भारत और न्यू यूरेशिया
प्रिलिम्स के लिये:रूस-यूक्रेन, NATO, QUAD, इंडो-पैसिफिक, AUKUS, INSTC मेन्स के लिये:भारत और न्यू यूरेशिया, चुनौतियाँ और संभावनाएँ। |
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2023 की शुरुआत के साथ दुनिया एक नए शब्द 'न्यू नॉर्मल' से परिचित हो रही है, जहाँ यूरेशिया और इंडो-पैसिफिक में पुरानी और नई फॉल्ट लाइनों को फिर से कॉन्फिगर किया जा रहा है।
यूरेशिया:
- यूरेशिया का विचार नया नहीं है। यूरोप और एशिया को जोड़ने वाले विशाल भूभाग का वर्णन करने के लिये कई लोगों ने इसे एक तटस्थ शब्द के रूप में इस्तेमाल किया है।
- महाद्वीपीय निरंतरता के बावजूद सदियों से यूरोप और एशिया अलग-अलग राजनीतिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों के रूप में उभर रहे है।
- भौगोलिक रूप से यूरेशिया एक टेक्टोनिक प्लेट है जो यूरोप और एशिया के अधिकांश भाग में स्थित है। हालाँकि जब राजनीतिक सीमाओं की बात आती है, तो इस क्षेत्र का गठन करने वाली कोई साझा अंतर्राष्ट्रीय जानकारी नहीं है।
यूरेशिया में नई भू-राजनीतिक गतिशीलता:
- जापान यूरोप के साथ मज़बूत सैन्य साझेदारी बनाने की कोशिश कर रहा है, जबकि दक्षिण कोरिया, जो कभी जापान से आँख नहीं मिलाता था, वह भी यूरोप में अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहा है।
- दक्षिण कोरिया अपने प्रमुख हथियार पोलैंड को बेच रहा है।
- ऑस्ट्रेलिया, जो AUKUS (ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका) व्यवस्था में अमेरिका एवं ब्रिटेन के साथ शामिल हो गया है, यूरोप को हिंद-प्रशांत में लाने के लिये समान रूप से उत्सुक है।
- साथ में जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया एशिया तथा यूरोप के बीच विभाजन को पाट रहे हैं जिसे लंबे समय से अलग-अलग भू-राजनीतिक थिएटर के रूप में देखा जाता रहा है।
- यूक्रेन-रूस युद्ध तथा रूस और चीन के बीच गठबंधन से इस प्रक्रिया में तेज़ी आई है। यह नई गतिशीलता यूरेशिया के गठन पर विचार करने के लिये भारत के समक्ष चुनौतियों के साथ-साथ अवसर भी प्रदान करती है।
- जापान और दक्षिण कोरिया का यूरोप की ओर झुकाव से पूर्व, चीन और रूस ही थे जिन्होंने यूरेशिया में भू-राजनीतिक गतिशीलता को बदल दिया।
- रूस-यूक्रेन युद्ध से कुछ दिन पहले रूस और चीन दोनों ने "सीमाओं के बिना" तथा किसी भी "निषिद्ध क्षेत्रों" के साथ गठबंधन की घोषणा करते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये।
- चीन, जिसने 1990 के दशक से यूरोप को विकसित करने का काफी हद तक सफल प्रयास किया था, जान-बूझकर रूस के साथ यूरोप के संघर्षों में पक्ष लेने से बचता रहा।
अन्य देशों की यूरेशियन नीतियाँ:
- यूरेशिया में संयुक्त राज्य अमेरिका के हित:
- यूरेशिया के उदय में वाशिंगटन की इंडो-पैसिफिक रणनीति पर्याप्त रूप से उत्तरदायी नहीं मालूम होती है।
- एशिया में अमेरिका का हित मुख्य रूप से पश्चिमी प्रशांत और दक्षिणी चीन सागर में है। दोनों क्षेत्र यूरेशिया से काफी दूर हैं।
- हालाँकि हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीन से बढ़ती चुनौतियों के बीच, वाशिंगटन ने यूरेशिया के लिये अपनी सामरिक प्रतिबद्धताओं पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया है।
- यूरोप की सामूहिक रक्षा के लिये महाद्वीपीय कर्त्तव्यों को पुनर्संतुलित करना संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ के बीच चर्चा का विषय है।
- चीन, यूरेशिया में एक प्रमुख अभिकर्त्ता:
- यूरेशिया में हालिया सबसे महत्त्वपूर्ण विकास को देखें तो यह है चीन का आकस्मिक उदय और उसकी बढ़ती सामरिक मुखरता, आर्थिक शक्ति तथा राजनीतिक प्रभाव।
- बीजिंग सक्रिय रूप से अफगानिस्तान में एक मज़बूत भूमिका और बड़े उप-हिमालयी क्षेत्र के मामलों में बड़ी भूमिका की मांग कर रहा है, जिससे इसकी बढ़ती शक्ति के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। बीजिंग भूटान एवं भारत के साथ लंबे समय से चली आ रही सीमा विवाद के संबंध में भी विचार कर रहा है।
- चीन की बेल्ट एंड रोड पहल के विस्तार और चीन के साथ यूरोप की बढ़ती आर्थिक परस्पर निर्भरता ने यूरेशिया में बीजिंग की शक्ति को बढ़ा दिया है।
- यूरेशिया के प्रमुख क्षेत्रों तक फैले रूस के साथ बढ़ते गठबंधन ने इन शक्तियों को और मज़बूत किया है।
- रूस:
रूस ने अपने आप को एक यूरोपीय और एशियाई शक्ति दोनों के रूप में देखा परंतु दोनों में से किसी का हिस्सा नहीं बन पाया।
रूस और चीन ने इस उम्मीद में यूरेशियाई गठबंधन की घोषणा की कि यह पश्चिमी आधिपत्य पर करारा प्रहार होगा।
वर्ष 2014 में क्रीमिया पर कब्ज़ा और यूक्रेन पर आक्रमण को पुतिन "रस्की मीर" अथवा रूसी दुनिया को फिर से जोड़ने के अपने ऐतिहासिक मिशन के रूप में देखते हैं।
जब 2000 के दशक में सोवियत संघ और पश्चिम के साथ एकीकरण के प्रयास में समस्याएँ उत्पन्न हुईं, तो उन्होंने "यूरेशिया" तथा "ग्रेटर यूरेशिया" को नए भू-राजनीतिक निर्माणों के रूप में विकसित किया।
भारत की यूरेशियन नीति:
- सुरक्षा संबंधी संवाद:
- वर्ष 2021 में अफगानिस्तान पर दिल्ली क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता का आयोजन यूरेशियन रणनीति विकसित करने के एक भाग के रूप में किया गया था। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने पाकिस्तान, ईरान, मध्य एशिया, रूस और चीन के अपने समकक्षों को इस चर्चा में शामिल होने के लिये आमंत्रित किया।
- हालाँकि पाकिस्तान और चीन इस बैठक से अनुपस्थित रहे। तथ्य यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान के संबंध में भारत के साथ सहयोग करने के लिये अनिच्छुक है, यह एक नई यूरेशियन रणनीति विकसित करने के लिये इस्लामाबाद के साथ काम करने में दिल्ली की परेशानियों को दर्शाता है।
- इसके अतिरिक्त यह इस बात पर ज़ोर देता है कि यूरेशिया से निपटने के लिये भारत को तत्काल योजना की कितनी आवश्यकता है।
- अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा:
- INSTC का उद्देश्य यूरेशिया के देशों को एक साथ लाने की दिशा में एक प्रशंसनीय पहल करना है।
- यह सदस्य देशों के बीच परिवहन सहयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ईरान, रूस और भारत द्वारा 12 सितंबर, 2000 को सेंट पीटर्सबर्ग में स्थापित एक बहु-मॉडल परिवहन है।
- INSTC में ग्यारह नए सदस्यों को शामिल करने के लिये इसका विस्तार किया गया, ये हैं- अज़रबैजान गणराज्य, आर्मेनिया गणराज्य, कज़ाखस्तान गणराज्य, किर्गिज़ गणराज्य, ताजिकिस्तान गणराज्य, तुर्की गणराज्य, यूक्रेन गणराज्य, बेलारूस गणराज्य, ओमान, सीरिया और बुल्गारिया (पर्यवेक्षक)।
- चुनौतियाँ और संभावनाएँ:
- यूरेशिया के उदय के चलते भारत के लिये एक ही समय में दो नौकाओं पर सवारी करना जैसा है। अब तक भारत हिंद-प्रशांत में समुद्री गठबंधन क्वाड के साथ आसानी से जुड़ सकता था और एक ही समय में रूस तथा चीन के नेतृत्त्व वाले महाद्वीपीय गठबंधन के साथ चल सकता था।
- यह तभी तक संभव था जब तक समुद्री और महाद्वीपीय शक्तियाँ एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं थीं।
- एक तरफ अमेरिका, यूरोप और जापान तथा दूसरी तरफ चीन एवं रूस के बीच संघर्ष अब तीव्र हो गया है तथा इसमें तत्काल सुधार के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं।
- ऐसे में हिमालयी सीमा पर चीन के कारण भारत की बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों और मॉस्को तथा बीजिंग के बीच गहराते संबंध का अर्थ होगा कि आने वाले दिनों में भारत की महाद्वीपीय रणनीति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा। अमेरिका एवं यूरोप के साथ-साथ जापान, दक्षिण कोरिया तथा ऑस्ट्रेलिया से साझेदारी में भारत की रणनीतिक क्षमताओं को सशक्त करने की संभावनाएँ कभी भी इतनी मज़बूत नहीं रही हैं। अब यह भारत पर निर्भर करता है कि वह उभरती संभावनाओं का लाभ कैसे उठा सकता है।
आगे की राह
- भारत को "यूरेशियन" नीति के विकास के लिये जापान तथा दक्षिण कोरिया की तरह ही ऊर्जा लगानी चाहिये। यदि इंडो-पैसिफिक दिल्ली की नई समुद्री भू-राजनीति के बारे में है तो यूरेशिया में भारत की महाद्वीपीय रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक है।
- दशकों से भारत का यूरेशिया के देशों से अलग-अलग संबंध रहा है, लेकिन भारत को अब यूरेशिया में मज़बूत आधार स्थापित करने के लिये एक एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- भारत निश्चित रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, ईरान और अरब की खाड़ी के बीच अपने रास्ते में कई विरोधाभासों का सामना करेगा, लेकिन उसे इन विरोधाभासों से पीछे नहीं हटना चाहिये।
- भारत की कुंजी अधिक रणनीतिक सक्रियता में निहित है जो यूरेशिया में सभी दिशाओं में अवसर खोलती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. कभी-कभी समाचारों में देखा जाने वाला बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का उल्लेख किसके संदर्भ में किया जाता है? (2016) (a) अफ्रीकी संघ उत्तर: (d) प्रश्न. नई त्रि-राष्ट्रीय साझेदारी AUKUS का उद्देश्य इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन की महत्त्वाकांक्षाओं का मुकाबला करना है। क्या यह गठबंधन इस क्षेत्र में मौजूदा ‘साझेदारियों’ का स्थान लेने जा रहा है? वर्तमान परिदृश्य में AUKUS की ताकत और प्रभाव पर चर्चा कीजिये। (मेन्स- 2021) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
इको-सेंसिटिव ज़ोन
प्रिलिम्स के लिये:इको-सेंसिटिव ज़ोन, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, राष्ट्रीय वन्यजीव कार्ययोजना (2002-2016), शहरीकरण, एक सींग वाला गैंडा, काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, वन अधिकार अधिनियम, ग्राम सभा, इको-टूरिज़्म, बागवानी, कार्बन फुटप्रिंट्स। मेन्स के लिये:इको-सेंसिटिव ज़ोन के आसपास गतिविधियाँ, इको-सेंसिटिव ज़ोन का महत्त्व, इको-सेंसिटिव ज़ोन से संबंधित चुनौतियाँ। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में प्रदर्शनकारियों द्वारा इको-सेंसिटिव ज़ोन का यह कहते हुए विरोध किया गया कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के अनुपालन में प्रवर्तन अधिकारियों ने वन समुदायों के अधिकारों को उपेक्षित किया है जिससे वन समुदायों के जीवन एवं आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।
इको-सेंसिटिव ज़ोन:
- परिचय:
- पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की राष्ट्रीय वन्यजीव कार्ययोजना (2002-2016) में निर्धारित किया गया है कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत राज्य सरकारों को राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों की सीमाओं के 10 किमी. के भीतर आने वाली भूमि को इको सेंसिटिव ज़ोन या पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र (ESZ) घोषित करना चाहिये।
- हालाँकि 10 किलोमीटर के नियम को एक सामान्य सिद्धांत के रूप में लागू किया गया है, इसके क्रियान्वयन की सीमा अलग-अलग हो सकती है। पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्ण एवं विस्तृत क्षेत्रों, जो 10 किमी. से परे हों, को केंद्र सरकार द्वारा ESZ के रूप में अधिसूचित किया जा सकता है।
- ESZs के आसपास गतिविधियाँ:
- निषिद्ध गतिविधियाँ: वाणिज्यिक खनन, आरा मिलें, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग, प्रमुख जलविद्युत परियोजनाओं की स्थापना, लकड़ी का व्यावसायिक उपयोग।
- पर्यटन गतिविधियाँ जैसे- राष्ट्रीय उद्यान के ऊपर गर्म हवा के गुब्बारे, अपशिष्टों का निर्वहन या कोई ठोस अपशिष्ट या खतरनाक पदार्थों का उत्पादन।
- विनियमित गतिविधियाँ: पेड़ों की कटाई, होटलों और रिसॉर्ट्स की स्थापना, प्राकृतिक जल का व्यावसायिक उपयोग, बिजली के तारों का निर्माण, कृषि प्रणाली में भारी परिवर्तन, जैसे- भारी प्रौद्योगिकी, कीटनाशकों आदि को अपनाना, सड़कों को चौड़ा करना।
- अनुमति प्राप्त गतिविधियाँ: संचालित कृषि या बागवानी प्रथाएँ, वर्षा जल संचयन, जैविक खेती, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग, सभी गतिविधियों के लिये हरित प्रौद्योगिकी को अपनाना।
- निषिद्ध गतिविधियाँ: वाणिज्यिक खनन, आरा मिलें, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग, प्रमुख जलविद्युत परियोजनाओं की स्थापना, लकड़ी का व्यावसायिक उपयोग।
- ESZs का महत्त्व:
- विकास गतिविधियों के प्रभाव को कम करना:
- शहरीकरण और अन्य विकासात्मक गतिविधियों के प्रभाव को कम करने के लिये संरक्षित क्षेत्रों से सटे क्षेत्रों को इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित किया गया है।
- इन-सीटू संरक्षण:
- ESZ इन-सीटू संरक्षण में मदद करते हैं, जो लुप्तप्राय प्रजातियों के अपने प्राकृतिक आवास में संरक्षण से संबंधित है, उदाहरण के लिये काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, असम में एक सींग वाले गैंडे का संरक्षण।
- वन क्षरण और मानव-पशु संघर्ष को कम करना:
- इको-सेंसिटिव ज़ोन वनों की कमी और मानव-पशु संघर्ष को कम करते हैं।
- संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन के मूल और बफर मॉडल पर आधारित होते हैं, जिनके माध्यम से स्थानीय क्षेत्र के समुदायों को भी संरक्षित एवं लाभान्वित किया जाता है।
- नाज़ुक पारिस्थितिक तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव को कम करना:
- संरक्षित क्षेत्रों के आसपास इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित करने का उद्देश्य संरक्षित क्षेत्र के लिये एक प्रकार का 'शॉक एब्जॉर्बर' बनाना है।
- वे उच्च सुरक्षा वाले क्षेत्रों से कम सुरक्षा वाले क्षेत्रों में एक संक्रमण क्षेत्र के रूप में भी कार्य करते हैं।
- विकास गतिविधियों के प्रभाव को कम करना:
- ESZs के साथ जुड़ी चुनौतियाँ:
- जलवायु परिवर्तन:
- जलवायु परिवर्तन ने ESZs पर भूमि, जल और पारिस्थितिक तनाव उत्पन्न किया है।
- उदाहरण के लिये बार-बार जंगल की आग या असम की बाढ़ जिसने काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और इसके वन्यजीवों को बुरी तरह प्रभावित किया।
- जलवायु परिवर्तन ने ESZs पर भूमि, जल और पारिस्थितिक तनाव उत्पन्न किया है।
- वन अधिकारों का अतिक्रमण:
- कभी-कभी पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के निष्पादन हेतु अधिकारियों को वन समुदायों के अधिकारों की उपेक्षा करनी पड़ती है जिस कारण उनके जीवन एवं आजीविका पर प्रभाव पड़ता है।
- इसमें विकासात्मक मंज़ूरी के लिये ग्राम सभा को प्रदान किये गए अधिकारों को कम करना भी शामिल है।
- वन अधिकारों की मान्यता और ग्राम सभा की सहमति वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत वन भूमि को गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिये डायवर्ट करने के प्रस्तावों पर विचार करने की पूर्व शर्त थी- जब तक कि MoEFCC ने 2022 में उन्हें समाप्त नहीं कर दिया।
- जलवायु परिवर्तन:
आगे की राह
- सामुदायिक जुड़ाव: ESZs के प्रबंधन के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल करना महत्त्वपूर्ण है।
- यह कार्य समुदाय-आधारित संगठनों के माध्यम से किया जा सकता है, जैसे कि उपयोगकर्त्ता समूह या संरक्षण समितियाँ, जो इन क्षेत्रों में पाए जाने वाले संसाधनों के प्रबंधन और सुरक्षा के लिये ज़िम्मेदार हैं।
- ग्राम सभा को विकासात्मक परियोजनाओं के मामले में निर्णय लेने वाले प्राधिकरण के साथ सशक्त होना चाहिये।
- वैकल्पिक आजीविका सहयोग: उन स्थानीय समुदायों के लिये वैकल्पिक आजीविका विकल्प प्रदान करना महत्त्वपूर्ण है जो अपनी आजीविका के लिये ESZs में उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर हैं।
- पर्यावरण पुनर्नवीकरण को बढ़ावा देना: वनीकरण और नष्ट हुए वनों का पुनर्वनीकरण, पर्यावास का पुनर्विकास, कार्बन फुटप्रिंट को बढ़ावा देकर तथा शिक्षा के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत में संरक्षित क्षेत्रों की निम्नलिखित में से किस एक श्रेणी में स्थानीय लोगों को बायोमास एकत्र करने और उपयोग करने की अनुमति नहीं है? (2012) (a) बायोस्फीयर रिज़र्व उत्तर: (b) |
स्रोत: द हिंदू
एटलिन जलविद्युत परियोजना
प्रिलिम्स के लिये:एटलिन जलविद्युत परियोजना, दिर और टैंगन नदी, दिबांग नदी, वन सलाहकार समिति (FAC), पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA), बाँधों, नदियों और लोगों पर दक्षिण एशिया नेटवर्क (SANDRP)। मेन्स के लिये:दिर और टैंगन नदी का महत्त्व, एटलिन जलविद्युत परियोजना की राह में कठिनाइयाँ। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में एटलिन जलविद्युत परियोजना को उसके वर्तमान स्थिति में रद्द कर दिया है।
- इस योजना ने सीमित भंडारण के साथ टू रन-ऑफ-द-रिवर योजना को जोड़ा, जिस हेतु टैंगोन और दिर नदियों पर कंक्रीट गुरुत्त्वाकर्षण बाँधों की आवश्यकता थी।
- 2008 में अपनी स्थापना के बाद से ही यह पारिस्थितिक क्षति, वन अतिक्रमण और आदिवासी विस्थापन जैसी चिंताओं के कारण विवादों में रहा।
दिर और टैंगन नदी का महत्त्व:
- अरुणाचल प्रदेश, भारत में दिबांग नदी (ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी) की दोनों सहायक नदियों, दिर और टैंगन नदी का निम्नलिखित महत्त्व है:
- हाइड्रोलॉजिकल: दोनों नदियाँ सिंचाई और जलविद्युत उत्पादन के लिये पानी उपलब्ध कराकर क्षेत्र के समग्र जल विज्ञान में योगदान करती हैं।
- पारिस्थितिक: दिर और टैंगन नदियाँ दुर्लभ और लुप्तप्राय प्रजातियों सहित विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों को जीवन प्रदान करती हैं।
- पर्यटक आकर्षण: दिबांग के साथ-साथ दिर और टैंगन नदियों का प्राकृतिक सौंदर्य प्रमुख पर्यटन स्थल है।
एटलिन जलविद्युत परियोजना के संदर्भ में चिंताएँ:
- पर्यावरणीय प्रभाव: इस परियोजना में दिबांग नदी पर एक बड़े बाँध का निर्माण शामिल होगा, जो वन और वन्यजीव आवास के एक बड़े क्षेत्र को जलमग्न कर सकता है।
- इससे स्थानीय समुदायों का विस्थापन हो सकता है और क्षेत्र की जैवविविधता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
- स्थानीय समुदायों का विस्थापन: यह परियोजना हज़ारों लोगों को उनके घरों और आजीविका से विस्थापित करेगी, जिनमें से कई स्थानीय समुदाय हैं जो अपनी आजीविका के लिये दिबांग नदी पर निर्भर हैं।
- नदी पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव: परियोजना द्वारा नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बदलने के कारण यह मछली के प्रवास और प्रजनन को प्रभावित करेगी।
- इसका उन स्थानीय समुदायों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जो अपनी आजीविका के लिये मछली पकड़ने पर निर्भर हैं।
- भूवैज्ञानिक और भूकंपीय जोखिम: परियोजना के लिये पर्यावरण मंज़ूरी (Environmental Clearance- EC) दी जाने के दौरान द साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल (SANDRP) ने वर्ष 2015 में जैवविविधता के लिये भूवैज्ञानिक और भूकंपीय जोखिमों एवं खतरों पर प्रकाश डाला था।
- मुद्दे की हालिया स्थिति: वन सलाहकार समिति ने अरुणाचल प्रदेश सरकार को मूलभूत चीज़ों पर ध्यान देने और परियोजना का पुन:अवलोकन कर योजना प्रस्तुत करने के लिये कहा है।
वन सलाहकार समिति
- यह ‘वन (संरक्षण) अधिनयम, 1980 के तहत स्थापित एक संविधिक निकाय है।
- FAC ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (Ministry of Environment, Forest and Climate Change-MOEF&CC) के अंतर्गत कार्य करती है।
- यह समिति गैर-वन उपयोगों जैसे-खनन, औद्योगिक परियोजनाओं आदि के लिये वन भूमि के प्रयोग की अनुमति देने और सरकार को वन मंज़ूरी के मुद्दे पर सलाह देने का कार्य करती है।
आगे की राह
- समुदाय-आधारित दृष्टिकोण: इस क्षेत्र की स्थानीय आबादी से संवाद स्थापित किया जाना चाहिये और यह सुनिश्चित करने के लिये निर्णय लेने में उनकी भागीदारी होनी चाहिये ताकि अंततः उनकी चिंताएँ भी प्रतिबिंबित हों।
- पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों का सीमांकन: जिन क्षेत्रों में जैवविविधता के नुकसान का खतरा है, उन्हें ठीक से चिह्नित किया जाना चाहिये ताकि उन्हें किसी प्रकार की बाधा का सामना न करना पड़े।
- पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (EIA): स्थानीय पर्यावरण पर परियोजना के प्रभाव का उचित और पूर्ण मूल्यांकन कर व्यापक रूप से अध्ययन किया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्नप्रश्न. टिहरी जलविद्युत परिसर निम्नलिखित में से किस नदी पर स्थित है? (2008) (a) अलकनंदा उत्तर: (b) प्रश्न. तपोवन और विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजनाएँ कहाँ स्थित हैं? (2008) (a) मध्य प्रदेश उत्तर: (c) |