुरूप हैं, जो किसी भी व्यवसाय या प्रक्रिया में 14 साल से कम उम्र के बच्चों के रोज़गार या काम करने को पूरी तरह से प्रतिबंधित करता है तथा खतरनाक व्यवसायों व प्रक्रियाओं में किशोरों (14 से 18 वर्ष) के रोज़गार को भी प्रतिबंधित करता है।
  • इसके अतिरिक्त बाल श्रम (निषेध और विनियमन) केंद्रीय नियम, जैसा कि हाल ही में संशोधित किया गया है, पहली बार बाल एवं किशोर श्रमिकों की रोकथाम, निषेध, बचाव तथा पुनर्वास के लिये एक व्यापक और विशिष्ट रूपरेखा प्रदान करता है।
  • दो प्रमुख ILO सम्मेलनों के अनुसमर्थन के साथ भारत ने आठ प्रमुख ILO सम्मेलनों में से छह की पुष्टि की है। चार अन्य सम्मेलन- जबरन श्रम के उन्मूलन, समान पारिश्रमिक और रोज़गार तथा व्यवसाय में पुरुषों एवं महिलाओं के बीच कोई भेदभाव नहीं करने से संबंधित हैं। अतः विकल्प (a) सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजव्यवस्था

अंतर्राज्यीय परिषद

प्रिलिम्स के लिये:

अंतर्राज्यीय परिषद, सरकारिया आयोग, अनुच्छेद 263

मेन्स के लिये:

अंतर्राज्यीय परिषद और मुद्दे, केंद्र-राज्य संबंध, अंतर्राज्यीय संबंध

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, अंतर्राज्यीय परिषद (ISC) का पुनर्गठन किया गया है जिसमें प्रधानमंत्री अध्यक्ष के रूप में और सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और छह केंद्रीय मंत्री सदस्य के रूप में होते हैं।

  • दस केंद्रीय मंत्री अंतर्राज्यीय परिषद में स्थायी रूप से आमंत्रित होंगे।
  • सरकार ने अध्यक्ष के रूप में केंद्रीय गृह मंत्री के साथ अंतर्राज्यीय परिषद की स्थायी समिति का भी पुनर्गठन किया है।
    • आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी अंतर-राज्य परिषद की स्थायी समिति के सदस्य हैं।

अंतर्राज्यीय परिषद:

  • पृष्ठभूमि:
    • केंद्र सरकार ने केंद्र और राज्यों के बीच वर्तमान व्यवस्थाओं के कार्यकरण की समीक्षा करने के लिये न्यायमूर्ति आर.एस. सरकारिया की अध्यक्षता में वर्ष 1988 में एक आयोग गठित किया था।
    • सरकारिया आयोग ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 263 के अनुसार परिभाषित अधिदेश के अनुसरण में परामर्श करने के लिये एक स्वतंत्र राष्ट्रीय फोरम के रूप में अंतर्राज्यीय परिषद स्थापित किये जाने की महत्त्वपूर्ण सिफारिश की थी।
  • परिचय:
    • अंतर्राज्यीय परिषद को राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों की जाँच करने और सलाह देने, कुछ या सभी राज्यों या केंद्र एवं एक या अधिक राज्यों के समान हित वाले विषयों की पड़ताल तथा विमर्श करने का अधिकार है।
    • यह इन विषयों पर नीति और कार्रवाई के बेहतर समन्वय के लिये सिफारिशें भी करता है, राज्यों के सामान्य हित के मामलों पर विचार-विमर्श करता है, जिसे इसके अध्यक्ष द्वारा संदर्भित किया जा सकता है।
    • यह राज्यों के सामान्य हित के अन्य मामलों पर भी विचार करता है, जो परिषद के अध्यक्ष द्वारा भेजा गया हो।
    • परिषद की एक वर्ष में कम-से-कम तीन बार बैठक हो सकती है।
    • परिषद की एक स्थायी समिति भी होती है।
  • संगठन:
    • अध्यक्ष- प्रधानमंत्री
    • सदस्य- सभी राज्यों के मुख्यमंत्री
    • विधानसभा वाले केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और विधानसभा नहीं रखने वाले केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासक तथा राष्ट्रपति शासन (जम्मू-कश्मीर के मामले में राज्यपाल शासन) के तहत राज्यों के राज्यपाल सदस्य।
    • प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत केंद्रीय मंत्रिपरिषद में कैबिनेट रैंक के छह मंत्री।

अंतर्राज्यीय परिषद के कार्य:

  • देश में सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने और उसका समर्थन करने के लिये एक मज़बूत संस्थागत ढाँचा तैयार करना तथा नियमित बैठकें आयोजित करके परिषद व क्षेत्रीय परिषदों को सक्रिय करना।
  • क्षेत्रीय परिषदों और अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा केंद्र-राज्य तथा अंतर-राज्य संबंधों के सभी लंबित व उभरते मुद्दों पर विचार करने की सुविधा प्रदान करता है।
  • उनके द्वारा प्रस्तुत सिफारिशों के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये एक प्रणाली विकसित करना।

अंतर्राज्यीय परिषद की स्थायी समिति:

  • परिचय:
    • इसकी स्थापना वर्ष 1996 में परिषद के विचारार्थ मामलों के निरंतर परामर्श और प्रसंस्करण के लिये की गई थी।
    • इसमें निम्नलिखित सदस्य होते हैं: (i) केंद्रीय गृह मंत्री अध्यक्ष के रूप में (ii) पाँच केंद्रीय कैबिनेट मंत्री (iii) अंतर्राज्यीय परिषद सचिवालय की सहायता हेतु नौ मुख्यमंत्रियों की एक परिषद।
    • यह सचिवालय वर्ष 1991 में स्थापित किया गया था और इसका नेतृत्व भारत सरकार के एक सचिव द्वारा किया जाता है। वर्ष 2011 से यह क्षेत्रीय परिषदों के सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है।
  • कार्य:
    • स्थायी समिति के पास परिषद के विचार के लिये निरंतर परामर्श और प्रक्रिया संबंधी मामले होंगे, केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित सभी मामलों को अंतर-राज्य परिषद में विचार करने से पहले संसाधित करना।
    • स्थायी समिति परिषद की सिफारिशों पर लिये गए निर्णयों के कार्यान्वयन की निगरानी भी करती है तथा अध्यक्ष या परिषद द्वारा संदर्भित किसी अन्य मामले पर विचार करती है।

अंतर्राज्यीय संबंध को बढ़ावा देने वाले अन्य निकाय:

  • क्षेत्रीय परिषद:
    • क्षेत्रीय परिषदें वैधानिक (संवैधानिक नहीं) निकाय हैं। ये संसद के एक अधिनियम, यानी राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 द्वारा स्थापित किये गए हैं।
    • इस अधिनियम ने देश को पाँच क्षेत्रों- उत्तरी, मध्य, पूर्वी, पश्चिमी और दक्षिणी में विभाजित किया तथा प्रत्येक क्षेत्र के लिये एक क्षेत्रीय परिषद प्रदान की।
      • इन क्षेत्रों का निर्माण करते समय कई कारकों को ध्यान में रखा गया है जिनमें शामिल हैं: देश का प्राकृतिक विभाजन, नदी प्रणाली और संचार के साधन, सांँस्कृतिक व भाषायी संबंध तथा आर्थिक विकास, सुरक्षा एवं कानून व्यवस्था की आवश्यकता।
    • उत्तर-पूर्वी परिषद: उत्तर-पूर्वी राज्य (i) असम, (ii) अरुणाचल प्रदेश, (iii) मणिपुर, (iv) त्रिपुरा, (v) मिज़ोरम, (vi) मेघालय और (vii) नगालैंड, क्षेत्रीय परिषदों में शामिल नहीं हैं तथा उनकी विशेष समस्याओं को उत्तर-पूर्वी परिषद द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जिसे उत्तर-पूर्वी परिषद अधिनियम, 1972 के तहत स्थापित किया गया था।
  • अंतर-राज्यीय व्यापार और वाणिज्य:
    • संविधान का भाग XIII, अनुच्छेद 301 से 307 भारतीय क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और मेल-जोल से संबंधित है।
  • अंतर्राज्यीय जल विवाद:
    • संविधान का अनुच्छेद 262 अंतर्राज्यीय जल विवादों के न्यायनिर्णयन का प्रावधान करता है।
    • यह दो प्रावधान करता है:
      • संसद कानून द्वारा किसी भी अंतर्राज्यीय नदी और नदी घाटी के ज़ल के उपयोग, वितरण तथा नियंत्रण के संबंध में किसी भी विवाद या शिकायत के न्यायनिर्णयन का प्रावधान कर सकती है।
      • संसद यह भी प्रावधान कर सकती है कि इस तरह के किसी भी विवाद या शिकायत पर सर्वोच्च न्यायालय सहित किसी भी अन्य न्यायालय का अधिकार क्षेत्र नहीं होगा।

आगे की राह

  • यदि अंतर-राज्य परिषद को अंतर-राज्यीय संघर्षों को हल करने के लिये प्राथमिक संस्थान बनना है, तो उसे पहले नियमित बैठक कार्यक्रम तैयार करना होगा।
  • भारतीय संघ में अभी संस्थागत अंतर है और अंतर्राज्यीय संघर्षों के नियंत्रण से बाहर होने से पहले इसे भरने की ज़रूरत है।
  • परिषद के पास एक स्थायी सचिवालय भी होना चाहिये जो यह सुनिश्चित कर सके कि आवधिक बैठकें अधिक उपयोगी हों।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

चीनी के निर्यात पर प्रतिबंध

प्रिलिम्स के लिये:

चीनी, खुदरा मुद्रास्फीति दर, थोक मुद्रास्फीति, कच्चे पाम तेल पर कृषि उपकर, सोयाबीन तेल, कच्चा सूरजमुखी तेल, गेहूँ निर्यात, एआईडीसी

मेन्स के लिये:

बढ़ती मुद्रास्फीति और मुद्दे, वृद्धि एवं विकास, मुद्रास्फीति से निपटने के लिये सरकार के कदम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने चीनी के निर्यात पर रोक लगाने की घोषणा की।

  • साथ ही उपभोक्ताओं को आवश्यक राहत प्रदान करने के लिये 20 लाख मीट्रिक टन वार्षिक कच्चे सोयाबीन और सूरजमुखी तेल के आयात पर सीमा शुल्क तथा कृषि अवसंरचना विकास उपकर (AIDC) को दो वित्तीय वर्षों (2022-23 व 2023-24) के लिये छूट दी गई।
  • आयात शुल्क में छूट से घरेलू कीमतों को कम करने और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।

कृषि अवसंरचना विकास उपकर:

  • उपकर एक प्रकार का विशेष प्रयोजन कर है जो मूल कर दरों के ऊपर लगाया जाता है।
  • नए AIDC का उद्देश्य कृषि बुनियादी ढाँचे के विकास पर खर्च करने के लिये धन जुटाना है।
  • एआईडीसी का उपयोग न केवल उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से बल्कि कृषि उत्पादन को कुशलतापूर्वक संरक्षित और संसाधित करने में मदद करने के उद्देश्य से कृषि बुनियादी ढाँचे में सुधार के लिये किया जाना प्रस्तावित है।

लिये गए निर्णयों का कारण:

  • चीनी निर्यात पर प्रतिबंध:
    • कारण:
      • ये कदम "चीनी की घरेलू उपलब्धता और मूल्य स्थिरता" को बनाए रखने के लिये उठाए गए।
      • यह निर्णय "चीनी के निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि" और देश में चीनी का पर्याप्त भंडार बनाए रखने की आवश्यकता के मद्देनज़र लिया गया था।
        • यह छह साल में पहली बार है कि केंद्र चीनी निर्यात को विनियमित कर रहा है।
    • छूट:
      • चीनी मिलें और व्यापारी जिनके पास सरकार से विशिष्ट अनुमति प्राप्त है, वे केवल 31 अक्तूबर, 2022 तक या अगले आदेश तक चीनी (कच्ची, परिष्कृत और सफेद चीनी सहित) का निर्यात कर सकेंगे।
        • इसके अतिरिक्त यह प्रतिबंध यूरोपीय संघ (ईयू) और संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात के लिये लागू नहीं है।
  • खाद्य तेल का शुल्क मुक्त आयात:
    • भारत में खाद्य तेल की कीमतों में उछाल के मद्देनज़र इसकी घोषणा की गई थी।
      • भारत दुनिया के सबसे बड़े वनस्पति तेल आयातकों में से एक है और अपनी 60% ज़रूरतों के लिए आयात पर निर्भर है।
    • इस बीच यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद खाद्य तेल की कीमतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
      • भारत में सूरजमुखी का तेल मुख्य रूप से यूक्रेन और रूस से आयात किया जाता है।
    • फरवरी 2022 में कच्चे पाम तेल पर कृषि उपकर को पहले के 7.5% से घटाकर 5% कर दिया गया था।
  • गंभीर मुद्रास्फीति दबावों को नियंत्रित करने के लिये:
    • खाद्य, ईंधन और फसल पोषक तत्त्वों की बढ़ती कीमतों के साथ गंभीर मुद्रास्फीति दबावों को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयासों को ध्यान में रखते हुए ये कदम उठाए गए।
      • अप्रैल 2022 में खुदरा मुद्रास्फीति की दर आठ साल के उच्च स्तर 7.79% पर पहुँच गई थी, जबकि थोक मुद्रास्फीति लगातार 13 महीनों से दोहरे अंकों में रही है।
      • अप्रैल 2022 के लिये तेल और वसा हेतु मुद्रास्फीति दर 17.28% दर्ज की गई नवीनतम प्रिंट के साथ खुदरा खाद्य तेल मुद्रास्फीति वर्ष 2021 के दौरान 20-35% के स्तर पर रही।

मुद्रास्फीति के दबाव को नियंत्रित करने हेतु अन्य उपाय:

  • भारत द्वारा:
    • पेट्रोल और डीज़ल के टैक्स में कटौती:
      • सप्ताहांत में केंद्र ने बढ़ते मुद्रास्फीति के दबाव को कम करने के अपने प्रयासों के तहत गैसोलीन, डीज़ल, कोकिंग कोल और स्टील के कच्चे माल पर कर कटौती की घोषणा की।
      • ईंधन करों में कटौती से जब इसका पूरा प्रभाव दिखाई देगा अर्थात् जून 2022 में मुद्रास्फीति को सीधे लगभग 20 आधार अंकों तक कम करने में मदद मिल सकती है।
    • रेपो दर में कमी:
    • गेहूंँ निर्यात पर प्रतिबंध:
      • इससे पहले सरकार ने गेहूंँ के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया था।
        • भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूंँ उत्पादक है और इसने मुद्रास्फीति की चिंताओं के बावज़ूद अपनी विशाल आबादी के लिये खाद्य सुरक्षा की रक्षा के लिये निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का विकल्प चुना है।
  • एशिया में:
    • इंडोनेशिया का पाम ऑयल निर्यात पर प्रतिबंध:
      • विश्व के सबसे बड़े उत्पादक, निर्यातक और पाम ऑयल के उपभोक्ता इंडोनेशिया ने घरेलू खाना पकाने के तेल की कमी एवं बढ़ती कीमतों को कम करने के लिये इसके व्यापार और कच्चे माल के सभी निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है।
    • मलेशिया ने विदेशों में चिकन की बिक्री रोकी:
      • मलेशिया 1 जून से महीने में होने वाले 36 लाख मुर्गियों के निर्यात को रोक देगा और उत्पादन तथा कीमतों में स्थिरता की स्थिति होने तक गेहूंँ के आयात के लिये अनुमोदित परमिट की आवश्यकता को समाप्त कर देगा।

चीनी निर्यातक के रूप में भारत की भूमिका:

  • भारत दुनिया में चीनी का सबसे बड़ा उत्पादक और ब्राज़ील के बाद दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
    • यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब देश का निर्यात अब तक के सबसे ऊंँचे स्तर पर रहने की अपेक्षा है।
  • चीनी मिलों से लगभग 82 लाख मीट्रिक टन चीनी निर्यात के लिये भेजी गई है और लगभग 78 लाख मीट्रिक टन निर्यात किया जा चुका है।
    • चालू चीनी वर्ष (2021-22) में चीनी का निर्यात अब तक के उच्चतम स्तर पर है।
  • वर्ष के अंत में चीनी का क्लोजिंग स्टॉक 60-65 लाख मीट्रिक टन रहता है जो घरेलू उपयोग के लिये आवश्यक लगभग तीन महीने के स्टॉक के बराबर है।

भारत में खाद्य तेल अर्थव्यवस्था के बारे में:

  • इसकी दो प्रमुख विशेषताएंँ हैं जिन्होंने इस क्षेत्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
    • पहला 1986 में तिलहन पर प्रौद्योगिकी मिशन की स्थापना थी, जिसे बाद में वर्ष 2014 में तिलहन और पाम ऑयल (NMOOP) पर राष्ट्रीय मिशन में बदल दिया गया था।
      • इसके अलावा इसे NFSM (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन) में शामिल कर दिया गया था।
      • इससे तिलहन के उत्पादन को बढ़ाने के सरकार के प्रयासों को बल मिला।
    • दूसरी प्रमुख विशेषता जिसका खाद्य तिलहन/तेल उद्योग की वर्तमान स्थिति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है, वह है उदारीकरण का कार्यक्रम, जो खुले बाज़ार को अधिक स्वतंत्रता देता है और सुरक्षा तथा नियंत्रण के बज़ाय स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा एवं स्व-नियमन को प्रोत्साहित करता है।
  • ‘पीली क्रांति’ भारत में चलाई गई प्रमुख क्रांतियों में से एक है जिसे घरेलू मांग को पूरा करने के लिये देश में खाद्य तिलहन के उत्पादन को बढ़ाने के लिये शुरू किया गया था।
  • सरकार ने तिलहन के लिये खरीफ रणनीति 2021 भी शुरू की है।
    • इस रणनीति के माध्यम से तिलहन के अंतर्गत अतिरिक्त 6.37 लाख हेक्टेयर क्षेत्र लाया जाएगा और साथ ही 120.26 लाख क्विंटल तिलहन तथा 24.36 लाख टन खाद्य तेल के उत्पादन का अनुमान है।
  • भारत में आमतौर पर उपयोग किये जाने वाले खाद्य तेल: देश में खपत होने वाले प्रमुख खाद्य तेल सरसों, सोयाबीन, मूंँगफली, सूरजमुखी, तिल का तेल, नाइजर बीज, कुसुम बीज, अरंडी और अलसी (प्राथमिक स्रोत) तथा नारियल, ताड़ का तेल, बिनौला, चावल की भूसी, विलायक निकाले गए तेल, पेड़ व वन मूल तेल।

आगे की राह

  • हालांँकि इस निर्णय का अर्थव्यवस्था में कीमतों के दबाव पर एक मध्यम प्रभाव पड़ेगा, चिंता यह है कि मुद्रास्फीति की जड़ें मज़बूत हो गई हैं तथा इसके RBI के मध्यम अवधि के मुद्रास्फीति लक्ष्य 2-6% से ऊपर रहने की संभावना है।
  • आयात नीति में एकरूपता होनी चाहिये क्योंकि यह अग्रिम रूप से उचित बाज़ार संकेत प्रदान करती है। आयात शुल्क के माध्यम से हस्तक्षेप करना कोटा से बेहतर है जिससे अधिक हानि होती है।
  • यह उपग्रह रिमोट सेंसिंग और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) तकनीकों का उपयोग करके अधिक सटीक फसल पूर्वानुमान की भी मांग करता है ताकि फसल वर्ष में बहुत पहले से कमी/अधिशेष को इंगित किया जा सके।

प्रश्न. कीमतों के सामान्य स्तर में वृद्धि के कारण हो सकती है: (2013)

  1. मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि
  2. उत्पादन के कुल स्तर में कमी
  3. प्रभावी मांग में वृद्धि

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1
(b) केवल 1 और 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: d

  • मुद्रास्फीति उस दर का एक मात्रात्मक माप है जिस पर किसी अर्थव्यवस्था में चयनित वस्तुओं और सेवाओं की एक टोकरी का औसत मूल्य स्तर समय के साथ बढ़ता है।
  • यह कीमतों के सामान्य स्तर में निरंतर वृद्धि है जहाँ मुद्रा की एक इकाई पहले की अवधि की तुलना में कम खरीदती है। अक्सर प्रतिशत के रूप में व्यक्त मुद्रास्फीति किसी देश की मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी का संकेत देती है।
  • मुद्रास्फीति के प्रकार: मांग-मुद्रास्फीति, लागत-जन्य मुद्रास्फीति और अंतर्निहित मुद्रास्फीति।
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) और थोक मूल्य सूचकांक (WPI) सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाने वाले मुद्रास्फीति सूचकांक हैं।
  • मुद्रास्फीति का कारण:
    • जब किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षमता की तुलना में वस्तुओं और सेवाओं की मांग में समग्र वृद्धि अधिक तेज़ी से होती है। ऐसी स्थिति में उत्पादन के कुल स्तर में कमी होती है जिसके परिणामस्वरूप मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न होती है। अत: कथन 2 सही है।
    • उच्च मांग और कम आपूर्ति के साथ मांग-आपूर्ति का अंतर प्रभावी मांग को बढ़ाता है, जिसके परिणामस्वरूप सामान्य मूल्य स्तर में वृद्धि होती है। अत: कथन 3 सही है।
    • मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि भी सामान्य मूल्य स्तर की वृद्धि में योगदान करती है। कारण यह है कि मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि के साथ ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है जब अधिक धन समान संख्या में उत्पादों का क्रय करता है। इसलिये मौद्रिक आपूर्ति में वृद्धि के कारण फर्मों को कीमतें बढ़ाना पड़ता है। अत: कथन 1 सही है।
    • उत्पादन प्रक्रिया लागत की कीमतों में वृद्धि भी मुद्रास्फीति में योगदान करती है।
    • बढ़ी हुई मज़दूरी के परिणामस्वरूप वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में वृद्धि के कारण वस्तुओं व सेवाओं की लागत बढ़ जाती है। अतः विकल्प (D) सही है।

प्रश्न. निम्नलिखित में से किस एक का अपने प्रभाव में सर्वाधिक स्फीतिकारी होने की संभावना है? (2013)

(A) लोक ऋण की चुकौती
(B) बजट घाटे के वित्तीयन के लिये जनता से ऋणादान
(C) बजट घाटे के वित्तीयन के लिये बैंकों से ऋणादान
(D) बजट घाटे के वित्तीयन के लिये नई मुद्रा का सृजन

उत्तर: D

व्याख्या:

  • मुद्रास्फीति की दर किसी अर्थव्यवस्था में मुद्रा आपूर्ति की वृद्धि दर पर निर्भर करती है।
    • बजट घाटे को वित्तपोषित करने के लिये नई मुद्रा के सृजन से धन की आपूर्ति में वृद्धि होगी और इसके प्रभाव में सबसे अधिक मुद्रास्फीति बढ़ने की संभावना है।
  • अतः विकल्प (D) सही है।

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)

  1. मुद्रास्फीति ऋणदाताओं को लाभ पहुँचाती है।
  2. मुद्रास्फीति बॉण्ड-धारकों को लाभ पहुँचाती है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(A) केवल 1
(B) केवल 2
(C) 1 और 2 दोनों
(D) न तो 1 और न ही 2

उत्तर:A

व्याख्या:

  • मुद्रास्फीति: यह उस दर का एक मात्रात्मक माप है जिस पर एक निश्चित अवधि के दौरान चयनित वस्तुओं और सेवाओं के एक समूह का औसत मूल्य स्तर बढ़ता है। यह कीमतों के सामान्य स्तर में निरंतर वृद्धि है जहाँ मुद्रा की एक इकाई की क्रय शक्ति पहले की अवधि की तुलना में कम हो जाती है। प्रतिशत के रूप में व्यक्त मुद्रास्फीति किसी देश की मुद्रा की क्रय शक्ति में कमी का संकेत देती है।
  • ऋणदाताओं पर मुद्रास्फीति का प्रभाव: बढ़ती कीमतों की अवधि के दौरान ऋणदाताओं को लाभ होता है। जब कीमतें बढ़ती हैं, तो रुपए का मूल्य गिर जाता है। हालाँकि ऋण प्राप्तकर्त्ता समान राशि लौटाते हैं, लेकिन वे वस्तुओं व सेवाओं के मामले में कम भुगतान करते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि पैसे का मूल्य उस समय की तुलना कम है, जब प्राप्तकर्त्ता ने पैसे उधार लिये थे। अत: कथन 1 सही है।
  • बाँड धारक पर मुद्रास्फीति का प्रभाव: मुद्रास्फीति बाँड द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक ब्याज भुगतान की क्रय शक्ति को कम करती है। इस प्रकार मुद्रास्फीति बाँड धारक को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है। अत: कथन 2 सही नहीं है।
  • अतः विकल्प (A) सही है।

प्रश्न. भारत में मुद्रास्फीति के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा सही है? (2015)

(A) भारत में मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना केवल भारत सरकार की ज़िम्मेदारी है
(B) मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में भारतीय रिज़र्व बैंक की कोई भूमिका नहीं है
(C) मुद्रा परिसंचरण में कमी मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद करती है
(D) बढ़ी हुई मुद्रा परिसंचरण मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद करती है

उत्तर: C

व्याख्या:

  • मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना भारत सरकार और आरबीआई दोनों की ज़िम्मेदारी है। घटी हुई मुद्रा आपूर्ति मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद करती है क्योंकि लोगों के पास खर्च करने के लिये कम पैसा होता है। बढ़ी हुई मुद्रा आपूर्ति मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने में मदद नहीं करती है, बल्कि यह मुद्रास्फीति को और बढ़ा देती है।
  • अतः विकल्प (C) सही उत्तर है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सामाजिक न्याय

विश्व स्वास्थ्य सभा का 75वां सत्र

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व स्वास्थ्य सभा, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (आशा)।

मेन्स के लिये:

विश्व स्वास्थ्य सभा, विश्व स्वास्थ्य संगठन के कामकाज़ में भारत की भागीदारी।

चर्चा में क्यों?

विश्व स्वास्थ्य सभा का 75वाँ सत्र विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुख्यालय जिनेवा में 22 से 28 मई, 2022 तक आयोजित किया जा रहा है।

  • केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री ने एक अधिक लचीले वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा ढाँचा के निर्माण की दिशा में भारत की प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया।
  • विश्व स्वास्थ्य सभा, 2022 का विषय ‘शांति के लिये स्वास्थ्य, स्वास्थ्य के लिये शांति’ है।
  • भारत के मान्यता प्राप्त ‘सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं (आशा)’ को 75वें विश्व स्वास्थ्य सभा में ग्लोबल हेल्थ लीडर्स अवार्ड से सम्मानित किया गया, ताकि "वैश्विक स्वास्थ्य को आगे बढ़ाने, नेतृत्व करने और क्षेत्रीय स्वास्थ्य के मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता" के लिये उनके उत्कृष्ट योगदान को मान्यता दी जा सके।

विश्व स्वास्थ्य सभा:

  • परिचय:
    • विश्व स्वास्थ्य सभा सदस्य राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों से बनी है।
    • प्रत्येक राष्ट्र का प्रतिनिधित्व अधिकतम तीन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाता है जिनमें से किसी एक को मुख्य प्रतिनिधि के रूप में नामित किया जाता है।
    • इन प्रतिनिधियों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनकी तकनीकी क्षमता के आधार पर सबसे योग्य व्यक्तियों में से चुना जाता है क्योंकि ये सदस्य राष्ट्र के राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रशासन का अधिमान्य प्रतिनिधित्व करते हैं।
    • विश्व स्वास्थ्य सभा की बैठक नियमित रूप से वार्षिक सत्र और कभी-कभी विशेष सत्रों में भी आयोजित की जाती है।
  • विश्व स्वास्थ्य सभा के कार्य:
    • विश्व स्वास्थ्य सभा WHO की नीतियों का निर्धारण करती है।
    • यह संगठन की वित्तीय नीतियों की निगरानी करती है एवं बजट की समीक्षा तथा अनुमोदन करती है।
    • यह WHO तथा संयुक्त राष्ट्र के मध्य होने वाले किसी भी समझौते के संदर्भ में आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (Economic and Social Council) को रिपोर्ट करती है।
  • 75वें सत्र में केंद्रीय मंत्रियों के संबोधन की मुख्य विशेषताएंँ:
    • अधिक लचीले वैश्विक स्वास्थ्य सुरक्षा संरचना के लिये टीकों और चिकित्सा विधान हेतु WHO की अनुमोदन प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने की आवश्यकता है।बौद्धिक संपदा पहलुओं सहित टीकों व दवाओं तक समान पहुँच की अनुमति दी जानी चाहिये।
    • लागत प्रभावी अनुसंधान, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और क्षेत्रीय विनिर्माण क्षमता प्राथमिकता सूची में होनी चाहिये।
    • WHO के अनुसार, भारत में कोविड के कारण 4.7 मिलियन मौतें (आधिकारिक आँकड़े का 10 गुना) दर्ज की गई हैं। इसलिये WHO के हालिया अभ्यास पर चिंता व्यक्त की गई, जिसमें कोविड-19 से सभी कारणों से अधिक मृत्यु दर दर्ज की गई है।
    • भारत ने WHO से भारत के रजिस्ट्रार जनरल (RGI) द्वारा नागरिक पंजीकरण प्रणाली (CRS) के माध्यम से प्रकाशित देश-विशिष्ट प्रामाणिक डेटा पर विचार करने का आग्रह किया।
    • डेटा भविष्यवाणी के गणितीय मॉडल के उपयोग पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिये। नतीजतन, केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण परिषद (संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत स्थापित) ने इस संबंध में WHO के दृष्टिकोण की निंदा करते हुए एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित किया।

मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (ASHA):

  • परिचय:
    • ‘आशा’ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NHRM) के प्रमुख घटकों में से एक है।
    • ये 25-45 वर्ष के आयु वर्ग में एक सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता होती हैं, जो महिलाओं और बच्चों सहित ग्रामीण आबादी के वंचित वर्गों की स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये संपर्क के पहले बिंदु के रूप में कार्य करती हैं।
    • आमतौर पर प्रति 1000 जनसंख्या पर एक आशा होती है। हालाँकि जनजातीय, पहाड़ी और रेगिस्तानी क्षेत्रों में काम के बोझ के आधार पर इस मानदंड को "एक आशा प्रति बस्ती" तक कम किया जा सकता है।
  • ज़िम्मेदारियांँ और भूमिका:
    • लोगों को पोषण, बुनियादी स्वच्छता और स्वच्छ प्रथाओं, स्वस्थ रहने तथा काम करने की स्थिति आदि के बारे में ज़ानकारी प्रदान करके स्वास्थ्य निर्धारकों के बारे में जागरूकता पैदा करना।
      • वह मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में भी जानकारी प्रदान करती है और लोगों को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण सेवाओं के समय पर उपयोग के लिये प्रोत्साहित करती है।
    • जन्म की तैयारी, सुरक्षित प्रसव के महत्त्व, स्तनपान, गर्भनिरोधक, टीकाकरण, बच्चे की देखभाल और प्रजनन पथ के संक्रमण/यौन संचारित संक्रमण (आरटीआई / एसटीआई) की रोकथाम पर महिलाओं को परामर्श देना।
    • समुदाय को एकत्रित करके गांँव/उप-केंद्र/प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रसवपूर्व जांँच (एएनसी), प्रसवोत्तर जांँच (पीएनसी), टीकाकरण, स्वच्छता और अन्य स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंँच को सुगम बनाना।
    • ग्राम पंचायत की ग्राम स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समिति के सहयोग से कार्य कर व्यापक स्वास्थ्य योजना का विकास करना।
    • संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम के तहत बुखार, दस्त और मामूली चोटों जैसे मामूली विकारों के लिये प्राथमिक चिकित्सा देखभाल प्रदान करना।
    • गर्भवती महिलाओं और उन बच्चों के लिये अनुरक्षण की व्यवस्था करना जिन्हें उपचार की आवश्यकता है या जिन्हें निकटतम स्वास्थ्य देखभाल सुविधा हेतु भर्ती करने की आवश्यकता है।
    • उप-केंद्रों/प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को अपने गांँव में जन्म और मृत्यु तथा समुदाय में किसी भी बीमारी के प्रकोप/असामान्य स्वास्थ्य चिंताओं के बारे में सूचित करना।

स्रोत: द हिंदू


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