विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम
प्रिलिम्स के लिये:विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम, वर्ष 1976 का आपातकाल मेन्स के लिये:विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम और इसका महत्त्व, विदेशी अंशदान (विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2020 |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
गृह मंत्रालय से प्राप्त हालिया आँकड़ों से भारत में विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (Foreign Contribution Regulation Act- FCRA), 2010 के तहत गैर-सरकारी संगठनों (Non-Governmental Organizations- NGO) के पंजीकरण से संबंधित एक चिंताजनक पैटर्न की जानकारी मिली है।
- आँकड़ों से प्राप्त जानकारी में चिंता का मुख्य विषय यह है कि गैर-सरकारी संगठन FCRA पंजीकरण में अपने परिचालन क्षेत्रों का सही ब्योरा प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं और ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं जो उनके घोषित उद्देश्यों से काफी अलग हैं।
विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम:
- परिचय:
- विदेशी सरकारों द्वारा भारत के आंतरिक मामलों को प्रभावित करने के लिये स्वतंत्र संगठनों की सहायता से किये जाने वाले वित्तपोषण की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए FCRA को वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान अधिनियमित किया गया था।
- इस कानून ने व्यक्तियों और संघों को दिये जाने वाले विदेशी अंशदान को विनियमित करने की मांग की ताकि वे "एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के मूल्यों के अनुरूप" कार्य कर सकें।
- FCRA में संशोधन:
- वर्ष 2010 का संशोधन:
- विदेशी धन के उपयोग पर "कानून को सशक्त करने" तथा "राष्ट्रीय हित में हानिकारक किसी भी गतिविधि" के लिये उसके उपयोग को "प्रतिबंधित" करने हेतु वर्ष 2010 में एक संशोधित FCRA अधिनियमित किया गया था।
- वर्ष 2020 का संशोधन:
- यह किसी अन्य व्यक्ति या संगठन को विदेशी योगदान के हस्तांतरण पर रोक लगाता है।
- प्रशासनिक खर्चों के लिये विदेशी अंशदान के उपयोग की सीमा को 50% से घटाकर 20% किया गया।
- वर्ष 2010 का संशोधन:
- FCRA पंजीकरण:
- भारत में विदेशी दान प्राप्त करने के लिये FCRA के तहत पंजीकरण आवश्यक है।
- यह सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक या सामाजिक कार्यक्रमों सहित विभिन्न कार्य क्षेत्रों में संलग्न व्यक्तियों या संघों को प्रदान किया जाता है।
- पारदर्शिता और कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये FCRA इन परिभाषित क्षेत्रों में विदेशी योगदान को नियंत्रित करता है।
- संस्थाएँ अपने कार्यक्रमों के आधार पर विविध गतिविधियों के लिये अनुमति देते हुए कई श्रेणियों के तहत पंजीकरण कर सकती हैं।
- विदेशी धनराशि प्राप्त करने के लिये आवेदकों को नई दिल्ली में भारतीय स्टेट बैंक की एक निर्दिष्ट शाखा में बैंक खाता खोलना होगा।
- भारत में विदेशी दान प्राप्त करने के लिये FCRA के तहत पंजीकरण आवश्यक है।
- FCRA पंजीकरण के तहत गतिविधियों पर प्रतिबंध:
- आवेदक को फर्ज़ी संस्थाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहिये।
- आवेदक को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से धार्मिक रूपांतरण गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिये।
- आवेदक का इतिहास सांप्रदायिक तनाव या वैमनस्य से संबंधित अभियोजन से संबद्ध नहीं होना चाहिये।
- आवेदक देशद्रोह से संबंधित गतिविधियों में शामिल नहीं होना चाहिये।
- FCRA उम्मीदवारों, पत्रकारों, मीडिया कंपनियों, न्यायाधीशों, सरकारी कर्मचारियों, राजनेताओं और राजनीतिक संगठनों को विदेशी धन प्राप्त करने से रोकता है।
- वैधता और नवीनीकरण:
- FCRA पंजीकरण पाँच वर्ष के लिये वैध है और NGO को पंजीकरण की समाप्ति के छह महीने के अंदर नवीनीकरण के लिये आवेदन करना आवश्यक है।
- सरकार के पास विभिन्न कारणों से किसी NGO का FCRA पंजीकरण रद्द करने का अधिकार है, जिसमें अधिनियम का उल्लंघन या लगातार दो वर्षों तक उनके चुने हुए क्षेत्र में उचित गतिविधि की कमी शामिल है।
- एक बार रद्द होने के बाद कोई NGO तीन वर्ष तक पुन: पंजीकरण के लिये अयोग्य होता है।
- FCRA 2022 के नियम:
- जुलाई 2022 में MHA ने FCRA नियमों में बदलाव किये। इन बदलावों में समझौता योग्य अपराधों की संख्या 7 से बढ़ाकर 12 करना शामिल है।
- नियमों ने बैंक खाते खोलने की अधिसूचना के लिये सीमा भी बढ़ा दी और दूर के रिश्तेदारों के योगदान के लिये अधिकतम राशि 1 लाख रुपए से बढ़ाकर 10 लाख रुपए कर दी, जिसके लिये सरकारी अधिसूचना की आवश्यकता नहीं है।
FCRA के संबंध में NGO की चिंताएँ:
- सख्त अनुपालन:
- FCRA पंजीकरण प्रक्रिया के लिये व्यापक दस्तावेज़ीकरण की आवश्यकता होती है और इसमें सख्त अनुपालन शामिल होता है, जो NGO के लिये चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकता है।
- FCRA की व्याख्यात्मक अस्पष्टता का फायदा अधिकारियों द्वारा NGO को लक्षित और प्रतिबंधित करने के लिये किया जा सकता है।
- प्रशासनिक देरी:
- FCRA पंजीकरण और नवीनीकरण के लिये लंबी प्रशासनिक प्रक्रियाओं के कारण NGO के संचालन एवं फंडिंग तक पहुँच में बाधा उत्पन्न होती है।
- पारदर्शिता की कमी:
- FCRA के तहत प्राप्त विदेशी धन के उपयोग में पारदर्शिता की कमी के लिये कुछ गैर-सरकारी संगठनों की आलोचना की गई है।
- चिंताएँ अक्सर तब उत्पन्न होती हैं जब इन फंड के विशिष्ट उद्देश्यों और लाभार्थियों का स्पष्ट रूप से खुलासा नहीं किया जाता है।
- FCRA के तहत प्राप्त विदेशी धन के उपयोग में पारदर्शिता की कमी के लिये कुछ गैर-सरकारी संगठनों की आलोचना की गई है।
- फंडिंग तक असमान पहुँच :
- जटिल FCRA पंजीकरण प्रक्रिया संगठनों के लिये चुनौतियाँ खड़ी करती है, साथ ही उच्च अस्वीकृति दर विदेशी योगदान प्राप्त करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करती है।
- राजनीतिक प्रभाव की संभावना:
- कुछ व्यक्तियों ने FCRA पंजीकरण और विनियमन प्रक्रिया में राजनीतिक प्रभाव को लेकर चिंता व्यक्त की है, जो FCRA पंजीकरण की मंज़ूरी या अस्वीकृति को प्रभावित कर सकता है।
आगे की राह
- विदेशी योगदान के किसी भी संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिये निरीक्षण तंत्र को मज़बूत करना।
- वैध गैर-सरकारी संगठनों के लिये वित्तपोषण तक पहुँच को बढ़ावा देने के लिये FCRA पंजीकरण प्रक्रिया को सरल और तेज़ करना।
- यह सुनिश्चित करना कि FCRA पंजीकरण और विनियमन प्रक्रियाएँ राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हैं और वस्तुनिष्ठ मानदंडों पर आधारित हैं।
- गैर-सरकारी संगठनों को विदेशी धन के उपयोग पर स्पष्ट और विस्तृत रिपोर्ट प्रदान करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना, यह सुनिश्चित करते हुए कि उद्देश्यों तथा लाभार्थियों का स्पष्ट रूप से खुलासा किया जाए।
तमिलनाडु में ओधुवर
प्रिलिम्स के लिये:ओधुवर, शैव, पथिगम, तिरुमुरई, थेवरम, अव्वैयार, भक्ति परंपरा मेन्स के लिये:ओधुवरों को मान्यता दिये जाने से सदियों पुरानी परंपरा को वैधता और समुदाय को लाभ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने 15 ओधुवरों (जिसमें पाँच महिलाएँ शामिल हैं) की नियुक्ति के आदेश दिये हैं, इन्हें विशेष रूप से चेन्नई के शैव मंदिरों में भजन और स्तुति गाकर देवी-देवताओं की पूजा-वंदना करने के लिये नियुक्त किया गया है।
तमिलनाडु में ओधुवर:
- परिचय:
- ओधुवर तमिलनाडु के हिंदू मंदिरों में भजन गायन करते हैं लेकिन वे पुजारी नहीं होते हैं। उनका मुख्य कार्य शैव मंदिरों में भगवान शिव की स्तुति करना है, ये गीत-भजन थिरुमुराई भजन संग्रह से लिये जाते हैं। वे भक्ति भजन गाते हैं, उन्हें पवित्र गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति नहीं होती है।
- ओधुवर परंपरा की शुरुआत:
- प्राचीन काल से ही ओधुवरों की परंपरा रही है, भक्ति आंदोलन की शुरुआत के साथ ही इनकी मान्यता का पता चलता है। तमिलनाडु में 6ठी और 9वीं शताब्दी के बीच ओधुवर परंपरा अच्छी तरह विकसित हुई।
- इस अवधि के दौरान अलवार और नयनार के नाम से प्रचलित अनेकों संत-कवियों ने क्रमशः भगवान विष्णु एवं भगवान शिव की स्तुति में भजनों के रूप में भक्ति काव्य की रचना की। ओधुवर इस समृद्ध संगीत व भक्ति विरासत के संरक्षक के रूप में उभरे।
अलवार और नयनार: तमिल भक्ति परंपरा के संत:
- अलवार:
- भगवान विष्णु की भक्ति: अलवार बारह वैष्णव (भगवान विष्णु के भक्त) संत-कवियों का एक समूह था। उनकी रचनाएँ मुख्य रूप से भगवान विष्णु के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा-भक्ति पर केंद्रित थीं और इन रचनाओं में मोक्ष प्राप्त करने हेतु ईश्वर के प्रति समर्पण (प्रपत्ति) की अवधारणा पर बल दिया गया था।
- काव्य रचनाएँ: अलवार के भक्ति भजन और कविताएँ प्रमुख वैष्णव ग्रंथ, नालयिर दिव्य प्रबंधम में संकलित हैं। तमिल भाषा में रचित इन रचनाओं में भगवान विष्णु के दिव्य गुणों एवं रूपों का वर्णन है।
- नयनार:
- भगवान शिव की भक्ति: नयनार 63 शैव (भगवान शिव के भक्त) संत-कवियों का एक समूह था। ये भगवान शिव के प्रति पूर्णतः समर्पित थे और उनकी स्तुति में भजन व काव्य की रचना करते थे, ये रचनाएँ भक्ति मार्ग तथा परमात्मा के प्रति प्रेम पर केंद्रित थीं।
- काव्य रचनाएँ: नयनारों के भजन और काव्य रचनाएँ शैव धर्मग्रंथों के संग्रह थिरुमुराई में संकलित की गईं। तमिल भाषा में लिखित इन रचनाओं में भगवान शिव की विभिन्न रूपों तथा दिव्य गुणों का वर्णन है।
वर्तमान संदर्भ में ओधुवरों की प्रासंगिकता:
- धार्मिक महत्त्व: तमिलनाडु के मंदिरों के दैनिक और महोत्सव अनुष्ठानों में ओधुवरों का काफी महत्त्व है। थेवरम और थिरुवसागम दो प्राचीन तमिल ग्रंथ हैं, यह भगवान शिव के भजन तथा स्तुतियों का संकलन है, इन गीतों के गायन का कार्य प्राचीन काल से ओधुवर ही करते आए हैं।
- सामुदायिक जुड़ाव: अधिकाशतः ओधुवर बहिष्कृत समुदायों से संबंधित होते हैं और मंदिरों में किसी भी कार्य के लिये उनकी भूमिका का निर्धारण किया जाना उनके लिये आर्थिक अवसर है। इसके अतिरिक्त उनका प्रदर्शन स्थानीय समुदाय को एकजुट करने के साथ ही एकता व अपनेपन की भावना को बढ़ावा देता है।
- तमिल भाषा का संरक्षण: तमिल भाषा के संरक्षण में ओधुवरों का योगदान अहम है। अपने गीति-पाठों के माध्यम से वे आने वाली पीढ़ियों के लिये प्राचीन तमिल ग्रंथों की समझ व पठन-पाठन को सरल बनाते हैं।
- भक्ति-भावना को प्रोत्साहन: ओधुवर मंदिरों के भीतर भक्तिमय वातावरण का निर्माण करने में मदद करते हैं। उनकी भावपूर्ण प्रस्तुति उपासकों में धर्मपरायणता और आध्यात्मिकता की भावना पैदा करती है।
तमिलनाडु में ओधुवरों से संबंधित मुद्दे व चिंताएँ:
- आर्थिक सुभेद्यता:
- कई ओधुवरों को अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि उनकी आय का एक बड़ा हिस्सा मंदिर के दान और चढ़ावे पर निर्भर करता है। यह आर्थिक असुरक्षा ओधुवरों की परंपरा के पतन का कारण भी बन सकती है।
- मान्यीकरण का अभाव:
- मंदिर के अनुष्ठानों और तमिल संस्कृति के संरक्षण में ओधुवरों के योगदान पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है। उन्हें सीमित मान्यता दिया जाना उन्हें हतोत्साहित कर सकता है।
- रुचि में कमी:
- आर्थिक अस्थिरता के कारण इस बात की काफी संभावना है कि युवा पीढ़ी के बीच ओधुवर परंपरा को बनाए रखने के प्रति दिलचस्पी में काफी कमी आ सकती है। यह इस परंपरा की निरंतरता के लिये चिंता का विषय है।
- प्रौद्योगिकी और आधुनिकीकरण:
- रिकार्डेड संगीतों के प्रचलन और आधुनिकीकरण की शुरुआत के साथ लोगों द्वारा धार्मिक एवं भक्ति संबंधी सामग्री के उपयोग के तरीके में बदलाव आ गया है। डिजिटल मीडिया और समकालीन संगीत रूपों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करना ओधुवरों के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
- संस्थागत समर्थन का अभाव:
- संगीत नाटक अकादमी आदि जैसे मान्यता प्राप्त सरकारी संस्थान ओधुवरों की चिंताओं के प्रति उदासीन रहे हैं, जबकि इन संस्थानों के सहयोग से ओधुवर समुदायों की पीड़ाओं को काफी कम किया जा सकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत की संस्कृति एवं परंपरा के संदर्भ में 'कलारीपयट्टू' क्या है? (2014) (a) यह शैवमत का एक प्राचीन भक्ति पंथ है जो अभी भी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित है। उत्तर: D प्रश्न. मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: C मेन्स:प्रश्न. भक्ति साहित्य की प्रकृति का मूल्यांकन करते हुए भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का निर्धारण कीजिये। (2021) प्रश्न. श्री चैतन्य महाप्रभु के आगमन से भक्ति आंदोलन को एक असाधारण नई दिशा मिली थी। चर्चा कीजिये। (2018) |
प्रशामक देखभाल
प्रिलिम्स के लिये:प्रशामक देखभाल, विश्व स्वास्थ्य संगठन, गैर-संचारी रोग, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, टेलीमेडिसिन मेन्स के लिये:भारत में स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित मुद्दे, प्रशामक देखभाल का महत्त्व |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल के एक अध्ययन में गंभीर बीमारियों से जूझ रहे मरीज़ों पर पड़ने वाले भारी वित्तीय बोझ पर प्रकाश डाला गया है।
- चूँकि जानलेवा बीमारियों के इलाज की लागत व्यक्तियों को गरीबी में धकेल देती है, इस गंभीर मुद्दे को नियंत्रित करने और समग्र रोगी-केंद्रित देखभाल की वकालत करने के लिये प्रशामक देखभाल आवश्यक हो जाती है।
प्रशामक देखभाल:
- परिचय:
- प्रशामक देखभाल स्वास्थ्य देखभाल के लिये एक विशेष दृष्टिकोण है जो जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और गंभीर बीमारियों या जानलेवा स्थितियों का सामना करने वाले व्यक्तियों को व्यापक सहायता प्रदान करने पर केंद्रित है।
- यह बीमारी को ठीक करने के बारे में नहीं है, बल्कि रोगी की शारीरिक, भावनात्मक, सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करती है।
- यह अन्य चिकित्सा विशिष्टताओं से भिन्न है क्योंकि यह न केवल शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं को भी संबोधित करती है।
- प्रशामक देखभाल स्वास्थ्य देखभाल के लिये एक विशेष दृष्टिकोण है जो जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने और गंभीर बीमारियों या जानलेवा स्थितियों का सामना करने वाले व्यक्तियों को व्यापक सहायता प्रदान करने पर केंद्रित है।
- महत्त्व:
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, मानव के स्वास्थ्य अधिकार के तहत प्रशामक देखभाल को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है।
- इसने स्वीकार किया है कि प्रशामक देखभाल NCD की रोकथाम और नियंत्रण हेतु वैश्विक कार्य योजना 2013-2020 के माध्यम से गैर-संचारी रोगों (NCD) के लिये आवश्यक व्यापक सेवाओं का हिस्सा है।
- रोग के उन्नत चरणों में प्रशामक देखभाल की शीघ्र शुरुआत से स्वास्थ्य देखभाल व्यय को 25% तक कम किया जा सकता है
- इसके अलावा प्रशामक देखभाल व्यावसायिक पुनर्वास और सामाजिक पुनःएकीकरण पर ज़ोर देती है, जिससे रोगियों एवं परिवारों को जीविकोपार्जन करने व अपनी गरिमा बनाए रखने में सक्षम बनाया जाता है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, मानव के स्वास्थ्य अधिकार के तहत प्रशामक देखभाल को स्पष्ट रूप से मान्यता दी गई है।
नोट:
WHO का अनुमान है कि प्रत्येक वर्ष 56.8 मिलियन लोगों को प्रशामक देखभाल की आवश्यकता होती है, जिसमें जीवन के अंतिम वर्ष वाले 25.7 मिलियन लोग भी शामिल हैं। अनुमान है कि भारत में प्रत्येक वर्ष 5.4 मिलियन लोगों को प्रशामक देखभाल की आवश्यकता होती है।
- प्रशामक देखभाल की आवश्यकता वाले लगभग 14 प्रतिशत लोगों को ही यह सुविधा प्राप्त होती है।
- भारत में संबंधित मुद्दे:
- स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में अपर्याप्त निवेश: भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में अपर्याप्त निवेश के परिणामस्वरूप प्रशामक देखभाल सेवाओं का एक बैकलॉग विकसित हुआ है, जिसमें अवसंरचना आवश्यकताओं की अपर्याप्त पूर्ति भी शामिल है, जिससे जानलेवा बीमारियों वाले रोगियों के लिये उनकी उपलब्धता और पहुँच सीमित हो गई है।
- इसके अलावा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं (2019-20) के लिये सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.35 प्रतिशत आवंटित होने के कारण अधिकांश मरीज़ों को स्वास्थ्य देखभाल लागत वहन करनी पड़ती है, जिससे उनके दिवालिया होने, उपचार से असंतुष्टि, चिकित्सा देखभाल में देरी, जीवन की खराब गुणवत्ता और जीवित रहने की दर के कम होने का खतरा उत्पन्न होता है।
- जागरूकता और समझ की कमी:
- मरीज़ों और परिवारों के बीच: कई व्यक्ति एवं उनके परिवार प्रशामक देखभाल के संबंध में अनभिज्ञ होते हैं और वे इसे केवल जीवन के अंतिम समय की देखभाल से जोड़ते हैं, जिससे देरी या अपर्याप्त उपयोग हो सकता है।
- इसके अलावा भारत में अधिकांश बीमा योजनाएँ प्रशामक देखभाल को कवर नहीं करती हैं, जिससे इसकी पहुँच और भी सीमित हो जाती है।
- स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के बीच: यहाँ तक कि कई स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों में प्रशामक देखभाल की स्पष्ट समझ का अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप उपचार योजनाओं में अपर्याप्त रेफरल या एकीकरण देखा जाता है।
- मरीज़ों और परिवारों के बीच: कई व्यक्ति एवं उनके परिवार प्रशामक देखभाल के संबंध में अनभिज्ञ होते हैं और वे इसे केवल जीवन के अंतिम समय की देखभाल से जोड़ते हैं, जिससे देरी या अपर्याप्त उपयोग हो सकता है।
- विषम स्वास्थ्य सेवा अवसंरचना: भारत में स्वास्थ्य सेवा अवसंरचना व्यापक रूप से भिन्न है, उन्नत स्वास्थ्य सुविधाएँ शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं और ग्रामीण तथा दूरदराज़ के क्षेत्रों में प्रशामक देखभाल सेवाओं तक सीमित पहुँच है।
- हालाँकि शहरी क्षेत्रों में भी चूँकि प्रशामक देखभाल राजस्व उत्पन्न नहीं करती है, लेकिन लागत बचाती है, तेज़ी से निजीकरण हो रही भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में इसकी प्रायः उपेक्षा की जाती है।
- स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में अपर्याप्त निवेश: भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में अपर्याप्त निवेश के परिणामस्वरूप प्रशामक देखभाल सेवाओं का एक बैकलॉग विकसित हुआ है, जिसमें अवसंरचना आवश्यकताओं की अपर्याप्त पूर्ति भी शामिल है, जिससे जानलेवा बीमारियों वाले रोगियों के लिये उनकी उपलब्धता और पहुँच सीमित हो गई है।
- भारत में प्रशामक देखभाल कार्यक्रम:
- भारत में राष्ट्रीय प्रशामक देखभाल कार्यक्रम के लिये कोई समर्पित बजट नहीं है, इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के तहत 'मिशन फ्लेक्सीपूल' में शामिल किया गया है।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2010 में शुरू किया गया गैर-संचरणीय रोगों की रोकथाम और नियंत्रण हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम (NP-NCD) स्वास्थ्य देखभाल के सभी स्तरों पर प्रोत्साहन, निवारक और उपचारात्मक देखभाल प्रदान करने वाली व्यापक स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान कर गैर-संचारी रोगों के बढ़ते बोझ को संबोधित करने पर केंद्रित है।
आगे की राह
- नीति और विनियामक ढाँचा: स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली में प्रशामक देखभाल सेवाओं के एकीकरण का मार्गदर्शन करने के लिये राष्ट्रीय एवं राज्य दोनों स्तरों पर स्पष्ट, समान प्रशामक देखभाल नीतियों एवं विनियमों को विकसित करने तथा इन्हें लागू करने की आवश्यकता है।
- सार्वजनिक जागरूकता: रोगियों व स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं दोनों को प्रशामक देखभाल के लाभों और दायरे के बारे में शिक्षित करने, इससे जुड़े मिथकों एवं इन पर लगे प्रश्नचिह्न को दूर करने के लिये व्यापक जन जागरूकता अभियान शुरू करना चाहिये।
- इसके अलावा स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों के पाठ्यक्रम में प्रशामक देखभाल प्रशिक्षण को एकीकृत कर यह सुनिश्चित करना चाहिये कि मेडिकल स्कूल, नर्सिंग कार्यक्रम और अन्य प्रशिक्षण संस्थान प्रशामक देखभाल में पाठ्यक्रम एवं व्यावहारिक अनुभव प्रदान करते हैं।
- निधीयन और संसाधन आवंटन: प्रशामक देखभाल हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम के लिये विशिष्ट एवं पर्याप्त संसाधन आवंटित करना, साथ ही यह सुनिश्चित करना कि बीमा योजनाएँ प्रशामक देखभाल सेवाओं को कवर करें।
- प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: दूरस्थ प्रशामक देखभाल परामर्श प्रदान करने और निगरानी के लिये टेलीमेडिसिन, मोबाइल स्वास्थ्य एप एवं वियरेबल डिवाइसेज़ (पहनने योग्य उपकरणों) जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों का लाभ उठाना।
मानव मस्तिष्क में रहस्यमयी कोशिकाएँ
प्रिलिम्स के लिये:मानव मस्तिष्क में रहस्यमयी कोशिकाएँ, न्यूरॉन्स, ब्रेन एटलस, मस्तिष्क कोशिकाएँ, सेरेब्रम, सेरेब्रल कॉर्टेक्स, सिनैप्स मेन्स के लिये:मानव मस्तिष्क में रहस्यमय कोशिकाएँ, विकास और उनके अनुप्रयोग तथा दैनिक जीवन में प्रभाव, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में वैज्ञानिकों की अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एक ब्रेन एटलस जारी किया है, जो पहले से कहीं बेहतर रिज़ॉल्यूशन के साथ मानव मस्तिष्क का मानचित्रण करता है।
- ब्रेन एटलस ने 3,300 से अधिक प्रकार की मस्तिष्क कोशिकाओं की पहचान की है।
- शोधकर्त्ताओं ने बायोप्सी किये गए ऊतक या शवों से प्राप्त लाखों मानव मस्तिष्क कोशिकाओं की जाँच करने के लिये अत्याधुनिक तकनीकों का उपयोग किया।
ब्रेन एटलस की मुख्य विशेषताएँ:
- मस्तिष्क कोशिकाओं को समझना:
- कई नए प्रकार के न्यूरॉन्स पाए गए, लेकिन न्यूरॉन्स मस्तिष्क में केवल आधी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। बाकी आधा भाग कहीं अधिक रहस्यमय है।
- न्यूरॉन कोशिकाएँ सूचना को संसाधित करने के लिये विद्युत संकेतों और रसायनों का उपयोग करती हैं।
- उदाहरण के लिये एस्ट्रोसाइट्स न्यूरॉन्स का पोषण करते हैं ताकि वे ठीक से काम कर सकें।
- माइक्रोग्लिया प्रतिरक्षा कोशिकाओं के रूप में कार्य करती है, बाह्य आक्रामकों पर हमला करती है और उनके सिग्नलिंग को बेहतर बनाने के लिये न्यूरॉन्स पर कुछ शाखाओं को काटती है।
- शोधकर्त्ताओं को इन कोशिकाओं के कई नए प्रकार भी मिले हैं।
- कई नए प्रकार के न्यूरॉन्स पाए गए, लेकिन न्यूरॉन्स मस्तिष्क में केवल आधी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं। बाकी आधा भाग कहीं अधिक रहस्यमय है।
- मस्तिष्क कोशिकाओं की व्यापक विविधता:
- मस्तिष्क की अधिकांश विविधता सेरेब्रल कॉर्टेक्स के बाहर पाई जाती है, जो पिछली अवधारणाओं के लिये चुनौती है।
- सेरेब्रल कॉर्टेक्स बाह्य परत है जो सेरेब्रम के ऊपर स्थित होती है। सेरेब्रम मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग होता है। सेरेब्रम मस्तिष्क को दो भागों में विभाजित करता है जिन्हें हेमिस्फेयर कहते हैं। हेमिस्फेयर तंत्रिका तंतुओं के एक बंडल से जुड़े होते हैं जिन्हें कॉर्पस कैलोसम कहा जाता है।
- मस्तिष्क के गहरे भाग, जिसमें रीढ़ की हड्डी से जुड़ने वाला ब्रेन स्टेम भी शामिल है, अध्ययन में खोजी गई विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ इस ब्रेन स्टेम में स्थित होती हैं।
- मस्तिष्क की अधिकांश विविधता सेरेब्रल कॉर्टेक्स के बाहर पाई जाती है, जो पिछली अवधारणाओं के लिये चुनौती है।
- आनुवंशिक विविधताएँ और विकास:
- चिंपांज़ी और गोरिल्ला सहित अन्य प्रजातियों के मस्तिष्क से तुलना करने पर पता चला है कि मानव मस्तिष्क में सभी प्रकार की कोशिकाएँ हमारे निकटतम आदिमानव में पाई जाने वाली कोशिकाओं से मेल खाती हैं।
- हालाँकि विशिष्ट जीन की पहचान की गई जो अन्य वानरों की तुलना में मनुष्यों में अधिक या कम सक्रिय होते हैं। इनमें से कई जीन न्यूरॉन्स के बीच संपर्क (सिनैप्स) बनाने से संबंधित हैं।
इस अध्ययन के निहितार्थ:
- यह शोध भविष्य के अध्ययन हेतु व्यापक आँकड़े प्रदान करता है, जो तंत्रिका विज्ञान में उल्लेखनीय प्रगति प्रस्तुत करता है।
- हालाँकि मानव मस्तिष्क की जटिलताओं को समझने में न केवल इसके घटकों को सूचीबद्ध करना शामिल है, बल्कि इसे स्व-विनियमन प्रणाली के रूप में समझना भी शामिल है।
न्यायालय की अवमानना
प्रिलिम्स के लिये:न्यायालय की अवमानना, सर्वोच्च न्यायालय (SC), NCLAT (राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण), कारण बताओ नोटिस, भारत का मुख्य न्यायाधीश (CJI), न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 मेन्स के लिये:न्यायालय की अवमानना, कार्यपालिका और न्यायपालिका की संरचना, संगठन और कार्यप्रणाली |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने NCLAT (राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण) के दो सदस्यों के खिलाफ न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही शुरू की है।
- न्यायालय ने फिनोलेक्स केबल्स मामले में यथास्थिति बनाए रखने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद निर्णय सुनाने के लिये सदस्यों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है।
नोट: कारण बताओ नोटिस एक न्यायालय, सरकारी एजेंसी या किसी अन्य आधिकारिक निकाय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को जारी की गई एक औपचारिक सूचना है, जिसमें उनसे अपने कार्यों, निर्णयों या व्यवहार को लेकर सफाई देने या उचित ठहराने के लिये कहा जाता है। कारण बताओ नोटिस का उद्देश्य प्राप्तकर्त्ता को विशिष्ट चिंताओं या कथित उल्लंघनों के संबंध में प्रतिक्रिया या स्पष्टीकरण प्रदान करने का अवसर देना है।
मामले का संदर्भ:
- सर्वोच्च न्यायालय ने पहले संवीक्षक को फिनोलेक्स केबल्स की आम वार्षिक बैठक के परिणाम घोषित करने का निर्देश दिया था और NCLAT को परिणाम की जानकारी मिलने के बाद अपना निर्णय सुनाने के लिये कहा था।
- हालाँकि NCLAT ने कथित तौर पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश को स्वीकार किये बिना निर्णय घोषित कर दिया।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) ने राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLT) और NCLT की कार्यप्रणाली पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि इन न्यायाधिकरणों में कुछ समस्या प्रतीत होती हैं तथा यह मामला उस समस्या का एक उदाहरण है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को संभालने के NCLAT के तरीके पर नाराज़गी व्यक्त की और कहा कि NCLAT को सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करना चाहिये था।
न्यायालय की अवमानना:
- परिचय:
- न्यायालय की अवमानना न्यायिक संस्थानों को प्रेरित हमलों और अनुचित आलोचनाओं से बचाने तथा इसके अधिकार को कम करने वालों को दंडित करने के लिये एक कानूनी तंत्र के रूप में प्रयास करती है।
- वैधानिक आधार:
- जब संविधान को अपनाया गया, तो न्यायालय की अवमानना को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों में से एक बना दिया गया।
- अलग से संविधान के अनुच्छेद 129 ने सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति प्रदान की। अनुच्छेद 215 ने उच्च न्यायालयों को तदनुरूपी शक्ति प्रदान की।
- न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 इस विचार को वैधानिक समर्थन देता है।
- न्यायालय की अवमानना के प्रकार:
- सिविल अवमानना: यह किसी न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट या अन्य प्रक्रिया की जान-बूझकर अवज्ञा या न्यायालय को दिये गए वचन का जान-बूझकर उल्लंघन है।
- आपराधिक अवमानना: इसमें किसी भी ऐसे मामले का प्रकाशन या कोई अन्य कार्य शामिल है जो किसी अदालत के अधिकार को कम करता है या उसे बदनाम करता है या किसी न्यायिक कार्यवाही की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है या किसी अन्य तरीके से न्याय प्रशासन में बाधा डालता है।
नोट: न्यायिक कार्यवाही की निष्पक्ष और सटीक रिपोर्टिंग न्यायालय की अवमानना नहीं मानी जाएगी। न ही किसी मामले की सुनवाई और निपटारे के बाद न्यायिक आदेश की गुणवत्ता को लेकर कोई निष्पक्ष आलोचना की जाती है।
- सज़ा:
- न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 के तहत दोषी को छह महीने तक की कैद या 2,000 रुपए का ज़ुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
- बचाव के रूप में "सच्चाई और सद्भावना" को शामिल करने के लिये इसे वर्ष 2006 में संशोधित किया गया था।
- इसमें यह जोड़ा गया कि न्यायालय केवल तभी सज़ा दे सकता है यदि दूसरा व्यक्ति कार्य में पर्याप्त हस्तक्षेप करता है या न्याय की उचित प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति रखता है।
- न्यायालय की अवमानना अधिनियम 1971 के तहत दोषी को छह महीने तक की कैद या 2,000 रुपए का ज़ुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
न्यायालय की अवमानना कार्यवाही की आलोचना:
- भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संस्मरण के रूप में इसकी आलोचना की जाती है क्योंकि यूनाइटेड किंगडम ने भी अवमानना कानून समाप्त कर दिये हैं।
- अवमानना को न्यायालय के निर्देशों/निर्णयों की केवल "स्वेच्छाचारी अवज्ञा" तक सीमित रखने और "न्यायालय को बदनाम करने" को प्रतिबंधित करने की मांग उठाई गई है।
- यह भी कहा जाता है कि इसका परिणाम न्यायिक सीमा के परे भी जा सकता है।
- विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में अवमानना के मामले लंबित हैं, जिससे पहले से ही अत्यधिक बोझ से दबी न्यायपालिका द्वारा न्याय प्रशासन में विलंब होता है।
आगे की राह
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मौलिक अधिकारों में सबसे मौलिक है और उस पर प्रतिबंध न्यूनतम होने चाहिये।
- न्यायालय की अवमानना पर कानून केवल वही प्रतिबंध लगा सकता है जो न्यायिक संस्थानों की वैधता को बनाए रखने के लिये आवश्यक हैं।
- इसलिये स्वाभाविक न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए उस प्रक्रिया को परिभाषित करने वाले नियम एवं दिशा-निर्देश तैयार किये जाएँ जो आपराधिक अवमानना पर कार्रवाई करते समय वरिष्ठ न्यायालयों को अपनाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2022)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) |
कीमोथेरेपी के प्रति कैंसर कोशिकाओं का प्रतिरोध
प्रिलिम्स के लिये:कीमोथेरेपी, कैंसर, राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मेन्स के लिये:कैंसर, वैज्ञानिक नवाचारों और अन्वेषणों से संबंधित सरकारी पहल |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सेल रिपोर्ट्स में प्रकाशित,नीदरलैंड कैंसर इंस्टीट्यूट के शोधकर्त्ताओं द्वारा किये गए एक नए अध्ययन ने यह समझने में सफलता हासिल की है कि क्यों कुछ कैंसर कोशिकाएँ एंटी-कैंसर ड्रग (कीमोथेराप्यूटिक एजेंट) टैक्सोल नामक दवा की प्रतिरोधक हैं।
- उनके शोध में इस प्रतिरोध पर नियंत्रण पाने के तरीके खोजकर कैंसर के इलाज में सुधार करने की क्षमता है, जिससे इस दुर्जेय प्रतिकूलता का सामना कर रहे रोगियों में आशा जगी है।
अध्ययन के मुख्य बिंदु:
- कीमोथेरेपी की चुनौतियाँ:
- कीमोथेरेपी एक प्रणालीगत कैंसर उपचार है लेकिन इसमें कई चुनौतियाँ हैं।
- इसमें तेज़ी से विभाजित होने वाली कैंसर कोशिकाओं को लक्षित करना शामिल है, जिससे प्रायः क्रमादेशित कोशिका मृत्यु या एपोप्टोसिस होता है।
- हालाँकि यह प्रणाली गैर-कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को भी प्रभावित करती है। बड़ी संख्या में सामान्य कोशिकाओं वाला कोई भी ऊतक जो विभाजित हो रहा हो, जैसे पाचन तंत्र की कोशिकाएँ, अस्थि मज्जा और बालों के रोम भी कीमोथेराप्यूटिक एजेंटों से प्रभावित होते हैं तथा एपोप्टोसिस से पीड़ित होते हैं।
- यह कोशिका मृत्यु कीमोथेरेपी के दुष्प्रभावों का कारण बनती है, जैसे गुहा मुख और आँत की दर्दनाक सूजन, मतली, डायरिया, एनीमिया एवं बालों का झड़ना।
- प्रभावी कैंसर कोशिका विनाश और प्रबंधनीय दुष्प्रभावों के बीच संतुलन बनाना ऑन्कोलॉजिस्टों के सामने एक चुनौती है।
- एंटीबॉडी-ड्रग संयुग्म (ADCs):
- शोधकर्त्ताओं ने कुछ प्रकार के कैंसर के लिये अधिक लक्षित दृष्टिकोण के रूप में एंटीबॉडी-ड्रग संयुग्म विकसित किया है।
- ADC में मुख्य रूप से कैंसर कोशिकाओं में पाए जाने वाले प्रोटीन को पहचान के लिये डिज़ाइन किये गए एंटीबॉडी में दवाएँ जोड़ना शामिल है।
- यह लक्षित वितरण स्वस्थ कोशिकाओं को बचाते हुए संपार्श्विक क्षति को कम कर सीधे कैंसर कोशिकाओं तक कीमोथेरेपी को निर्देशित करने में सहायता करता है।
- कीमोथेरेपी प्रतिरोध:
- कुछ कैंसर कोशिकाएँ कीमोथेरेपी के प्रभाव से बच सकती हैं, जिससे कैंसर दोबारा होने का खतरा बढ़ सकता है।
- यह अध्ययन आमतौर पर प्रयोग होने वाले कीमोथेराप्यूटिक एजेंट टैक्सोल के प्रति प्रतिरोध को समझने पर केंद्रित है।
- ABCB1 जीन की भूमिका :
- टैक्सोल के प्रति प्रतिरोध कोशिका के केंद्रक के भीतर ABCB1 जीन के स्थान से निकटता से जुड़ा हुआ है।
- संवेदनशील कोशिकाएँ प्रतिरोधी कोशिकाओं की तुलना में भिन्न ABCB1 जीन स्थान प्रदर्शित करती हैं।
- प्रतिरोधी कोशिकाओं में जीन परमाणु आवरण (झिल्ली) से अलग होकर केंद्रक में गहराई तक स्थानांतरित हो गया है।
- इस स्थानांतरण के परिणामस्वरूप ABCB1 जीन के अनुरूप RNA में उल्लेखनीय 100 गुना वृद्धि होती है।
- कुछ कैंसर कोशिकाएँ कीमोथेरेपी के प्रभाव से बच सकती हैं, जिससे कैंसर दोबारा होने का खतरा बढ़ सकता है।
- P-gp एफ्लक्स पंप:
- बढ़े हुए RNA स्तर से P-gp एफ्लक्स पंप का उत्पादन होता है, जो कीमोथेरेपी प्रतिरोध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- P-gp पंप कोशिका से टैक्सोल और अन्य विषाक्त यौगिकों को प्रभावी ढंग से हटाता है, कोशिका विभाजन को रोकने तथा एपोप्टोसिस को ट्रिगर करने के लिये उनके आवश्यक स्तर पर संचय में रुकावट डालता है। इससे कैंसर कोशिकाएँ बनी रहती हैं।
- बढ़े हुए RNA स्तर से P-gp एफ्लक्स पंप का उत्पादन होता है, जो कीमोथेरेपी प्रतिरोध में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- लैमिन B रिसेप्टर (LBR) की पहचान:
- शोधकर्त्ताओं ने यह समझने की कोशिश की कि संवेदनशील कोशिकाओं में परमाणु आवरण में ABCB1 जीन को कौन जोड़ता है।
- अध्ययन ने लैमिन B रिसेप्टर (LBR) को ABCB1 जीन के स्थान और सक्रियण को प्रभावित करने वाले एक महत्त्वपूर्ण प्रोटीन के रूप में पहचाना।
- जब LBR अनुपस्थित होता है, तो टैक्सोल के संपर्क में आने पर कोशिकाएँ ABCB1 जीन को सक्रिय कर सकती हैं। हालाँकि LBR बनाने के लिये ज़िम्मेदार जीन को हटाने से तुरंत ABCB1 अभिव्यक्ति में वृद्धि नहीं होती है; इसके लिये टैक्सोल के संपर्क की आवश्यकता होती है। यह ABCB1 को शांत करने में अतिरिक्त कारकों की भागीदारी को इंगित करता है।
- शोधकर्त्ताओं ने यह समझने की कोशिश की कि संवेदनशील कोशिकाओं में परमाणु आवरण में ABCB1 जीन को कौन जोड़ता है।
- कैंसर कोशिका प्रतिक्रियाओं में परिवर्तनशीलता:
- अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि विभिन्न प्रकार की कैंसर कोशिकाएँ LBR की अनुपस्थिति में कैसे प्रतिक्रिया करती हैं।
- फेफड़ों की कैंसर कोशिकाओं की तरह कुछ ने ABCB1 RNA के उच्च स्तर को व्यक्त किया।
- फेफड़ों की कैंसर कोशिकाओं में LBR की कमी से टैक्सोल प्रतिरोध में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई।
- दूसरी ओर, सिर और गर्दन की कैंसर कोशिकाओं के विपरीत स्तन कैंसर कोशिकाओं में LBR की कमी के बाद टैक्सोल-प्रतिरोधी अंश में वृद्धि देखी गई।
- विभिन्न कैंसर कोशिकाओं की प्रतिक्रियाओं में यह परिवर्तनशीलता परमाणु आवरण में जीन को बाँधने के लिये अलग-अलग डिग्री तक LBR पर निर्भर करती है।
- अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि विभिन्न प्रकार की कैंसर कोशिकाएँ LBR की अनुपस्थिति में कैसे प्रतिक्रिया करती हैं।
कीमोथेरेपी:
- यह एक प्रकार का कैंसर उपचार है जिसमें शरीर में तेज़ी से बढ़ने वाली कोशिकाओं को समाप्त करने के लिये शक्तिशाली कैंसर रोधी दवाओं का उपयोग किया जाता है। सामान्य शारीरिक कोशिकाओं की तुलना में कैंसर कोशिकाएँ काफी तेज़ी से विकसित होती हैं और अपनी प्रतिकृति बनाती हैं।
- कीमोथेरेपी का उपयोग अकेले या अन्य उपचारों, जैसे- सर्जरी, विकिरण या हार्मोन थेरेपी के संयोजन में किया जा सकता है।
कैंसर:
- यह एक जटिल और व्यापक शब्द है जिसका उपयोग शरीर में असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि तथा प्रसार से होने वाली बीमारियों के एक समूह का वर्णन करने के लिये किया जाता है।
- ये असामान्य कोशिकाएँ, जिन्हें कैंसर कोशिकाएँ कहा जाता है, स्वस्थ ऊतकों और अंगों पर आक्रमण करने तथा उन्हें नष्ट करने की क्षमता रखती हैं।
- एक स्वस्थ शरीर में कोशिकाएँ विनियमित तरीके से बढ़ती हैं, विभाजित होती हैं और नष्ट हो जाती हैं, जिससे ऊतकों तथा अंगों के सामान्य कार्यान्वयन की अनुमति मिलती है।
- हालाँकि कैंसर के मामले में कुछ आनुवंशिक उत्परिवर्तन या असामान्यताएँ इस सामान्य कोशिका चक्र को बाधित करती हैं, जिससे कोशिकाएँ विभाजित होती हैं और अनियंत्रित रूप से बढ़ती हैं।
- ये कोशिकाएँ ऊतक का एक समूह बना सकती हैं जिसे ट्यूमर कहा जाता है।