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डेली न्यूज़

  • 14 Sep, 2023
  • 45 min read
इन्फोग्राफिक्स

वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपात (ICOR)

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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण

प्रिलिम्स के लिये:

आनुवंशिक रूप से संशोधित मच्छर, जेनेटिक इंजीनियरिंग, मलेरिया, डेंगू, ज़ीका वायरस, पीत ज्वर, वोल्बाचिया, जीनोम अनुक्रमण, डीएनए, OX5034 मच्छर

मेन्स के लिये:

मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण में जेनेटिक इंजीनियरिंग के लाभ और जोखिम

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

विश्व भर में तेज़ी से हो रहे शहरीकरण के कारण विशेष रूप से भारत जैसे कई बड़े और आर्थिक रूप से विकासशील देशों में मच्छर जनित बीमारियों में वार्षिक स्तर पर वृद्धि देखी गई है।

  • जेनेटिक इंजीनियरिंग (इसमें मच्छरों के लक्षण अथवा व्यवहार में परिवर्तन करना शामिल है) मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण के उभरते नवीन तरीकों में से एक है।

मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करने हेतु नवीन विधियों के उपयोग की आवश्यकता:

  • परिचय
    • मच्छर कुलिसिडे (Culicidae) समूह से संबंधित छोटे, उड़ने वाले कीट हैं। विशिष्ट गुंजन (Buzzing) ध्वनि उनकी सबसे विशेष पहचान है, मनुष्यों और पशुओं में बीमारियाँ फैलाने में इनकी प्रमुख भूमिका होती है।
      • ये मलेरिया, डेंगू, ज़ीका और पीत ज्वर जैसी घातक बीमारियाँ फैला सकते हैं, जिससे  प्रत्येक वर्ष लाखों लोग संक्रमित होते हैं।
  • मच्छर जनित बीमारियों की व्यापकता: 
    • शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन: वैश्विक आबादी का तेज़ी से शहरीकरण, विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील देशों में डेंगू जैसी मच्छर जनित बीमारियों के संक्रमण के विस्तार में वार्षिक स्तर पर काफी वृद्धि हुई है।
      • फ्राँस में स्थानिक डेंगू संक्रमण इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार जलवायु परिवर्तन ने उन भौगोलिक क्षेत्रों का विस्तार किया है जहाँ ये बीमारियाँ व्यापक हैं।
    • वर्तमान नियंत्रण उपाय: मच्छरों की आबादी को नियंत्रित करने के मौजूदा प्रयासों में कई प्रकार के उपकरणों का उपयोग किया जाता है, जिसमें मच्छरदानी, कीटनाशक छिड़काव और वोल्बाचिया जैसे सहजीवियों (Symbionts) का उपयोग शामिल है।
      • पहली पीढ़ी के मलेरिया टीके की उपलब्धता के बावजूद मच्छरों में बढ़ती कीटनाशक प्रतिरोधक क्षमता चिंता का विषय है, ऐसे में उनकी आबादी पर नियंत्रण हेतु नवीन उपायों की खोज करना आवश्यक है।

मच्छर नियंत्रण के लिये जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग: 

  • जीनोम अनुक्रमण: अगली पीढ़ी की अनुक्रमण तकनीकों में हालिया प्रगति ने शोधकर्ताओं को विभिन्न मच्छर प्रजातियों के लिये संपूर्ण जीनोम अनुक्रम प्राप्त करने में मदद की है।
    • विशेष रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय और भारत में बंगलूरू स्थित अनुसंधान संस्थानों ने एक प्रमुख मलेरिया वेक्टर एनोफिलीज़ स्टीफेंसी के लिये उच्च गुणवत्ता वाले संदर्भ जीनोम में योगदान दिया है।
    • मच्छर जीनोम अनुक्रमों की उपलब्धता और आनुवंशिक रूप से उनमें हेर-फेर करने की हमारी क्षमता मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण के अभूतपूर्व अवसर प्रदान करती है।
  • जीन ड्राइव तकनीक: वर्ष 2003 में ऑस्टिन बर्ट (इंपीरियल कॉलेज लंदन में प्रोफेसर) द्वारा विकसित जीन-ड्राइव तकनीक का उद्देश्य मेंडल द्वारा प्रतिपादित सामान्य आनुवंशिक नियमों के विपरीत कुछ जीन के तरीके को परिवर्तित कर मच्छरों की आबादी पर नियंत्रण पाना है।
    • यह तकनीक विशिष्ट प्रोटीन का उपयोग करके मच्छरों के DNA में बदलाव करती है, फिर कोशिकाएँ इसमें एक विशेष आनुवंशिक अनुक्रम जोड़कर इन प्रोटीनों के कारण होने वाली DNA क्षति को ठीक करती है।
    • यह परिवर्तन मच्छरों की प्रजनन क्षमता को प्रभावित करता है और मलेरिया परजीवी को बढ़ने से रोकता है, जिससे मच्छर बीमारी फैलाने में असमर्थ हो जाते हैं।
    • इंपीरियल कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने आनुवंशिक रूप से रोगाणुरोधी पदार्थों को स्रावित करने के लिये मच्छरों में एक जीन को बढ़ाया, जिससे प्लाज़्मोडियम परजीवी के विकास में बाधा उत्पन्न हुई और मच्छरों का जीवनकाल कम हो गया।
  • OX5034 मच्छर: अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी ने वर्ष 2020 में फ्लोरिडा और टेक्सास में आनुवंशिक रूप से संशोधित OX5034 मच्छरों को पर्यावरण में छोड़ने का फैसला किया
    • यह मच्छर एक एंटीबायोटिक, टेट्रासाइक्लिन के प्रति संवेदनशील जीन के साथ विकसित हुआ है। 
    • इसमें एक स्व-सीमित जीन होता है जो मादा संततियों को जीवित रहने से रोकता है, जिससे मच्छरों की संख्या में कमी आती है।

मच्छर नियंत्रण में जेनेटिक इंजीनियरिंग के लाभ और जोखिम:

  • मच्छर नियंत्रण में जेनेटिक इंजीनियरिंग के लाभ:
    • लक्षित मच्छर नियंत्रण: जेनेटिक इंजीनियरिंग रोग फैलाने वाली प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए मच्छरों की आबादी में सटीक संशोधन में सहायता करेगी।
      • यह लक्षित दृष्टिकोण कीटनाशकों के व्यापक उपयोग की आवश्यकता को कम करता है तथा गैर-लक्षित जीवों को होने वाले नुकसान को रोकता है।
    • पर्यावरणीय प्रभाव में कमी: पारंपरिक कीटनाशकों की तुलना में जेनेटिक इंजीनियरिंग का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है क्योंकि इसमें पारिस्थितिक तंत्र का रासायनिक प्रदूषण नहीं होता है।
      • इससे अन्य लाभकारी कीट और जलीय जीवन की रक्षा करने में मदद मिल सकती है।
    • संधारणीयता: आनुवंशिक रूप से संशोधित मच्छरों को पर्यावरण में छोड़ने के बाद इनमें संशोधित जीन के गुण बने रहते हैं, जो बार-बार पुन: उपयोग की आवश्यकता के बिना मच्छर नियंत्रण की एक सतत् और स्व-स्थायी विधि प्रदान करता है।
    • सार्वजनिक स्वास्थ्य: मच्छर जनित बीमारियों को कम करके जेनेटिक इंजीनियरिंग सार्वजनिक स्वास्थ्य पर महत्त्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव डाल सकती है जो संभावित रूप से कई लोगों की जान बचा सकती है और इन बीमारियों के इलाज से जुड़ी स्वास्थ्य देखभाल लागत को भी कम कर सकती है।
  • मच्छर नियंत्रण में जेनेटिक इंजीनियरिंग के जोखिम और चिंताएँ:
    • अनपेक्षित परिणाम: आनुवंशिक संशोधनों का पारिस्थितिक तंत्र पर अप्रत्याशित परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। 
      • मच्छरों की संख्या में हुए इस परिवर्तन से खाद्य शृंखलाएँ बाधित हो सकती हैं या पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जिसका अनपेक्षित प्रभाव अन्य प्रजातियों पर पड़ सकता है।
    • नैतिक चिंताएँ: आलोचकों ने जीवों के जीन में हेर-फेर करने को लेकर नैतिक आपत्ति जताई है, विशेषकर जब इसमें अनियंत्रित आबादी के आनुवंशिकी में बदलाव शामिल हो। इससे पारिस्थितिक ज़िम्मेदारी पर सवाल उठाए जा सकते हैं।
    • आक्रमण का जोखिम: आनुवंशिक रूप से संशोधित मच्छर अनजाने में ऐसे लक्षण प्राप्त कर सकते हैं जो नए आवासों पर अतिक्रमण करने की उनकी क्षमता को बढ़ा सकते हैं, जिससे संभावित रूप से उनकी प्राकृतिक सीमा के बाहर के क्षेत्रों में अप्रत्याशित पारिस्थितिक व्यवधान उत्पन्न हो सकते हैं।

निष्कर्ष:

जेनेटिक इंजीनियरिंग में बीमारी की रोकथाम के लिये मच्छर नियंत्रण में क्रांति लाने की क्षमता है। हालाँकि इसके लिये ज़रूरी है कि हम दृढ़ता के साथ अनुसंधान और अनुकूलनीय विनियमन के माध्यम से पर्यावरण एवं नैतिकता से जुड़े जोखिमों का समाधान करना जारी रखें।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2017)

  1. उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ज़ीका वायरस रोग उसी मच्छर द्वारा फैलता है जो डेंगू का प्रसार करता है।
  2. ज़ीका वायरस रोग यौन संचरण द्वारा संभव है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


प्रश्न. ‘वोलबैचिया पद्धति’ का कभी-कभी निम्नलिखित में से किस एक के संदर्भ में उल्लेख होता है? (2023)

(a) मच्छरों से होने वाले विषाणु रोगों के प्रसार को नियंत्रित करना।
(b) शेष शस्य (क्रॉप रेज़िड्यु) से संवेष्टन सामग्री (पैकिंग मटीरियल) बनाना।
(c) जैव निम्नीकरणीय प्लास्टिकों का उत्पादन करना।
(d) जैव मात्र के ऊष्मरासायनिक रूपांतरण से बायोचार का उत्पादन करना। 

उत्तर: (a)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में कपास उत्पादन

प्रिलिम्स के लिये:

कपास, बैसिलस थुरिंजिएन्सिस तकनीक, पिंक बॉलवर्म, आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलें, PBKnot, SPLAT-PBW

मेन्स के लिये:

भारत के लिये कपास का महत्त्व, भारत में कपास उत्पादन में लगातार गिरावट के कारण

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

कपास एक बहुउद्देश्यीय फसल है जिसका उपयोग भोजन, चारा और फाइबर प्रदान करने के अतिरिक्त वस्त्र बनाने, खाद्य तेल आदि के लिये किया जा सकता है। यह भारत के लाखों किसानों के लिये आय और रोज़गार का एक प्रमुख स्रोत भी है।

  • हालाँकि हालिया वर्षों में कपास उत्पादनपैदावार में काफी गिरावट आई है, जिससे देश के कृषि तथा वस्त्र उद्योग के लिये चुनौती उत्पन्न हो गई है।

भारत के लिये कपास का महत्त्व: 

  • परिचय
    • कपास भारत में खेती की जाने वाली सबसे प्रमुख व्यावसायिक फसलों में से एक है और यह कुल वैश्विक कपास उत्पादन का लगभग 25% है।
      • भारत में इसके आर्थिक महत्त्व को देखते हुए इसे "व्हाइट-गोल्ड" भी कहा जाता है।
    • भारत में लगभग 67% कपास वर्षा आधारित क्षेत्रों में और 33% सिंचित क्षेत्रों में उगाया जाता है।
  • खेती के लिये आवश्यक स्थितियाँ: 
    • कपास की खेती के लिये पालामुक्त दीर्घ अवधि और ऊष्म व धूप वाली जलवायु की आवश्यकता होती है। गर्म तथा आर्द्र जलवायवीय परिस्थितियों में इसकी उत्पादकता सबसे अधिक होती है।
    • कपास की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में सफलतापूर्वक की जा सकती है, जिसमें उत्तरी क्षेत्रों में अच्छी जल निकासी वाली गहरी जलोढ़ मृदा, मध्य क्षेत्र की काली मृदा तथा दक्षिणी क्षेत्र की मिश्रित काली व लाल मृदा शामिल है।
      • कपास में लवणता के प्रति कुछ सहनशीलता होती है, किंतु यह जलभराव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है, यह कपास की खेती में अच्छी जल निकासी वाली मृदा के महत्त्व को रेखांकित करता है।
  • खेती की जाने वाली कपास की प्रजातियाँ: 
    • भारत में कपास की सभी चार प्रजातियाँ; गॉसिपियम अर्बोरियम और हर्बेशियम (एशियाई कपास), जी.बारबाडेंस (मिस्र कपास) तथा जी. हिर्सुटम (अमेरिकी अपलैंड कपास) उगाई जाती हैं।
    • कपास का अधिकांश उत्पादन दस प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों में किया जाता है, जिन्हें निम्नानुसार तीन विविध कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है:
      • उत्तरी क्षेत्र: पंजाब, हरियाणा और राजस्थान
      • मध्य क्षेत्र: गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश
      • दक्षिणी क्षेत्र: तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु
  • कपास उत्पादन का महत्त्व: 
    • कपास, जिसकी तुलना अक्सर नारियल से की जाती है, तीन महत्त्वपूर्ण घटकों के स्रोत के रूप में कार्य करता है:
      • फाइबर: सफेद रोएँदार फाइबर अथवा लिंट, यह लगभग बिना बुने हुए कच्चे कपास का 36% होता है और वस्त्र उद्योग के लिये प्राथमिक स्रोत है। शेष बीज (62%) और अपशिष्ट (2%) होता है जो ओटाई (Ginning) के दौरान लिंट से अलग हो जाता है।
        • भारत के कुल कपड़ा फाइबर खपत में कपास की हिस्सेदारी दो-तिहाई है।
      • खाद्य पदार्थ: कपास के बीज में 13% तेल होता है, जिसका उपयोग आमतौर पर खाना पकाने और तलने के लिये किया जाता है।
        • सोयाबीन के बाद कॉटनसीड केक (कपास के बीज से बना खाद्य पदार्थ)/भोजन भारत का दूसरा सबसे बड़ा चारा है।
      • चारा: बचा हुआ बिनौला खली, जिसमें 85% बीज होता है, पशुधन व मुर्गीपालन के लिये एक महत्त्वपूर्ण एवं प्रोटीनयुक्त चारा सामग्री है।
        • सरसों और सोयाबीन के बाद बिनौला तेल देश का तीसरा सबसे बड़ा घरेलू स्तर पर उत्पादित वनस्पति तेल है।

भारत में कपास उत्पादन में त्वरित वृद्धि और गिरावट का कारण:

  • वृद्धि: 
    • भारत में वर्ष 2000-01 और 2013-14 के बीच कपास उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जिसका मुख्य श्रेय BT (बैसिलस थुरिंजिएन्सिस) तकनीक को जाता है। इन प्रमुख विकासों में शामिल हैं:
      • BT जीन वाले आनुवंशिक रूप से संशोधित कपास हाइब्रिड को अपनाया जाना, जिसे अमेरिकी बॉलवर्म कीट से निपटने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
      • इससे लिंट की पैदावार वर्ष 2000-01 में 278 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से बढ़कर वर्ष 2013-14 में 566 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गई।
        • कपास के बीज से प्राप्त तेल और खली के उत्पादन में भी इसी प्रकार की वृद्धि हुई।
      • हालाँकि BT प्रौद्योगिकी के उपयोग से प्राप्त लाभ अल्पकालिक थे और वर्ष 2013-14 के बाद कपास उत्पादन एवं पैदावार में गिरावट आनी शुरू हो गई।

  • गिरावट: 
    • पिंक बॉलवर्म (पेक्टिनोफोरा गॉसिपिएला) कपास उत्पादन में आई गिरावट के लिये ज़िम्मेदार प्राथमिक कारक था।
      • पिंक बॉलवॉर्म का लार्वा कपास के बीजकोषों (Cotton Bolls) पर आक्रमण से कपास के पौधे कम कपास का उत्पादन करते हैं और उत्पादित कपास कम गुणवत्ता भी निम्न होती है।
    • पॉलीफैगस अमेरिकन बॉलवॉर्म के विपरीत पिंक बॉलवॉर्म मुख्य रूप से कपास का सेवन करता है। जिसने बीटी प्रोटीन के खिलाफ प्रतिरोध के विकास में योगदान दिया है।
    • BT हाइब्रिड की निरंतर खेती से पिंक बॉलवॉर्म की आबादी में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो गई, इसने अतिसंवेदनशील पॉलीफैगस अमेरिकन बॉलवॉर्म का स्थान ले लिया।
    • वर्ष 2014 में पाया गया कि गुजरात में रोपण के 60-70 दिन बाद कपास के फूलों पर पिंक बॉलवॉर्म लार्वा अधिक अवधि तक जीवित रहने लगे थे। वर्ष 2015 में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र में भी पिंक बॉलवॉर्म संक्रमण की सूचना मिली।
      • वर्ष 2021 में पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान में भी पहली बार इस कीट का अत्यधिक संक्रमण देखा गया।

नोट: मोनोफैगस/एकभक्षी से आशय एक ऐसे जीव से है जो मुख्य रूप से एक ही विशिष्ट प्रकार के भोजन अथवा होस्ट पर निर्भर करता है।

PBW कीट के प्रबंधन के लिये अपनाई गई वर्तमान विधियाँ: 

  • पारंपरिक कीटनाशकों ने PBW लार्वा को नियंत्रित करने में काफी सीमा तक सफलता हासिल की। इसके बजाय वर्तमान में "मेटिंग डिसरप्शन" नामक एक अलग विधि का उपयोग किया जाता है।
    • इसमें गॉसीप्लर (एक फेरोमोन सिग्नलिंग रसायन जो नर वयस्कों को आकर्षित करने के लिये मादा PBW पतंगों द्वारा स्रावित होता है) का उपयोग किया जाता है। इसमें फेरोमोन को कृत्रिम रूप से संश्लेषित किया जाता है।
    • यह विधि नर पतंगों को मादाओं की खोज करने और संभोग में संलग्न होने से रोकती है, जिससे उनके प्रजनन चक्र में व्यवधान उत्पन्न होता है।
  • संभोग व्यवधानों/मेटिंग डिसरप्शन के लिये दो अनुमोदित उत्पाद इस प्रकार हैं:
    • PBKnot, जो संक्रमण को कम करने और पैदावार बढ़ाने के लिये कपास के पौधों पर इन रसायनों वाले रस्सियों का उपयोग करता है।
    • SPLAT-PBW एक अनोखा तरल पदार्थ, PBW को सिंथेटिक यौगिकों के साथ मिलने से रोकता है।

भारत में कपास क्षेत्र से जुड़े अन्य मुद्दे: 

  • उपज में उतार-चढ़ाव: विभिन्न कारकों के कारण भारत में कपास का अप्रत्याशित उत्पादन हो सकता है।
    • सिंचाई प्रणालियों तक सीमित पहुँच, मृदा की उर्वरता में गिरावट व सूखे अथवा अत्यधिक वर्षा सहित अनियमित मौसम पैटर्न, कपास की पैदावार को लेकर अनिश्चितता उत्पन्न करते हैं।
  • लघु किसानों की अधिकता: भारत में अधिकांश कपास की खेती छोटे स्तर के किसानों द्वारा की जाती है।
    • ये किसान अक्सर ही पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर निर्भर होते हैं और आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकियों तक उनकी सीमित पहुँच होती है जो कपास के वृहत उत्पादन को प्रभावित करती है।
  • बाज़ार तक सीमित पहुँच: भारत में बड़ी संख्या में कपास उत्पादकों को बाज़ार तक पहुँचने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है और अंततः वे मध्यस्थों को कम दरों पर अपनी फसल बेचने के लिये मजबूर होते हैं।

आगे की राह 

  • एकीकृत कीट प्रबंधन: एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) रणनीतियों का समर्थन करने की आवश्यकता है जिसके तहत कीटों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करते हुए कीटनाशकों पर निर्भरता को कम करने के लिये प्राकृतिक नियंत्रण, जाल फसलों (ऐसी फसलें जो विशेष रूप से कीटों को फँसाने के लिये लगाई जाती है) के अलावा लाभकारी कीटों का संरक्षण किया जाता है।
  • समुदाय-आधारित बीज बैंक: पारंपरिक कपास बीज की किस्मों को संरक्षित और साझा करने, आनुवंशिक विविधता को संरक्षित करने तथा अधिक उपज देने वाली किस्मों को बढ़ावा देने के लिये सामुदायिक स्तर पर बीज बैंकों की स्थापना करना।
  • मार्केट लिंकेज प्लेटफॉर्म: डिजिटल प्लेटफॉर्म स्थापित करना जो कपास किसानों को खरीदारों और कपड़ा निर्माताओं से सीधे जोड़ता है, मध्यस्थ की भागीदारी को कम करता है तथा उचित मूल्य सुनिश्चित करता है।
  • स्थानीय प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्य संवर्द्धन: स्थानीय कपास प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना करके मूल्य संवर्द्धन को बढ़ावा देना, जो कपास फाइबर से बिनौले निकालना/रुई ओटना, रेशों को साफ और संसाधित कर सकती हैं, रोज़गार के अवसर सृजित कर सकती हैं तथा कपास आपूर्ति शृंखला को बढ़ावा देती हैं।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत की काली कपासी मृदा का निर्माण किसके अपक्षय के कारण हुआ है? 2021

(a) भूरी वन मृदा
(b) विदरी ज्वालामुखीय चट्टान
(c) ग्रेनाइट और शिस्ट
(d) शेल और चूना-पत्थर

उत्तर: (b)


प्रश्न. निम्नलिखित विशेषताएँ भारत के एक राज्य की विशिष्टताएँ हैंः (2011)

  1. उसका उत्तरी भाग शुष्क एवं अर्द्धशुष्क है।
  2. उसके मध्य भाग में कपास का उत्पादन होता है।
  3. उस राज्य में खाद्य फसलों की तुलना में नकदी फसलों की खेती अधिक होती है।

उपर्युक्त सभी विशिष्टताएँ निम्नलिखित में से किस एक राज्य में पाई जाती हैं?

(a) आंध्र प्रदेश
(b) गुजरात
(c) कर्नाटक
(d) तमिलनाडु

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. भारत में अत्यधिक विकेंद्रीकृत सूती वस्त्र उद्योग के कारकों का विश्लेषण कीजिये।


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत-सऊदी अरब सामरिक साझेदारी का सुदृढ़ीकरण

प्रिलिम्स के लिये:

वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी प्रोजेक्ट, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा, भारत-सऊदी सामरिक साझेदारी परिषद (SPC)

मेन्स के लिये:

भारत-सऊदी अरब संबंध, भारत के आर्थिक और सामरिक हितों के संदर्भ में भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे का महत्त्व

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारे के शुभारंभ के बाद भारत के प्रधानमंत्री ने राजकीय यात्रा पर आए सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस का स्वागत किया।

  • इस महत्त्वपूर्ण यात्रा के दौरान दोनों देशों ने अपनी सामरिक साझेदारी के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की और वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी परियोजना में तेज़ी लाने के लिये एक संयुक्त कार्य बल स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की।

यात्रा के परिणाम और समझौते:

  • सामरिक साझेदारी की स्वीकृति:
    • प्रधानमंत्री ने "भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण सामरिक साझेदारों में से एक" के रूप में सऊदी अरब की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला।
    • दोनों नेताओं ने आपसी साझेदारी, विशेष रूप से दोनों राष्ट्रों के तेज़ी से विकास के लिये क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने पर बल दिया।
  • भारत-सऊदी सामरिक साझेदारी परिषद (SPC):
    • भारत के प्रधानमंत्री और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस ने भारत-सऊदी सामरिक साझेदारी परिषद (SPC) की उद्घाटन बैठक की सह-अध्यक्षता की।
    • इस बैठक में रक्षा, ऊर्जा, सुरक्षा, शिक्षा, प्रौद्योगिकी, परिवहन, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यटन, संस्कृति, अंतरिक्ष और अर्द्धचालक सहित कई क्षेत्रों पर चर्चा हुई।
    • यह भारत और सऊदी अरब के बीच आर्थिक सहयोग की व्यापक प्रकृति को दर्शाता है।
  • वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी परियोजना में तेज़ी:
    • ARAMCO (सऊदी अरब की तेल कंपनी), ADNOC (संयुक्त अरब अमीरात की तेल कंपनी) और भारतीय कंपनियों को शामिल करने वाली इस त्रिपक्षीय परियोजना में 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश प्राप्त होने के संभावना है।
    • वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी परियोजना में तेज़ी लाने के लिये एक संयुक्त टास्क फोर्स की स्थापना की गई।
    • यह टास्क फोर्स इस परियोजना के लिये सऊदी अरब से किये गए 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के वादे को पूरा करने पर कार्य करेगी।
    • वेस्ट कोस्ट रिफाइनरी परियोजना भारत की पहली और सबसे बड़ी ग्रीनफील्ड रिफाइनरी है।
      • महाराष्ट्र के रत्नागिरि स्थित इस परियोजना की उत्पादन क्षमता 60 मिलियन टन प्रतिवर्ष होने की उम्मीद है। योजना पूरी होने पर यह विश्व की सबसे बड़ी रिफाइनरियों में से एक होगी।
      • इस परियोजना में समुद्री भंडारण और बंदरगाह बुनियादी ढाँचे, कच्चे तेल टर्मिनल, भंडारण एवं सम्मिश्रण संयंत्र, अलवणीकरण संयंत्र आदि सहित विभिन्न महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ शामिल हैं।
  • द्विपक्षीय समझौते और सहयोग:
    • यात्रा के दौरान विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को मज़बूत करने के लिये आठ समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए।
      • उल्लेखनीय समझौतों में भारत के केंद्रीय सतर्कता आयोग और सऊदी निरीक्षण एवं भ्रष्टाचार विरोधी प्राधिकरण के बीच सहयोग के साथ-साथ प्रौद्योगिकी, शिक्षा तथा कृषि में सहयोग शामिल है।
    • भारत के राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान और सऊदी अरब के खारा जल रूपांतरण निगम के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए।
  • कच्चे तेल की आपूर्ति का आश्वासन:
    • सऊदी अरब ने ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए भारत को "विश्वसनीय भागीदार और कच्चे तेल की आपूर्ति का निर्यातक" होने की अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की।
  • रक्षा और आतंकवाद के खिलाफ सहयोग:
    • दोनों देशों ने रक्षा और आतंकवाद विरोधी प्रयासों में सहयोग बढ़ाने का वादा किया।
      • आतंकवादी गतिविधियों के लिये "मिसाइलों और ड्रोन" तक पहुँच को रोकने पर विशेष ज़ोर दिया गया।

सऊदी अरब में चल रहे सुधारों के अनुरूप द्विपक्षीय संबंधों के लिये पर्यटन क्षेत्र को मज़बूत करने हेतु योजनाओं पर चर्चा की गई।

भू-राजनीतिक महत्त्व:

यह यात्रा भू-राजनीतिक महत्त्व रखती है क्योंकि यह यात्रा सऊदी अरब द्वारा चीन के सहयोग से ईरान के साथ शत्रुता समाप्त करने के बाद हुई।

ब्रिक्स (BRICS) (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में सऊदी अरब की हालिया सदस्यता उसकी वैश्विक भागीदारी को रेखांकित करती है। 

भारत-सऊदी सामरिक साझेदारी परिषद (Strategic Partnership Council-SPC):

  • परिचय:
    • SPC भारत और सऊदी अरब के बीच द्विपक्षीय संबंधों का मार्गदर्शन और उन्हें बढ़ावा देने के लिये वर्ष 2019 में स्थापित एक उच्च स्तरीय तंत्र है।
    • इसमें दो उप-समितियाँ शामिल हैं, जो सहयोग के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करती हैं:
      • राजनीतिक, सुरक्षा, सामाजिक और सांस्कृतिक सहयोग समिति।
      • अर्थव्यवस्था और निवेश पर समिति।
    • ब्रिटेन, फ्राँस और चीन के बाद भारत चौथा देश है जिसके साथ सऊदी अरब ने ऐसी सामरिक साझेदारी की है।
  • संचालन:
    • SPC चार कार्यात्मक स्तरों पर कार्य करती है:
      • शिखर सम्मेलन स्तर, जिसमें प्रधानमंत्री और क्राउन प्रिंस शामिल हैं।
      • मंत्री-स्तरीय व्यस्तताएँ।
      • वरिष्ठ अधिकारियों की बैठकें।
      • विस्तृत चर्चाओं और कार्य योजनाओं को सुविधाजनक बनाने हेतु संयुक्त कार्य समूह (JWG)।
  • महत्त्वपूर्ण कार्य:
    • SPC विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा देने के लिये एक व्यापक मंच के रूप में कार्य करता है।
    • यह संयुक्त पहल को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिये विभिन्न स्तरों पर गहन चर्चा, नीति निर्माण और समन्वय की सुविधा प्रदान करता है।
    • प्रत्येक समिति के तहत JWG सहयोग के विशिष्ट क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे द्विपक्षीय संबंधों के लिये एक संरचित दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।

भारत और सऊदी अरब का संबंध:

  • तेल और गैस:
    • भारत अपनी कच्चे तेल की आवश्यकता का 18% से अधिक आयात करता है और अधिकांश LPG आयात सऊदी अरब से करता है।
    • सऊदी अरब वर्तमान में भारत में कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है (आपूर्ति के संदर्भ में इराक शीर्ष पर है)।
  • द्विपक्षीय व्यापार:
    • संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और संयुक्त अरब अमीरात के बाद सऊदी अरब भारत का चौथा सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है।
    • विभिन्न आयात और निर्यात के साथ वित्त वर्ष 2022 में दोनों देशों के बीच 29.28 बिलियन अमेरिकी डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ।
  • सांस्कृतिक संबंध:
    • हज यात्रा और इस यात्रा संबंधी प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण दोनों के बीच सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाता है।
    • वर्ष 2018 में आयोजित सऊदी राष्ट्रीय विरासत और संस्कृति महोत्सव में भारत ने 'सम्मानित अतिथि' के रूप में भाग लिया।
  • नौसेना अभ्यास:
  • सऊदी अरब में भारतीय समुदाय:
    • सऊदी अरब में 2.6 मिलियन भारतीय के साथ राज्य में सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय है और सऊदी अरब के विकास में इनका अहम योगदान है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन 'खाड़ी सहयोग परिषद (गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल)' का सदस्य नहीं है? (2016)

(a) ईरान
(b) सऊदी अरब
(c) ओमान
(d) कुवैत

उत्तर: (a)

व्याख्या:

  • खाड़ी सहयोग परिषद अरब प्रायद्वीप के 6 देशों- बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात का एक गठबंधन है। ईरान जीसीसी का सदस्य नहीं है।
  • इसकी स्थापना वर्ष 1981 में सदस्य देशों के बीच आर्थिक, सुरक्षा, सांस्कृतिक और सामाजिक सहयोग को बढ़ावा देने के लिये की गई थी। आपसी सहयोग व क्षेत्रीय मामलों पर चर्चा करने के लिये प्रत्येक वर्ष एक शिखर सम्मेलन का आयोजन किया जाता है।
  • अतः विकल्प (a) सही उत्तर है।

मेन्स:

प्रश्न. भारत की ऊर्जा सुरक्षा का प्रश्न भारत की आर्थिक प्रगति का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाग है। पश्चिम एशियाई देशों के साथ भारत के ऊर्जा नीति सहयोग का विश्लेषण कीजिये। (2017)


भारतीय विरासत और संस्कृति

TRIFED द्वारा G20 शिखर सम्मेलन में भारत की जनजातीय शिल्प कौशल का प्रदर्शन

प्रिलिम्स के लिये:

लोंगपी पॉटरी, गोंड पेंटिंग, मीनाकारी शिल्प, गुजरात हैंगिंग, अराकू वैली अरेबिका कॉफी, ट्राइफेड

मेन्स के लिये:

जनजातीय समुदायों को सशक्त बनाने में ट्राइफेड की भूमिका, जनजातीय समुदायों का सामाजिक-आर्थिक विकास

स्रोत: पी.आई.बी.

चर्चा में क्यों?

हाल ही में आयोजित 18वें G20 शिखर सम्मेलन में भारत की समृद्ध जनजातीय विरासत और शिल्प कौशल का उल्लेखनीय प्रदर्शन किया गया, जिसे ट्राइफेड (ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया), जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा चुना गया और प्रदर्शित किया गया था।

G20 शिखर सम्मेलन में TRIFED द्वारा प्रदर्शित कलाकृतियाँ और उत्पाद:

  • लोंगपी पॉटरी:
    • मणिपुर के लोंगपी गाँव की तांगखुल नगा जनजाति इस असाधारण मिट्टी के बर्तन/मृदभांड शैली का अभ्यास करती है।
    • लोंगपी मिट्टी के बर्तन दिखने में अलग होते हैं क्योंकि इनके निर्माण में कुम्हार के चाक का उपयोग नहीं किया जाता है; हर चीज़ हाथ से बनी होती है।
    • विशिष्ट ग्रे-ब्लैक कुकिंग पाॅट्स, स्टाउट केटल, विचित्र कटोरे आदि लोंगपी के ट्रेडमार्क उत्पाद हैं, लेकिन अब उत्पाद शृंखला का विस्तार करने के साथ-साथ मौजूदा मिट्टी के बर्तनों को सुशोभित करने के लिये नए डिज़ाइन भी शामिल किये जा रहे हैं।

  • छत्तीसगढ़ की पवन बाँसुरी:
    • छत्तीसगढ़ में बस्तर की गोंड जनजाति द्वारा तैयार की गई 'सुलूर' बाँस की पवन बाँसुरी एक अनूठी संगीतीय वाद्य यंत्र है।
      • पारंपरिक बाँसुरी के विपरीत इसमें एक-हाथ के घुमाव के माध्यम से धुन पैदा की जाती है। इसके शिल्प कौशल में मछली के प्रतीकों, ज्यामितीय रेखाओं और त्रिकोणों के साथ सावधानीपूर्वक बाँस चयन, होल ड्रिलिंग व सतह पर नक्काशी शामिल है।
    • संगीत से परे 'सुलूर' विभिन्न उपयोगितावादी उद्देश्यों को पूरा करता है, जनजातीय पुरुष इसका इस्तेमाल पशुओं को भगाने अथवा दूर करने और जंगलों में मवेशियों का रास्ता दिखाने में मदद के लिये करते हैं।
    • यह कलात्मकता और कार्यक्षमता का एक सामंजस्यपूर्ण संगम है, जो गोंड जनजाति के विशिष्ट शिल्प कौशल को प्रदर्शित करता है।

  • गोंड पेंटिंग्स:
    • गोंड पेंटिंग्स प्रकृति तथा परंपरा से उनके गहरे संबंध को दर्शाती हैं।
    • वे डॉट्स से शुरू करते हैं, इमेज वॉल्यूम की गणना करते हैं, जिसे वे जीवंत रंगों से भरे बाहरी आकार बनाने के लिये जोड़ते हैं।
    • ये कलाकृतियाँ उनके सामाजिक परिवेश से गहराई से जुड़ी हैं तथा जनजाति की कलात्मक प्रतिभा के प्रमाण के रूप में स्वयं को व्यक्त करती हैं।

  • गुजरात हैंगिंग्स:
    • गुजरात के दाहोद में भील और पटेलिया जनजाति द्वारा तैयार गुजराती वॉल हैंगिंग्स, जिसे दीवार के आकर्षण के लिये बहुत पसंद किया जाता है, एक प्राचीन गुजरात कला रूप से आई है।
    • इन हैगिंग्स में शुरू में गुड़िया और सूती कपड़े तथा रिसाइकल्ड मैटेरियल से निर्मित पालना जैसा घोंसला बनाना वाले पक्षी होते थे।
      • हैंगिंग में अब दर्पण का काम, ज़री, पत्थर और मोती शामिल हैं, जो परंपरा को संरक्षित करते हुए समकालीन फैशन के अनुरूप विकसित किये गए हैं।

  • भेड़ ऊन के स्टोल:
    • इसे हिमाचल प्रदेश/जम्मू-कश्मीर के बोध, भूटिया और गुज्जर बकरवाल जनजातियों द्वारा तैयार किया गया।
      • वे जैकेट, शॉल तथा स्टोल सहित विभिन्न वस्त्र बनाने के लिये भेड़ के ऊन का उपयोग करते हैं।
      • मूल रूप से सफेद, काले और भूरे रंग की मोनोक्रोमैटिक योजनाओं की विशेषता, जनजातीय शिल्प कौशल की दुनिया एक बदलाव ला रही है।

  • राजस्थान कलात्मकता का प्रदर्शन:
    • मोज़ेक लैंप:
      • यह मोज़ेक कला शैली को दर्शाता करता है, जिसे सावधानीपूर्वक लैंप शेड्स और कैंडल होल्डर में तैयार किया जाता है। जब इसे रोशन किया जाता है, तो यह रंगों की बहुरूपकता दर्शाता है, जिससे हर स्थान प्रकाशमय हो जाता है।

  • अम्बाबाड़ी मेटलवर्क:
    • यह मीना जनजाति द्वारा तैयार किया गया है तथा इसमें एनेमिलिंग भी शामिल है, यह सावधानीपूर्वक की जाने वाली प्रक्रिया है जो धातु की सज्जा को बढ़ाती है।
      • वर्तमान में यह सोने के साथ- साथ चांदी और तांबे जैसी धातुओं तक विस्तृत है।

  • मीनाकारी शिल्प:
    • मीनाकारी शिल्प में धातु की सतहों को रंगीन खनिज पदार्थों से सजाया जाता है, यह परंपरा असाधारण कौशल को दर्शाती है, जो मुगलों द्वारा शुरू की गई थी।
      • इसके लिये असाधारण कौशल की आवश्यकता होती है क्योंकि धातु पर बारीक डिज़ाइन उकेरे जाते हैं, जिससे मीनाकारी के रंगों के लिये खाँचे बनते हैं।

भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास महासंघ (Tribal Cooperative Marketing Development Federation of India- TRIFED):

  • TRIFED वर्ष 1987 में अस्तित्व में आया। यह जनजातीय मामलों के मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण के तहत कार्य करने वाला एक राष्ट्रीय स्तर का शीर्ष संगठन है।
  • TRIFED का उद्देश्य धातु शिल्प, जनजातीय वस्त्र, मिट्टी के बर्तन और जनजातीय चित्रकला जैसे जनजातीय उत्पादों के विपणन, विकास के माध्यम से देश में जनजातीय लोगों का सामाजिक-आर्थिक विकास करना है, जिन पर बड़े पैमाने पर जनजातीय लोग अपनी आय के लिये निर्भर हैं।
  • TRIFED जनजातियों के लिये उनके उत्पाद की बिक्री हेतु एक सुविधा प्रदाता और सेवा प्रदाता के रूप में कार्य करता है।
  • TRIFED के दृष्टिकोण का उद्देश्य जनजातीय लोगों को ज्ञान, उपकरण और सूचना के भंडार के साथ सशक्त बनाना है ताकि वे अपने कार्यों को अधिक व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक तरीके से कर सकें।
  • इसमें जनजातीय लोगों को संवेदनशील बनाने, स्वयं सहायता समूहों (SHG) के गठन और उन्हें किसी विशेष गतिविधि के लिये प्रशिक्षण प्रदान करने के माध्यम से क्षमता निर्माण भी शामिल है।
  • TRIFED का प्रधान कार्यालय नई दिल्ली में स्थित है और देश के विभिन्न स्थानों पर इसके 13 क्षेत्रीय कार्यालयों का एक नेटवर्क है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. भारतीय कला विरासत का संरक्षण वर्तमान समय की आवश्यकता है। चर्चा कीजिये। (2018)


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