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भारतीय अर्थव्यवस्था

राज्यपाल की भूमिका और शक्ति

  • 10 Feb 2022
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान।

मेन्स के लिये:

राज्यपाल-राज्य संबंधों में टकराव के बिंदु, अनुच्छेद 356, प्रशासनिक सुधार आयोग (1968), राजमन्नार समिति (1971) और न्यायमूर्ति वी. चेलिया आयोग (2002)।

चर्चा में क्यों?

राज्यपाल राज्य के संवैधानिक प्रमुख और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में 'दोहरी भूमिका' में कार्य करता है।

  • हाल के वर्षों में राज्यों और राज्यपालों के बीच टकराव देखा गया है जो काफी हद तक सरकार बनाने, पार्टी के चयन, बहुमत साबित करने की समय-सीमा, विधेयकों पर बैठकों को आयोजित करने और राज्य प्रशासन पर नकारात्मक टिप्पणी करने को लेकर रहा है।

प्रमुख बिंदु 

राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 153: प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल होगा। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है।
    • राज्यपाल केंद्र सरकार का एक नामित व्यक्ति होता है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  • संविधान के मुताबिक, राज्य का राज्यपाल दोहरी भूमिका अदा करता है।
    • वह राज्य के मंत्रिपरिषद (CoM) की सलाह मानने को बाध्य राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है।
    • वह केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।
  • अनुच्छेद 157 और 158 के तहत राज्यपाल पद के लिये पात्रता संबंधी आवश्यकताओं को निर्दिष्ट किया गया है।
  • राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान और दंडविराम आदि की भी शक्ति प्राप्त है।
  • कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 163)
  • राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। (अनुच्छेद 164)
  • राज्यपाल, राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को अनुमति देता है, अनुमति रोकता है अथवा राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को सुरक्षित रखता है। (अनुच्छेद 200)
  • राज्यपाल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अध्यादेशों को प्रख्यापित कर सकता है। (अनुच्छेद 213)

राज्यपाल-राज्य संबंध

  • राज्यपाल की परिकल्पना एक गैर-राजनीतिक प्रमुख के रूप में की जाती है, जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिये। हालाँकि राज्यपाल को संविधान के तहत कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं। उदाहरण के लिये:
    • राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को स्वीकृति देना या रोकना,
    • किसी पार्टी को बहुमत साबित करने के लिये आवश्यक समय का निर्धारण, या
    • आमतौर पर किसी चुनाव में त्रिशंकु जनादेश के बाद बहुमत साबित करने के लिये सबसे पहले किस पार्टी को बुलाया जाना चाहिये।
  • राज्यपाल का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है, वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत ही पद पर बना रह सकता है।
    • वर्ष 2001 में संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग ने माना कि राज्यपाल की नियुक्ति और संघ के लिये उसकी निरंतरता आवश्यक है।
    • ऐसी आशंका जाहिर की जाती है कि राज्यपाल प्रायः केंद्रीय मंत्रिपरिषद से प्राप्त निर्देशों के अनुसार कार्य करते हैं।
  • संविधान में राज्यपाल की शक्तियों के प्रयोग के लिये कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं, जिसमें मुख्यमंत्री की नियुक्ति या विधानसभा को भंग करना शामिल है।
  • राज्यपाल कितने समय तक किसी विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोक सकता है, इसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं है।
  • राज्यपाल केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट भेजता है, जो अनुच्छेद-356 (राष्ट्रपति शासन) को लागू करने के लिये राष्ट्रपति को केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सिफारिशों का आधार बनाती है।

किन सुधारों का सुझाव दिया गया है?

  • राज्यपाल की नियुक्ति और निष्कासन के संबंध में:
    • ‘पुंछी आयोग’ (2010) ने सिफारिश की थी कि राज्य विधायिका द्वारा राज्यपाल पर महाभियोग चलाने का प्रावधान संविधान में शामिल किया जाना चाहिये।
    • राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य के मुख्यमंत्री की राय भी ली जानी चाहिये।
  • अनुच्छेद-356 के संबंध में:
    • ‘पुंछी आयोग’ ने अनुच्छेद 355 और 356 में संशोधन करने की सिफारिश की थी।
    • ‘सरकारिया आयोग’ (1988) ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का उपयोग बहुत ही दुर्लभ मामलों में विवेकपूर्ण तरीके से ऐसी स्थिति में किया जाना चाहिये जब राज्य में संवैधानिक तंत्र को बहाल करना अपरिहार्य हो गया हो।
    • इसके अलावा प्रशासनिक सुधार आयोग (1968), राजमन्नार समिति (1971) और न्यायमूर्ति वी. चेलैया आयोग (2002) आदि ने भी इस संबंध में सिफारिशें की हैं।
  • अनुच्छेद 356 के तहत राज्य सरकार की बर्खास्तगी के संबंध में:
    • एस.आर. बोम्मई मामला (1994): इस मामले के तहत केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों की मनमानी बर्खास्तगी को समाप्त कर दिया गया।
    • निर्णय के मुताबिक, विधानसभा ही एकमात्र ऐसा मंच है, जहाँ तत्कालीन सरकार के बहुमत का परीक्षण किया जाना चाहिये, न कि राज्यपाल की व्यक्तिपरक राय के आधार पर।
  • विवेकाधीन शक्तियों के संबंध में:
    • नबाम रेबिया मामले (2016) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग सीमित है और राज्यपाल की कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक तथ्यों के आधार पर नहीं होनी चाहिये।

आगे की राह

  • संघवाद का सुदृढ़ीकरण: राज्यपाल के पद के दुरुपयोग को रोकने के लिये भारत में संघीय व्यवस्था को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
    • इस संबंध में अंतर-राज्य परिषद और संघवाद के विकल्प के रूप में राज्यसभा की भूमिका को मज़बूत किया जाना चाहिये।
  • राज्यपाल की नियुक्ति की पद्धति में सुधार: राज्यपाल की नियुक्ति राज्य विधायिका द्वारा तैयार किये गए पैनल के आधार पर की जा सकती है, वहीं वास्तविक नियुक्ति का अधिकार अंतर-राज्य परिषद को होना चाहिये, न कि केंद्र सरकार को।
  • राज्यपाल के लिये आचार संहिता: इस 'आचार संहिता' में कुछ 'मानदंड और सिद्धांत' निर्धारित किये जाने चाहिये, जो राज्यपाल के 'विवेक' और उसकी शक्तियों के प्रयोग हेतु मार्गदर्शन कर सकें।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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