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डेली न्यूज़

  • 20 Oct, 2020
  • 41 min read
कृषि

भारत में हींग कृषि परियोजना

प्रिलिम्स के लिये:

भारत में हींग कृषि परियोजना

मेन्स के लिये:

भारत में हींग कृषि परियोजना

चर्चा में क्यों?

'इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी (IHBT), पालमपुर के वैज्ञानिक भारतीय हिमालयन क्षेत्र में हींग की कृषि को बढ़ावा देने के लिये एक ‘मिशन प्रोजेक्ट’ पर कार्य कर रहे हैं। IHBT,  हिमाचल प्रदेश में स्थित  'वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद' (CSIR) की एकमात्र प्रयोगशाला है।

प्रमुख बिंदु:

  • यह ‘अम्बेलीफेरिया’ (Umbelliferae) परिवार का एक पौधा है। यह एक बारहमासी पौधा है जिसकी मोटी जड़ों और प्रकंद से ‘ओलियो गम राल’ (Oleo Gum Resin) निकाली जाती है। यह पौधा पोषक तत्त्वों को अपनी गहरी मांसल जड़ों के अंदर संग्रहीत करता है।
  • यह ईरान और अफगानिस्तान में स्थानिक है। दोनों देश हींग के प्रमुख वैश्विक आपूर्तिकर्त्ता भी हैं। भारत में यह बहुत लोकप्रिय है और इसका उपयोग भोज्य पदार्थों में किया जाता है।

जलवायु की स्थिति: 

  • हींग की कृषि मुख्यत: शुष्क और ठंडे भागों में की जाती है। ग्रीष्मकाल में इसके लिये अधिकतम 35 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान, जबकि सर्दियों में न्यूनतम 0 से 4 डिग्री सेल्सियस तापमान आवश्यक होता है।
  • रेतीली मृदा, बहुत कम नमी और 200 मिमी. से अधिक वार्षिक वर्षा को हींग की कृषि के लिये अनुकूल माना जाता है। तीव्र मौसम के समय पौधे में निष्क्रिय रहने का गुण पाया जाता है। 

महत्त्व:

  • इसमें औषधीय गुण होते हैं, जिससे पाचन, शरीर में ऐठन,  पेट की बीमारियों, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस आदि में राहत मिलती है। 
  • मासिक धर्म और समय पूर्व प्रसव के दौरान होने वाले दर्दनाक या अत्यधिक रक्तस्राव को रोकने में इसका उपयोग किया जाता है।

भारत की हींग कृषि परियोजना

(India’s Heeng Cultivation Project):

  • भारत में हींग की कृषि नहीं की जाती है। भारत प्रतिवर्ष ईरान, अफगानिस्तान और उज़्बेकिस्तान से लगभग 1,200 टन कच्ची हींग का आयात करता है, जिसकी लागत लगभग 600 करोड़ रुपए है।
  • वर्ष 2017 में IHBT ने भारतीय हिमालयन क्षेत्र में हींग की कृषि के लिये एक प्रायोगिक परियोजना पर विचार के साथ 'राष्ट्रीय पादप आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो' (National Bureau of Plant Genetic Resources- NBPGR) से संपर्क किया।
  • जून 2020 में IHBT द्वारा हींग की कृषि करने के लिये हिमाचल प्रदेश के कृषि मंत्रालय के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए।
    • कृषि मंत्रालय ने 'लाहुल-स्पीति घाटी' में ऐसे चार स्थानों की पहचान की है और इस क्षेत्र में सात किसानों को हींग के बीज वितरित किये हैं।

चुनौतियाँ:

  • वैज्ञानिकों के समक्ष वर्तमान में प्रमुख चुनौती यह है कि हींग के बीज लंबे समय तक निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं और बीज के अंकुरण की दर सिर्फ 1% होती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

समुद्री-घास का पारिस्थितिकीय महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये:

समुद्री-घास, सोसाइटी फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर

मेन्स के लिये:

समुद्री-घास का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'सोसाइटी फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर' (SCON),  त्रिची (तमिलनाडु) के अध्यक्ष द्वारा ‘समुद्री-घास’ (Seagrasses) के महत्त्व को उजागर किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • SCON, भारत सरकार के 'सोसायटी अधिनियम' के तहत पंजीकृत एक गैर-लाभकारी, गैर-सरकारी संगठन है। 

समुद्री-घास के बारे में: 

  • समुद्री-घास समुद्री पुष्पी पौधे होते हैं जो मुख्यत: उथले सागरीय जल यथा- जलमग्न खाड़ी और लैगून में उगते हैं।
  • हालाँकि समुद्री-घास मृदा से लेकर चट्टानीय भागों तक उप-परत में पाई जाती है, लेकिन हरी-भरी समुद्री-घास मुख्यत: दलदल और रेतीली उपस्तरीय परत में पाई जाती है।
    • यहाँ उपपरत/सब्सट्रेट का तात्पर्य उस परत से जो सागरीय जल के नीचे पाई जाती है।
  • यह अलिस्मातालेस (Alismatales) गण (Order) से संबंधित है, जिसकी चार परिवारों से संबंधित 60 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
  • समुद्री-घास में प्रजातीय विविधता बहुत कम पाई जाती है (<60 प्रजातियाँ), लेकिन प्रजातियों का वितरण बहुत व्यापक स्तर पर पाया जाता है।

Atlantic-weather

समुद्री-घास के उदाहरण:

  • सी काउ ग्रास (सीमोडोसेया सेरुलता), थ्रीड सी ग्रास (सिमोडोशिया रोटंडेटा), नीडल सी ग्रास (सीरिंगोडियम आइसोइटिफोलियम), फ्लैट-टैप्ड सी ग्रास (हालोड्यूल यूनिनर्विस), स्पून सी ग्रास (हल्लोविला ओवल) आदि समुद्री-घास के कुछ उदाहरण हैं।

समुद्री-घास का वितरण:

  • समुद्री-घास  मुख्यत: समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय समुद्र तटों पर पाई जाती है। भारत के संपूर्ण तटीय क्षेत्रों में समुद्री-घास पाई जाती है परंतु तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी और पाक-जलडमरूमध्य में यह प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।
  • मन्नार की खाड़ी में 21 द्वीप हैं। यहाँ के कुरुसादी, पुम्हारिचन, पुलिवासल और थलियारी द्वीपों के आसपास समुद्री-घास की प्रचुरता पाई जाती है। यहाँ समुद्री-घास के सभी 6 जेनेरा और 11 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

Sea-grass-distribution

समुद्री-घास का पारिस्थितिकीय महत्त्व: 

  • समुद्री-घास कई प्रकार की पारिस्थितिकीय सेवाएँ प्रदान करती है। इसलिये इसे 'इकोसिस्टम इंजीनियर' के रूप में भी जाता जाता है।

तटीय जल की गुणवत्ता में वृद्धि:

  • समुद्री-घास जल की गुणवत्ता को बनाए रखने में मदद करती है। वह जल- स्तंभ में मौजूद तलछट और निलंबित कणों को फँसाकर, उनका नितल पर जमाव करते हैं जिससे जल की दृश्यता (Water Clarity) बढ़ती है।
    • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जल में स्पष्टता का अभाव समुद्री जानवरों के व्यवहार को प्रभावित करता है।

पोषक तत्त्वों का निस्पंदन:

  • समुद्री-घास भूमि आधारित उद्योगों से जारी पोषक तत्वों को फ़िल्टर करती है, जिससे प्रवाल भित्तियों को शुद्ध पोषक तत्त्व प्राप्त होते हैं।
    •  प्रवाल भितियाँ पोषक तत्त्वों के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होती हैं ।

तटों की समुद्री धाराओं से सुरक्षा:

  • सागरीय तट और नितल समुद्री धाराओं और तूफानों की तीव्र लहरों के प्रति प्रवण होते हैं। 
  •  समुद्री-घास की जड़ों का ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज वितरण पाया जाता है। स्थलीय जड़ों के समान ये समुद्री नितल को स्थिर करके उसे मृदा क्षरण से बचाते हैं।

सागरीय जीवों का संरक्षण:

  • सुरक्षा: समुद्री-घास में मत्स्य की अनेक लघु प्रजातियाँ शरण लेती हैं, समुद्री-घास के मुलायम तलछट में अनेक समुद्री जीवों का आवास होता है।
  • आवास: समुद्री-घास मज़बूत सागरीय धाराओं से समुद्री कीड़ों, केकड़ों, स्टारफिश, समुद्री खीरे (Cucumbers), समुद्री अर्चिन आदि की रक्षा करती है। यह इन जीवों को आवास के साथ-साथ भोजन भी प्रदान करती है। सीहॉर्स लगभग पूरे वर्ष समुद्री-घास के मैदानों में रहते हैं।
  • भोजन: कुछ लुप्तप्राय समुद्री जीव जैसे डुगोंग, ग्रीन टर्टल आदि प्रत्यक्षत: भोजन के लिये समुद्री-घास पर निर्भर रहते हैं। कई अन्य सूक्ष्मजीव अप्रत्यक्ष रूप से समुद्री खाद्य  पदार्थों से पोषक तत्त्व लेते हैं। बॉटल-नोज़ डॉल्फिन भोजन के लिये समुद्री-घास में रहने वाले जीवों पर निर्भर रहती है।

पोषक तत्त्वों तथा उर्वरक की प्राप्ति:

  • मृत समुद्री-घास के विघटन से नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक तत्त्वों की प्राप्ति होती है। ये फाइटोप्लैंकटन के लिये पोषक तत्त्व के रूप में कार्य करते हैं। समुद्री-घास का इस्तेमाल रेतीली मृदा के लिये उर्वरक के रूप में किया जाता है।

कार्बन पृथक्करण के रूप में: 

  • एक एकड़ समुद्री-घास प्रतिवर्ष 740 पाउंड कार्बन का पृथक्करण (Sequester) कर सकती है।
  • उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों की तुलना में समुद्री-घास वातावरण से 35 गुना अधिक तेज़ी से कार्बन का पृथक्करण कर सकती है।

पारिस्थितिकी पर प्रभाव:

  • समुद्री-घास में 2-5 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट हो रही है। हाल के दशक में लगभग 30,000 वर्ग किलोमीटर समुद्री-घास की कमी हुई है।
  • अवसादों का बढ़ना, मत्स्य ट्रोलिंग, तटीय इंजीनियरिंग निर्माण कार्य, प्रदूषण आदि के कारण सामुद्रिक घास पारिस्थितिकी में गिरावट देखी गई है।

आगे की राह:

  • 'अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ' (IUCN) को समुद्री-घास के संरक्षण के लिये तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिये और समुद्री-घास की विभिन्न प्रजातियों की स्थिति का अध्ययन करना चाहिये।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में समुद्री-घास महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वैश्विक स्तर पर समुद्री-घास की प्रजातियों की पुनर्बहाली का प्रयास किया जाना चाहिये।समुद्री-घास के संरक्षण के लिये उपाय करने की तत्काल आवश्यकता है। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


कृषि

उर्वरक सब्सिडी: अर्थ और महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये

नीम कोटेड यूरिया (NCU), पॉइंट ऑफ सेल (PoS)

मेन्स के लिये

उर्वरक सब्सिडी भुगतान की नई प्रणाली और गैर-कृषि कार्यों के लिये यूरिया के उपयोग को रोकने के उपाय

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार एक फसल सीज़न के दौरान किसी किसान द्वारा खरीदे जाने वाले सब्सिडी युक्त उर्वरक बैगों की संख्या की एक निश्चित सीमा निर्धारित करने पर विचार कर रही है।

प्रमुख बिंदु

उर्वरक सब्सिडी का अर्थ

  • विदित हो कि किसान उर्वरकों को अपनी आवश्यकतानुसार, अधिकतम खुदरा मूल्य (MRPs) के आधार पर खरीदते हैं, जो कि मांग और आपूर्ति आधारित बाज़ार मूल्य तथा उत्पादन/आयात में आने वाले खर्च की अपेक्षा काफी कम होता है।
  • उदाहरण के लिये सरकार द्वारा नीम कोटेड यूरिया (NCU) का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRPs) 5,922.22 रुपए प्रति टन तय किया गया है, जबकि घरेलू निर्माताओं और आयातकों को इसके लिये औसतन क्रमशः 17,000 रुपए और 23,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से कीमत चुकानी पड़ती है।
  • इस प्रकार दोनों मूल्यों में जो अंतर आता है उसका भुगतान केंद्र सरकार द्वारा उर्वरक सब्सिडी के रूप में किया जाता है।
  • ग़ौरतलब है कि गैर-यूरिया उर्वरकों का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRPs) सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जाता और यह निजी कंपनियों द्वारा तय किया जाता है, हालाँकि सरकार इनके उचित मूल्य को बनाए रखने के लिये कुछ हद तक हस्तक्षेप करती है।

कैसे और किसे मिलती है सब्सिडी?

  • सरकार द्वारा उर्वरक सब्सिडी, उर्वरक कंपनियों को दी जाती है, हालाँकि इस सब्सिडी का अंतिम लाभार्थी किसान ही होता है, जो कि बाज़ार निर्धारित दरों से कम पर अधिकतम खुदरा मूल्य (MRPs) का भुगतान करता है।
  • मार्च 2018 तक सब्सिडी भुगतान प्रणाली के तहत उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी का भुगतान तब किया जाता था, जब कंपनी द्वारा भेजे गए उर्वरक के बैग उस ज़िले के रेलहेड पॉइंट या स्वीकृत गोदाम में पहुँच जाते थे।
  • मार्च 2018 में सरकार द्वारा इस संबंध में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (DBT) प्रणाली शुरू की गई, जिसमें उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी का भुगतान तभी किया जाता है जब किसानों द्वारा खुदरा विक्रेताओं से वास्तविक खरीद की जाती है। 
  • वर्तमान में भारत में 2.3 लाख से अधिक खुदरा विक्रेता हैं और अब नई व्यवस्था के तहत प्रत्येक खुदरा विक्रेता के पास एक पॉइंट ऑफ सेल (PoS) मशीन है, जो कि भारत सरकार के उर्वरक विभाग के ‘ई-उर्वरक डीबीटी पोर्टल’ (e-Urvarak DBT Portal) से जुड़ी है।
    • साथ ही सब्सिडी युक्त उर्वरक खरीदने वाले किसान को अब केवल अपने आधार कार्ड नंबर या किसान क्रेडिट कार्ड नंबर की आवश्यकता होती है।
  • नई व्यवस्था के तहत ई-उर्वरक पोर्टल पर पंजीकृत बिक्री होने के बाद ही कोई कंपनी उर्वरक के लिये सब्सिडी का दावा कर सकती है। इसके तहत सब्सिडी का भुगतान कंपनियों के बैंक खाते में किया जाता है। 

नई भुगतान प्रणाली का उद्देश्य

  • सब्सिडी युक्त होने के कारण यूरिया (Urea) का सदैव ही गैर-कृषि कार्यों हेतु उपयोग होने का भय रहता है। उदाहरण के लिये इसका प्रयोग दूध विक्रेताओं द्वारा दूध में मिलावट के लिये किया जा सकता है। इसके अलावा भारत में सब्सिडी के कारण सस्ती होने की वजह से  नेपाल और बांग्लादेश में भी यूरिया की तस्करी की जाती है।
  • भुगतान की पूर्ववर्ती प्रणाली में इस इस तरह के कार्यों के लिये यूरिया के उपयोग की गुंजाइश काफी अधिक थी, किंतु नई प्रणाली के तहत इस प्रकार की चोरी की संभावना काफी कम हो गई है, क्योंकि अब भुगतान केवल तभी किया जाता है, जब यूरिया की बिक्री हो जाती है।

सरकार के नए प्रस्ताव के निहितार्थ

  • प्रस्तावित योजना के अनुसार, किसी भी किसान द्वारा खरीफ अथवा रबी फसल के मौसम में खरीदे जाने वाले सब्सिडी युक्त उर्वरक बैग की कुल संख्या निर्धारित कर दी जाए, इससे यूरिया की चोरी करने वाले लोगों को बड़े पैमाने पर यूरिया खरीदने से रोकने में मदद मिलेगी।
  • प्रभाव
    • मौजूदा नियमों के अनुसार, कोई भी व्यक्ति (किसान अथवा गैर-किसान) अपने आधार कार्ड नंबर या किसान क्रेडिट कार्ड (KCC) नंबर की सहायता से जितनी चाहे उर्वरक की खरीद कर सकता है।
    • यह उन लोगों को थोक मात्रा में उर्वरक खरीदने में मदद करता है, जो असल में किसान नहीं हैं अथवा कृषि के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य के लिये उर्वरक का उपयोग करना चाहते हैं।
    • यद्यपि सरकार ने यह निर्धारित किया है कि एक व्यक्ति द्वारा एक बार में केवल 100 बैग ही खरीदे जा सकते हैं, किंतु यह सीमा निर्धारित नहीं की गई है कि कोई व्यक्ति कितनी बार 100 बैग खरीद कर सकता है।
    • अतः यदि इस प्रस्तावित योजना को कार्यान्वित किया जाता है तो इससे गैर-कृषि कार्यों के लिये यूरिया के उपयोग पर रोक लगाई जा सकेगी।

आगे की राह

  • कई विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि किसानों को प्रति एकड़ सब्सिडी का भुगतान प्रत्यक्ष तौर पर उनके खाते में किया जा सकता है, जिसका उपयोग वे स्वयं उर्वरक की खरीद के लिये कर सकते हैं।
    • उगाई गई फसलों की संख्या के आधार पर और भूमि सिंचित है अथवा नहीं इस आधार पर भी सब्सिडी की राशि अलग-अलग हो सकती है।
  • यह संभवतः गैर-कृषि कार्यों के लिये यूरिया की चोरी को रोकने का एकमात्र विकल्प हो सकता है। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

मालाबार नौसैनिक अभ्यास एवं ऑस्ट्रेलिया

प्रिलिम्स के लिये

मालाबार नौसैनिक अभ्यास, क्वाड समूह

मेन्स के लिये

मालाबार नौसैनिक अभ्यास में क्वाड की भूमिका

चर्चा में क्यों?

पूर्वी लद्दाख में चीन के साथ चल रहे गतिरोध के बीच रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की है कि मालाबार, 2020 नौसैनिक अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया शामिल होगा

प्रमुख बिंदु:

  • मालाबार, 2020 में क्वाड समूह (Quad Group) के चारों देशों भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया की नौसेनाएँ एक साथ युद्धाभ्यास करेंगी।
  • अगस्त 2020 में रक्षा मंत्रालय की एक महत्त्वपूर्ण बैठक में ऑस्ट्रेलिया को आमंत्रित करने के मुद्दे पर चर्चा हुई परंतु कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका।
  • भारत द्वारा समुद्री सुरक्षा क्षेत्र में अन्य देशों के साथ सहयोग बढ़ाने का प्रयास किया जाता रहा है और इसी आलोक में ऑस्ट्रेलिया के साथ बढ़ते रक्षा सहयोग के चलते मालाबार, 2020 में ऑस्ट्रेलियाई नौसेना की भागीदारी होगी।
  • मालाबार, 2020 नौसैनिक अभ्यास का आयोजन नवंबर के अंत में किया जाना है और अक्तूबर के अंत में अभ्यास के तौर-तरीकों को अंतिम रूप देने के लिये एक कॉन्फ्रेंस आयोजित की जाएगी।
  • यह औपचारिक रूप से क्वाड समूह के चार देशों की नौसेनाओं को एक साथ लाएगा।

ऑस्ट्रेलिया की प्रतिक्रिया:

  • ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्रालय के अनुसार, भारत के निमंत्रण पर ऑस्ट्रेलिया नौसैनिक अभ्यास मालाबार, 2020 में भाग लेगा। यह भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका की क्षमता को बढ़ाएगा ताकि शांति और स्थिरता कायम रहे।
  • ऑस्ट्रेलियाई रक्षा मंत्रालय के अनुसार, मालाबार जैसे उच्च-स्तरीय नौसैन्य अभ्यास ऑस्ट्रेलिया की समुद्री क्षमता को बढ़ाने,  एक खुले और समृद्ध इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का समर्थन करने तथा सामूहिक संकल्प का प्रदर्शन करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

पूर्व आयोजन:

  • यह वार्षिक नौसेना अभ्यास वर्ष 2018 में फिलीपींस के गुआम तट पर और वर्ष 2019 में जापान में आयोजित हुआ था।
  • इस वर्ष मालाबार नौसैनिक अभ्यास को ‘समुद्र में बिना संपर्क' (Non-Contact - at Sea) प्रारूप (Theme) पर आयोजित किया जाएगा।

ऑस्ट्रेलिया को मालाबार नौसैनिक अभ्यास में शामिल करने से संबंधित मुद्दा:

  • 6 अक्तूबर, 2020 को टोक्यो में आयोजित क्वाड देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में ऑस्ट्रेलिया को मालाबार अभ्यास में शामिल करने पर चर्चा हुई थी। तब भारत ने सकारात्मक संकेत दिये थे, लेकिन चीन ने इस पर ऐतराज जताया था। 
  • चीन द्वारा अनिच्छा प्रकट किये जाने के बाद भी भारत ने कहा कि मालाबार नौसेनिक अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया के प्रवेश के लिये द्वार खुले हैं।
  • ऑस्ट्रेलिया वर्ष 2007 में एक बार अभ्यास में शामिल हुआ था लेकिन चीन की आपत्तियों के बाद वह इससे अलग हो गया था। तब ऑस्ट्रेलिया ने इस अभ्यास में पर्यवेक्षक का दर्जा पाने  के लिये अनुरोध किया।
  • तब भारत भी ऑस्ट्रेलिया के अनुरोध को स्वीकार करने का अनिच्छुक था, परंतु वर्तमान में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग काफी बढ़ गया है।
  • यह नौसैनिक अभ्यास भारत द्वारा अमेरिका के साथ चार मूलभूत समझौतों में से तीन पर हस्ताक्षर करने और अमेरिका से रक्षा खरीद बढ़ाने, अंतर-क्षमता को सक्षम करने के क्षेत्र में आगे बढ़ा है।
  • जापान और अमेरिका भी मालाबार, 2020  में ऑस्ट्रेलिया को शामिल करने के लिये भारत पर दबाव डाल रहे हैं।
  • भारत और जापान के साथ सितंबर में एक सैन्य रसद समझौते पर हस्ताक्षर करने के साथ ही अब भारत के अन्य क्वाड राष्ट्रों के साथ इस तरह के समझौते हैं।
  • भारत ने ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ ‘मैरीटाइम डोमेन अवेयरनेस’ (Maritime Domain Awareness- MDA) के लिये समुद्री सूचना साझाकरण समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं और इसी तरह के समझौते के लिये अमेरिका के साथ चर्चा चल रही है।

मालाबार नौसैनिक अभ्यास

  • मालाबार नौसैनिक अभ्यास भारत-अमेरिका-जापान की नौसेनाओं के बीच वार्षिक रूप से आयोजित किया जाने वाला एक त्रिपक्षीय सैन्य अभ्यास है।   
  • मालाबार नौसैनिक अभ्यास की शुरुआत भारत और अमेरिका के बीच वर्ष 1992 में एक द्विपक्षीय नौसैनिक अभ्यास के रूप में हुई थी।
  • वर्ष 2015 में इस अभ्यास में जापान के शामिल होने के बाद से यह एक त्रिपक्षीय सैन्य अभ्यास बन गया।  
  • भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच आयोजित होने वाले अन्य अभ्यास पिच ब्लैक और AUSINDEX हैं।

स्रोत- द हिंदू


आंतरिक सुरक्षा

पूर्वोत्तर में सीमा विवाद

प्रिलिम्स के लिये

बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (BEFR) अधिनियम 1873, इनर लाइन परमिट

मेन्स के लिये

पूर्वोत्तर राज्यों के बीच सीमा विवाद का प्रमुख कारण और इसका प्रभाव

चर्चा में क्यों?

बीते एक सप्ताह में असम और मिज़ोरम के निवासियों के बीच दो बार क्षेत्रीय टकराव हो चुका है, जिसमें तकरीबन 8 लोग घायल हुए हैं, वहीं कई स्थानीय लोगों की संपत्ति को भी भारी नुकसान हुआ है।

प्रमुख बिंदु

  • असम और मिज़ोरम के निवासियों के बीच उत्पन्न यह क्षेत्रीय विवाद पूर्वोत्तर में लंबे समय से चले आ रहे अंतर-राज्यीय सीमा के मुद्दों को रेखांकित करता है।

विवाद का कारण

  • वर्तमान में असम और मिज़ोरम तकरीबन 165 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं और दोनों राज्यों के बीच क्षेत्रीय विवाद की जड़ों को औपनिवेशिक काल में खोजा जा सकता है, जब मिज़ोरम को असम के लुशाई हिल्स (Lushai Hills) ज़िले के रूप में जाना जाता था।
  • असम और मिज़ोरम के बीच क्षेत्रीय विवाद मुख्य तौर पर ब्रिटिश काल में जारी दो अधिसूचनाओं के कारण उत्पन्न हुआ है। इसमें पहली अधिसूचना वर्ष 1875 में जारी की गई जिसके माध्यम से लुशाई हिल्स को कछार (वर्तमान असम का एक ज़िला) के मैदानी इलाकों से अलग किया गया, वहीं दूसरी अधिसूचना वर्ष 1933 में जारी की गई जिसमें लुशाई हिल्स और मणिपुर के बीच की सीमा का सीमांकन किया गया।
  • जहाँ एक ओर मिज़ोरम का मानना ​​है कि असम और मिज़ोरम के बीच सीमा का विभाजन वर्ष 1875 की अधिसूचना के आधार पर किया जाना चाहिये, जो कि बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (BEFR) अधिनियम, 1873 के माध्यम से जारी की गई थी।
    • मिज़ोरम के लोगों का मानना है कि वर्ष 1933 की अधिसूचना को जारी करने के संबंध में स्थानीय लोगों से परामर्श नहीं किया गया था।
  • वहीं दूसरी ओर असम के प्रतिनिधि ब्रिटिश काल के दौरान वर्ष 1933 में जारी अधिसूचना का पालन करते हैं और दोनों राज्यों के बीच विवाद का यही मुख्य कारण है।
  • दोनों राज्यों के बीच सीमा विवाद की शुरुआत 1980 के दशक में मिज़ोरम के गठन के बाद हुई थी, हालाँकि कुछ वर्ष पूर्व असम और मिज़ोरम की सरकारों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके मुताबिक दोनों राज्यों की सीमाओं पर यथास्थिति बनाई रखी जानी चाहिये, लेकिन इस मुद्दे को लेकर दोनों राज्यों के लोगों के बीच समय-समय पर हिंसक झड़पें होती रहती हैं।

बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (BEFR) अधिनियम, 1873

  • वर्ष 1824-26 के एंग्लो-बर्मी (Anglo-Burmese) युद्ध में असम को जीतकर ब्रिटिश अधिकारियों ने पहली बार पूर्वोत्तर भारत में प्रवेश किया था।
  • युद्ध के बाद इस क्षेत्र को ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में लाया गया और वर्ष 1873 में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन (BEFR) अधिनियम के रूप में अपनी पहली प्रशासनिक नीति लागू की।
  • ब्रिटिश सरकार के मुताबिक, इस अधिनियम का उद्देश्य इस क्षेत्र में स्वदेशी जनजातियों की संस्कृति और पहचान को सुरक्षित करना था, किंतु कई जानकार मानते हैं कि ब्रिटिश सरकार इस अधिनियम के माध्यम से पूर्वोत्तर के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रही थी।
  • ध्यातव्य है कि ब्रिटिश सरकार ने इसी अधिनियम के माध्यम से ‘इनर लाइन परमिट’ (Inner Line Permit-ILP) की व्यवस्था की थी।

पूर्वोत्तर में अन्य सीमा विवाद

  • ब्रिटिश शासन के दौरान तत्कालीन असम प्रांत में वर्तमान नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और मिज़ोरम आदि राज्य शामिल थे, जो एक-एक कर असम से अलग होते गए।
  • यही कारण है कि वर्तमान में असम, पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्यों के साथ अपनी सीमा साझा करता है और इन्हीं सीमाओं के साथ जुड़ा है सीमा विवाद।
  • नगालैंड-असम तकरीबन 512 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं और दोनों राज्यों के बीच वर्ष 1965 के बाद से सीमा विवाद को लेकर हिंसक संघर्ष चल रहा है।
    • वर्ष 1979 और वर्ष 1985 में हुई दो बड़ी हिंसक घटनाओं में कम-से-कम 100 लोगों की मौत हुई थी। इस विवाद की सुनवाई अब सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही है। 
  • असम और अरुणाचल प्रदेश जो कि तकरीबन 800 किलोमीटर से अधिक की सीमा साझा करते हैं, दोनों के बीच सीमा पर सर्वप्रथम वर्ष 1992 में हिंसक झड़प हुई थी। तभी से दोनों पक्ष एक-दूसरे पर अवैध अतिक्रमण और हिंसा शुरू करने के आरोप लगाते रहते हैं।
    • इस सीमा विवाद पर भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनवाई की जा रही है।
  • लगभग 884 किलोमीटर लंबी असम और मेघालय सीमा पर भी अक्सर हिंसक झड़पों की खबरें आती रहती हैं, मेघालय सरकार के आँकड़े बताते हैं कि वर्तमान में दोनों राज्यों के बीच कुल 12 विवादित क्षेत्र हैं।

पृष्ठभूमि 

  • विशेषज्ञ मानते हैं कि आज़ादी के बाद पूर्वोत्तर के असम प्रांत का विभाजन कर बनाए गए अधिकांश राज्य जैसे- मिज़ोरम, नगालैंड और मेघालय आदि को प्रशासनिक सहूलियत के हिसाब से विभाजित किया गया था।
  • ज़मीनी स्तर पर ये सीमाएँ अभी भी जनजातीय क्षेत्रों और पहचानों के साथ मेल नहीं खाती हैं, जिसके कारण इस क्षेत्र में बार-बार क्षेत्रीय विवाद पैदा होता है और यहाँ की शांति भंग होती है।

प्रभाव 

  • इस प्रकार के सीमा विवादों से काफी हद तक पूर्वोत्तर राज्यों के निवासियों के बीच मतभेद पैदा होता है, जिसके कारण इस क्षेत्र की शांति और अस्थिरता प्रभावित होती है।
  • इन सीमा विवादों से राज्यों के बीच आपसी सहयोग प्रभावित होता है, और नृजातीय संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
  • साथ ही इससे विवादित क्षेत्र की विकास प्रक्रिया पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे वहाँ के लोग दूसरे क्षेत्रों की ओर पलायन करते हैं।

आगे की राह

  • आवश्यक है कि दोनों राज्य आपसी वार्ता के माध्यम से इन सीमा विवादों को सुलझाने का प्रयास करें ताकि इस क्षेत्र में शांति और स्थिरता स्थापित की जा सके।
  • दोनों राज्यों में आपसी सहमति न बनने की स्थिति में केंद्र सरकार की मदद से इस समस्या को सुलझाया जा सकता है।
  • नीति निर्मंताओं को इस बदलते परिदृश्य में क्षेत्रवाद के स्वरूप को समझना होगा। यदि यह विकास की मांग तक सीमित है तो उचित है, परंतु यदि क्षेत्रीय टकराव को बढ़ावा देने वाली है तो इसे रोकने के प्रयास किये जाने चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

बायोरेमेडिएशन तंत्र तकनीक

प्रिलिम्स के लिये:

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी

मेन्स के लिये:

जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ में बायोरेमेडिएशन तंत्र तकनीक का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी (National Institute of Ocean Technology- NIOT), चेन्नई द्वारा समुद्री रोगाणुओं तथा गेहूँ के चोकर के कंसोर्टिया (दो या दो से अधिक प्रजातियों के समूह) का उपयोग करके इमोबिलाइज़्ड (रोगाणुओं पर नियंत्रण में गिरावट) एग्रो-अवशेष बैक्टीरियल कोशिकाओं पर एक पर्यावरण-अनुकूल कच्चे तेल बायोरेमेडिएशन तंत्र तकनीक  (Eco-friendly Crude Oil Bioremediation Mechanism Technology) को विकसित किया गया है।

प्रमुख बिंदु:

  • गेहूँ का चोकर गेहूँ के दाने की बाहरी कठोर परत है, जिसे मिलिंग प्रक्रिया (Milling Process) द्वारा हटाया जाता है।

पर्यावरण अनुकूल कच्चे तेल बायोरेमेडिएशन तंत्र तकनीक: 

  • बायोरेमेडिएशन:  इसे उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सूक्ष्मजीवों या उनके एंजाइमों का उपयोग पर्यावरण में मौजूद दूषित पदार्थों को उनकी मूल स्थिति से हटाने एवं बेअसर करने के लिये प्रयोग की जाती है।
  • समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में गहरे समुद्र में हाइड्रोकार्बनोक्लास्टिक माइक्रोबियल कंसोर्टियम(Hydrocarbonoclastic Microbial Consortium) समुद्री जल पर फैली तेल की परत को तोड़ने में मदद करता है।
    • माइक्रोबियल समुदाय (Microbial Community) विभिन्न एल्डिहाइडस(Aldehydes), किटोन्स (Ketone) और अम्लीय उपापचयों(Acidic Metabolites) में पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन के जटिल मिश्रण के ऊर्जावान प्राथमिक अपघटक (Primary Degraders) के रूप में कार्य करता है। 
    • ये हाइड्रोकार्बन अपघटक बैक्टीरिया( Hydrocarbon Degrading Bacteria) जीवित रहने के लिये  हाइड्रोकार्बन पर निर्भर नहीं रहते , परंतु एक चयापचय तंत्र के रूप में ये कार्बन और ऊर्जा स्रोत के रूप में पेट्रोलियम उत्पादों का उपयोग करते हैं तथा इस प्रकार ये फैले तेल को साफ करने में मदद करते हैं।
    • कच्चे तेल को पूर्ण रूप से विघटित करने के लिये समुद्री रोगाणुओं तथा गेहूँ के चोकर के कंसोर्टिया (जो कम लागत वाले गैर-विषैले कृषि अवशेष हैं) का उपयोग पर्यावरणीय दृष्टिकोण से स्थायी रूप से करने योग्य है।
    • कच्चे तेल को पर्यावरण अनुकूल तरीके से समुद्री रोगाणुओं तथा गेहूँ के चोकर के कंसोर्टिया का उपयोग करके पूर्ण रूप से विखंडित किया जा सकता है।

स्थिर अवस्था (Immobilized State) के लाभ: 

  •  समुद्री रोगाणुओं तथा गेहूँ के चोकर के कंसोर्टिया तेल के फैलने को कम करने में मुक्त बैक्टीरिया कोशिकाओं की तुलना में अपनी स्थिर अवस्था में अधिक प्रभावी होते हैं।
    • इनके द्वारा 10 दिनों के भीतर 84% तेल सतह से हटाया जा सकता है। मुक्त जीवाणु कोशिकाओं ने अनुकूलित परिस्थितियों में कच्चे तेल के अधिकतम 60% रिसाव को साफ किया है।
    • ये  प्रतिकूल परिस्थितियों के लिये अधिक प्रतिरोधी हैं।
    • गैर-विषैली सफाई तकनीक समुद्री वातावरण से तेल के आकस्मिक निर्वहन को उपचारित करने  में अधिक प्रभावी है।

तेल का रिसाव/फैलना:

  • यह कच्चे तेल, गैसोलीन, ईंधन या पर्यावरण में अन्य तेल उत्पादों का एक आकस्मिक/ अनियंत्रित रिसाव है। तेल रिसाव की घटना भूमि, वायु या पानी को प्रदूषित कर सकती है, हालाँकि इसका उपयोग सामान्य तौर पर समुद्री तेल के फैलाव के संदर्भ में किया जाता है।
    • वर्ष 2020 में मॉरीशस में एमवी वकाशियो  (MV Wakashio) नामक जापानी जहाज़ के कोरल रीफ से टकरा जाने के बाद दुर्लभ वन्यजीव अभयारण्य में 1,000 टन तेल का रिसाव हो गया।
  • कारण: गहन पेट्रोलियम अन्वेषण, उत्पादन तथा जहाज़ों में बड़ी मात्रा में तेलों के परिवहन के परिणामस्वरूप तेल रिसाव एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या बन गई है, मुख्य रूप से महाद्वीपीय क्षेत्रों के पास।
  • उपाय: समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचाए बिना महासागरों में फैले तेल को साफ करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।
    • कंटेनमेंट बूम्स (Containment Booms): फ्लोटिंग बैरियर्स, जिन्हें बूम कहा जाता है, का उपयोग तेल के प्रसार को प्रतिबंधित करने, हटाने के लिये  किया जाता है।
    • स्किमर्स (Skimmers): वे उपकरण जिनका उपयोग पानी की सतह से तेल को भौतिक रूप से अलग करने के लिये किया जाता है।
    •  सॉर्बेंट्स(Sorbents:): विभिन्न सॉर्बेंट्स (जैसे- पुआल, ज्वालामुखीय राख और पॉलिएस्टर-व्युत्पन्न प्लास्टिक की छीलन) का उपयोग जल से तेल को अवशोषित करने में किया जाता है।
    • फैलाने वाले एजेंट(Dispersing agents): ये ऐसे रसायन होते हैं जिनमें सर्फैक्टेंट विद्यमान होते हैं, या ये ऐसे यौगिक होते हैं जो तरल पदार्थों जैसे- तेल की छोटी बूँदों को तोड़ने का काम करते हैं। साथ ही  समुद्र में इसके प्राकृतिक फैलाव को तेज करते हैं।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 


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