डेली न्यूज़ (17 Jul, 2020)



भारत-EU समझौता

प्रीलिम्स के लिये:

भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन,  कॉपरनिकस कार्यक्रम

मेन्स के लिये:

भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत और यूरोपीय संघ 15वें भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन में आगामी पाँच वर्षों 2020-2025 के लिये वैज्ञानिक सहयोग पर समझौते को नवीनीकृत करने पर सहमत हो गए हैं।

प्रमुख बिंदु

  • भारत और यूरोपीय संघ दोनों ने वर्ष 2001 में हुए विज्ञान और प्रौद्योगिकी समझौते के अनुरूप आपसी लाभ और पारस्परिक सिद्धांतों के आधार पर अनुसंधान और नवाचार के क्षेत्र में भविष्य में सहयोग करने पर सहमति व्यक्त की है।
  • ज्ञात है कि वर्ष 2001 में हुआ यह समझौता 17 मई 2020 को समाप्त हो गया था।
  • दोनों पक्ष समयबद्ध तरीके से नवीनीकृत प्रक्रिया शुरू करने और अनुसंधान एवं नवाचार में 20 वर्षों के मज़बूत सहयोग को अंगीकृत करने के लिये वचनबद्ध हैं।

Europe

इस समझौते का महत्त्व

  • इससे जल, ऊर्जा, स्वास्थ्य सेवा, एग्रीटेक, जैव स्वायत्ता, एकीकृत साइबर-भौतिक प्रणाली, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, नैनो प्रौद्योगिकी और स्वच्छ प्रौद्योगिकी आदि जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधान और नवाचार सहयोग को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
  • इसके अलावा अनुसंधान, शोधकर्त्ताओं के आदान-प्रदान, छात्रों, स्टार्टअप और ज्ञान के सह-सृजन के लिये संसाधनों के सह-निवेश में संस्थागत संबंधों को और मज़बूती मिलेगी।

भारत-यूरोपीय संघ विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग:

  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी: दोनों देशों के मध्य स्थापित वैज्ञानिक सहयोग की समीक्षा के लिये भारत-यूरोपीय संघ विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचालन समिति की वार्षिक बैठक आयोजित होती है।
    • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (Ministry of Earth Sciences-MoES) और यूरोपीय आयोग (European Commission-EC) ने जलवायु परिवर्तन एवं ध्रुवीय अनुसंधान से संबंधित यूरोपीय रिसर्च एंड इनोवेशन फ्रेमवर्क कार्यक्रम ‘Hoizon 2020’ के तहत चयनित संयुक्त अनुसंधान परियोजनाओं का समर्थन करने के लिये एक सह-निधि तंत्र (Co-Funding Mechanism-CFM) की स्थापना की है।
  • अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी: 1970 के दशक से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यूरोपीय संघ के साथ सहयोग कर रहा है।
    • इसरो और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी पृथ्वी अवलोकन में सहयोग बढ़ाने की दिशा में मिलकर काम कर रहे हैं। इसमें वर्ष 2018 में हस्ताक्षरित कॉपरनिकस कार्यक्रम (Copernicus Programme) भी शामिल है।
    • कॉपरनिकस यूरोपीय संघ का पृथ्वी अवलोकन कार्यक्रम (Earth Observation Programme) है।

यूरोपीय संघ

  • यूरोपीय संघ 27 देशों (पूर्व में इस संघ में 28 देश शामिल थे) की एक आर्थिक और राजनीतिक सहभागिता है। ये 27 देश संधि के द्वारा एक संघ के रूप में जुड़े हुए हैं जिससे कि व्यापार आसानी से हो सके और लोग एक-दूसरे से कोई विवाद न करें क्योंकि अर्थव्यवस्था का एक सिद्धांत है कि जो देश आपस में जितना ज़्यादा व्यापार करते हैं उनकी लड़ाई होने की संभावना उतनी ही कम हो जाती है।
  • यही कारण है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में यह कोशिश की गई कि सभी देश आर्थिक रूप से एक साथ आएँ और एकजुट होकर एक व्यापार समूह का हिस्सा बनें।
  • इसी व्यापार समूह की वज़ह से आगे चलकर वर्ष 1993 में यूरोपीय संघ का जन्म हुआ। वर्ष 2004 में जब यूरो करेंसी लॉन्च की गई तब यह पूरी तरह से राजनीतिक और आर्थिक रूप से एकजुट हुआ।
  • यूरोपीय संघ मास्ट्रिच संधि द्वारा बनाया गया था, जो 1 नवंबर, 1993 को लागू हुई थी।

स्रोत: PIB


दल बदल विरोधी कानून और न्यायिक समीक्षा

प्रीलिम्स के लिये:

दलबदल विरोधी कानून, न्यायिक समीक्षा, किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हू और अन्य वाद 

मेन्स के लिये:

दलबदल विरोधी कानून

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राजस्थान में बिगड़ते राजनीतिक संकट के बीच राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बागी विधायकों को ‘दलबदल विरोधी कानून’ (Anti-defection Law) के तहत अयोग्यता नोटिस जारी किया गया।

प्रमुख बिंदु:

  • बागी काॅन्ग्रेसी नेता सचिन पायलट और 18 अन्य असंतुष्ट विधायकों ने अयोग्यता नोटिस को उच्च न्यायालय में चुनौती दी है।
  • इन बागी विधायकों का तर्क है विधानसभा के बाहर कुछ नेताओं के निर्णयों और नीतियों से असहमत होने के आधार पर उन्हें संसदीय ‘दलबदल विरोधी कानून’ के तहत अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है।
  • संविधान के 52वें सविधान संशोधन के माध्यम से दलबदल विरोधी कानून, 1985 में पारित किया गया तथा भारतीय संविधान में ‘दसवीं अनुसूची’ को जोड़ा गया। 

क्या था मामला?

  • उपमुख्यमंत्री सहित कॉंग्रेस के कुछ बागी विधायक हाल ही में 'काॅन्ग्रेस विधायक दल' (Congress Legislature Party- CLP) की बैठकों में बार-बार निमंत्रण देने के बावज़ूद शामिल नहीं हुए थे। इसके बाद राज्य में पार्टी के मुख्य सचेतक (Whip) की अपील पर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा इन विधायकों को अयोग्यता संबंधी नोटिस जारी किया गया।

बागी विधायकों का पक्ष:

  • बागी विधायकों ने अपनी रिट याचिका में नोटिस को रद्द करने की मांग करते हुए तर्क दिया है कि:
    • प्रथम, उनके द्वारा सदन की सदस्यता का त्याग नहीं किया गया है, अत: ‘दल बदल विरोधी कानून’ का उन पर प्रयोग नहीं किया जा सकता। 
    • द्वितीय, CLP की बैठकों में शामिल न होने में विफल रहने के आधार पर उन्हें दल बदल विरोधी कानून के तहत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।
  • रिट याचिका 'राजस्थान विधानसभा सदस्यों की वैधता (पार्टी बदलने के आधार पर अयोग्यता) नियम’, 1989 और संविधान की दसवीं अनुसूची के क्लॉज़ 2(1)(a) को चुनौती देने के लिये दायर की गई है।
    • इस प्रावधान के अनुसार "स्वेच्छा से एक राजनीतिक पार्टी की सदस्यता का त्याग करने पर सदस्य दलबदल कानून के तहत अयोग्यता के लिये उत्तरदायी होगा।”

विधानसभा अध्यक्ष का पक्ष:

  • इसके बाद विधानसभा अध्यक्ष के भी उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल करते हुए अपील की है कि किसी भी प्रकार आदेश जारी करने से पहले पार्टी के पक्ष को भी सुनना चाहिये।    

न्यायिक समीक्षा और दलबदल विरोधी कानून:

  • दल बदल विरोधी कानून के अनुसार, दल बदल से उत्पन्न अयोग्यता के बारे में किसी भी प्रश्न के मामले का निर्धारण सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा तय किया जाना है।
    • हालाँकि पीठासीन अधिकारी के निर्णय की उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। 
  • जब तक कि विधानमंडल के अध्यक्ष या सभापति द्वारा संविधान की दसवीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) के तहत सदस्यों को अयोग्यता पर अंतिम निर्णय नहीं ले लिया जाता तब तक न्यायपालिका अयोग्यता कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकती हैं।
  • वर्ष 2015 में हैदराबाद उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करने के बाद मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था जिसमें आरोप लगाया गया था कि तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष द्वारा एक सदस्य के खिलाफ दल बदल विरोधी कानून के तहत कार्रवाई में देरी की गई। 

‘किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू (Kihoto Hollohan vs Zachillhu) और अन्य वाद’ (वर्ष 1992):

  • इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि "अध्यक्ष या सभापति द्वारा दल बदल विरोधी कानून’ के तहत अंतिम निर्णय लेने से पहले की गई कार्यवाही की बीच में न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती और न ही न्यायपालिका के कार्यवाही के बीच में कोई हस्तक्षेप करना अनुमेय होगा।"
  • इसका एकमात्र अपवाद ‘अंतर्वर्ती अयोग्यता’ (Interlocutory Disqualifications) या निलंबन के ऐसे मामले हैं जिनके गंभीर, तत्काल और अपरिवर्तनीय नतीजे और परिणाम हो सकते हैं।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इसी वाद में न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि दल बदल विरोधी कानून के तहत विधानसभा अध्यक्ष द्वारा लिये गए निर्णय में त्रुटियों की जाँच का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।

न्यायिक समीक्षा’ का दायरा भी बहुत सीमित:

  • संसदीय परंपराओं में अध्यक्ष के कार्यालय को सर्वोच्च सम्मान और मान्यता प्राप्त है। संसदीय लोकतांत्रिक संस्था की धुरी (Pivot) अध्यक्षीय परंपरा पर आधारित है। उसे औचित्य और निष्पक्षता का प्रतीक माना जाता है।
  • 'दल बदल विरोधी कार्यवाही' में अध्यक्ष या सभापति के निर्णय के ‘न्यायिक समीक्षा’ का दायरा बहुत सीमित है। न्यायपालिका केवल संवैधानिक जनादेश के उल्लंघन पर आधारित दुर्भावना, प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन नहीं करने और दुराग्रह के मामलों में ही न्यायिक समीक्षा करेगा। 

भाषण की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार

(Fundamental Right to Free Speech):

  • बागी विधायकों द्वारा संविधान की दसवीं अनुसूची के क्लॉज़ 2(1)(a) को चुनौती देने के लिये याचिका दायर की गई है।
  • विधायकों के अनुसार, यह प्रावधान असंतोष व्यक्त करने के उनके अधिकार और स्वतंत्र भाषण के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।

भाषण की स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक अनुशासन:

  • ‘किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू और अन्य वाद’ में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि एक राजनीतिक दल साझा विश्वासों के बल पर कार्य करता है। इसकी दलों की राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक उपयोगिता इन्ही साझा मान्यताओं पर आधारित होती है, और आमतौर पर आयोजित सिद्धांतों को आगे बढ़ाने में इसके सदस्यों पर ठोस कार्रवाई करने की आवश्यकता होती है। 
  • लेकिन एक ही राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा असमान स्थिति या मनमुटाव की एक सार्वजनिक छवि को राजनीतिक परंपरा में वांछनीय स्थिति के रूप में नहीं देखा जाता है। हालाँकि जब सरकार के गठन में अनेक राजनीतिक दल शामिल होते हैं तो वहाँ दलों के बीच मनमुटाव को उचित ठहराया जा सकता है। 

आगे की राह:

  • ऐसे समय में जब भारत की रैंक 'नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक' (2019) में गिर गई है, संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अध्यक्ष की संस्था को सुधारने और मज़बूत करने के लिये कदम उठाए।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा दलबदल कानून में संतुलन बनाए रखने के लिये कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। 

स्रोत: द हिंदू


राजस्व गाँव

प्रीलिम्स के लिये:

 ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006’, राजस्व गाँव  

मेन्स के लिये:

जनजातीय समुदाय की समस्याएँ एवं इस दिशा में सरकार के प्रयास 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ओडिशा सरकार द्वारा ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006’ (Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act, 2006 के तहत पाँच आदिवासी वन गाँवों को राजस्व गॉंव के रूप में रूपांतरित करने के लिये एक अधिसूचना जारी की गई है।

प्रमुख बिंदु:

  • अधिसूचना में गंगामुंडा (Gangamunda), खजुरिनाली (Khajurinali), चालुझरन (Chalujharan), कंकड़गढ़ तहसील में भालुतांगर (Bhalutangar) तथा कामाख्यायनगर तहसील में करदाबानी गाँव (Karadabani) को शामिल किया गया है।
  • इन गाँवों की कुल आबादी लगभग 3,000 के आस-पास है।

वन गॉंव:

  • वन संसाधन मूल्यांकन (Forest Resources Assessment-FRA) के अनुसार, वन गाँव उन बस्तियों को कहा जाता है जो किसी भी राज्य सरकार के वन विभाग द्वारा वनों के संचालन के लिये वन के अंदर स्थापित किये गए हैं या फिर इन्हें वन आरक्षण प्रक्रिया के माध्यम से वन गाँवों में बदल दिया गया है।
  • वन गाँव में सरकार द्वारा  फिक्स डिमांड होल्डिंग (Fixed Demand Holdings) एवं अनुमति दी गई खेती योग्य भूमि और अन्य उपयोग के लिये सभी प्रकार की तुंग्या बस्तियाँ (Taungya Settlements) तथा भूमि शामिल होती हैं ।
    • तुंग्या वन प्रबंधन की एक प्रणाली है जिसमें भूमि को साफ किया जाता है और उसपर  शुरू में खाद्य फसलों को लगाया जाता है। 

राजस्व गाँव: 

  • ‘महापंजीयक और जनगणना आयुक्त’ के अनुसार, एक राजस्व गाँव भारत में एक छोटा प्रशासनिक क्षेत्र होता है जिसकी सुस्पष्ट परिभाषित सीमा होती है। 
  • एक राजस्व गाँव में कई गाँव शामिल हो सकते हैं। प्रत्येक राजस्व गाँव का नेतृत्व गाँव प्रशासनिक अधिकारी द्वारा किया जाता होता है। 
    • केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा वर्ष 2013 में वन गाँवों को राजस्व गाँव के रूप में रूपांतरित करने के लिये दिशा-निर्देश बनाए गए थे। ओडिशा सरकार द्वारा वर्ष 2015 में अपने स्वयं के दिशा-निर्देश जारी किये परंतु वे  बहुत स्पष्ट नहीं थे।
    • वर्ष 2017 में दोबारा राज्य द्वारा दिशा-निर्देशों का एक और सेट जारी किया गया जिसके बाद से रुपांतरण का काम शुरू किया गया। 
    • वर्ष 2017 के जारी दिशा-निर्देशों के बाद, राज्य में राजस्व गाँव में परिवर्तित होने वाला पहला वन गाँव अंगुल ज़िले का बादामुल गाँव (Badmul in Angul District) था।

राजस्व गाँव का महत्त्व:

  • वन भूमि पर होने के कारण ये गाँव सभी सरकारी सुविधाओं जैसे- स्वच्छ पानी और बिजली इत्यादि से वंचित हैं अतः राजस्व गाँव के रूप में मान्यता प्राप्त होने पर ये   सभी गाँव सरकार द्वारा दी जाने वाली सभी आधारभूत सुविधाओं जैसे- बिजली पानी इत्यादि की सुविधाओं को प्राप्त करने के हकदार होंगे।
  • ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006’अधिनियम के तहत जारी अधिसूचना आदिवासी को आजीविका के लिये स्‍व–कृषि या निवास के लिये व्‍यक्ति विशेष या समान पेशा के तहत वन भूमि पर रहने का अधिकार देगा।
  • राजस्व गाँव में रूपांतरित होने के बाद वन अधिकार समिति का निर्माण किया जाता है जो आदिवासी समुदायों के हितों के संरक्षण के लिये कार्य करती है।

भारत में जनजातीय समुदाय की समस्या:

  • सामान्यतया जनजातियाँ ऐसे ऐसे क्षेत्रों में निवास करती हैं जहाँ बुनियादी सुविधाओं की पहुँच मुश्किल है।
  • जनजातीय समुदाय अपनी अलग सामाजिक सांस्कृतिक, भूमि से अलगाव, अस्पृश्यता की भावना इत्यादि के कारण  सामाजिक संपर्क स्थापित करने में अपने-आप को असहज महसूस करती हैं। 
  • इस समुदाय में शिक्षा, मनोरंजन, स्वास्थ्य तथा पोषण संबंधी सुविधाओं का अभाव देखा जाता है।
  • जनजातीय समुदायों का एक बहुत बड़ा वर्ग निरक्षर है जिसके चलते सरकार की योजनाओं इत्यादि की जानकारी इन तक नहीं पहुँच पाती है  जो इस समुदाय के सामाजिक रूप से पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण है।

जनजाति समुदाय से संबंधित मुद्दे:

  • ‘इनर लाइन परमिट’ (ILP) का मुद्दा छठी अनुसूची में शामिल पूर्वोत्तर भारत के जनजाति बहुल राज्य असम, मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा में एक ज्वलंत समस्या बनकर उभरा।
    • कोई भी भारतीय नागरिक इन राज्यों में बिना परमिट के प्रवेश नहीं कर सकता है जब तक कि वह उस राज्य से संबंधित नहीं हो और न ही वह ILP में निर्दिष्ट अवधि से अधिक रह सकता है। ILP जनजातीय समुदायों के हितों की सुरक्षा से संबंधित है।  
  • मणिपुर राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पारित गया जो राज्य में बाहरी लोगों को ज़मीन खरीदने या बसने, या स्वदेशी लोगों को अधिक अधिकार देने से संबंधित था।
    • इस विधेयक के विरोध में मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाली कुकी  और नागाओं जनजाति समुदाय द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शन किया गया। 
  • त्रिपुरा में ‘सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम’ (Armed Forces Special Powers Act- AFSPA) को हटाना के फैसले के चलते पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी इसे हटाने को लेकर विवाद बना हुआ है।
  • नक्सलवाद की समस्या झारखंड, ओडिशा एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जनजातीय समुदाय के विकास में एक बड़ी बाधा बनी हुई है।
  • ‘ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन’ (All Bodo Students Union- ABSU) द्वारा असम से अलग जनजाति बहुल बोडोलैंड की माँग।

जनजाति समुदाय के संरक्षण हेतु संवैधानिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के संरक्षण के लिये अनुच्छेद 338 तथा (338-क) में प्रावधान किया गया है-
    • संबंधित अनुच्छेदों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के संरक्षण के लिये आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। 
    • आयोग का कार्य अनुसूचित जाति एवं जनजातियों से संबंधित विषयों का अन्वेषण करना, उन पर निगरानी रखना तथा उनके रक्षोपायों का मूल्यांकन करना है। 
    • अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग लेना, उस पर सलाह देना तथा प्रगति का मूल्यांकन करना इत्यादि।   
  • संवैधानिक की अनुसूची 5 में अनुसूचित क्षेत्र तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण का प्रावधान किया गया है वही अनुसूची 6 में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के बारे में उपबंध किया गया है।
  • अनुच्छेद 17 समाज भी इस समुदाय के हितों को अस्पृश्यता की भावना से सुरक्षा प्रदान करता है।
  • नीति निदेशक तत्त्वों का अनुच्छेद 46 राज्य को यह आदेश दिया गया है कि वह अनुसूचित जाति/जनजाति तथा अन्य दुर्बल वर्गों की शिक्षा और उनके अर्थ संबंधी हितों की रक्षा करे।

प्रमुख योजनाएँ:

  • एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय योजना के माध्यम से दूरदराज़ के क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समुदाय के विद्यार्थियों को मध्यम और उच्च स्तरीय शिक्षा प्रदान की जा रही है।
  • ओडिशा राज्य सरकार शीघ्र ही आदिवासी समुदाय की विशेष भाषा के संरक्षण के किये शब्दकोश (डिक्शनरी) जारी की जाएगी जिसका प्रयोग आदिवासी बाहुल इलाकों में प्राथमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करने में किया जा सकेगा। 

अनुसूची 6 के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये वेंकटचलिया आयोग की सिफारिशें 

  • अल्पसंख्यकों के लिये सुरक्षा उपाय करें तथा केंद्रीय धन का प्रयोग राज्य सरकारों के माध्यम से फंडिंग करने के बजाय योजना के व्यय पर किया जाए। 
  • ज़िला परिषदों को विभिन्न सरकारी विभागों से केंद्र पोषित परियोजनाओं को लागू करने की अनुमति दें।
  • भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा ऑडिट के माध्यम से ग्राम सभाओं को पुनर्जीवित करना।
  • राष्ट्रीय आव्रजन परिषद की स्थापना जो कार्य परमिट, राष्ट्रीय प्रवासन कानून और नागरिकता अधिनियम से संबंधित मामलों पर रिपोर्ट करे। 

अनुसूची 6 के प्रभावी क्रियान्वयन के लिये रामचंद्रन समिति की सिफारिशें:

  • ज़िला परिषद की शक्तियों की न्यूनतम सीमा को समाप्त करने की आवश्यकता है।
  • योजनाओं के कार्यान्वयन और भागीदारी में सभी हितधारकों के साथ महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना आवश्यक है।
  • राज्यों एवं ज़िला परिषदों के बीच कार्यात्मक जिम्मेदारियों में टकराव की स्थिति को खत्म करना।
  • गाँव और बस्ती के स्तर पर विकेंद्रीकृत भागीदारी योजना बनाने के लिये लगभग 10-20 सदस्यों की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई ग्राम विकास समिति की स्थापना करने की आवश्यकता है।
  • क्षेत्रीय परिषदों को वित्त पोषित करने के लिये राज्य वित्त आयोग को गठित करने की आवश्यकता।
  • राज्यपाल द्वारा समय-समय पर राज्य सरकार और ज़िला परिषद की एक उच्च स्तरीय समीक्षा समिति का नेतृत्व करना चाहिये।
  • निरंतर निगरानी, लेखा परीक्षा और सुधार के माध्यम से जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिये एक प्रणाली की आवश्यकता व्यक्त की।
  • छठी अनुसूची क्षेत्र में विभिन्न निकायों के कामकाज की समीक्षा, निरीक्षण कर केंद्र सरकार को रिपोर्ट करें।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968

प्रीलिम्स के लिये

केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 

मेन्स के लिये 

पशु क्रूरता और पशु अधिकारों से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968 (Kerala Animals and Bird Sacrifices Prohibition Act, 1968) की संवैधानिकता की जाँच करने पर सहमति व्यक्त की है।

प्रमुख बिंदु 

  • गौरतलब है कि केरल पशु और पक्षी बलि निषेध अधिनियम, 1968 (Kerala Animals and Bird Sacrifices Prohibition Act,1968) राज्य के अंतर्गत ‘देवता’ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से मंदिर परिसर में जानवरों और पक्षियों की बलि देने पर रोक लगाता है।
  • इस मामले पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश शरद बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने केरल के पशु संरक्षण कानून में ‘विरोधाभास’ को रेखांकित किया, जो कि भोजन के लिये जानवरों को मारने की अनुमति देता है, किंतु देवता के लिये जानवरों की हत्या की अनुमति नहीं देता है।
  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने केरल सरकार, केंद्र सरकार और पशु कल्याण बोर्ड (Animal Welfare Board) को नोटिस जारी किया है।

विवाद 

  • सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाकर्त्ता द्वारा दायर अपील के अनुसार, पशु बलि उसकी धार्मिक प्रथा का एक अभिन्न अंग है और इस प्रकार केरल सरकार का अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के तहत उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है।
  • गौरतलब है कि इससे पूर्व 16 जून, 2020 को केरल उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने केरल के इस अधिनियम को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया था।
    • इस संबंध में केरल उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कहा था कि यह सिद्ध करने के लिये कोई भी सामग्री उपलब्ध नहीं है कि हिंदू अथवा किसी अन्य धर्म के अंतर्गत किसी समुदाय विशेष के लिये धार्मिक सिद्धि हेतु बलि देना अनिवार्य है।

याचिकाकर्त्ता का पक्ष

  • मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप 
    • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया है कि पशु बलि, शक्ति पूजा (Shakthi Worship) का एक अभिन्न अंग है और चूँकि वह इस प्रथा को पूरा करने में असमर्थ है, इसलिये मान्यताओं के अनुसार उसे ‘देवी के क्रोध’ का सामना करना पड़ सकता है।
    • याचिकाकर्त्ता के मुताबिक, केरल सरकार का यह नियम संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत उसके मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता है।

अनुच्छेद 25 (1) 

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है। यह अधिकार समानता के अधिकार से पूरकता रखता है।
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन
    • याचिकाकर्त्ता के अनुसार, केरल सरकार का यह नियम संविधान के अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समता) का भी  उल्लंघन करता है।
    • याचिकाकर्त्ता के मुताबिक, यदि केरल के इस कानून का उद्देश्य जानवरों का संरक्षण और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना है तो इसे सभी धर्मों पर एक समान रूप से लागू किया जाना चाहिये।
    • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया है कि यह कानून केवल किसी देवता के लिये जानवरों को मारने पर रोक लगाता है, जबकि मंदिर परिसर में व्यक्तिगत उपभोग के लिये किसी जानवर को मारने के लिये इस अधिनियम में कोई प्रतिबंध नहीं है।
  • केंद्र सरकार के पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के विपरीत है यह नियम
    • याचिकाकर्त्ता ने रेखांकित किया कि, जहाँ एक ओर केंद्र सरकार का पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 धार्मिक उद्देश्य से किसी पशु के वध को अपराध नहीं मानता, वहीं राज्य का कानून इस कृत्य को अपराध मानता है, इस प्रकार राज्य का कानून केंद्रीय कानून के प्रावधानों को खंडित करता है।
    • गौरतलब है कि भारत के संवैधानिक ढाँचे के तहत पशुओं के साथ क्रूरता के संबंध में केंद्र तथा राज्य सरकारें, दोनों ही कानून बना सकती हैं, परंतु यदि किसी कारण दोनों के मतों में भिन्नता उत्पन्न होती है तो ऐसे अधिनियम को राष्ट्रपति की अनुमति के लिये सुरक्षित रख दिया जाता है।

स्रोत: द हिंदू


ग्रामीण स्थानीय निकायों के लिये सहायता अनुदान

प्रीलिम्स के लिये:

15वाँ वित्त आयोग, ग्रामीण स्थानीय निकाय, अनुदान

मेन्स के लिये:

ग्रामीण स्थानीय निकायों के लिये आवंटित सहायता अनुदान का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने 15वें वित्त आयोग की अनुशंसा के आधार पर 2.63 लाख ग्रामीण स्थानीय निकायों (Rural Local Bodies-RLBs) को 15187.50 करोड़ रुपए की किस्त जारी की है। 

प्रमुख बिंदु

  • पंचायती राज मंत्रालय तथा पेयजल और स्‍वच्‍छता विभाग (जल शक्ति मंत्रालय) की सिफारिश पर वित्त मंत्रालय द्वारा 28 राज्यों में विस्तृत 2.63 लाख ग्रामीण स्थानीय निकायों के लिये यह अनुदान राशि जारी की गई है।
  • वित्त आयोग ने वित्त वर्ष 2020-21 की अवधि के लिये ग्रामीण स्थानीय निकायों के अनुदान का कुल आकार 60,750 करोड़ रुपए तय किया है जो वित्त आयोग द्वारा किसी एक वर्ष में किया गया सबसे अधिक आवंटन है।
  • आयोग ने 28 राज्यों में, पंचायती राज के सभी स्तरों के लिये, पाँचवीं और छठी अनुसूची क्षेत्रों के पारंपरिक निकायों सहित, दो भागों में, अनुदान प्रदान करने की सिफारिश की है। अर्थात्-
    (i) बेसिक (Untied) अनुदान
    (ii) बद्ध (Tied) अनुदान
  • अनुदान का 50% बेसिक ग्रांट होगा और 50% बद्ध अनुदान होगा।
    • बेसिक अनुदान (Basic Grant): बेसिक अनुदान अबद्ध हैं और वेतन या अन्य स्थापना व्यय को छोड़कर, स्थान-विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप RLBs द्वारा उपयोग में लाए जा सकते हैं।
    • बद्ध अनुदान (Tied Grants): बद्ध अनुदान का उपयोग निम्न मूल सेवाओं के लिये किया जाना है:
      • (क) स्वच्छता और ODFs स्थिति का अनुरक्षण।
      • (ख) पेयजल, वर्षा-जल संचयन और जल पुनर्चक्रण की आपूर्ति।
      • RLBs, जहाँ तक संभव हो सके, इन दो महत्त्वपूर्ण सेवाओं में से प्रत्येक के लिये इन बद्ध अनुदानों में से एक को चिन्हित करेगा।
      • हालाँकि यदि किसी RLBs ने एक श्रेणी की आवश्यकताओं को पूरी तरह से संतृप्त कर दिया है तो वह अन्य श्रेणी के लिये धन का उपयोग कर सकता है।

वित्त आवंटन

  • राज्य सरकारें नवीनतम राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission) की स्वीकृत सिफारिशों के आधार पर पंचायतों के सभी स्तरों- गाँव, ब्लॉक और ज़िले तथा पाँचवीं एवं छठी अनुसूची क्षेत्रों के पारंपरिक निकायों को 15वें वित्त आयोग का अनुदान वितरित करेंगी, जो 15वें वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित निम्नलिखित मानकों के अनुरूप होना चाहिये-
  • ग्राम/ग्राम पंचायतों के लिये 70-85%
  • ब्लॉक/मध्यवर्ती पंचायतों के लिये 10-25%
  • ज़िला/ज़िला पंचायतों के लिये 5-15%
  • दो-स्तरीय प्रणाली वाले राज्यों में केवल ग्राम और ज़िला पंचायतों के मध्य यह वितरण ग्राम/ग्राम पंचायतों के लिये 70-85% और ज़िला/ज़िला पंचायतों के लिये 15-30%।

प्रशासनिक सहायता

  • इसके लिये RLBs को वेब/आईटी इनेबल्ड प्लेटफॉर्म प्रदान किया जाएगा, जिनसे योजना निर्माण, निगरानी, लेखा/लेखा परीक्षा के कार्यों के लिये प्रत्येक स्तर पर धन प्रवाह सुनिश्चित हो सकें।

महत्त्व

  • इस फंड को इस समय RLBs को जारी करना निःसंदेह सर्वाधिक उपयुक्त है, विशेषकर तब जब RLBs COVID-19 महामारी की स्थिति से उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस कोष की उपलब्धता RLBs के ग्रामीण नागरिकों को बुनियादी सेवाओं को प्रदान करने में उनकी प्रभावशीलता को बढ़ावा देगी और उन्हें प्रवासी मज़दूरों को लाभकारी रोज़गार प्रदान करने में भी सशक्त बनाएगी जो COVID-19 के कारण मूल स्थानों पर लौट आए हैं।
  • साथ ही रचनात्मक तरीके से ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को बढ़ाने में भी सहयोगी होगी।

पंचायती राज मंत्रालय सक्रिय रूप से राज्यों को उपरोक्त कार्यों में समर्थन देगा, जिनसे 15वें वित्त आयोग के अनुदानों का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित हो सके।

स्रोत: PIB


कार्बन उत्सर्जन

प्रीलिम्स के लिये: 

कार्बन टैक्स, क्योटो प्रोटोकॉल, ग्रीन हाउस गैस 

मेन्स के लिये: 

पर्यावरण के संदर्भ में कार्बन उत्सर्जन का मूल्यांकन 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में आस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी (Australian National University- ANU) तथा मैक्वेरी विश्वविद्यालय (Macquarie University) के शोधकर्त्ताओं द्वारा कार्बन मूल्य निर्धारण (Carbon Pricing Works) एवं  कार्बन उत्सर्जन को कम करने में कार्बन मूल्य निर्धारण की भूमिका को लेकर अब तक के सबसे बड़े शोध कार्य को प्रकाशित किया गया है। 

प्रमुख बिंदु:

  • शोधकर्त्ताओं द्वारा अपने अध्ययन में  142 देशों को शामिल किया गया। 
  • अध्ययन में 1990 के दशक से कार्बन मूल्य निर्धारण की भूमिका को कार्बन के कम उत्सर्जन के संदर्भ में  देखा गया।
  • शोध में शामिल 142 देशों में से  43 देशों में इस अध्ययन की समाप्ति तक कार्बन मूल्य का निर्धारण सामान ही रहा।
  • अध्ययन से पता चलता है कि कार्बन मूल्य का निर्धारण करने वाले देशों में जीवाश्म ईंधन दहन से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की औसतन वार्षिक वृद्धि दर उन देशों से 2% कम है जिन देशों में कार्बन मूल्य का निर्धारण नहीं किया जाता है।
  • कार्बन मूल्य का निर्धारण करने वाले देशों में औसतन, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2007 से वर्ष 2017 की अवधि में दो प्रतिशत प्रति वर्ष की गिरावट दर्ज़ की गई है।  
    • जबकि अन्य देश जिनमें वर्ष 2007 से वर्ष 2017 की अवधि में कार्बन मूल्य का निर्धारण नहीं हुआ उनमें प्रति वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 3% की वृद्धि देखी गई है।
  • यह शोध कार्य पर्यावरण और संसाधन अर्थशास्त्र पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

कार्बन मूल्य निर्धारण सभी देशों में प्रभावी नहीं:

  • कार्बन मूल्य निर्धारण कार्बन उत्सर्जन को कम करने हेतु एक कारगर उपाय है जिसके प्रभाव विभिन्न देशों पर देखे गए है।
  • वर्ष 2012-14 के दौरान जब ऑस्ट्रेलिया में जीवाश्म ईंधन के दहन में कार्बन मूल्य निर्धारण को शामिल किया गया तो वहाँ  कार्बन  उत्सर्जन स्तर में कमी देखी गई, लेकिन वर्ष 2019 से वहाँ कार्बन उत्सर्जन में एक निरंतर वृद्धि देखी जा रही है। 

Global-Disparity-in-Carbon

 कार्बन उत्सर्जन:

  • कार्बन उत्सर्जन/फुटप्रिंट से तात्पर्य किसी एक संस्था या व्यक्ति  द्वारा की गई कुल कार्बन उत्सर्जन की मात्रा से है।
  • यह उत्सर्जन कार्बन डाइऑक्साइड या ग्रीनहाउस गैसों के रूप में होता है।
  •  ग्रीन हाउस गैसों के प्रति व्यक्ति या प्रति औद्योगिक इकाई उत्सर्जन की मात्रा को उस व्यक्ति या औद्योगिक इकाई का कार्बन फुटप्रिंट कहा जाता है।
  • कार्बन फुट प्रिंट को कार्बन डाइऑक्साइड के ग्राम उत्सर्जन में मापा जाता है।
    • कार्बन फुट प्रिंट को ज्ञात करने के लिये ‘लाइफ साइकल असेसमेंट’ (Life Cycle Assessment- LCA) विधि का प्रयोग किया जाता है।
    • इस विधि में व्यक्ति तथा औद्योगिक इकाईयों द्वारा वातावरण में उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा को जोड़ा जाता है। 

कार्बन मूल्य निर्धारण/ कार्बन क्रेडिट

  • कार्बन मूल्य निर्धारण/ कार्बन क्रेडिट का निर्धारण  किसी देश में उपलब्ध उद्योगों के अनुसार उस देश के द्वारा उत्सर्जित किये जाने वाले अधिकतम कार्बन की मात्रा के आधार पर किया जाता है।
  •  किसी देश द्वारा निर्धारित कार्बन उत्सर्जन की अधिकतम मात्रा में कटौती करने पर उसे कार्बन क्रेडिट प्रदान किया जाता है।  

कार्बन मूल्य/ कार्बन क्रेडिट का निर्धारण:

  • कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने तथा इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये किफायती साधनों को विकसित करने के लिये  वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल  द्वारा  विकसित देशों को तीन विकल्प दिये गए जो इस प्रकार है-
    • अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार 
    • क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म 
    • संयुक्त क्रियान्वयन 
  • क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म विकसित देशों में सरकार या कंपनियों को विकासशील देशों के लिये किये गए स्वच्छ प्रौद्योगिकी निवेश पर ऋण अर्जित करने की अनुमति देता है इस ऋण को ही कार्बन क्रेडिट कहा जाता है।  

शोध का महत्त्व: 

  • यह अध्ययन विश्व के सभी देशों एवं वहां की सरकारों को एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रदान करता  है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये कार्बन मूल्य निर्धारण उनकी विकास  योजनाओं का हिस्सा होना चाहिये ।
  • कार्बन उत्सर्जन पर कीमतों  को निर्धारित करके उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। 
  • कार्बन टैक्स के कारण बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले संगठन एवं कंपनियों की संख्या कम हो सकती है जो पर्यावरण में प्रदूषण के स्तर को कम करने के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने में मददगार साबित हो सकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


पशुपालन अवसंरचना विकास कोष

प्रीलिम्स के लिये

पशुपालन अवसंरचना विकास कोष 

मेन्स के लिये

भारतीय पशुपालन क्षेत्र के विकास से संबंधित योजनाएँ और पहल, भारतीय अर्थव्यवस्था में पशुपालन और डेयरी उत्पादों का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने 15000 करोड़ रुपए के पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (Animal Husbandry Infrastructure Development Fund-AHIDF) के कार्यान्वयन संबंधी दिशा-निर्देश जारी किये हैं।

पृष्ठभूमि 

  • गौरतलब है कि बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत घोषित प्रोत्साहन पैकेज के अंतर्गत 15000 करोड़ रुपए के पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) की स्थापना की बात की गई थी।
  • इस कोष के अंतर्गत पात्र लाभार्थियों में, किसान उत्पादक संगठन (FPO), MSMEs, कंपनी अधिनियम की धारा 8 में शामिल कंपनियाँ, निजी क्षेत्र की कंपनियाँ और व्यक्तिगत उद्यमी शामिल होंगे।
  • उल्लेखनीय है कि पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) से संबंधित प्रावधान देश भर के सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में लागू होंगे।

उद्देश्य 

  • पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) का प्रमुख उद्देश्य दूध और माँस प्रसंस्करण की क्षमता और उत्पाद विविधीकरण को बढ़ावा देना है, ताकि भारत के ग्रामीण एवं असंगठित दुग्ध और माँस उत्पादकों को संगठित दुग्ध और माँस बाज़ार तक अधिक पहुँच प्रदान की जा सके।
  • उत्पादकों को उनके उत्पाद की सही कीमत प्राप्त करने में मदद करना।
  • स्थानीय उपभोक्ताओं को गुणवत्तापूर्ण दुग्ध और माँस उपलब्ध कराना।
  • देश की बढ़ती आबादी के लिये प्रोटीन युक्त समृद्ध खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करना और बच्चों में कुपोषण की बढ़ती समस्या को रोकना।
  • देश भर में उद्यमिता को प्रोत्साहित करना और संबंधित क्षेत्र में रोज़गार सृजित करना।
  • दुग्ध और माँस उत्पादों के निर्यात को प्रोत्साहित करना।

कोष के कार्यान्वयन संबंधी दिशा-निर्देश

  • पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) के तहत सभी पात्र परियोजनाएँ अनुमानित परियोजना लागत का अधिकतम 90 प्रतिशत तक ऋण के रूप में अनुसूचित बैंकों से प्राप्त करने में सक्षम होंगी, जबकि सूक्ष्म एवं लघु इकाई की स्थिति में पात्र लाभार्थियों का योगदान 10 प्रतिशत, मध्यम उद्यम इकाई की स्थिति में 15 प्रतिशत और अन्य श्रेणियों में यह 25 प्रतिशत हो सकता है।
  • पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) के तहत 15000 करोड़ रुपए की संपूर्ण राशि बैंकों द्वारा 3 वर्ष की अवधि में वितरित की जाएगी।
  • पशुपालन अवसंरचना विकास कोष (AHIDF) के तहत मूल ऋण राशि के लिये 2 वर्ष की ऋण स्थगन (Moratorium) अवधि और उसके पश्चात् 6 वर्ष के लिये पुनर्भुगतान अवधि प्रदान की जाएगी, इस प्रकार कुल पुनर्भुगतान अवधि 8 वर्ष की होगी, जिसमें 2 वर्ष की ऋण स्थगन (Moratorium) अवधि भी शामिल है।
  • संबंधित दिशा-निर्देशों के अनुसार, अनुसूचित बैंक यह सुनिश्चित करेंगे कि ऋण के वितरण के पश्चात् पुनर्भुगतान अवधि 10 वर्ष से अधिक न हो, जिसमें ऋण स्थगन (Moratorium) अवधि भी शामिल है।
  • इसके अलावा भारत सरकार द्वारा नाबार्ड (NABARD) के माध्यम से प्रबंधित 750 करोड़ रुपए के ऋण गारंटी कोष की भी स्थापना की जाएगी। 
    • इसके तहत उन स्वीकृत परियोजनाओं को ऋण गारंटी प्रदान की जाएगी जो MSMEs की परिभाषित सीमा के अंतर्गत आती हैं। 
    • ऋण गारंटी की सीमा उधारकर्त्ता द्वारा लिये गए ऋण के अधिकतम 25 प्रतिशत तक होगी। 

पशुपालन अवसंरचना विकास कोष का महत्त्व

  • आँकड़ों के अनुसार, भारत द्वारा वर्तमान में, 188 मिलियन टन दुग्ध उत्पादन किया जा रहा है और वर्ष 2024 तक दुग्ध उत्पादन बढ़कर 330 मिलियन टन तक होने की संभावना है। 
  • वर्तमान में केवल 20-25 प्रतिशत दूध ही प्रसंस्करण क्षेत्र के अंतर्गत आता है, हालाँकि सरकार ने इसे 40 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
  • इस कोष के माध्यम से बुनियादी ढाँचा तैयार होने के पश्चात् लाखों किसानों को इससे फायदा पहुँचेगा और दूध का प्रसंस्करण भी अधिक होगा। 
    • इससे डेयरी उत्पादों के निर्यात को भी बढ़ावा मिलेगा जो कि वर्तमान समय में नगण्य है। गौरतलब है कि डेयरी क्षेत्र में भारत को न्यूज़ीलैंड जैसे देशों के मानकों तक पहुँचने की आवश्यकता है।
  • चूँकि, भारत में डेयरी उत्पादन का लगभग 50-60 प्रतिशत अंतिम मूल्य प्रत्यक्ष रूप से किसानों को वापस मिल जाता है, इसलिये इस क्षेत्र में होने वाले विकास से किसान की आय पर प्रत्यक्ष रूप से महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है।
  • ध्यातव्य है कि भारत में प्रौद्योगिकी हस्तक्षेपों के माध्यम से पशुओं की नस्ल सुधार का कार्य तेज़ी से किया जा रहा है, आँकड़ों के अनुसार सरकार द्वारा 53.5 करोड़ पशुओं के टीकाकरण का निर्णय लिया गया है, वहीं 4 करोड़ पशुओं का टीकाकरण किया जा चुका है।
    • हालाँकि अभी भी भारत प्रसंस्करण के क्षेत्र में काफी पीछे है, इस कोष के माध्यम से विभिन्न प्रसंस्करण संयंत्र भी स्थापित किये जाएंगे।
  • इस कोष के माध्यम से भारत के किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य में मदद मिलेगी और यह 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के सपने को साकार करने की दिशा में भी एक महत्त्वपूर्ण कदम होगा।
  • अनुमान के अनुसार, सरकार द्वारा गठित इस कोष और इसके तहत स्वीकृति उपायों के माध्यम से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से 35 लाखों लोगों के लिये आजीविका का निर्माण होगा।

स्रोत: पी.आई.बी.


Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 17 जुलाई, 2020

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का 92वाँ स्थापना दिवस

16 जुलाई, 2020 को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research-ICAR) ने अपना 92वाँ स्थापना दिवस मनाया, इस अवसर पर केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कृषि वैज्ञानिकों की सराहना की, जिनकी बदौलत ICAR ने बीते 9 दशकों के दौरान देश में कृषि के विकास में उल्लेखनीय योगदान दिया है। गौरतलब है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा विभाग (कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री) के तहत एक स्वायत्तशासी संस्था है, जिसकी स्थापना 16 जुलाई, 1929 में रॉयल कमीशन की कृषि पर रिपोर्ट का अनुसरण करते हुए की गई थी। स्थापना के समय इस संस्था का नाम इंपीरियल काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (Imperial Council of Agricultural Research) था, जिसे बाद में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। यह परिषद देश भर में बागवानी, मत्स्य पालन एवं पशु विज्ञान समेत कृषि में अनुसंधान एवं शिक्षा के समन्वय, मार्गदर्शन और प्रबंधन हेतु एक सर्वोच्च निकाय के रूप में कार्य करता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है। देश भर के 102 ICAR संस्थान व राज्यों के 71 कृषि विश्वविद्यालयों के साथ यह संस्थान विश्व में सबसे बड़ी राष्ट्रीय कृषि प्रणालियों में से एक है। ICAR ने हरित क्रांति को बढ़ावा देने और इस क्रम में शोध एवं तकनीक विकास के माध्यम से भारत में कृषि के विकास में अहम भूमिका निभाई है। राष्ट्र की खाद्य और पोषण सुरक्षा पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे देता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने कृषि में गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन देने में प्रमुख भूमिका अदा की है। ध्यातव्य है कि भारतीय कृषि एवं अनुसंधान परिषद (ICAR) प्रत्येक वर्ष संस्थानों, वैज्ञानिकों, शिक्षकों और कृषि पत्रकारों को मान्यता और पुरस्कार भी प्रदान करता है।

बिहार विधानसभा चुनाव में डाक मतपत्र

हाल ही में चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि बिहार विधानसभा चुनाव में 65 वर्ष से अधिक आयु के मतदाताओं के लिये पोस्टल बैलेट की सुविधा लागू नहीं की जाएगी। चुनाव आयोग ने बिहार में होने वाले आम चुनावों और निकट भविष्य में होने वाले उप-चुनावों में 65 वर्ष से अधिक आयु के मतदाताओं के लिये डाक मतपत्र (Postal Ballot) की सुविधा बढ़ाने के लिये अधिसूचना को जारी नहीं करने का निर्णय लिया है। हालाँकि, 80 वर्ष से अधिक आयु के मतदाताओं, दिव्यांग मतदाताओं, आवश्यक सेवाओं में लगे हुए मतदाताओं और COVID-19 से संक्रमित मतदाताओं, क्वारंटाइन (घर/संस्थागत) मतदाताओं को वैकल्पिक डाक मतपत्र की सुविधा प्रदान की जाएगी। गौरतलब है कि इससे पूर्व मौजूदा COVID-19 की असाधारण स्थिति को ध्यान में रखते हुए, चुनाव आयोग ने मतदान केंद्रों पर 65 वर्ष से ज्यादा उम्र के मतदाताओं की संवेदनशीलता और उपस्थिति को कम करने और COVID-19 से संक्रमित मतदाताओं और क्वारंटाइन के अंतर्गत आने वाले मतदाताओं के लिये वैकल्पिक डाक मतपत्र की सुविधाओं का विस्तार करने की सिफारिश की थी, ताकि वे अपने मताधिकार से वंचित न हो सकें। हालाँकि अब आयोग ने संसाधनों की कमी के मद्देनज़र बिहार में 65 और उससे अधिक आयु के लोगों को डाक मतपत्र की सुविधा उपलब्ध कराने से संबंधित अधिसूचना जारी न करने का निर्णय लिया है। ध्यातव्य है कि बिहार में चुनाव आयोग ने प्रत्येक मतदान केंद्र पर मतदाताओं की संख्या को 1000 तक सीमित करने का निर्णय लिया है। इस निर्णय के पश्चात् राज्य द्वारा लगभग 34,000 अतिरिक्त मतदान केंद्रों (45 प्रतिशत से अधिक) का निर्माण किया जा रहा है, जिससे मतदान केंद्रों की कुल संख्या बढ़कर लगभग 1,06,000 हो जाएगी। इससे बिहार में अधिक संख्या में वाहनों की आवश्यकता के साथ-साथ 1.8 लाख अधिक मतदानकर्मियों और अन्य अतिरिक्त संसाधनों को जुटाने की गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न हो गई हैं। 

अत्याधुनिक फुटवियर प्रशिक्षण केंद्र 

खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) ने चमड़ा कारीगरों को प्रशिक्षित करने के लिये दिल्ली में अपनी तरह के पहले फुटवियर प्रशिक्षण केंद्र (Footwear Training Center) का आज उद्घाटन किया है। दिल्ली स्थित इस फुटवियर प्रशिक्षण केंद्र में उच्च गुणवत्ता वाले फुटवियर बनाने के लिये चमड़ा कारीगरों को 2 माह का एक व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम मुहैया कराएगा। गौरतलब है कि यह प्रशिक्षण केंद्र प्रशिक्षित कारीगरों को सफलतापूर्वक दो माह की ट्रेनिंग पूरी करने के पश्चात् अपना स्वयं का जूता बनाने का व्यवसाय शुरू करने में भी मदद करेगा। प्रशिक्षण के दौरान कारीगरों को भविष्य में अपने कार्य को पूरा करने के लिये 5000 रुपए की एक टूल किट भी प्रदान की जाएगा। खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) के अध्यक्ष वी.के. सक्सेना ने केंद्र का उद्घाटन करते हुए चमड़े के कारीगरों को ‘चर्म चिकित्सक’ अर्थात् चमड़े के डॉक्टर के रूप में संबोधित किया। ध्यातव्य है कि अब फुटवियर, फैशन का एक अभिन्न अंग बन गया है और जूता बनाना अब एक सिर्फ एक कार्य नहीं रह गया है।

‘कोरोश्योर’ (Corosure)

हाल ही में केंद्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान- दिल्ली (IIT-D) द्वारा विकसित कम लागत वाली COVID-19 परीक्षण किट लॉन्च की है। शोधकर्त्ताओं द्वारा किये गए दावे के अनुसार, ‘कोरोश्योर’ (Corosure) नाम की यह COVID-19 परीक्षण किट विश्व की सबसे सस्ती कोरोना डायग्नोस्टिक किट है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान- दिल्ली (IIT-D) द्वारा विकसित इस परीक्षण किट का बेस प्राइस 399 रुपए है, जबकि अन्य लागतों को जोड़ने पर भी इसकी कीमत 650 रुपए से अधिक नहीं होगी। इस आधार पर यह किट बाज़ार में मौजूद सभी किटों की अपेक्षा सबसे सस्ती है। IIT-दिल्ली की यह COVID-19 परीक्षण किट मात्र 3 घंटे के अंदर परिणाम देने में सक्षम है। यह परीक्षण किट देश भर की सभी अधिकृत टेस्टिंग लैब्स में प्रयोग के लिये उपलब्ध होगी, उल्लेखनीय है कि इस किट को पूरी तरह से भारत में बनाया गया है। देश भर में कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी का प्रकोप तेज़ी से बढ़ता जा रहा है, ऐसे में वायरस के प्रसार को नियंत्रित करने के लिये सस्ते और विश्वसनीय परीक्षण की काफी अधिक आवश्यकता है।