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डेली न्यूज़

  • 21 Jan, 2021
  • 45 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

घरेलू प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक

चर्चा में क्यों?

भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने भारतीय स्टेट बैंक, ICICI बैंक और HDFC बैंक को ‘घरेलू प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंकों’ (D-SIBs) के रूप में बनाए रखा है।

प्रमुख बिंदु

प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (SIBs) 

  • कुछ बैंक अपने आकार, क्रॉस-ज्यूरिडिक्शनल गतिविधियों, कार्यान्वयन संबंधी जटिलता की कमी, प्रतिस्थापन और परस्पर जुड़ाव के कारण प्रणालीगत रूप से काफी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं।
  • ये बैंक अपनी विशेषताओं के परिणामस्वरूप इतने महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं कि आसानी से विफल नहीं हो सकते हैं। इसी धारणा के चलते संकट की स्थिति में सरकार द्वारा इन बैंकों पर समर्थन किया जाता है। 
    • प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (SIBs) प्रणालीगत जोखिमों और उनके द्वारा उत्पन्न नैतिक जोखिम से निपटने के लिये अतिरिक्त नीतिगत उपायों के अधीन होते हैं यानी संकट की स्थिति में ये बैंक अतिरिक्त नीतिगत उपायों को अपना सकते हैं।
    • प्रणालीगत जोखिम को किसी कंपनी, उद्योग, वित्तीय संस्थान या संपूर्ण अर्थव्यवस्था की विफलता या विफलता से जुड़े जोखिम के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
    • नैतिक जोखिम एक ऐसी स्थिति है, जिसमें एक पक्ष यह मानकर जोखिमपूर्ण घटना में शामिल होता है कि वह जोखिम से सुरक्षित है और जोखिम की लागत किसी दूसरे पक्ष द्वारा वहन की जाएगी।
  • इन बैंकों की विफलता के कारण बैंकिंग व्यवस्था द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली आवश्यक सेवाएँ भी बाधित हो सकती हैं, जिससे इनकी संपूर्ण आर्थिक गतिविधियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

पृष्ठभूमि 

  • G-SIBs: वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB) द्वारा बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बेसल समिति (BCBS) और अन्य राष्ट्रीय प्राधिकरणों से परामर्श के बाद वर्ष 2011 से वैश्विक-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (G-SIBs) की पहचान की जा रही है।
    • वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB) एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय है, जो वैश्विक वित्तीय प्रणाली के बारे में सिफारिशें करता है। इसकी स्थापना वर्ष 2009 में हुई थी। भारत इस अंतर्राष्ट्रीय निकाय का सदस्य है।
    • बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बेसल समिति (BCBS) द्वारा G-SIBs के आकलन और पहचान करने के लिये कार्यप्रणाली अपनाई जाती है।

      बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बेसल समिति (BCBS) वैश्विक स्तर पर बैंकों का विवेकपूर्ण नियमन करती है। भारतीय रिज़र्व बैंक इसका सदस्य है। 

  • G-SIIs: वित्तीय स्थिरता बोर्ड (FSB) इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ इंश्योरेंस सुपरवाइज़र्स (IAIS) और अन्य राष्ट्रीय प्राधिकरणों के परामर्श से वर्ष 2013 से वैश्विक- प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बीमाकर्त्ताओं (G-SII) की पहचान कर रहा है।

घरेलू-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (D-SIBs)

  • बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बेसल समिति (BCBS) ने अक्तूबर 2012 में D-SIBs से संबंधित अपनी रूपरेखा को अंतिम रूप दिया था। D-SIBs फ्रेमवर्क इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि बैंकों की विफलता का प्रभाव घरेलू अर्थव्यवस्था पर न पड़े।
  • G-SIBs फ्रेमवर्क के विपरीत D-SIBs फ्रेमवर्क राष्ट्रीय अधिकारियों द्वारा किये गए मूल्यांकन पर आधारित होता है।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने वर्ष 2014 में D-SIBs से संबंधित रूपरेखा जारी की थी। D-SIBs की रूपरेखा के मुताबिक, रिज़र्व बैंक के लिये घरेलू बैंकों को घरेलू- प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (D-SIBs) के रूप में नामित करना और उनके प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण स्कोर (SISs) के आधार पर उपयुक्त श्रेणी में रखना आवश्यक है।
    • मूल्यांकन के लिये जिन संकेतकों का उपयोग किया जाता है उनमें बैंक का आकार, परस्पर संबंध, प्रतिस्थापन की स्थिति और कार्यकारी जटिलता आदि शामिल हैं।
    • उनके प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण अंकों के आधार पर बैंकों को विभिन्न समूहों में रखा जाता है। घरेलू-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंकों (D-SIBs) से अपेक्षा की जाती है कि वे रिस्क वेटेड एसेट्स (RWAs) के 0.20 प्रतिशत से 0.80 प्रतिशत के बीच अतिरिक्त सामान्य इक्विटी टीयर 1 (CET1) पूंजी आवश्यकता को बनाए रखें।
      • CET1, पूंजी की वह मात्रा होती है, जिसकी उपस्थिति में किसी भी जोखिम का प्रबंधन आसानी से किया जा सकता है। यह एक पूंजीगत उपाय है, जिसे वर्ष 2014 में वैश्विक स्तर पर एक सुरक्षात्मक साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया था, ताकि अर्थव्यवस्था को वित्तीय संकट से बचाया जा सके।
    • यदि भारत में किसी विदेशी बैंक की शाखा एक वैश्विक-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बैंक (G-SIBs) के रूप में स्थित है, तो उसे भारत में उसके रिस्क वेटेड एसेट्स (RWAs) के अनुपात में G-SIBs के रूप में लागू अतिरिक्त CET1 कैपिटल सरचार्ज को बनाए रखना होगा।

घरेलू-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बीमाकर्त्ता (D-SII) 

  • भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) द्वारा वर्ष 2020-21 के लिये भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC), जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी को घरेलू-प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बीमाकर्त्ताओं के रूप में पहचाना गया है।
  • ये बड़े आकार, बाज़ार महत्त्व और घरेलू तथा वैश्विक परस्पर-संबंध वाले ऐसे बीमाकर्त्ता हैं, जिनकी विफलता के कारण घरेलू वित्तीय प्रणाली के समक्ष गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है।
  • IRDAI द्वारा मार्च 2019 में IL&FS संकट, जिसकी विफलता के कारण वित्तीय बाज़ारों में व्यापक पैमाने पर तरलता संकट पैदा हो गया था, के बाद बीमा कारोबार में ऐसी कंपनियों की पहचान की जा रही है।
  • इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ इंश्योरेंस सुपरवाइज़र्स (IAIS) ने सभी सदस्य देशों को घरेलू- प्रणालीगत महत्त्वपूर्ण बीमाकर्त्ताओं से संबंधित एक नियामक ढाँचा तैयार करने को कहा है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

शैडो उद्यमी

चर्चा में क्यों?

शिक्षा (प्रमाण पत्र), वित्त (आसान ऋण के लिये), सट्टेबाज़ी की अर्थव्यवस्था (ऑनलाइन गेम) और स्वास्थ्य सेवा (ई-फार्मेसी) जैसे विभिन्न क्षेत्रों में वैश्विक स्तर पर शैडो उद्यमियों (Shadow Entrepreneurship) की उपस्थिति में वृद्धि देखी जा रही है।

प्रमुख बिंदु:

शैडो उद्यमी के संबंध में:

  • शैडो उद्यमी ऐसे व्यक्ति को कहा जाता है जो किसी व्यवसाय का प्रबंधन करता है तथा वैध वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री करता है परंतु वह अपने व्यवसायों को सरकार के साथ पंजीकृत नहीं कराता है।
  • इसका अर्थ है कि शैडो उद्यमी कर का भुगतान नहीं करते हैं, एक शैडो अर्थव्यवस्था वह स्थिति है जहाँ सरकारी अधिकारियों की पहुँच के बाहर व्यावसायिक गतिविधियाँ की जाती हैं।
  • इस प्रकार के व्यवसायों में बिना लाइसेंस वाली टैक्सी सेवा, सड़क किनारे भोजन स्टाल लगाना और छोटे भू-निर्माण आदि कार्य शामिल हैं।
  • इंपीरियल कॉलेज बिज़नेस स्कूल (Imperial College Business School) द्वारा 68 देशों पर किये गए एक अध्ययन के अनुसार, इंडोनेशिया के बाद भारत में सबसे अधिक शैडो उद्यमी हैं।

शैडो उद्यमियों में वृद्धि का कारण:

  • कराधान और प्रवर्तन: शिथिल प्रवर्तन के साथ उच्च कर की दर कर से बचने, औपचारिक व्यवसायों में निवेश को हतोत्साहित करने और अनौपचारिक क्षेत्र की ओर उद्यमशीलता की गतिविधि को प्रेरित करती है।
  • COVID-19 का प्रभाव: शैडो उद्यमी, प्रौद्योगिकी सेवाओं के माध्यम से ऐसी पूरक सेवाएँ प्रदान करते हैं जिन्हें सुनिश्चित करने में पारंपरिक सेवा प्रदाता सक्षम नहीं होते या लॉकडाउन बाधाओं के कारण उपभोक्ताओं तक पहुँचाने में सक्षम नहीं हो पाए।
  • प्रौद्योगिकी प्रगति: शैडो उद्यमिता को प्रौद्योगिकी-सक्षम नए बाज़ारों द्वारा भी बढ़ावा मिलता है और इसमें नए तथा तकनीकी ज्ञान रखने वाले उपभोक्ताओं का प्रवेश भी होता है।

लाभ: 

  • रोज़गार में वृद्धि: अनौपचारिक क्षेत्र की अधिकांश नौकरियाँ शैडो उद्यमिता के अंतर्गत आती हैं। इसके अन्य लाभ इस प्रकार हैं-
  • आर्थिक विकास का चालक
  • गरीबी में कमी
  • गैर कृषि रोज़गार प्रदान कर कृषि पर दबाव को कम करना।
  • उपभोक्ताओं के लिये विविध विकल्प मौजूद

शैडो उद्यमियों के समक्ष चुनौतियाँ:

  • प्रतिस्पर्द्धा में कमी
    • छोटी फर्मों का अधिग्रहण बड़ी कंपनियों द्वारा किया जा सकता है। 
  • संदिग्ध और अवैध:
    • एप-आधारित ऋण प्रदाताओं से संबंधित हाल की घटनाएँ जो कि बहुत अधिक ब्याज दर लगाते हैं और संदिग्ध तरीके से अतिरिक्त वसूली करते हैं।
  • आर्थिक नुकसान: 
    • सरकार के साथ पंजीकृत न होने के कारण राजस्व का नुकसान होता है।
  • भ्रष्टाचार: 
    • कानून की पहुँच से परे होने के कारण ये भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।
  • संपत्ति का आकार: 
    • अनौपचारिक उद्यमी अपने व्यवसायों में औपचारिक लोगों की तुलना में बहुत कम तीव्रता से निवेश करते हैं, जिसका अर्थ है कि औपचारिकता का परिसंपत्ति के आकार से सकारात्मक संबंध है।

सुझाव:

  • अर्थव्यवस्था का औपचारिकरण: जहाँ उचित आर्थिक और राजनीतिक ढाँचा होता है, वहाँ व्यक्तियों में औपचारिक (Formal) उद्यमी बनने तथा अपने व्यवसाय को पंजीकृत कराने की अधिक संभावना होती है, क्योंकि इससे वे उन कानूनों एवं नियमों का लाभ उठा पाते हैं जो उनकी कंपनी की रक्षा करने के लिये होते हैं।
  • निगरानी: गुणवत्ता की सुदृढ़ निगरानी की जानी चाहिये। इसके उल्लंघन की स्थिति में दंडनीय सज़ा के रूप में जेल भेजना और सेवाओं पर रोक लगाए जाने की आवश्यकता है।
  • इनाम की स्वीकृति: उन शैडो फर्मों जो कि गैर-शैडो फर्मों के साथ सर्विस प्रदान करने के लिये प्रभावी मोड में शामिल होना चाहते हैं, का स्वागत किया जाना चाहिये।
  • एजेंसियों के बीच समन्वय: सरकारी अधिकारियों के बीच स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा या वित्त के क्षेत्र में शैडो उद्यमिता आदि गतिविधियों के संदर्भ में बेहतर समन्वय होना आवश्यक है।

स्रोत:द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

कार्बन पृथक्करण

चर्चा में क्यों?

कार्बन पृथक्करण/सीक्वेस्ट्रेशन (Carbon Sequestration) के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी को विकसित करने और जलवायु परिवर्तन के संकट के समाधान के लिये निवेश बढ़ाया जा रहा है।

प्रमुख बिंदु:

आवश्यकता:

  • ग्लोबल वार्मिंग की दर में वृद्धि और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की वजह से यह विचार कार्बन पृथक्करण की कृत्रिम तकनीकों में निवेश करने में मदद कर रहा है।
  • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change) के अनुसार,  इस सदी में जलवायु परिवर्तन के तीव्र नकारात्मक प्रभावों को रोकने हेतु राष्ट्रों को वायुमंडल से 100 बिलियन से  1 ट्रिलियन टन के मध्य कार्बन डाइऑक्साइड को वातावरण से बाहर निकालने की आवश्यकता होगी और इसे अधिक -सेअधिक पेड़ लगाकर अवशोषित किया जा सकता है।

कार्बन पृथक्करण:

  • कार्बन पृथक्करण के तहत पौधों, मिट्टी, भूगर्भिक संरचनाओं और महासागर में कार्बन का दीर्घकालिक भंडारण होता है।
  • कार्बन पृथक्करण स्वाभाविक रूप से एंथ्रोपोजेनिक गतिविधियों और कार्बन के भंडारण को संदर्भित करता है।

प्रकार:

  • स्थलीय कार्बन पृथक्करण: 
    • स्थलीय कार्बन पृथक्करण (Terrestrial Carbon Sequestration) वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से वायुमंडल से CO2 को प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा पेड़-पौधों से अवशोषित कर मिट्टी और बायोमास (पेड़ की शाखाओं, पर्ण और जड़ों) में कार्बन के रूप में संग्रहीत किया जाता है।
  • भूगर्भीय कार्बन पृथक्करण:
    • इसमें CO2 का भंडारण किया जा सकता है, जिसमें तेल भंडार, गैस के कुओं, बिना खनन किये गए कोल भंडार, नमक निर्माण और उच्च कार्बनिक सामग्री के साथ मिश्रित संरचनाएंँ शामिल होती हैं।
  • महासागरीय कार्बन पृथक्करण:
    • महासागरीय कार्बन पृथक्करण द्वारा वातावरण से CO2  को  बड़ी मात्रा में अवशोषित, मुक्त और संग्रहीत किया जाता है। इसके दो प्रकार हैं- पहला, लौह उर्वरीकरण (Iron Fertilization) के माध्यम से महासागरीय जैविक प्रणालियों की उत्पादकता बढ़ाना और दूसरा, गहरे समुद्र में CO2 को इंजेक्ट करना।
    • लोहे की डंपिंग फाइटोप्लांकटन ( Phytoplankton) की उत्पादन दर को तीव्र करती है, परिणामस्वरूप फाइटोप्लांकटन प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को तीव्र कर देते हैं जो CO2 को अवशोषित करने में सहायक हैं।

विधियाँ:

  • प्राकृतिक कार्बन पृथक्करण:
    • यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रकृति ने जीवन के लिये वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड को उपयुक्त तरीके से  संतुलित किया है। जीव-जंतु कार्बन डाइऑक्साइड को ठीक उसी प्रकार निष्कासित करते हैं, जैसे कि रात के समय  पौधे करते हैं।
    • प्रकृति ने पेड़-पौधों, समुद्रों, पृथ्वी और जानवरों को स्वयं कार्बन सिंक, या स्पंज का रूप प्रदान किया। इस ग्रह पर सभी कार्बनिक जीव कार्बन आधारित हैं, अत: जब पौधे और जानवर की मृत्यु हो जाती है तो अधिकांश कार्बन वापस ज़मीन में चला जाता है जिस कारण ग्लोबल वार्मिंग में इसका योगदान काफी कम हो जाता है।
  • कृत्रिम कार्बन पृथक्करण:
    • कृत्रिम कार्बन पृथक्करण कई प्रक्रियाओं को संदर्भित करता है जिसमें कार्बन उत्पादन स्रोत पर ही कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित कर (जैसे- फैक्टरी की चिमनी) ज़मीन में दफनाया जाता है।
    • एक प्रस्तावित विधि के अनुसार, महासागरीय सीवेज के तहत कार्बन डाइऑक्साइड को समुद्र की गहराई में इंजेक्ट किया जाता है जहाँ CO2 की कम मात्रा विद्यमान होती है। CO2  स्वाभाविक रूप से पानी के दबाव और तापमान के कारण गहराई में नीचे चली जाती है तथा धीरे-धीरे समय के साथ जल में घुल जाती है।
    • एक अन्य उदाहरण भूवैज्ञानिक पृथक्करण है जहाँ कार्बन डाइऑक्साइड को उन पुराने तेल के कुओं, भूमिगत जल स्रोतों और कोयला खदानों जैसे भूमिगत स्रोतों में पंप किया जाता है जिनमें खनन नही किया जाना है।

कृत्रिम कार्बन पृथक्करण की चुनौतियाँ:

  • तकनीक का अभाव:
    • तथाकथित रूप से निगमों की बढ़ती संख्या तथा इंजीनियर कार्बन हटाने की तकनीक में धन का निवेश कर रहे हैं।
    • हालाँकि ये प्रौद्योगिकियाँ अभी शुरुआती अवस्था में हैं तथा इनका अधिक-से-अधिक दोहन करने की आवश्यकता है।
  • उच्च लागत:
    • कार्बन हटाने की तकनीकें इनके व्यापक उपयोग के लिये बहुत महंँगी हैं।
    • कृत्रिम कार्बन पृथक्करण महँगा, ऊर्जा गहन, अपेक्षाकृत अप्रयुक्त है तथा इसका कोई अन्य लाभ भी नहीं है।
  • पर्यावरणीय चिंता:
    • कार्बन डाइऑक्साइड को गहरे भूमिगत स्रोतों में संग्रहीत किया जा सकता है। जलाशयों का सही तरीके से निर्माण न होना, चट्टानों में दरारों का पड़ना और टेक्टोनिक प्रक्रियाएँ आदि की वजह से गैस महासागर या वायुमंडल में उत्सर्जित हो सकती हैं, जिसके अनपेक्षित परिणाम देखने को मिल सकते हैं जैसे -हासागर का अम्लीकरण आदि।

कृत्रिम कार्बन पृथक्करण की संभावनाएँ :

    • तीव्रता से कार्बन पृथक्करण: 
      • कृत्रिम  पृथक्करण की तुलना में प्राकृतिक पृथक्करण एक धीमी प्रक्रिया है। इस प्रकार यह उन लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु प्राकृतिक  पृथक्करण  का अनुपूरक हो सकती है जो जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये आवश्यक है।
    • उत्पादकता में वृद्धि:
      • पुराने तेल के कुओं, जलीय चट्टानी परतों और कोल संस्तर जैसे भूमिगत स्रोतों में संग्रहीत कार्बन बेहतर कृषि उपज और  तेल की प्राप्ति में सहायक है।
    • रोज़गार सृजन:
      • यह नया और उभरता हुआ क्षेत्र निजी उद्यमियों और पूंजीपतियों को आकर्षित कर रहा है, जो रोज़गार सृजन में मदद कर सकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 


भारतीय अर्थव्यवस्था

‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’ (संशोधन) अधिनियम, 2020 का SC द्वारा अनुमोदन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में ‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’ (संशोधन) अधिनियम, 2020 [Insolvency and Bankruptcy Code (Amendment) Act, 2020] की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने अगस्त 2019 में दिये गए अपने एक आदेश में घर-खरीदारों को वित्तीय लेनदारों का दर्जा देने के सरकारी फैसले को बरकरार रखा था।
    • वित्तीय लेनदार: इसका अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है, जिस पर ‘वित्तीय ऋण’ बकाया है और इसमें ऐसा व्यक्ति भी शामिल है जिसे इस तरह का ऋण कानूनी रूप से सौंपा गया है या हस्तांतरित किया गया है।
  • इसके बाद सरकार ने ‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’ (संशोधन) अधिनियम, 2020 पेश किया, जिसके तहत किसी भी रियल एस्टेट डेवलपर के खिलाफ दिवालिया कार्यवाही शुरू करने के लिये कुल आवंटियों में से कम-से-कम 100 (या कुल आवंटियों के 10%) की संख्या संबंधी शर्त को लागू किया गया।
    • इसका अर्थ है कि रियल एस्टेट डेवलपर/बिल्डर के खिलाफ इन्सॉल्वेंसी कार्यवाही शुरू करने के लिये IBC की धारा-7 के तहत ‘नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल’ (NCLT) में केवल एक आवंटी द्वारा अपील किये जाने पर प्रतिबंध है।
    • संशोधन अधिनियम की धारा-3 घर-खरीदारों को बिल्डरों के खिलाफ ‘कॉर्पोरेट इन्सॉल्वेंसी रिज़ोल्यूशन प्रोसेस’ (Corporate Insolvency Resolution Process- CIRP) अपनाने की अनुमति देती है, परंतु इसके लिये 100 आवंटियों या कुल आवंटियों के कम-से-कम 10% आवंटियों को संयुक्त रूप से आवेदन करना पड़ता है।
      • आवंटियों को एक ही अचल संपत्ति परियोजना से संबंधित होना चाहिये। एक ही डेवलपर की अलग-अलग परियोजनाओं के पीड़ित आवंटी 100 का समूह नहीं बना सकते हैं
    • वर्तमान में 100 आवेदकों की सीमा पूरी करने के लिये 30 दिन की समयसीमा तय की गई है, अन्यथा वर्ष 2020 के इस अधिनियम के शुरू होने से पहले की लंबित याचिका को वापस ले लिया जाएगा।
  • यह प्रावधान कुछ असंतुष्ट घर-खरीदारों/निवेशकों द्वारा अचल संपत्ति परियोजनाओं को बाधा पहुँचाने से बचाने के लिये किया गया था।

सर्वोच्च न्यायालय का आदेश:

  • सीमा:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि लेनदारों की इन श्रेणियों के संबंध में एक सीमा तय किये जाने से अत्यधिक मुकदमेबाजी की स्थिति पर विराम लगेगा।
    • न्यायालय ने इस कानून पर सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि एक ही आवंटी को ट्रिब्यूनल में अपील करने का अधिकार देना जोखिम भरा होगा क्योंकि कॉर्पोरेट इन्सॉल्वेंसी रिज़ॉल्यूशन की वजह से डेवलपर के कंपनी प्रबंधन में पूर्ण रूप से बदलाव या प्रतिस्थापन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
      • एक अकेले आवंटी द्वारा की गई इस तरह की पहल योजना के उन अन्य आवंटियों को नुकसान पहुँचाएगी, जिन्हें मौजूदा डेवलपर पर  विश्वास था या जो अन्य कानूनी उपायों का पालन कर रहे थे।
    • यह संशोधन कॉर्पोरेट देनदार (रियल एस्टेट डेवलपर्स) की सुरक्षा के प्रयास को दर्शाता है।
  • लेनदारों की सहमति:
    • संशोधन यह सुनिश्चित करने की संभावना व्यक्त करता है कि अपील करने से पहले सभी आवेदकों के बीच कम-से-कम एक आम सहमति हो।
  • आवंटन:
    • इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी व्यक्ति के नाम पर एक या अधिक आवंटन हैं या आवंटन उसके परिवार के सदस्यों के नाम पर है।
    • जब किसी व्यक्ति या उसके परिवार के सदस्यों के लिये अलग-अलग घरों का आवंटन होता है, उस दौरान वे सभी अलग-अलग आवंटियों के रूप में योग्य होते हैं और 100 आवंटियों की गणना में अलग अलग गिने जाएंगे।

 ‘दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता’

अधिनियमन

  • IBC को वर्ष 2016 में अधिनियमित किया गया था।

उद्देश्य:

  • असफल व्यवसायों की समाधान प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और तेज़ करना।
  • दिवालियापन की समस्या के समाधान के लिये सभी वर्गों के देनदारों और लेनदारों को  एकसमान मंच प्रदान करने के लिये मौजूदा विधायी ढाँचे के प्रावधानों को मज़बूत करना।
  • किसी तनावग्रस्त कंपनी की समाधान प्रक्रिया को अधिकतम 270 दिनों में पूरा करना।

इन्सॉल्वेंसी को लागू करने के लिये राशि सीमा:

  • मार्च 2020 में सरकार ने कोविड-19 महामारी का सामना कर रहे छोटे और मध्यम उद्यमों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही को रोकने के लिये IBC के तहत इनसॉल्वेंसी की प्रक्रिया के लिये राशि सीमा 1 लाख रुपए से बढ़ाकर 1 करोड़ रुपए कर दी थी।

इन्सॉल्वेंसी समाधान प्रक्रिया को सुगम बनाने के कुछ उपाय:

  • इन्सॉल्वेंसी पेशेवर
    • ये पेशेवर दिवाला समाधान प्रक्रिया का प्रबंधन करते हैं, देनदार की संपत्ति का प्रबंधन करते हैं और लेनदारों को निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये आवश्यक सूचना प्रदान करते हैं।
  • इन्सॉल्वेंसी पेशेवर संस्थान
    • ये संस्थाएँ इन्सॉल्वेंसी पेशेवरों के प्रमाणन और उनसे संबंधित आचार संहिता लागू करने के लिये परीक्षाएँ आयोजित करती हैं।
  • इनफाॅर्मेशन यूटिलिटी
    • इनफाॅर्मेशन यूटिलिटी (IU) ऐसी संस्थाएँ हैं, जो वित्तीय सूचनाओं के डेटा रिपोजिटरी के रूप में कार्य करती हैं और साथ ही किसी देनदार से संबंधित वित्तीय जानकारी प्रदान करती हैं।
  • प्राधिकृत अधिकरण
    • कंपनियों के लिये दिवाला समाधान प्रक्रिया की कार्यवाही नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) द्वारा  और  व्यक्तियों के लिये ऋण वसूली अधिकरण (DRT) द्वारा संपन्न की जाती है।
    • प्राधिकरणों के कर्तव्यों में दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू करना, इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल नियुक्त करना और लेनदारों के अंतिम निर्णय को मंज़ूरी देना आदि शामिल हैं।
  • दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड  
    • यह बोर्ड दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता के तहत इन्सॉल्वेंसी पेशेवरों, इन्सॉल्वेंसी पेशेवर संस्थानों और  इनफाॅर्मेशन यूटिलिटीज़ को विनियमित करता है।
    • इस बोर्ड में भारतीय रिज़र्व बैंक, वित्त मंत्रालय, कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय और विधि मंत्रालय के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।

नोट

  • इन्सॉल्वेंसी: यह एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी अपने बकाया ऋण चुकाने में असमर्थ होता है।
  • बैंकरप्सी: यह एक ऐसी स्थिति है जब किसी सक्षम न्यायालय द्वारा एक व्यक्ति या अन्य संस्था को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है और न्यायालय द्वारा इसका समाधान करने तथा लेनदारों के अधिकारों की रक्षा करने के लिये उचित आदेश दिया गया हो। यह किसी कंपनी अथवा व्यक्ति द्वारा ऋणों का भुगतान करने में असमर्थता की कानूनी घोषणा है।

स्रोत-इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

ओपन-रैन आर्किटेक्चर

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (Telecom Regulatory Authority of India- TRAI) के अध्यक्ष ने कहा कि ओपन-रैन (रेडियो एक्सेस नेटवर्क- RAN) और सॉफ्टवेयर दूरसंचार नेटवर्क के उपयोग से भारतीय संस्थाओं को नेटवर्क उपकरण बाज़ार में प्रवेश करने के नए अवसर मिलेंगे।

प्रमुख बिंदु:

ओपन-रैन के संबंध में:

  • ओपन-रैन (O-RAN) कोई तकनीक नहीं है बल्कि मोबाइल नेटवर्क आर्किटेक्चर में एक निरंतर बदलाव है जो विभिन्न प्रकार के वेंडर्स के माध्यम से उप-केंद्रों का उपयोग कर नेटवर्क स्थापित करने  की अनुमति देता है।
    • O-RAN में एक ओपन, मल्टी-वेंडर आर्किटेक्चर है, जो मोबाइल नेटवर्क स्थापित करने के लिये एकल-विक्रेता स्वामित्व आर्किटेक्चर के विपरीत है।
    • O-RAN विभिन्न कंपनियों द्वारा निर्मित हार्डवेयर को एक साथ संचालित करने के लिये सॉफ्टवेयर का उपयोग करता है।
  • O-RAN की मुख्य अवधारणा RAN में विभिन्न उपकेंद्रों (रेडियो, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर) के मध्य प्रोटोकॉल और इंटरफेस को "खोलना" है।
  • रेडियो एक्सेस नेटवर्क (RAN): 
    • यह दूरसंचार प्रणाली का एक हिस्सा है जो रेडियो कनेक्शन के माध्यम से एक नेटवर्क के अन्य भागों में विशिष्ठ उपकरणों को जोड़ता है।
    • RAN, जो कि विभिन्न उपकरणों जैसे- मोबाइल फोन, कंप्यूटर या किसी भी रिमोट आधारित मशीनों में होता है, मुख्य नेटवर्क के साथ कनेक्शन प्रदान करता है।

RAN के तत्त्व:

  • रेडियो यूनिट (RU)- यह वह स्थान है जहाँ रेडियो फ्रीक्वेंसी सिग्नल प्रसारित, प्राप्त, प्रवर्धित और डिजिटाइज़ किये जाते हैं। RU को एंटीना में एकीकृत किया जाता है या उसके पास स्थापित किया जाता है।
  • डिस्ट्रिब्यूटेड यूनिट (DU)- यह वह स्थान है जहाँ रियल टाइम, बेसबैंड प्रोसेसिंग होती है। DU को सेल साइट के पास केंद्रीकृत या स्थित किया जा सकता है।
  • केंद्रीकृत यूनिट (CU)- यह वह स्थान है जहाँ आमतौर पर लेस टाइम सेंसिटिव पैकेट प्रोसेसिंग का कार्य होता हैं।

Open RAN की कार्यप्रणाली:

  • यह RU, DU और CU के बीच का इंटरफ़ेस है जो ओपन RAN का मुख्य केंद्रबिंदु है।
  • इन इंटरफेस (अन्य नेटवर्क के बीच) को खोलने, मानकीकृत करने तथा कार्यान्वयन के लिये प्रोत्साहित किये जाने से नेटवर्क को एक एकल वेंडर पर निर्भर हुए बिना अधिक मॉड्यूलर डिज़ाइन के साथ स्थापित किया जा सकता है।
  • इन परिवर्तनों से DU और CU को वेंडर-न्यूट्रल हार्डवेयर पर वर्चुअलाईज़्ड सॉफ्टवेयर फंक्शंस के रूप में संचालित करने की अनुमति मिल सकती है।

पारंपरिक RAN:

  • एक पारंपरिक RAN सिस्टम में रेडियो, हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का मुख्य स्थान होता है।
    • इसका अर्थ है कि इसमें प्रयुक्त होने वाले सभी उपकरण एक ही आपूर्तिकर्ता  द्वारा प्रदान किये जाएंगे और संबंधित ऑपरेटर ऐसा करने में असमर्थ होते हैं, उदाहरण के लिये एक वेंडर के हार्डवेयर और दूसरे वेंडर के सॉफ्टवेयर का उपयोग कर रेडियो के माध्यम से एक नेटवर्क को स्थापित करना।
  • समस्याएँ:
    • विभिन्न प्रदाताओं के सेल साइटों को आपस में मिलाना और उनका मिलान करना आमतौर पर प्रदर्शन में कमी का कारण बनता है।
    • इसका परिणाम यह है कि अधिकांश नेटवर्क ऑपरेटर, कई RAN विक्रेताओं का समर्थन करते हुए एक ऐसे भौगोलिक क्षेत्र में एकल विक्रेता का उपयोग कर नेटवर्क स्थापित करेंगे जो नए इनोवेटर्स के प्रवेश के लिये उच्च अवरोधों के साथ विक्रेता लॉक-इन स्थिति का निर्माण कर सकते हैं।

ओपन-रैन का लाभ:

  • नवोन्मेष और विकल्प:  
    • एक खुला वातावरण पारिस्थितिकी तंत्र का विस्तार करता है और जब मूलभूत ज़रूरतों को अधिक विक्रेताओं द्वारा पूरा किया जाएगा तो नवाचार को बढ़ावा मिलेगा और ऑपरेटरों के लिये अधिक विकल्प उपलब्ध होंगे।
  • नए अवसर:  
    • यह भारतीय संस्थाओं के लिये नेटवर्क उपकरण बाज़ार में प्रवेश करने के नए अवसर खोलेगा।
  • लागत की बचत:
    • इस दृष्टिकोण के लाभों में नेटवर्क की दक्षता और लचीलेपन में वृद्धि तथा लागत बचत शामिल है।
    • इसके माध्यम से 5G के अधिक लचीला और लागत कुशल होने का अनुमान है।  

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजव्यवस्था

पदोन्नति में आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महान्यायवादी (Attorney General) को एम. नागराज मामले में वर्ष 2006 में संविधान पीठ द्वारा दिये गए  निर्णय के खिलाफ किये गए फैसले के की प्रयोज्यता के संबंध में राज्यों द्वारा उठाए जा रहे विभिन्न मुद्दों को संकलित करने के लिये कहा है।

  • यह निर्देश सात न्यायाधीशों वाली खंडपीठ द्वारा केंद्र की एक याचिका पर दिया गया है जिसमें सवाल किया गया है कि सरकारी पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करते समय अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय के लिये क्रीमी लेयर लागू होना चाहिये या नहीं।
  • अदालत ने एम नागराज मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों की पदोन्नति में क्रीमी लेयर सिद्धांत के इस्तेमाल को बरकरार रखा था।

प्रमुख बिंदु

क्रीमी लेयर:

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘क्रीमी लेयर’ (Creamy Layer) शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख इंद्रा साहनी मामले (1992) में किया गया था।
  • ‘क्रीमी लेयर’ शब्द अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के अपेक्षाकृत अमीर और बेहतर शिक्षित समूहों को संबोधित करता है, जिन्हें सरकार प्रायोजित शैक्षिक और पेशेवर लाभ के कार्यक्रमों के योग्य नहीं माना जाता है। 
  • वर्तमान नियमों के अनुसार, OBC वर्ग के केवल वे उम्मीदवार जिनकी पारिवारिक आमदनी 6 लाख रूपए से कम है, आरक्षण के पात्र हैं। हालाँकि हाल ही में पारिवारिक आमदनी की सीमा को बढ़ाकर  8 लाख रुपए कर दिया गया है।

संकलन का निर्देश देने के कारण:

  • SC/ST समुदायों के सदस्यों के लिये पदोन्नति में क्रीमी लेयर सिद्धांत को लागू करने  हेतु राज्यों द्वारा उठाए गए मुद्दे साधारण/सामान्य नहीं हैं, इसलिये इस प्रकार के मुद्दों को सात न्यायाधीशों की बेंच को संदर्भित करने से पहले संकलित किया जाना चाहिये।

एम. नागराज मामला (2006):

  • इंद्रा साहनी मामले से अलग निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय ने पदोन्नति में SC/ST के लिये आरक्षण में क्रीमी लेयर अवधारणा को लागू करने के इंद्रा साहनी मामले (1992) में दिये गए अपने निर्णय (जिसमें उसने SC/ST को क्रीमी लेयर से बाहर रखा था, जबकि यह OBC पर लागू था) को पलट दिया।
  • राज्यों को निर्देश: पांँच जजों की बेंच ने नागराज मामले में 77वें, 81वें, 82वें और 85वें संवैधानिक संशोधनों को बरकरार रखा, जो पदोन्नति में SC/ST समुदायों के आरक्षण का प्रावधान करते हैं, लेकिन राज्यों को कुछ निर्देश भी दिये गए जो इस प्रकार हैं:
    • राज्य पदोन्नति के मामले में SC/ST समुदाय को आरक्षण देने के लिये बाध्य नहीं है।
    • यदि कोई राज्य पदोन्नति में SC/ST समुदायों को आरक्षण प्रदान करना चाहता है तो:
      • उसे उस वर्ग के पिछड़ेपन की स्थिति को दर्शाते हुए मात्रात्मक डेटा एकत्र करना होगा जिसे  वह आरक्षण प्रदान करना चाहता है।
      • अनुच्छेद 335 का अनुपालन सुनिश्चित करने के अलावा राज्य को सार्वजनिक रोज़गार में उस वर्ग के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को दर्शाना होगा।
    • राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा 50% की आरक्षण-सीमा के प्रावधान का उल्लंघन नहीं किया गया है।

अन्य संबंधित निर्णय:

  • जरनैल सिंह बनाम वी.एल.एन गुप्ता (2018) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नागराज फैसले को एक उच्च पीठ को संदर्भित करने से इनकार कर दिया , परंतु बाद में यह कहकर अपने निर्णय को बदल दिया कि राज्यों को SC / ST समुदायों के पिछड़ेपन के मात्रात्मक डेटा प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
  • पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है: 
    • नागराज मामले में अपने रुख की पुष्टि करते हुए वर्ष 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सार्वजनिक पदों पर पदोन्नति के मामले में आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है तथा किसी राज्य को इसे प्रदान करने  हेतु बाध्य नहीं किया जा सकता है।
  • केंद्र द्वारा वर्तमान मांग: केंद्र ने न्यायालय से विभिन्न मुद्दों पर SC/ST को पदोन्नति में क्रीमी लेयर की अवधारणा को शुरू करने के अपने रुख की समीक्षा करने के लिये कहा गया:
    • पिछड़े वर्ग आरक्षण से वंचित हो सकते हैं: सरकार का मानना है कि ‘क्रीमी लेयर’ ’आरक्षण के लाभ से पिछड़े वर्गों को वंचित कर सकता है।
    • पिछड़ेपन की स्थिति को पुनः साबित करने की निरर्थकता : यह माना जाता है कि एक बार जब उन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत राष्ट्रपति द्वारा पिछड़े वर्ग की सूची में जोड़ दिया गया है, तो फिर से SC/STको  पिछड़ा साबित करने का कोई सवाल ही नहीं है।
      • अनुच्छेद 341 और 342 के तहत उक्त सूची को संसद के अलावा किसी अन्य द्वारा परिवर्तित नहीं किया जा सकता है - यह परिभाषित करना कि किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में किसे SC/ST के रूप में माना जाएगा।

आरक्षण में पदोन्नति के लिये संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद 16(4): इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के उन सभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • अनुच्छेद 16(4A): इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकती हैं यदि राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • इसे संविधान में 77वें संवैधानिक संशोधन द्वारा वर्ष 1995 में शामिल किया गया था।
  • अनुच्छेद 16 (4B): इसे 81वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा जोड़ा गया, जिसमें एक विशेष वर्ष के रिक्त SC/ST कोटे को अगले वर्ष के लिये स्थानांतरित कर दिया गया।
  • अनुच्छेद 335: के अनुसार, सेवाओं और पदों को लेकर SC और ST के दावों पर विचार करने हेतु विशेष उपायों को अपनाने की आवश्यकता है, ताकि उन्हें बराबरी के स्तर पर लाया जा सके।
    • 82वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2000 ने अनुच्छेद 335 में एक शर्त सम्मिलित की जो कि राज्य को किसी भी परीक्षा में अर्हक अंक में छूट प्रदान करने हेतु अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के पक्ष में कोई प्रावधान करने में सक्षम बनाता है।

स्रोत: द हिंदू


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