अंतर्राष्ट्रीय संबंध
तालिबान को लेकर भारत की बदलती रणनीति
प्रिलिम्स के लियेज़रीन-डेलारम राजमार्ग, अफगानिस्तान-भारत मैत्री बांध मेन्स के लियेअफगानिस्तान को लेकर भारत की रणनीति में बदलाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत ने अफगानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच कतर (दोहा) में होने वाली अंतर-अफगान वार्ता (Intra-Afghan Talks) के शुरुआती समारोह में भाग लेकर तालिबान पर अपनी बदलती रणनीति का संकेत दिया है।
प्रमुख बिंदु:
- अंतर-अफगान शांति वार्ता में भारत की उपस्थिति यह इंगित करती है कि भारत ने अफगानिस्तान में ज़मीनी हकीकत एवं बदलते सत्ता ढाँचे को देखते हुए अपनी रणनीति बदल दी है।
- गौरतलब है कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी ने पाकिस्तान को अफगानिस्तान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी निकटता के कारण एक अहम बढ़त दिलाई है।
- हालाँकि कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, भारत ने एक पक्ष के रूप में अफगान सरकार की उपस्थिति के कारण इस समारोह में भाग लिया। जबकि भारत अभी भी तालिबान को मान्यता नहीं देता है।
भारत का मत:
- भारत का मानना है कि कोई भी शांति प्रक्रिया अफगान सरकार के नेतृत्त्व वाली, अफगान सरकार के स्वामित्त्व वाली और अफगान सरकार द्वारा नियंत्रित होनी चाहिये। अर्थात्
- इसमें अफगानिस्तान की राष्ट्रीय संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान होना चाहिये और मानव अधिकारों एवं लोकतंत्र को बढ़ावा दिये जाने का प्रयास किया जाना चाहिये।
- इस शांति वार्ता में अफगानिस्तान में एक लोकतांत्रिक इस्लामी गणराज्य की स्थापना में हुई प्रगति को संरक्षित करने की भी आवश्यकता है।
- अल्पसंख्यकों, महिलाओं एवं समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों को संरक्षित किया जाना चाहिये और अफगानिस्तान एवं उसके पड़ोस में हिंसा के मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित किया जाना चाहिये।
- भारतीय हितों जिसमें अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास एवं भारतीय कंपनियाँ व श्रमिक शामिल हैं, को भी संरक्षित किया जाना चाहिये।
- भारत एक ‘स्वतंत्र एवं संप्रभु’ अफगानिस्तान का समर्थन करता है। ‘स्वतंत्र एवं संप्रभु’ शब्दों का उपयोग यह स्पष्ट करता है कि पाकिस्तान एवं आईएसआई द्वारा अफगानिस्तान को नियंत्रित नहीं किया जाना चाहिये।
पृष्ठभूमि:
- उल्लेखनीय है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने तालिबान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया जिसने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की पूर्ण वापसी का मार्ग प्रशस्त किया और अफगानिस्तान में 18 वर्ष के युद्ध को समाप्त करने की दिशा में एक मार्ग प्रशस्त किया।
- इस शांति समझौते से दो प्रक्रियाओं के शुरू होने की उम्मीद बनी थी:
- अमेरिकी सैनिकों की चरणबद्ध वापसी
- अंतर-अफगान वार्ता
- यह समझौता अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया के लिये व्यापक और स्थायी युद्ध विराम तथा भविष्य के लिये एक राजनीतिक रोडमैप देने का एक बुनियादी कदम था।
अफगानिस्तान में भारत के हित:
- अफगानिस्तान में स्थिरता बनाए रखने में भारत की बड़ी हिस्सेदारी है। भारत द्वारा अफगानिस्तान के विकास में काफी संसाधन लगाए गए हैं। जैसे-अफगान संसद (Afghan Parliament), ज़रीन-डेलारम राजमार्ग (Zaranj-Delaram Highway), अफगानिस्तान-भारत मैत्री बांध (सलमा बांध) Afghanistan-India Friendship Dam (Salma Dam) इत्यादि का निर्माण अफगानिस्तान में भारत के सहयोग से किया गया है।
- उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान मध्य एशिया का प्रवेश द्वार है।
उभरते मुद्दे:
- भारत, तालिबान के पाकिस्तान की आईएसआई के साथ संबंध और अफगानिस्तान में भारत के हितों को लक्षित करने वाले हक्कानी नेटवर्क के प्रयासों से चिंतित है।
- पाकिस्तान, अफगानिस्तान में भारत की किसी भी सुरक्षा भूमिका का विरोध करता है और भारत की मौजूदगी को अपने हितों के लिये हानिकारक मानता है।
- तालिबान का जैश-ए-मुहम्मद (JeM) और लश्कर-ए-तोइबा (LeT) से भी संबंध है जो भारत के खिलाफ विभिन्न आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त हैं।
- भारत ने अभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी है। हालाँकि यदि भारत, तालिबान के साथ प्रत्यक्ष बातचीत करने के विकल्प पर विचार करता है तो यह केवल मान्यता प्राप्त सरकारों के साथ कार्य करने की अपनी सुसंगत नीति से अलग कदम होगा।
आगे की राह:
- भारत को अफगानिस्तान के भविष्य के लिये केंद्रित सभी शक्तियों से निपटने के लिये अपने निर्णयों का पुनर्मूल्यांकन करने और अपने दृष्टिकोण में अधिक सर्वव्यापी होने की आवश्यकता है।
- बदलती राजनीतिक एवं सुरक्षा स्थिति के लिये भारत को अपने हितों को ध्यान में रखते हुए तालिबान के साथ बातचीत शुरू करने के लिये खुलेपन की नीति को अपनाना चाहिये।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
अमेरिका-मालदीव रक्षा सहयोग समझौता
प्रिलिम्स के लिये:‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, सार्क समूह, क्वाड (QUAD) मेन्स के लिये:भारत-मालदीव द्विपक्षीय संबंध, हिंद महासागर क्षेत्र में शांति और चीन की बढ़ती आक्रामकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में हिंद महासागर क्षेत्र में शांति और सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से अमेरिका तथा मालदीव के बीच एक रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किये गए हैं।
प्रमुख बिंदु:
- अमेरिका और मालदीव के बीच 10 सितंबर, 2020 को ‘अमेरिकी रक्षा विभाग-मालदीव रक्षा मंत्रालय के रक्षा और सुरक्षा संबंधों हेतु रूपरेखा’ नामक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए।
- अमेरिकी रक्षा विभाग के अनुसार, यह समझौता रक्षा साझेदारी की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम के साथ हिंद महासागर क्षेत्र में शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिये दोनों देशों द्वारा सहयोग की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- मालदीव के रक्षा मंत्रालय ने इस समझौते को द्विपक्षीय सहयोग के साथ समुद्री डकैती और आतंकवाद जैसे बढ़ते खतरों के बीच हिंद-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र की शांति और सुरक्षा के लिये हितकर बताया है।
- इस समझौते के तहत ‘वरिष्ठ स्तर पर संवाद, समुद्री क्षेत्र में जागरूकता, प्राकृतिक आपदाओं और मानवीय राहत अभियान के साथ कई महत्त्वपूर्ण द्विपक्षीय मुद्दों को शामिल किया गया है।
- वर्तमान में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन की सेनाओं में बढ़ते तनाव के बीच इस समझौते को चीन के लिये एक महत्त्वपूर्ण संकेत के रूप में देखा जा रहा है।
हिंद महासागर क्षेत्र में मालदीव की भूमिका:
- हिंद महासागर क्षेत्र में शांति और स्थिरता तथा इस क्षेत्र में भारत के हितों को देखते हुए मालदीव की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
- हिंद महासागर में भू मध्य रेखा के 1 डिग्री दक्षिण से 8 डिग्री उत्तर तक लगभग 1000 से अधिक द्वीपों के साथ मालदीव भौगोलिक रूप से सबसे अधिक बिखरे हुए देशों में से एक है।
- बहुत ही कम भौगोलिक क्षेत्रफल और जनसंख्या के बावज़ूद भी यह द्वीपसमूह हिंद महासागर में लगभग 90,000 वर्ग किमी. से अधिक क्षेत्रफल कवर करता है।
- मालदीव, हिंद महासागर में स्वयं को एक चौराहे के रूप में देखता है, जहाँ पूर्व और पश्चिम से आने-जाने वाले सभी जहाज़ों को मालदीव के जल क्षेत्र से होकर गुज़रना पड़ता है।
चीन पर प्रभाव:
- अमेरिका के साथ मालदीव का यह समझौता रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच उभरती दूरी को दर्शाता है।
- गौरतलब है कि वर्ष 2015 से लेकर वर्ष 2018 के बीच पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की सरकार के दौरान मालदीव और चीन के बीच कई महत्त्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- वर्ष 2017 में मालदीव ने चीन के ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना (Belt and Road initiative- BRI) समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।
- अमेरिका के साथ रक्षा समझौते के बाद भी यदि BRI के तहत मालदीव और चीन के बीच आर्थिक सहयोग जारी रहता है तो भी यह समझौता BRI के रक्षा पहलुओं को प्रभावित करेगा।
भारत पर प्रभाव:
- विशेषज्ञों के अनुसार, कुछ वर्षों पहले भारत को इस प्रकार के किसी समझौते पर आपत्ति हो सकती थी परंतु हाल के दिनों में हिंद महासागर क्षेत्र में उभरते नए रक्षा समीकरणों के बीच इसे भारत के हित में देखा जा रहा है, गौरतलब है कि इस क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिये एक बड़ी चिंता का विषय है।
- ध्यातव्य है कि वर्ष 2013 में भारत ने अमेरिका और मालदीव के बीच रक्षा सहयोग समझौते [स्टेटस ऑफ फोर्सेज़ एग्रीमेंट (Status of Forces Agreement- SOFA)] का विरोध किया था।
- अमेरिका के साथ हाल के वर्षों में भारत के संबंधों में हुई प्रगति के बीच अमेरिका और मालदीव के बीच यह समझौता भारत के लिये एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है क्योंकि मालदीव के सुरक्षा मामलों में भारत के हस्तक्षेप को शक की निगाह से देखा जाता है कई मौकों पर इस मामले में भारत को राजनीतिक विरोध का भी सामना करना पड़ा है।
- मालदीव सार्क (SAARC) समूह का एक सदस्य है और भारत द्वारा मालदीव के साथ अपनी साझेदारी को मज़बूत करने के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं।
- वर्ष 2018 में भारत द्वारा मालदीव के लिये 1.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर की आर्थिक सहायता की घोषणा के साथ हाल ही में ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट के लिये 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के वित्तीय पैकेज की घोषणा की गई थी।
आगे की राह:
- हिंद-महासागर क्षेत्र में चीन की सक्रियता को नियंत्रित करने हेतु भारत द्वारा क्षेत्र के अन्य देशों के साथ सहयोग बढ़ाने के साथ ही इन देशों पर चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना बहुत ही आवश्यक है।
- हाल के वर्षों में क्वाड (QUAD) समूह के तहत भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी में वृद्धि इस दिशा में महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
- भारत सरकार द्वारा दोनों देशों के नागरिक संबंधों को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
श्रीलंका का 20वाँ संविधान संशोधन: पृष्ठभूमि और आलोचना
प्रिलिम्स के लियेभारत-श्रीलंका समझौता (1978), श्रीलंका का 19वाँ और 13वाँ संविधान संशोधन मेन्स के लियेश्रीलंका का 20वाँ संविधान संशोधन और उसकी आलोचना तथा भारत-श्रीलंका संबंधों पर इसके प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
श्रीलंका सरकार ने देश के संविधान में 20वाँ संशोधन प्रस्तावित किया है, जिसे स्वयं सत्तारूढ़ दल के भीतर विरोध का सामना करना पड़ रहा है।
प्रमुख बिंदु
- श्रीलंका सरकार 20वें संविधान संशोधन के माध्यम से वर्ष 2015 के 19वें संविधान संशोधन को बदलता चाहती है, हालाँकि भारत के लिये सबसे बड़ी चिंता यह है कि यदि परिस्थितियाँ यही रहती हैं तो श्रीलंका सरकार भविष्य में 13वें संविधान संशोधन को भी समाप्त कर सकती है।
20वें संविधान संशोधन के प्रावधान
- 2 सितंबर, 2020 को श्रीलंका सरकार ने संविधान संशोधन का एक मसौदा प्रकाशित किया था, जिसके माध्यम से राष्ट्रपति पद की शक्तियों पर अंकुश लगाने वाले 19वें संविधान संशोधन के कुछ प्रावधानों को बदलने के लिये विधायी प्रक्रिया भी शुरू हो गई है।
- तकरीबन 42 वर्ष पूर्व श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री जे.आर. जयवर्धने द्वारा लागू किये गए श्रीलंका के संविधान में यह 20वाँ संशोधन होगा।
- प्रस्तावित संविधान संशोधन में संवैधानिक परिषद को संसदीय परिषद के साथ बदलने का प्रावधान किया गया है। मौजूदा नियमों के अनुसार, संवैधानिक परिषद के निर्णय राष्ट्रपति के लिये बाध्यकारी हैं, किंतु प्रस्तावित संसदीय परिषद के निर्णय को मानने के लिये राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।
- संविधान संशोधन के माध्यम से मंत्रिमंडल और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी के लिये प्रधानमंत्री की सलाह की आवश्यकता को हटा दिया गया है, इस प्रकार अब श्रीलंका में प्रधानमंत्री की बर्खास्तगी संसद के विश्वास पर नहीं बल्कि राष्ट्रपति के विवेक पर निर्भर है।
- प्रस्तावित संशोधन के तहत, राष्ट्रपति को कुछ सीमित परिस्थितियों के अलावा संसद की एक वर्ष की अवधि के बाद उसे भंग करने के संबंध में निर्णय लेने की शक्ति दी गई है, जिसका अर्थ है कि संसद की एक वर्ष की अवधि की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति उसे किसी भी समय भंग कर सकता है।
- प्रस्तावित संशोधन में किसी भी विधेयक को संसद के समक्ष प्रस्तुत करने से पूर्व आम जनता के लिये प्रकाशित करने की अवधि को 14 दिन से घटाकर 7 दिन कर दिया गया है।
आलोचना
- 20वाँ संविधान संशोधन संवैधानिक परिषद की बहुलवादी और विचारशील प्रक्रिया के माध्यम से स्वतंत्र संस्थानों के लिये महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों के संबंध में राष्ट्रपति की शक्तियों पर बाध्यकारी सीमाओं को समाप्त करने का प्रावधान करता है।
- श्रीलंका के कई कानून विशेषज्ञों ने सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार इस संशोधन के माध्यम से देश की संस्थाओं का राजनीतिकरण करने का प्रयास कर रही है, जिन्हें राजनीति के दायरे से स्वतंत्र होकर आम नागरिकों के कल्याण के लिये गठित किया गया था।
- सरकार द्वारा किये जा रहे ये संविधान संशोधन जनता के प्रति सरकार की जवाबदेही को प्रभावित करेंगे और श्रीलंका के संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों के समक्ष चुनौती उत्पन्न करेंगे।
- संवैधानिक नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत की समाप्ति से सार्वजनिक धन के कुशल, प्रभावी और पारदर्शी उपयोग पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
कब पारित होगा यह संशोधन?
- मौजूदा नियमों के अनुसार, श्रीलंका का संविधान किसी भी प्रकार के विधेयक को कम-से-कम दो सप्ताह अथवा 14 दिनों तक आम जनता के लिये प्रकाशित करने का प्रावधान करता है, जिसके बाद उस विधेयक को श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है।
- ध्यातव्य है कि श्रीलंका के विपक्षी दलों ने पहले ही इस संशोधन के मसौदे को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती देने का इरादा ज़ाहिर किया है।
- संविधान संशोधन के विधेयक को सर्वोच्च न्यायालय के अवलोकन के पश्चात् संसद में दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जा सकेगा। इस संशोधन के पारित करने के लिये श्रीलंका के सत्तारूढ़ दल के पास पर्याप्त बहुमत है।
20वें संविधान संशोधन के कारण?
- गौरतलब है कि जब से गोतबाया राजपक्षे सत्ता में आए हैं, तभी से 19वें संशोधन के माध्यम से पेश किये गए संवैधानिक प्रावधानों को निरस्त करना उनके प्रमुख उद्देश्यों में से एक रहा है।
- दिसंबर 2019 में राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने कहा था कि 19वाँ संविधान देश के शासन के समक्ष एक बड़ी बाधा है, जिसके कारण इसे समाप्त करना आवश्यक है।
- राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे के इस विचार को पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के बीच खराब संबंधों के कारण और अधिक बल मिला था, और इस प्रकरण के कारण श्रीलंका के समक्ष एक बड़ा संवैधानिक और राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था।
श्रीलंका का 19वाँ संविधान संशोधन
- वर्ष 2015 में पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के कार्यकाल (2015-19) के दौरान इसे पारित किया गया था। इस संशोधन के माध्यम से वर्ष 2010 में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे द्वारा प्रस्तुत किये गए 18वें संशोधन को एक प्रकार से निरस्त करने का प्रयास किया गया था।
- 18वें संविधान संशोधन की सबसे मुख्य बात यह थी कि इसमें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण शक्तियों को राष्ट्रपति के पास केंद्रीकृत कर दिया गया, जबकि 19वें संविधान संशोधन से राष्ट्रपति की शक्तियों को सीमित किया गया और स्वतंत्र संस्थाओं के अस्तित्त्व को मज़बूत किया गया।
- साथ ही 19वें संविधान संशोधन में चुनाव आयोग, राष्ट्रीय पुलिस आयोग, मानवाधिकार आयोग, वित्त आयोग और लोक सेवा आयोग समेत 9 आयोगों में नियुक्तियों की प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत किया गया।
- 19वें संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक परिषद में नागरिक समाज का प्रतिनिधित्त्व भी सुनिश्चित किया गया था, जो कि इस संशोधन का सबसे प्रगतिशील प्रावधान था।
- इस प्रकार श्रीलंका की वर्तमान सरकार द्वारा लाया गया 20वाँ संविधान संशोधन 19वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को पूरी तरह से बदलने का प्रावधान करता है।
भारत की भूमिका
- भारत ने श्रीलंका के 20वें संविधान संशोधन को लेकर अभी तक कोई भी आधिकारिक बयान जारी नहीं किया है और न ही भारत द्वारा बयान जारी करने का कोई अनुमान है, क्योंकि यह संशोधन पूरी तरह से श्रीलंका का आंतरिक मामला है।
- हालाँकि भारत सरकार निश्चित रूप से श्रीलंका के घटनाक्रम पर नज़र बनाए हुई है, क्योंकि 20वें संशोधन के प्रावधान स्पष्ट रूप से राष्ट्रवादी सिंहली भावनाओं को प्रकट करते हैं, ऐसे में यह घटनाक्रम भारत-श्रीलंका के दीर्घकालिक संबंधों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण है।
- हालाँकि भारत के दृष्टिकोण से 19वें संविधान संशोधन से ज़्यादा 13वाँ संविधान संशोधन अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसी वर्ष फरवरी माह में जब श्रीलंका के वर्तमान प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे भारत के दौरे पर आए थे, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोहराया था कि श्रीलंका को 13वें संशोधन के कार्यान्वयन पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
- ध्यातव्य है कि 13वें संविधान संशोधन के प्रावधानों का हटना श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यकों के लिये एक बड़ा खतरा उत्पन्न कर सकता है।
श्रीलंका का 13वाँ संविधान संशोधन
- श्रीलंका का 13वाँ संविधान संशोधन वर्ष 1987-1990 के बीच श्रीलंका में भारतीय हस्तक्षेप का ही परिणाम है।
- यह संविधान संशोधन 29 जुलाई, 1987 को हुए भारत-श्रीलंका समझौते के प्रावधानों के तहत लाया गया था। इस समझौते का मुख्य उद्देश्य तत्कालीन पूर्वोत्तर प्रांत (श्रीलंका का तमिल बहुल क्षेत्र) में राजनीतिक शक्तियों के हस्तांतरण का एक नया मार्ग खोजना था।
- इस समझौते के तहत श्रीलंका की संसद में 13वाँ संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया, जो कि पूरे श्रीलंका में एक निर्वाचित प्रांतीय परिषद की प्रणाली प्रस्तुत करता है।
- इस प्रकार न केवल श्रीलंका के पूर्वोत्तर प्रांत को, बल्कि वहाँ के शेष सभी प्रांतों को एक प्रांतीय परिषद प्राप्त हुई।
- उल्लेखनीय है कि अधिकांश सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन को भारत द्वारा अधिरोपित किये गए प्रावधान के रूप में देखते हैं। सिंहली राष्ट्रवादी 13वें संविधान संशोधन के प्रावधानों को तमिल अलगाववाद को प्रोत्साहित करने वाला प्रावधान मानते हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
हाइब्रिड वारफेयर: अर्थ और उभरती चुनौती
प्रिलिम्स के लियेसूचना प्रौद्योगिकी संबंधी भारतीय कानून मेन्स के लियेआधुनिक युद्ध पद्धति के रूप में हाइब्रिड वारफेयर का अर्थ और इससे संबंधित चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
इंडियन एक्सप्रेस अखबार द्वारा की गई स्वतंत्र जाँच के अनुसार, चीन की एक टेक्नोलॉजी कंपनी द्वारा भारत के 10,000 से अधिक लोगों और संगठनों पर सक्रिय रूप से निगरानी की जा रही है।
प्रमुख बिंदु
- जाँच के मुताबिक, चीन के शेन्झेन (Shenzen) में स्थित झेनहुआ डेटा इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कंपनी लिमिटेड (Zhenhua Data Information Technology Co. Limited) द्वारा भारतीय राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और थल सेना, नौसेना तथा वायु सेना के अधिकारियों समेत कई अन्य प्रमुख लोगों और संस्थानों पर निगरानी रखी जा रही है, और इनके संबंध में सभी प्रकार का डेटा एकत्रित किया जा रहा है।
एकत्रित डेटा का स्वरूप
- चीन की कंपनी द्वारा राजनीति, सरकार, व्यवसाय, प्रौद्योगिकी, मीडिया और नागरिक समाज से संबंधित प्रतिष्ठित व्यक्तियों और संस्थानों को लक्षित किया जा रहा है।
- चीन की झेनहुआ कंपनी किसी एक व्यक्ति विशिष्ट के संबंध में सभी आवश्यक जानकारी एकत्रित करती है और उसे मिलकर एक ‘इनफार्मेशन लाइब्रेरी’ तैयार करती है, जिसमें न केवल समाचार पत्रों और सार्वजनिक मंचों पर उपलब्ध जानकारी होती है, बल्कि इसमें महत्त्वपूर्ण कागज़ात, पेटेंट, बोली दस्तावेज़ों आदि से उपलब्ध जानकारी भी शामिल होती है।
- यह कंपनी एक प्रकार से ‘रिलेशनल डेटाबेस’ बनाती है, जो व्यक्तियों, संस्थानों और सूचनाओं के बीच संबंध को रिकॉर्ड करता है।
- इस प्रकार की डेटा माइनिंग को आधुनिक ‘हाइब्रिड वारफेयर’ (Hybrid Warfare) के एक हिस्से के रूप में देखा जा सकता है।
क्या होती है ‘हाइब्रिड वारफेयर’?
- यद्यपि ‘हाइब्रिड वारफेयर’ युद्ध संघर्ष में एक उभरती हुई अवधारणा है, किंतु इसे अभी तक सही ढंग से परिभाषित नहीं किया जा सका है। सरलतम रूप में ‘हाइब्रिड वारफेयर’ को अपने शत्रु पर गैर-सैन्य तरीकों से वर्चस्व कायम करने की आधुनिक पद्धति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
- इस पद्धति का सामान्य उद्देश्य युद्ध संघर्ष में संलग्न हुए बिना किसी प्रतिद्वंद्वी के कार्यों को बाधित करना अथवा उसे अक्षम करना होता है।
- वर्ष 1999 की शुरुआत में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा एक प्रकाशन ‘अनरिस्ट्रिक्टेड वारफेयर’ में ‘हाइब्रिड वारफेयर’ की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी, जिसमें ‘हाइब्रिड वारफेयर’ को शत्रु पर जीत प्राप्त करने के लिये संघर्ष को सैन्य क्षेत्र से हटाकर राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र तक ले जाने के रूप में परिभाषित किया गया था।
‘हाइब्रिड वारफेयर’ के उदाहरण
- लेबनान: हाइब्रिड युद्ध का उपयोग वर्ष 2006 में इज़राइल-लेबनान युद्ध में हिज़्बुल्लाह शिया समूह द्वारा किया गया था। इस दौरान उन्होंने गुरिल्ला युद्ध, प्रौद्योगिकी के अभिनव प्रयोग और प्रभावी सूचना अभियानों जैसी विभिन्न रणनीतिक विधियों का प्रयोग किया था।
- रूस: वर्ष 2014 में रूस द्वारा यूक्रेन के विरुद्ध क्रीमिया क्षेत्र के अधिग्रहण के लिये भी ‘हाइब्रिड वारफेयर’ पद्धति का प्रयोग किया गया था। इसमें दुष्प्रचार, आर्थिक जोड़-तोड़, आंतरिक विद्रोह और राजनयिक दबाव जैसी गतिविधियाँ शामिल थीं।
चीन की निगरानी और भारत के कानून
- भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी नियमों में कोई भी ऐसी जानकारी अथवा सूचना जिससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति की पहचान की जा सके उसे ‘व्यक्तिगत डेटा’ के रूप में परिभाषित किया गया है।
- हालाँकि, इसमें सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी को शामिल नहीं किया गया है।
- वहीं इस प्रकार के डेटा का प्रयोग प्रत्यक्ष विपणन (Direct Marketing) के लिये भी किया जा सकता है, उदाहरण के लिये कई कंपनियों द्वारा लक्षित विज्ञापनों के लिये जी-मेल अथवा फोन नंबर का प्रयोग किया जाता है।
- हालाँकि चीन की झेनहुआ डेटा कंपनी के संदर्भ में मामला काफी जटिल है, क्योंकि उसके द्वारा जो डेटा एकत्र किया जा रहा है, उसमें लोगों और संगठनों की सहमति शामिल नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार, चीन की कंपनी द्वारा किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से एक व्यक्ति विशिष्ट से संबंधित सूचनाएँ जैसे वह किस स्थान पर गया और किन-किन लोगों से मिला आदि उसकी सहमति के बिना एकत्र करना और उसे किसी अन्य देश को देना पूर्णतः अवैध है।
- किंतु भारत के गोपनीयता संबंधी नियमों को किसी विदेश न्यायाधिकार में लागू करना लगभग असंभव है, क्योंकि सभी देशों के नियम अलग-अलग होते हैं।
इस निगरानी से संबंधित चिंताएँ
- वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर भारत चीन-संबंधों में तनाव के बीच भारत ने देश की आंतरिक सुरक्षा का हवाला देते हुए चीन के 100 से अधिक एप्स को प्रतिबंधित कर दिया है, हालाँकि भारत सरकार के इस कदम से व्यक्तिगत डेटा एकत्र करने वाली चीन की झेनहुआ जैसी कंपनियों के संचालन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- ध्यातव्य है कि रिपोर्ट के अनुसार, चीन की झेनहुआ डेटा कंपनी द्वारा केवल भारत का ही नहीं बल्कि विश्व के कई अन्य देशों का डेटा भी एकत्र किया जा रहा है। ऐसे में इस प्रकार का डेटा एकत्र करना भारत समेत संपूर्ण विश्व के देशों की आंतरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बन सकता है आर यह संपूर्ण विश्व को ‘हाइब्रिड वारफेयर’ की ओर ले जा सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
FCRA कानून एवं विदेशी अंशदान पर नियंत्रण
प्रिलिम्स के लियेविदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA), 2010 मेन्स के लियेविदेशी अंशदान प्राप्त करने पर प्रतिबंध, विदेशी अंशदान प्राप्त करने के अन्य विकल्प |
चर्चा में क्यों?
इस वर्ष 13 गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) के लाइसेंस को विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (FCRA), 2010 के तहत निलंबित कर दिया गया है। गृह मंत्रालय को आदिवासी क्षेत्रों में FCRA के दायरे में आने वाले कई NGOS के कामकाज के बारे में ‘गंभीर प्रतिकूल इनपुट’ प्राप्त हुए थे। झारखंड में काम करने वाले कम से कम दो NGOs के लाइसेंस निलंबित कर दिये गए हैं।
प्रमुख बिंदु:
क्या है FCRA?
- FCRA विदेशी अंशदान को नियंत्रित कर यह सुनिश्चित करता है कि ऐसे अंशदान आंतरिक सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव न डालें।
- वर्ष 1976 में FCRA को पहली बार अधिनियमित किया गया था। वर्ष 2010 में विदेशी अंशदान को विनियमित करने के लिये नए उपायों को अपनाने के पश्चात् इसे संशोधित किया गया।
- FCRA विदेशी अंशदान प्राप्त करने वाले सभी संघों (Associations), समूहों (Groups) और NGOs पर लागू होता है। ऐसे सभी NGOs के लिये FCRA के तहत स्वयं को पंज़ीकृत करवाना अनिवार्य है।
- प्रारंभ में पंज़ीकरण पाँच वर्ष के लिये वैध होता है, लेकिन सभी मानदंडों का पालन करने पर तत्पश्चात् इसे नवीनीकृत किया जा सकता है।
- पंज़ीकृत संघ/संगठन सामाजिक, शैक्षिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिये विदेशी योगदान प्राप्त कर सकते हैं।
- वर्ष 2015 में गृह मंत्रालय द्वारा अधिसूचित नियमों के अनुसार, NGOs को एक शपथ-पत्र प्रस्तुत करने का प्रावधान किया गया, जिसमें यह उल्लेख किया जाना आवश्यक है कि विदेशी धन की स्वीकृति से भारत की संप्रभुता और अखंडता, किसी विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध एवं सांप्रदायिक सद्भाव को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने की संभावना नहीं है।
- विदेशी अंशदान प्राप्त करने वाले सभी NGOs को ऐसे राष्ट्रीयकृत या निजी बैंकों में खातों का संचालन करना होगा, जिनके पास वास्तविक समय के आधार पर सुरक्षा एजेंसियों तक पहुँच उपलब्ध कराने के लिये कोर बैंकिंग सुविधाएँ हों।
विदेशी अंशदान प्राप्त करने पर प्रतिबंध
- विधायिका और राजनीतिक दलों के सदस्य, सरकारी अधिकारी, न्यायाधीश और मीडियाकर्मी आदि को किसी भी प्रकार के विदेशी अंशदान को प्राप्त करने से प्रतिबंधित किया गया है।
- हालाँकि वर्ष 2017 में वित्त विधेयक के माध्यम से गृह मंत्रालय ने वर्ष 1976 के FCRA कानून में संशोधन किया, जिससे राजनीतिक दलों को एक विदेशी कंपनी की भारतीय सहायक कंपनी या 50% अथवा उससे अधिक भारतीय शेयरों वाली विदेशी कंपनी से धन प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
- एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR), एक सार्वजनिक वकालत समूह, ने वर्ष 2013 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी जिसमें भारतीय जनता पार्टी और कॉन्ग्रेस पर विदेशी धन स्वीकार करके FCRA मानदंडों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया।
- दोनों पक्षों ने वर्ष 2014 में दान को अवैध करार देने वाले उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। बाद में FCRA में भूतलक्षी संशोधन के पश्चात् याचिका वापस ले ली गई।
विदेशी अंशदान प्राप्त करने के अन्य विकल्प
- विदेशी योगदान प्राप्त करने का दूसरा तरीका 'पूर्व अनुमति' के लिये आवेदन करना है। यह आवेदन विशिष्ट गतिविधियों या परियोजनाओं को पूरा करने के लिये एक विशिष्ट अंशदानकर्ता से एक विशिष्ट राशि की प्राप्ति के लिये दिया जाता है।
- इसके लिये संघ/संगठन को सोसायटी पंज़ीकरण अधिनियम, 1860, भारतीय ट्रस्ट अधिनियम, 1882 या कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा-25 के तहत पंज़ीकृत होना चाहिये। राशि और उद्देश्य को निर्दिष्ट करने वाले विदेशी अंशदानकर्ता से प्रतिबद्धता का एक प्रमाण-पत्र भी आवश्यक है।
- वर्ष 2017 में गृह मंत्रालय ने तंबाकू नियंत्रण गतिविधियों पर सांसदों के साथ लॉबी करने के लिये 'विदेशी निधियों' का उपयोग करने के आधार पर 'पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया' (PHFI) को FCRA के तहत निलंबित कर दिया। PHFI द्वारा सरकार को कई अभ्यावेदन प्रस्तुत करने के पश्चात् इसे 'पूर्व अनुमति' श्रेणी में रखा गया था।
पंजीकरण का निलंबन/रद्द किया जाना
- गृह मंत्रालय द्वारा खातों के निरीक्षण के दौरान या एक संघ/संगठन के कामकाज के खिलाफ कोई प्रतिकूल इनपुट प्राप्त होने पर प्रारंभ में 180 दिनों के लिये FCRA पंज़ीकरण को निलंबित किया जा सकता है।
- जब तक कोई निर्णय नहीं ले लिया जाता, तब तक संघ/संगठन कोई भी नया अंशदान प्राप्त नहीं कर सकता है। साथ ही वह गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना नामित बैंक खाते में उपलब्ध राशि के 25% से अधिक का उपयोग नहीं कर सकता है।
- गृह मंत्रालय ऐसे संगठन के पंज़ीकरण को रद्द कर सकता है। पंज़ीकरण रद्द करने की तारीख से तीन वर्ष तक पंज़ीकरण या 'पूर्व अनुमति’ देने के लिये पात्र नहीं होगा।
पूर्व में निलंबन
- गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, उल्लंघन, जैसे- विदेशी अंशदान का दुरुपयोग, अनिवार्य वार्षिक रिटर्न न जमा करना और अन्य उद्देश्यों के लिये विदेशी फंड काआदि कारणों से, वर्ष 2011 के पश्चात् से 20,664 संघों का पंज़ीकरण रद्द कर दिया गया।
- 11 सितंबर, 2020 तक 49,843 FCRA-पंज़ीकृत संघ हैं।
अंतर्राष्ट्रीय अंशदानकर्ता
- सरकार ने विदेशी अंशदान कर्त्ताओं, जैसे- अमेरिका स्थित कम्पैशन इंटरनेशनल, फोर्ड फाउंडेशन, वर्ल्ड मूवमेंट फॉर डेमोक्रेसी, ओपन सोसाइटी फाउंडेशन और नेशनल एंडोमेंट फॉर डेमोक्रेसी पर भी शिकंज़ा कसा है।
- अंशदानकर्ताओं को गृह मंत्रालय की मंज़ूरी के बिना संघों/संगठनों को धन भेजने से रोकने के लिये 'वॉच लिस्ट या ' पूर्व अनुमति’ श्रेणी में रखा गया है।
स्रोत: द हिंदू
आंतरिक सुरक्षा
उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल
प्रिलिम्स के लिये:उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल, केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल मेन्स के लिये:सुरक्षा बल और आंतरिक सुरक्षा, प्रशासनिक शक्तियाँ और मानवाधिकार |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य के पुलिस महानिदेशक को ‘उत्तरप्रदेश विशेष सुरक्षा बल’ के गठन हेतु आवश्यक रूप रेखा तैयार करने का निर्देश दिया गया है।
प्रमुख बिंदु:
- गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 26 जून, 2020 को राज्य में महत्त्वपूर्ण भवनों और अन्य अवसंरचनाओं की सुरक्षा के लिये उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल (Uttar Pradesh Special Security Force- UPSSF) के गठन का निर्णय लिया गया था।
- उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा UPSSF की स्थापना का यह निर्णय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दिसंबर 2019 के एक आदेश के बाद आया है, जिसमें उच्च न्यायालय ने राज्य में सिविल न्यायालयों की सुरक्षा के संदर्भ में अपनी चिंता व्यक्त की थी।
उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल
(Uttar Pradesh Special Security Force- UPSSF):
- UPSSF की स्थापना ‘उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल अधिनियम, 2020’ [Uttar Pradesh Special Security Force (UPSSF) Act, 2020] के तहत की जाएगी।
- UPSSF का मुख्यालय लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में होगा और इस बल का प्रमुख एक ‘अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक’ (Additional Director General of Police) स्तर का अधिकारी होगा।
- UPSSF में कल 9,919 सुरक्षा कर्मी होंगे।
- प्रथम चरण में UPSSF के तहत पाँच बटालियनों का गठन प्रस्तावित किया गया है।
- इन पाँच बटालियनों के गठन के लिये कुल अनुमानित व्यय भार (जिसमें वेतन भत्ते व अन्य व्यवस्थाएँ भी सम्मिलित हैं) लगभग 1,747 करोड़ रुपए बताया गया है।
- UPSSF के अधिकारियों और अन्य सदस्यों की भर्ती उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती तथा प्रोन्नति बोर्ड द्वारा की जाएगी।
- पहले चरण के तहत UPSSF के गठन हेतु राज्य सरकार द्वारा ‘प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी’ (Provincial Armed Constabulary- PAC) का सहयोग लिया जाएगा।
कार्य क्षेत्र और शक्तियाँ:
- केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (Central Industrial Security Force- CISF) की तरह ही UPSSF राज्य के महत्त्वपूर्ण सरकारी और निजी भवनों, और औद्योगिक प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिये ज़िम्मेदार होगा।
- यह सुरक्षा बल प्रदेश में उच्च न्यायालय, ज़िला न्यायालयों, प्रशासनिक कार्यालय एवं परिसर व तीर्थ स्थल, मेट्रो रेल, हवाई अड्डा, बैंक अन्य वित्तीय, शैक्षिक संस्थान, औद्योगिक संस्थान आदि की सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करेगा।
- निजी कंपनियाँ भी एक निश्चित शुल्क चुका कर इस बल की सेवाएँ ले सकेंगी हालाँकि इसके लिये राज्य के पुलिस महानिदेशक की स्वीकृति की आवश्यकता होगी।
पृष्ठभूमि:
- दिसंबर 2019 में उत्तर प्रदेश में न्यायालय परिसरों में हिंसक घटनाओं में वृद्धि को देखते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को सभी ज़िला न्यायालयों में सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत करने के लिये कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश दिये थे।
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इसके तहत उच्च न्यायलय ने राज्य सरकार को 15 जनवरी, 2020 के पहले सभी ज़िला न्यायालयों में विशेष सुरक्षा बल की तैनाती के साथ सीसीटीवी कैमरों की स्थापना और न्यायालय परिसर के चारों ओर चारदीवारी बनाने का निर्देश दिया था।
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गौरतलब है कि दिसंबर 2019 में बिजनौर ज़िले के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में हुई गोलीबारी में 1 हत्या आरोपी सहित दो पुलिस कर्मियों और एक न्यायालय कर्मचारी की हत्या कर दी गई थी।
आलोचना:
- उत्तर प्रदेश के अपर मुख्य सचिव के अनुसार, इस विशेष सुरक्षा बल के पास किसी मजिस्ट्रेट के किसी आदेश के या किसी वारंट के बिना भी किसी व्यक्ति की तलाशी लेने या उसे गिरफ्तार करने का अधिकार होगा।
- गौरतलब है कि ‘केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 1968’ की धारा-11 के अनुसार, CISF का कोई भी सदस्य बिना किसी मजिस्ट्रेट के आदेश या वारंट के ऐसे किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, जो किसी कर्मचारी (सार्वजनिक उद्यम या CISF की निगरानी में निजी उद्यम से संबंधित) या CISF के किसी सदस्य को स्वेच्छा से चोट पहुँचाता है, या स्वेच्छा से चोट पहुंचाने का प्रयास करता है, या गलत तरीके से अपमान करने का प्रयास करता है या उसके कार्य में बाधा डालता है आदि।
- साथ ही ‘केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 1968’ की धारा-12 के तहत कुछ मामलों में CISF के सदस्यों को बिना किसी मजिस्ट्रेट के आदेश या वारंट के किसी व्यक्ति की तलाशी लेने की शक्ति भी प्राप्त है।
- इस सुरक्षा बल को किसी मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर किसी व्यक्ति की तलाशी या गिरफ्तारी की शक्ति देने के संदर्भ में कई मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं ने अपनी चिंता व्यक्त की है।
केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल
(Central Industrial Security Force- CISF):
- CISF का गठन ‘केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 1968’ के तहत 10 मार्च, 1969 को किया गया था।
- वर्तमान में CISF के तहत 12 रिज़र्व बटालियन हैं।
- CISF देशभर में स्थित औद्योगिक इकाइयों, सरकारी अवसंरचना परियोजनाओं तथा अन्य प्रतिष्ठानों को सुरक्षा प्रदान करने का कार्य करता है।
- इनमें परमाणु ऊर्जा संयंत्र, खदान, आयल फील्ड और रिफाइनरियाँ, हवाई अड्डे , समुद्री बंदरगाह, बिजली संयंत्र, दिल्ली मेट्रो, और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम आदि शामिल हैं।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
COVID-19 वैक्सीन के चरण-3 में जटिलता
प्रिलिम्स के लियेवैक्सीन/दवा के नैदानिक परीक्षण के विभिन्न चरण मेन्स के लियेCOVID-19 वैक्सीन के चरण-3 में विद्यमान जटिलता |
चर्चा में क्यों?
एक स्वयंसेवक के बीमार पड़ने के पश्चात् 8 सितंबर को यूनाइटेड किंगडम की बायोफार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर विकसित की जा रही COVID-19 वैक्सीन (AZD1222) के चरण-3 के वैश्विक परीक्षण को निलंबित कर दिया था। 12 सितंबर को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राज़ेनेका ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति मे कहा है कि स्वतंत्र समीक्षा प्रक्रिया समाप्त हो चुकी है और नियामक की स्वीकृति के पश्चात् यूनाइटेड किंगडम में परीक्षण पुनः आरंभ किये जाएंगे।
वैक्सीन/दवा के नैदानिक परीक्षण: चरण-1 व चरण-2
- नई दवा और वैक्सीन के नैदानिक परीक्षण की प्रक्रिया में समानताएँ और अंतर विद्यमान हैं। व्यक्तियों पर परीक्षण के दौरान दोनों 4 चरणों की एक प्रक्रिया का पालन करते हैं।
- एक दवा/वैक्सीन के विभिन्न जानवरों, जैसे- चूहा, खरगोश, हम्सटर और प्राइमेट्स पर परीक्षण में सुरक्षित सिद्ध होने के पश्चात् नैदानिक परीक्षण के चरण-1 को प्रारंभ किया जाता है।
- चरण-1 में स्वयंसेवकों के एक छोटे समूह को दवा की कम मात्रा की खुराक देकर यह देखने के लिये निगरानी की जाती है कि क्या यह सुरक्षित है। इस चरण में औसतन 10-50 उम्मीदवार चुने जाते हैं।
- चरण-2 में सैंकड़ों की संख्या वाले स्वयंसेवकों के एक समूह का चुनाव किया जाता है। इस चरण में शोधकर्ता यह निर्धारित करने की कोशिश करते हैं कि प्रभावी प्रतिक्रिया अथवा वांछित प्रतिक्रिया को उत्पन्न करने के लिये कितनी मात्रा में खुराक की आवश्यकता होगी। COVID-19 वैक्सीन के मामले में यह वह चरण है जब निर्धारित किया जाता है कि वैक्सीन ने एंटीबॉडी का वांछित स्तर और T-कोशिकाओं को उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त कोशिका प्रतिक्रिया आरंभ की है जो क्रमशः वायरस की वृद्धि को रोकने और वायरस को निष्प्रभावी करने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। इस चरण में भी दुष्प्रभाव और प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं की निगरानी और रिपोर्ट की जाती है।
नैदानिक परीक्षण का चरण-3 अलग कैसे?
- चरण-1 और चरण-2 में रोगियों को भर्ती करने और समय के विभिन्न अंतराल पर दवा/वैक्सीन के प्रभावों का अवलोकन करने के कारण कई महीनों का समय लग जाता है। दोनों चरणों के आँकड़ों के विश्लेषण से संतुष्ट होने के पश्चात् नियामकों द्वारा चरण-3 के लिये स्वीकृति दी जाती हैं।
- इस चरण में हज़ारों स्वयंसेवकों या रोगियों पर कई स्थानों पर दवा या वैक्सीन का परीक्षण किया जाता है। दवा के मामले में, एक नई दवा की देखभाल के मौजूदा मानक से तुलना कर यह सिद्ध करना होता है कि यह दवा या तो अधिक प्रभावी है या समान रूप से प्रभावी है, लेकिन अधिक सुरक्षित है।
- दवा के विपरीत, जब एक नई बीमारी के लिये वैक्सीन का परीक्षण किया जाता है, तो आमतौर पर तुलना करने के लिये कुछ भी नहीं होता है, इसलिये चरण-3 चरण-2 परीक्षण का एक बड़ा संस्करण बन जाता है।
- जनसंख्या में जनसांख्यिकीय परिवर्तनशीलता को समझने के लिये कई स्थानों पर चरण-3 का परीक्षण किया जाता है। यह डबल-ब्लाइंड (Double Blind) और यादृच्छिक (Random) होता है। इस चरण में कुछ लोगों को प्लेसबो, कुछ को कम मात्रा की खुराक और कुछ को उच्च मात्रा की खुराक दी जाती है। एक आदर्श परीक्षण में न तो डॉक्टर और न ही प्राप्तकर्ता को पता होता है कि किसे दवा दी जा रही है और किसे प्लेसबो।
- परीक्षण के पैमाने और दायरे के बढ़ने के साथ ही जनसंख्या के एक बड़े समूह द्वारा नवीन दवा/वैक्सीन के संपर्क में आने से 'गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रिया' का सामना करना पड़ता है। जब गंभीर प्रतिक्रियाएँ प्रकट होती हैं, तो चिकित्सा शोधकर्ताओं को यह निर्धारित करना होता है कि क्या प्रतिक्रिया दवा के कारण थी। यदि यह दवा/वैक्सीन के कारण होता है तो दवा/वैक्सीन के नैदानिक परीक्षण को रोक दिया जाता है।
- कई स्थानों पर परीक्षण और रोगियों की अधिक संख्या में आवश्यकता के कारण यह नैदानिक परीक्षण का सबसे महँगा चरण भी है। कभी-कभी दवा/वैक्सीन की तात्कालिक आवश्यकता के कारण विभिन्न चरणों के परीक्षण एक साथ भी किये जाते हैं।
एस्ट्राज़ेनेका के मामले में क्या हुआ?
- एस्ट्राज़ेनेका द्वारा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर विकसित की जा रही COVID-19 वैक्सीन, AZD1222 के लिये कंपनी ने यूनाइटेड किंगडम में चरण-3 के नैदानिक परीक्षण के लिये 30,000 स्वयंसेवकों की भर्ती प्रारंभ की थी।
- पुणे स्थित 'सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया' (भारत सहित 92 देशों के लिये 100 मिलियन खुराक बनाने के लिये अनुबंधित) ने भारत में 1,600 स्वयंसेवकों के प्रस्तावित समूह पर वैक्सीन का परीक्षण करना शुरू कर दिया था।
- यूनाइटेड किंगडम में परीक्षण के दौरान एक व्यक्ति में प्रतिक्रिया के स्वरूप मेरुदंड की सूजन के कारण एस्ट्राजज़ेनेका ने अपना परीक्षण रोक दिया।
- सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने शुरू में कहा कि वह भारत में परीक्षण नहीं रोकेगा क्योंकि यहाँ कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं देखी गई थी। हालांकि 'ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया' से एक कारण बताओ नोटिस के पश्चात् कंपनी ने कहा कि यह स्वयंसेवकों की भर्ती को एस्ट्राज़ेनेका द्वारा सुरक्षा डेटा का मूल्यांकन पूरा नहीं करने तक निलंबित करेगी।
स्वतंत्र मूल्यांकन में क्या कहा गया?
- ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक विज्ञप्ति के अनुसार, स्वतंत्र समीक्षा प्रक्रिया के पश्चात् स्वतंत्र सुरक्षा समीक्षा समिति और यू.के. नियामक MHRA (Medicine and Healthcare Products Regulatory Agency) की सिफारिशों का पालन करते हुए, यू.के. में परीक्षण की पुनः शुरुआत होगी।
- विज्ञप्ति के अनुसार, कंपनी का कहना है कि हम प्रतिभागियों की सुरक्षा और अध्ययन में आचरण के उच्चतम मानकों को अपनाने के लिये प्रतिबद्ध हैं।
नैदानिक परीक्षण का चरण-4
- एक दवा या वैक्सीन कंपनी, जो चरण-3 को सफलतापूर्वक पूरा करती है, को अनुमोदन और लाइसेंस प्राप्त होता है।
- इसके पश्चात् कंपनी का पूरा आधारभूत ढाँचा दवा/वैक्सीन के तीव्र उत्पादन के लिये समर्पित होता है। इसके अलावा दवा/वैक्सीन को सुरक्षित रखने के लिये लॉजिस्टिक्स की व्यवस्था की जाती है।
- वैक्सीन के उत्पादन तथा वितरण के पश्चात् पोस्ट-मार्केटिंग निगरानी की जाती है, जहाँ उत्पाद की विफलता और प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के सभी उदाहरण दर्ज किये जाते हैं। कंपनियों से दवा नियामक को आवधिक डेटा प्रस्तुत करने की उम्मीद होती है।