डेली न्यूज़ (23 Dec, 2022)



भारत और इसकी आबादी

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश, TFR, पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर, मातृ मृत्यु दर अनुपात।

मेन्स के लिये:

भारत का जनसांख्यिकीय परिवर्तन, जनसंख्या वृद्धि का महत्त्व।

चर्चा में क्यों?

अप्रैल 2023 में 1.43 अरब के साथ भारत की आबादी चीन की आबादी से अधिक होने की संभावना है। 

  • वर्ष 2022 में ऐसा पहली बार है जब चीन अपनी जनसंख्या में पूर्ण गिरावट दर्ज करेगा।

इन बदलावों के कारक: 

  • मृत्यु दर और प्रजनन क्षमता: 
    • अशोधित मृत्यु दर (CDR): CDR प्रतिवर्ष प्रति 1,000 आबादी पर मरने वाले व्यक्तियों की संख्या है, यह वर्ष 1950 में चीन के लिये 23.2 और भारत के लिये 22.2 था।
      • चीन का अशोधित मृत्यु दर (CDR) पहली बार वर्ष 1974 में 9.5 तक के इकाई अंक में पहुँची, जबकि भारत के लिये यह वर्ष 1994 में 9.8 थी, इसके बाद वर्ष 2020 में दोनों देशों के लिये यह दर घटकर क्रमशः 7.3 और 7.4 तक पहुँच गई।
    • जन्म के समय जीवन प्रत्याशा: एक अन्य मृत्यु दर संकेतक जन्म के समय जीवन प्रत्याशा है। वर्ष 1950 और 2020 के बीच चीन की जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 43.7 से बढ़कर 78.1 वर्ष और भारत की 41.7 से बढ़कर 70.1 वर्ष हो गई।
    • कुल प्रजनन दर: कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate-TFR) वर्ष 1950 में चीन के लिये प्रति महिला पर कुल बच्चों की औसत संख्या 5.8 और भारत हेतु 5.7 थी।
      • भारत का TFR वर्ष 1992-93 के 3.4 से गिरकर वर्ष 2019-2021 में 2 हो गया।
  • TFR में निरंतर गिरावट: 
    • TFR में गिरावट के बावजूद आबादी में वृद्धि हो सकती है। डी-ग्रोथ के लिये विस्तारित अवधि हेतु TFR को प्रतिस्थापन स्तर से नीचे रहने की आवश्यकता होती है। 
    • इसके प्रभावस्वरूप वर्तमान बच्चों में से कुछ ही भविष्य में माता-पिता बन सकेंगे और इसका प्रभाव कुछ पीढ़ियों बाद दिखाई देगा।
    • चीन का TFR पहली बार वर्ष 1991 में प्रतिस्थापन स्तर से नीचे देखा गया था जो भारत में लगभग 30 वर्ष पहले था।

चुनौतियांँ और अवसर:

  • चुनौतियांँ: 
    • ग्रह पर सर्वाधिक लोगों का होना भारत के लिये तब तक अत्यधिक नकारात्मक साबित हो सकता है जब तक कि यह अपनी आबादी को भोजन, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ और रोज़गार प्रदान नहीं करता है।
    • इस चुनौती का स्तर अत्यधिक व्यापक है।
    • भारत में जल की कमी एक पुरानी समस्या है। साथ ही ये सभी ज़रूरतें महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन भारत के समक्ष अब तक सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य रोज़गार सृजन करना है। इस विशेष चुनौती का स्तर वास्तव में चुनौतीपूर्ण है।
      • वर्ष 2020 में भारत में 15-64 वर्ष के कामकाजी आयु वर्ग में 900 मिलियन लोग (कुल जनसंख्या का 67%) शामिल थे।
      • वर्ष 2030 तक इसमें और 100 मिलियन तक बढ़ने की उम्मीद है।
  • अवसर:
    • UNSC में स्थायी सदस्यता के लिये दावा: यदि भारत सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाता है तो यह भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने हेतु दावा करने का अवसर प्रदान करेगा।
      • नई आबादी के परिणामस्वरूप भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की अपनी मौजूदा मांग को आगे बढ़ाने में सक्षम होगा।  
      • भू-राजनीतिक वास्तविकता बदल गई है और नई शक्तियाँ उभर रही हैं, जो पुरानी शक्तियों जैसे रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्राँस और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ स्थान प्राप्ति के लायक हैं। 
    • राजकोषीय दायित्त्व में वृद्धि: वित्तीय संसाधनों को बच्चों पर खर्च करने के बजाय आधुनिक भौतिक और मानव बुनियादी ढाँचे में निवेश किया सकता है जो भारत की आर्थिक स्थिरता को बढ़ाएगा।
    • कार्यबल में वृद्धि: 65% से अधिक कामकाज़ी उम्र की आबादी के साथ भारत एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर सकता है, जो आने वाले दशकों में एशिया के आधे से अधिक संभावित कार्यबल की आपूर्ति करेगा। 
      • श्रम बल में वृद्धि, जो अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाती है।
      • महिला कार्यबल में वृद्धि जो स्वाभाविक रूप से प्रजनन क्षमता में गिरावट के साथ देखी जाती है और विकास का एक नया स्रोत बन सकती है।

भारत की रणनीति:

  • सामूहिक समृद्धि रणनीति: 
    • विदेशों में कार्यरत एक छोटी आबादी से भारत को प्राप्त होने वाला बड़ा प्रेषण इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी व्यापक समृद्धि रणनीति मानव पूंजी और औपचारिक नौकरियाँ होनी चाहिये।
    • 0.8% सॉफ्टवेयर रोज़गार कार्यकर्त्ता सकल घरेलू उत्पाद का 8% उत्पन्न करते हैं।
    • हमारी निवासी आबादी के 2% से कम की विदेशी आबादी ने प्रेषण संबंधी आँकड़ों को पिछले वर्ष 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर से पार ले जाने की उम्मीद को बल प्रदान किया है। 
  • रोज़गार में गुणात्मक स्थानांतरण: 
    • पिछले पाँच वर्षों के दौरान खाड़ी देशों में कम-कुशल, अनौपचारिक रोज़गार से उच्च-आय वाले देशों में उच्च-कुशल औपचारिक नौकरियों में गुणात्मक स्थानांतरण महत्त्वपूर्ण है।  
      • वर्ष 2021 में अमेरिका ने 23% प्रेषण के साथ संयुक्त अरब अमीरात को सबसे बड़े स्रोत देश के रूप में प्रतिस्थापित किया। एफडीआई से लगभग 25% अधिक और सॉफ्टवेयर निर्यात से 25% कम की हमारी समृद्ध विदेशी मुद्रा प्रेषण प्राप्ति मानव पूंजी एवं औपचारिक नौकरियों से प्राप्त अच्छे परिणाम को दर्शाती हैं।
  • अतिरिक्त नौकरियाँ: 
    • कार्यस्थल पर बड़ी संख्या में युवा लोगों की क्षमता का उपयोग करने के लिये भारत को वर्ष 2023 से हर वर्ष करीब 12 मिलियन अतिरिक्त गैर-कृषि नौकरियों का सृजन करने की आवश्यकता होगी।
    • यह वर्ष 2012 व 2018 के बीच वार्षिक रूप से सृजित चार मिलियन गैर-कृषि नौकरियों का तिगुना था।
    • भारत को उद्योगों में निवेश करने हेतु सक्षम होने के लिये प्रतिवर्ष 10% की विकास दर की आवश्यकता होगी ताकि युवाओं के कौशल का उपयोग किया जा सके।
  • शिक्षा में निवेश:
    • भारत को इस बड़े कार्यबल से जनसांख्यिकीय लाभांश मिलने की उम्मीद है और साथ ही इससे प्राप्त होने संभावित लाभों के लिये शिक्षा में निवेश की आवश्यकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रश्न. जनसांख्यिकीय लाभांश का पूरा लाभ प्राप्त करने के लिये भारत को क्या करना चाहिये? (2013)

(a) कौशल विकास को बढ़ावा देना
(b) अधिक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को बढ़ावा
(c) शिशु मृत्यु दर को कम करना
(d) उच्च शिक्षा का निजीकरण

उत्तर: (a) 


प्रश्न. समालोचनात्मक परीक्षण करें कि क्या बढ़ती जनसंख्या गरीबी का कारण है या गरीबी भारत में जनसंख्या वृद्धि का मुख्य कारण है।  (मुख्य परीक्षा, 2015)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंबेडकर का लोकतांत्रिक दृष्टिकोण

प्रिलिम्स के लिये:

अंबेडकर, बुद्ध, कबीर और महात्मा ज्योतिबा फुले

मेन्स के लिये:

अंबेडकर की लोकतांत्रिक दृष्टि/दृष्टिकोण

चर्चा में क्यों?

कई अध्ययनों में डॉ. बी.आर. अंबेडकर की लोकतंत्र की अवधारणा का मुख्य रूप से सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दर्शन की दृष्टि के माध्यम से परीक्षण किया गया है।

अंबेडकर की राय में लोकतंत्र निर्माण के कारक:

  • नैतिकता: 
    • बुद्ध और उनके धम्म पर एक दृष्टि इस बात पर प्रकाश डालती है कि कैसे अंबेडकर लोकतंत्र को एक ऐसे दृष्टिकोण के रूप में देखते हैं जो मानव अस्तित्व के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करता है।
    • उनके अनुसार समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के स्तंभों के बावजूद लोकतंत्र को नैतिक रूप से भी देखा जाना चाहिये।
    • जाति व्यवस्था में नैतिकता का उपयोग:
      • अंबेडकर ने जाति व्यवस्था, हिंदू सामाजिक व्यवस्था, धर्म की प्रकृति और भारतीय इतिहास की जांँच में नैतिकता के नज़रिये का उपयोग किया।
      • चूँकि अंबेडकर ने लोकतंत्र में हाशिये पर पहुँच चुके समुदायों को अपने विचार के केंद्र में रखा, इसलिये उनके लोकतंत्र के ढाँचे को इन कठोर धार्मिक संरचनाओं और सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं के भीतर रखना मुश्किल था।
      • इस प्रकार अंबेडकर ने बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के आधार पर एक नई संरचना का निर्माण करने का प्रयास किया।
  • व्यक्तिवाद और बंधुत्व की भावना को संतुलित करना:
    • वह अत्यधिक व्यक्तिवाद के आलोचक थे जो बौद्ध धर्म का एक संभावित परिणाम था, क्योंकि ऐसी विशेषताएँ सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने में सक्रिय रूप से संलग्न होने में विफल रही हैं।  
      • इस प्रकार उनका मानना था कि एक सामंजस्यपूर्ण समाज के लिये व्यक्तिवाद और बंधुत्व के मध्य संतुलन होना आवश्यक है।
  • व्यावहारिकता का महत्त्व: 
    • अंबेडकर व्यावहारिकता को अत्यधिक महत्त्व देते थे।
    • उनके अनुसार, अवधारणाओं और सिद्धांतों का परीक्षण करने की आवश्यकता के साथ ही उन्हें समाज में व्यवहार में लाना जाना आवश्यक था।
    • उन्होंने किसी भी विषय-वस्तु का विश्लेषण करने के लिये तर्कसंगतता और आलोचनात्मक तर्क का उपयोग किया, क्योंकि उनका मानना था कि किसी विषय की पहले तर्कसंगतता की परीक्षा उत्तीर्ण करनी चाहिये, जिसमें विफल होने पर इसे अस्वीकार, परिवर्तित या संशोधित किया जाना चाहिये।

नैतिकता के प्रकार?

  • सामाजिक नैतिकता:  
    • अंबेडकर के अनुसार, सामाजिक नैतिकता का निर्माण अंतःक्रिया के माध्यम से किया गया था और इस तरह की अंतःक्रिया मनुष्य की पारस्परिक मान्यता पर आधारित थी।
    • फिर भी जाति और धर्म की कठोर व्यवस्था के तहत इस तरह की बातचीत संभव नहीं थी क्योंकि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को उसके धर्म या जाति की पृष्ठभूमि के कारण एक सम्मानित इंसान के रूप में स्वीकार नहीं करता था।
    • सामाजिक नैतिकता मनुष्यों के बीच समानता और सम्मान की मान्यता पर आधारित थी।
  • संवैधानिक नैतिकता:  
    • अंबेडकर के लिये संवैधानिक नैतिकता किसी देश में लोकतंत्र की व्यवस्था को बनाए रखने के लिये एक शर्त थी।
      • संवैधानिक नैतिकता का अर्थ है संवैधानिक लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन करना।  
    • उनका मानना था कि केवल वंशानुगत शासन की उपेक्षा के माध्यम से कानून जो सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ एक राज्य जिसमें लोगों का विश्वास है, के माध्यम से लोकतंत्र को बनाए रखा जा सकता है।
    • एक अकेला व्यक्ति या राजनीतिक दल सभी लोगों की ज़रूरतों या इच्छा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
    • अंबेडकर ने महसूस किया कि नैतिक लोकतंत्र की ऐसी समझ जाति व्यवस्था के साथ-साथ नहीं चल सकती।
      • ऐसा इसलिये था क्योंकि पारंपरिक जाति संरचना एक पदानुक्रमित नियमों पर आधारित थी, जिसमें व्यक्तियों के बीच कोई पारस्परिक सम्मान नहीं था, इसके अतिरिक्त एक समूह का दूसरे समूह पर पूर्ण आधिपत्य था।

अंबेडकर का भारतीय समाज के प्रति दृष्टिकोण: 

  • वर्ण व्यवस्था:
    • भारतीय समाज के बारे में उनके विश्लेषण के अनुसार, हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था एक विशिष्ट प्रथा है।
      • विशिष्टता एक राजनीतिक सिद्धांत है जहाँ एक समूह बड़े समूहों के हितों की परवाह किये बिना अपने हितों को बढ़ावा देता है। 
    • अंबेडकर के अनुसार, उच्च जातियाँ, नकारात्मक विशिष्टता (अन्य समूहों पर उनका प्रभुत्त्व) को सार्वभौमिक तौर पर अपनाती हैं और नकारात्मक सार्वभौमिकता नैतिकता को विशिष्ट बनाती है (जिसमें जाति व्यवस्था एवं कुछ समूहों के अलगाव को उचित ठहराया जाता है)।  
    • यह नकारात्मक सामाजिक संबंध मुख्यतः 'अलोकतांत्रिक' है।
    • इस तरह के अलगाव से लड़ने के लिये ही अंबेडकर ने बौद्ध धर्म के लोकतांत्रिक आदर्शों को आधुनिक लोकतंत्र के विचार-विमर्श में लाने का प्रयास किया।
  • लोकतंत्र में धर्म की भूमिका:
    • अंबेडकर के अनुसार, लोकतंत्र का जन्म धर्म से हुआ है तथा इसके बिना जीवन असंभव है।
    • इस प्रकार धर्म के पहलुओं को पूरी तरह से हटा नहीं सकते क्योंकि यह लोकतंत्र के नए संस्करण का पुनर्निर्माण करने का प्रयास करता है जो बौद्ध धर्म जैसे धर्मों के लोकतांत्रिक पहलुओं को अपनाता है।
    • अंत में अंबेडकर महसूस करते हैं कि लोकतांत्रिक जीवन को जीने के लिये समाज में सिद्धांतों और नियमों को अलग करना आवश्यक है।
    • बुद्ध और उनके धम्म के बारे में अंबेडकर व्याख्या करते हैं कि कैसे धम्म, जिसमें प्रज्ञा या सोच व समझ, सिला या अच्छे कार्य और अंत में करुणा या दया शामिल है,  एक 'नैतिक रूप से परिवर्तनकारी' अवधारणा के रूप में उभरता  है जो प्रतिगामी सामाजिक संबंधों को तोड़ता है।

लोकतांत्रिक कार्य करने के लिये अंबेडकर द्वारा रखी गई शर्तें: 

  • समाज में असमानताओं से निपटना:
    • समाज में कोई स्पष्ट असमानता और उत्पीड़ित वर्ग नहीं होना चाहिये।
    • कोई एक ऐसा वर्ग नहीं होना चाहिये जिसके पास सभी विशेषाधिकार हों और न ही एक ऐसा वर्ग जिस पर सभी उत्तरदायित्त्व हों।
  • मज़बूत विपक्ष:
    • उन्होंने एक मज़बूत विपक्ष के अस्तित्त्व पर ज़ोर दिया।
    • लोकतंत्र का मतलब है वीटो पावर। लोकतंत्र वंशानुगत प्राधिकरण या निरंकुश प्राधिकरण का विरोधाभास है, जहाँ चुनाव एक आवधिक वीटो के रूप में कार्य करते हैं जिसमें लोग एक सरकार के गठन हेतु वोट देते हैं और संसद में विपक्ष एक तत्काल वीटो के रूप में कार्य करता है जो सत्ता में सरकार की निरंकुश प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाता है।
  • स्वतंत्रता:
    • इसके अतिरिक्त उन्होंने तर्क दिया कि संसदीय लोकतंत्र स्वतंत्रता के लिये एक जुनून पैदा करता है; विचारों और मतों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता, सम्मानपूर्ण जीवन जीने की स्वतंत्रता, जिसका मूल्य हो वह कार्य करने की स्वतंत्रता।
    • लेकिन हम कमज़ोर विपक्ष के साथ मानव स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की समानांतर गिरावट और इसके परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक साख में गिरावट देख सकते हैं।
  • कानून और प्रशासन में समानता:
    • अंबेडकर ने कानून और प्रशासन में समानता को भी बरकरार रखा।  
    • सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाना चाहिये और वर्ग, जाति, लिंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिये।  
    • उन्होंने संवैधानिक नैतिकता के विचार को आगे बढ़ाया। 
      • उनके लिये संविधान केवल कानूनी कंकाल है, लेकिन मांस वह है जिसे वह संवैधानिक नैतिकता कहते हैं।  

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)  

प्रश्न. निम्नलिखित में से किन दलों की स्थापना डॉ. बीआर अंबेडकर ने की थी? (2012)

  1. द पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया 
  2. अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ
  3.  स्वतंत्र लेबर पार्टी

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: B

  • द पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी ऑफ इंडिया का गठन वर्ष 1947 में पुणे के केशवराव जेधे, शंकरराव मोरे और अन्य लोगों द्वारा किया गया था। अतः कथन 1 सही नहीं है।
  • अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ की स्थापना वर्ष 1942 में बीआर अंबेडकर ने की थी और इस पार्टी ने वर्ष 1946 के आम चुनावों में भाग लिया था। अतः 2 सही है।
  • स्वतंत्र लेबर पार्टी (आईएलपी) का गठन भी वर्ष 1936 में बीआर अंबेडकर द्वारा किया गया था, जिसने बॉम्बे के प्रांतीय चुनावों में भाग लिया था। अतः 3 सही है।

अतः विकल्प (b) सही उत्तर है।

स्रोत: द हिंदू


सहकारी समिति अधिनियम में संशोधन

प्रिलिम्स के लिये:

बहु-राज्य सहकारिता, संविधान (97वाँ संशोधन) अधिनियम, 2011, सहकारी समितियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान।

मेन्स के लिये:

सहकारी समिति अधिनियम में संशोधन।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में विपक्ष की मांगों का जवाब देते हुए लोकसभा ने बहु-राज्य सहकारी समिति (संशोधन) विधेयक 2022 को संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया है।

सहकारी समिति:

  • परिचय: 
    • सहकारी समितियाँ बाज़ार में सामूहिक सौदेबाज़ी की शक्ति का उपयोग करने के लिये लोगों द्वारा ज़मीनी स्तर पर बनाई गई संस्थाएँ हैं।
      • इसमें विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ हो सकती हैं, जैसे कि एक सामान्य लाभ प्राप्त करने के लिये सामान्य संसाधन या साझा पूंजी का उपयोग करना, जो अन्यथा किसी व्यक्तिगत निर्माता के लिये प्राप्त करना मुश्किल होगा।
    • कृषि में सहकारी डेयरी, चीनी मिलें, कताई मिलें आदि उन किसानों के एकत्रित संसाधनों (Pooled Resources) से बनाई जाती हैं जो अपनी उपज को संसाधित करना चाहते हैं।  
      • अमूल भारत में सबसे प्रसिद्ध सहकारी समिति है।
  • क्षेत्राधिकार: 
    • सहकारिता, संविधान के तहत एक राज्य का विषय है जिसका अर्थ है कि वे राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं लेकिन कई समितियाँ हैं जिनके सदस्य और संचालन के क्षेत्र एक से अधिक राज्यों में फैले हुए हैं।
      • उदाहरण के लिये कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा पर स्थित अधिकांश चीनी मिलें दोनों राज्यों से गन्ना खरीदती हैं।
    • बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (MSCS) अधिनियम, 2002 के तहत एक से अधिक राज्यों की सहकारी समितियाँ पंजीकृत हैं।
      • इनके निदेशक मंडल में उन सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है जिनमें वे कार्य करते हैं।
      • इन समितियों का प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण केंद्रीय रजिस्ट्रार के पास है एवं कानून यह स्पष्ट करता है कि राज्य सरकार का कोई भी अधिकारी उन पर नियंत्रण नहीं रख सकता है।

संशोधन की आवश्यकता:

  • वर्ष 2002 से सहकारिता के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन हुए हैं। उस समय सहकारिता कृषि मंत्रालय के अधीन एक विभाग था। हालाँकि जुलाई 2021 में सरकार ने एक अलग सहकारिता मंत्रालय का गठन किया।
  • भाग IXB को 97वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2011 के माध्यम से संविधान में सम्मिलित किया गया था। इसके बाद अधिनियम में संशोधन करना अनिवार्य हो गया है।
    • 97वें संशोधन के तहत:   
      • सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 19 (1) के रूप में शामिल किया गया।
      • सहकारी समितियों का प्रचार राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 43-बी) के रूप में किया गया था।
  • इसके अलावा पिछले कुछ वर्षों के विकास ने भी अधिनियम में बदलाव की आवश्यकता जताई, ताकि बहु-राज्य सहकारी समितियों में सहकारी आंदोलन को मज़बूत किया जा सके। 

प्रस्तावित संशोधन:

  • सहकारी समितियों का विलय:  
    • यह विधेयक किसी भी सहकारी समिति के मौजूदा MSCS में विलय के लिये उपस्थित सदस्यों के बहुमत (कम-से-कम दो-तिहाई) द्वारा पारित एक प्रस्ताव और ऐसी समिति की आम बैठक में मतदान करने का प्रावधान करता है।
    • वर्तमान में केवल MSCS ही स्वयं को समामेलित कर सकता है और एक नया MSCS बना सकता है।
  • सहकारी चुनाव प्राधिकरण: 
    • यह विधेयक सहकारी क्षेत्र में "चुनावी सुधार" की दृष्टि से एक "सहकारी चुनाव प्राधिकरण" स्थापित करने का प्रावधान करता है।
    • प्राधिकरण में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और केंद्र द्वारा नियुक्त किये जाने वाले अधिकतम 3 अन्य सदस्य होंगे।
      • सभी सदस्य 3 वर्ष या 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने तक (जो भी पहले हो) पद पर बने रहेंगे और पुनर्नियुक्ति के लिये पात्र होंगे।
  • कठोर दंड:
    • विधेयक कुछ अपराधों के लिये ज़ुर्माने की राशि को बढ़ाने का प्रयास करता है।
    • यदि निदेशक मंडल या अधिकारियों को ऐसी सोसायटी से संबंधित मामलों का लेन-देन करते समय कोई गैरकानूनी लाभ प्राप्त होता है, तो वे दंड के पात्र होंगे तथा उन्हें कम-से-कम एक महीने का कारावास हो सकता है जो एक वर्ष तक या ज़ुर्माने के साथ बढ़ाया जा सकता है। 
  • सहकारी लोकपाल:
    • सरकार ने सदस्यों द्वारा की गई शिकायतों की जाँच के लिये क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र के साथ एक या एक से अधिक "सहकारी लोकपाल" नियुक्त करने का प्रावधान किया है।
    • सम्मन और जाँच-पड़ताल में सहकारी लोकपाल  की शक्तियां  दीवानी न्यायालय के समान होंगी।
  • पुनर्वास और विकास निधि:
    • यह विधेयक, सहकारी पुनर्वास, पुनर्निर्माण तथा विकास कोष की स्थापना तथा MSCS के पुनरुद्धार का भी प्रावधान करता है।
    • यह विधेयक "समवर्ती लेखापरीक्षा" से संबंधित एक नई धारा 70A को सम्मिलित करने का भी प्रस्ताव करता है, इस MSCSs, का वार्षिक कारोबार या जमा धन राशि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित राशि से अधिक है। 

प्रस्तावित विधेयक की आलोचनाएँ

  • लोकसभा में विपक्षी सदस्यों ने तर्क दिया है कि बिल राज्य सरकारों के अधिकारों को छीनने (Take Away) का प्रयास करता है। 
  • कुछ आपत्तियाँ इस तथ्य पर आधारित हैं कि सहकारी समितियाँ राज्य का विषय है। संघ सूची (सातवीं अनुसूची) की प्रविष्टि 43 यह स्पष्ट करती है कि सहकारी समितियाँ केंद्र के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत नहीं आती हैं।
    • प्रविष्टि 43 में "व्यापारिक निगमों का निगमन, विनियमन और परिसमापन जिसमें बैंकिंग, बीमा एवं वित्तीय निगम शामिल हैं, लेकिन इसमें सहकारी समितियों को शामिल नहीं किया गया है। 

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न  

मेन्स: 

प्रश्न: "गाँवों में सहकारी समिति को छोड़कर ऋण संगठन का कोई भी ढाँचा उपयुक्त नहीं होगा।" - अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण।

प्रश्न: भारत में कृषि वित्त की पृष्ठभूमि में इस कथन पर चर्चा कीजिये। कृषि वित्त प्रदान करने वाली वित्त संस्थाओं को किन बाधाओं और कसौटियों का सामना करना पड़ता है? ग्रामीण सेवार्थियों तक बेहतर पहुँचने और सेवा के लिये प्रौद्योगिकी का किस प्रकार ईस्तेमाल किया जा सकता है? (2014)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 2022

प्रिलिम्स के लिये:

जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 2022

मेन्स के लिये:

जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियमों की विशेषताएँ, जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियमों से संबंधित चिंताएँ

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने "जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 2022" को अधिसूचित किया है, जिसने केंद्रशासित प्रदेश (UT) में लीज पर संपत्ति रखने के मालिकों के अधिकार को समाप्त कर दिया है और यह इन संपत्तियों को नए सिरे से ऑनलाइन आउटसोर्स करने की योजना है।

जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 2022 की मुख्य विशेषताएँ:

  • नए कानूनों ने "जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 1960" को प्रतिस्थापित किया, जिसमें उदार लीज नीति थी, जैसे कि 99 वर्ष की लीज अवधि और विस्तार योग्य।
    • घाटी में स्थित प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों के अधिकांश होटल और जम्मू एवं श्रीनगर में प्रमुख व्यावसायिक संरचनाएँ लीज की भूमि पर हैं।
  • नए कानूनों में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर भूमि अनुदान नियम 1960, अधिसूचित क्षेत्र (पर्यटन क्षेत्र में स्थापित सभी विकास प्राधिकरण) भूमि अनुदान नियम, 2007 और इन नियमों के लागू होने से पहले या इन नियमों के तहत जारी किये गए पट्टे सहित निर्वाह या समाप्त हो चुके आवासीय पट्टों को छोड़कर अन्य कोई पट्टे नवीनीकृत व निर्धारित नहीं  किये जाएंगे। 
    • उपराज्यपाल प्रशासन ने इन लीज संपत्तियों को आउटसोर्स करने के लिये एक नई ऑनलाइन नीलामी आयोजित करने की योजना बनाई है। 
  • सभी जावक पट्टेदार लीज पर ली गई भूमि का कब्ज़ा तत्काल सरकार को सौंप देंगे, ऐसा न करने पर पट्टेदार को बेदखल कर दिया जाएगा।
  • जम्मू-कश्मीर के भूमि कानून प्रतिगामी थे

नियमों का विरोध: 

  • कुछ राजनीतिक दलों ने तर्क दिया है कि पेश किये गए नए भूमि अनुदान नियम-2022 छह से सात लाख लोगों के लिये बेरोज़गारी के दायरे को बढ़ाएगा और केवल जम्मू-कश्मीर में होटल तथा वाणिज्यिक प्रतिष्ठान खरीदने हेतु बाहर से आने वाले करोड़पतियों और पूंजीपतियों के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा। 
    • नवीन भूमि अनुदान नियमावली-2022 द्वारा वर्तमान भू-स्वामियों का अधिकार समाप्त कर उसे बाज़ार मूल्य पर विक्रय किया जाएगा। देश के बाकी हिस्सों के करोड़पतियों और अरबपतियों की तुलना में स्थानीय व्यावसायियों की क्रय शक्ति नगण्य है।
  • इसके कारण बैंक ऋण वाले वर्तमान मालिकों को ऋण चुकाने के लिये अपना घर बेचने हेतु मजबूर होना पड़ेगा।
    • जम्मू-कश्मीर बैंक से लिया गया वर्तमान बैंक उधार 60,000 करोड़ रुपए है, जो 1990 के दशक के बाद से अशांत समय से बचने के लिये स्थानीय लोगों द्वारा लिये गए ऋणों का एक संकेतक है

नियमों से संबंधित प्रशासन के दावे: 

  • जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने दावा किया है कि भूमि कानूनों में संशोधन से कोई भी गरीब प्रभावित नहीं होगा। बाह्य विधि का शासन यहाँ भी लागू करना होगा।
  • 100 करोड़ रुपए की संपत्तियाँ थीं, जिन्हें भुगतान के रूप में 5 रुपए के लिये पट्टे पर दिया जा रहा था, ऐसे लोग ही संशोधनों से चिंतित हैं। नए नियम जम्मू-कश्मीर को देश के बाकी हिस्सों के बराबर लाने के लिये हैं।
  • लेफ्टिनेंट गवर्नर ने दावा किया कि जम्मू-कश्मीर में भूमि कानून प्रतिगामी थे और आम जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए नहीं बनाए गए थे। विभिन्न न्यायालयों में लगभग 40% - 45% मामले केवल भूमि विवाद से संबंधित हैं। 

स्रोत: द हिंदू