भारत-विश्व
द बिग पिक्चर : अफगानिस्तान में भारत की भूमिका
- 16 Jan 2019
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संदर्भ
अफगानिस्तान में एक लाइब्रेरी के निर्माण के लिये भारत की ओर से की जाने वाली फंडिंग को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मज़ाक उड़ाया है। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान जैसे युद्धग्रस्त देश में इसका कोई उपयोग नहीं है। नए साल के अवसर पर 1 जनवरी को अपनी पहली कैबिनेट बैठक में ट्रंप ने भारत, रूस, पाकिस्तान और अन्य पड़ोसी देशों को अफगानिस्तान की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने को कहा।
पृष्ठभूमि
- भारत और अफगानिस्तान के बीच पारंपरिक रूप से मज़बूत और मैत्रीपूर्ण संबंधों के साथ-साथ घनिष्ट तकनीकी, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध रहे हैं।
- भारत और अफ़गानिस्तान के बीच संबंधों की जानकारी सिंधु घाटी सभ्यता से मिलती है।
- 1980 के दशक में सोवियत गणराज्य समर्थित डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ अफगानिस्तान को मान्यता देने वाला भारत एकमात्र गणतंत्र देश था।
- हालाँकि, 1990 के अफगान गृहयुद्ध और तालिबान सरकार के दौरान दोनों देशों के बीच आपसी संबंध प्रभावित हुए थे।
- अफगानिस्तान में 9/11 के हमलों और अमेरिकी नेतृत्व वाले युद्ध के बाद भारत और अफगानिस्तान के बीच संबंध एक बार फिर मज़बूत हुए हैं।
दोनों देशों के बीच सहयोग के विभिन्न क्षेत्र
1. रक्षा सहयोग
- भारतीय सैन्य अकादमियों में अफगानिस्तान के सैन्य अधिकारियों को भारत प्रशिक्षण प्रदान करता है।
- 2014 में भारत ने अफगानिस्तान और रूस के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अनुसार, रूस अफगानिस्तान को आवश्यक सभी सैन्य उपकरण प्रदान करेगा और भारत इसका भुगतान भारत करेगा।
- भारत ने 2015 में अफगान वायुसेना को तीन रूस निर्मित एमआई -25 फाइटर हेलीकॉप्टर प्रदान किये हैं।
2. आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई
- भारत दोनों देशों के बीच संबंधों में स्थिरता लाने के लिये लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण अफगानिस्तान चाहता है, जबकि अफगानिस्तान विभिन्न तरीकों से आतंकी खतरों का सामना कर रहा है।
- अफगानी तालिबान एक प्रमुख आतंकवादी समूह है। वह अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार पर कब्ज़ा करने का प्रयास कर रहा है।
- अलकायदा के कई अन्य आतंकवादी समूह, जैसे- हक्कानी नेटवर्क अफगानिस्तान में काफी सक्रिय हैं।
- इस्लामिक एस्टेट के आतंकियों के हालिया उदय का प्रभाव भविष्य में भारत पर भी पड़ सकता है।
3. आर्थिक सहयोग
- भारत के लिये अफगानिस्तान निर्यात का दूसरा सबसे बड़ा गंतव्य है। अफगानिस्तान में कई खनिज जैसे- सोना, लोहा, तांबा आदि प्रमुखता से पाए जाते हैं। भारतीय कंपनियों ने इनके खनन के लिये निवेश किया है।
- अफगानिस्तान के विभिन्न उद्योगों में 100 से अधिक कंपनियों ने निवेश किया है जिनमें कृषि, संचार, सूचना प्रौद्योगिकी आदि शामिल हैं।
- प्रस्तावित तापी (TAPI) (तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत) पाइपलाइन अफगानिस्तान से होकर गुज़रती है। यह तुर्कमेनिस्तान से भारत में प्राकृतिक गैस के आयात किये जाने के लिये है।
- भारत, ईरान और अफगानिस्तान ने संयुक्त रूप से एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं। इस सौदे का उद्देश्य चाबहार बंदरगाह में पाकिस्तान को घेरकर अफगानिस्तान के भू-आबद्ध क्षेत्र तक पहुँच बनाने के लिये निवेश करना है।
अफगानिस्तान भारत के लिये महत्त्वपूर्ण क्यों है?
- अफगानिस्तान एशिया के चौराहे पर स्थित होने के कारण रणनीतिक महत्त्व रखता है क्योंकि यह दक्षिण एशिया को मध्य एशिया और मध्य एशिया को पश्चिम एशिया से जोड़ता है।
- भारत का संपर्क ईरान, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान तथा उज़्बेकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के माध्यम से होता है। इसलिये अफगानिस्तान भारत के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
- अफगानिस्तान भू-रणनीतिक दृष्टि से भी भारत के लिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह भारत और मध्य एशिया के मध्य स्थित है जो व्यापार की सुविधा भी प्रदान करता है।
- यह देश रणनीतिक रूप से तेल और गैस से समृद्ध मध्य-पूर्व और मध्य एशिया में स्थित है जो इसे एक महत्त्वपूर्ण भू-स्थानिक स्थिति प्रदान करता है।
- अफगानिस्तान पाइपलाइन मार्गों के लिये महत्त्वपूर्ण स्थान बन जाता है। साथ ही अफगानिस्तान कीमती धातुओं और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भी समृद्ध है।
भारत-अफगानिस्तान-पाकिस्तान
उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भारत तथा अफगानिस्तान ने पाकिस्तान के साथ मतभेदों को समाप्त करने की दिशा में अवसरों को तलाशना प्रारंभ कर दिया है। इनमें दो ऐतिहासिक मामले निम्नलिखित हैं-
- 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में भारत सरकार के दृष्टिकोण के अनुसार, अफगानिस्तान की प्रतिक्रिया दबी हुई तथा संदिग्ध थी। लाहौर को अधिकृत करने के पश्चात् भारत ने कूटनीतिक तरीके से बलूचिस्तान, पश्तूनिस्तान (Pashtunistan) तथा पूर्वी पाकिस्तान (जो उस समय संयुक्त राष्ट्र के समक्ष एक विवादित मुद्दे के रूप में उल्लिखित था) में पाकिस्तान को चुनौती दी थी।
- गौरतलब है कि पश्तूनिस्तान (Pashtunistan) के संबंध में भारत के इस कड़े रुख ने काबुल में आश्चर्यजनक अशांति उत्पन्न कर दी थी। यद्यपि अफगान जनता ने भारत का समर्थन किया, तथापि लाहौर में हुए आक्रमण ने अफगानिस्तान के राजा ‘ज़ाहिर शाह’ को हतोत्साहित कर दिया था।
- जैसे ही भारत ने पश्तूनिस्तान में अपनी प्रभावी कूटनीतिज्ञता का परिचय प्रस्तुत किया, उसके साथ ही ऑल इंडिया रेडियो ने भी भारतीय सीमा क्षेत्रों में संगठित हुए पश्तून विद्रोहियों के विषय में घटित घटनाओं का प्रसारण करना प्रारंभ कर दिया था।
- विदित हो कि यह वही समय था जब काबुल ने पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय लेन-देन के मुद्दे को कम महत्त्व देना प्रारंभ कर दिया था।
- उस समय काबुल डूरंड रेखा को इस शर्त पर मान्यता प्रदान करने को सहमत हुआ था कि पहले इस्लामाबाद को अपने सीमा-क्षेत्र में रह रहे पश्तून लोगों को स्वायत्ता प्रदान करनी होगी।
- स्पष्ट है कि भारत से सहयोग प्राप्त होने के उपरांत काबुल ने भी इस संघर्ष को इस्लामाबाद के साथ चल रहे मतभेदों को समाप्त करने के संदर्भ में एक अवसर के रूप में देखा।
- 1971 में पाकिस्तान को हराने के उपरांत भी भारतीय नेताओं ने अफगानिस्तान के इस्लामाबाद के विरुद्ध “सामूहिक कार्यवाही” (Joint Action) किये जाने के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था।
- उल्लेखनीय है कि वर्ष 1973 में भूतपूर्व अफगान प्रधानमंत्री दाउद खान (पाकिस्तान विरोधी एक पश्तूनिस्तानी वकील) ने अफगानिस्तान के अंतिम शासक ज़ाहिर शाह को एक रक्तविहीन क्रांति के माध्यम से बेदखल करके वर्ष 1974 में पाकिस्तानी सीमा के पास एक सैन्य अड्डा बनाने का आदेश जारी कर दिया था।
- मार्च 1975 में नई दिल्ली की यात्रा के दौरान दाउद खान ने भारत सरकार के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि यदि भारत सरकार पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से पर आक्रमण करती है, तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से पर आक्रमण कर देगा, फलस्वरूप पाकिस्तान को दोनों ओर से घेरकर अपनी बात मनवाई जा सकती है; परंतु प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अफगानिस्तान के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
- गौरतलब है कि इस प्रकरण के प्रतिक्रियास्वरूप ही इस्लामाबाद ने आईएसआई (ISI) के माध्यम से काबुल विरोधी अफगानियों को पकिस्तान में शरण देने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी।
- उस प्रकरण के कुछ प्रसिद्ध व्यक्तित्वों में अहमद शाह मस्सौद, जमीअत-ए-इस्लामी के बुरहानुद्दीन रब्बानी तथा गुलबुद्दीन हेक्मात्यर शामिल थे, जिन्हें पाकिस्तान का पूरा समर्थन प्राप्त था।
- सबसे रोचक बात यह है कि इनमें से कई कार्यकर्त्ता अथवा इन कार्यकर्त्ताओं द्वारा बनाए गए संगठन वर्तमान समय में अफगानिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।
भारतीय पक्ष
- उक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि भारत तथा अफगानिस्तान ने गंभीर रुख अपनाते हुए क्षेत्रीय सीमाओं को पुनः सीमांकित करने के लिये बल प्रयोग को उपमहाद्वीप के नाभिकीयकरण से पूर्व ही समाप्त कर दिया था।
- जैसा कि ज्ञात है अफगानिस्तान में भारत की पहुँच का विस्तार करने और नई दिल्ली में काबुल के सामरिक महत्त्व की पहुँच सुनिश्चित करने में दोनों देशों की अपनी-अपनी कुछ सीमाएँ रही हैं।
- उक्त प्रकरण न केवल डूरंड रेखा के चारों ओर एक सामरिक संतुलन को बनाए रखने संबंधी भारतीय मंशा को व्यक्त करते हैं, बल्कि इस क्षेत्र विशेष में शांति-व्यवस्था बनाए रखने के प्रयासों का भी विस्तार है।
- हालाँकि इन देशों के विचारों से स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित होता है कि बिना किसी सामरिक जोखिम के ये दोनों अपने-अपने लाभ के लिये अपनी स्थिति को परिवर्तित भी कर सकते हैं।
(टीम दृष्टि इनपुट)
क्यों अशांत है अफगानिस्तान?
- तालिबान का उदय 90 के दशक में उत्तरी पाकिस्तान में तब हुआ जब अफ़ग़ानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। पश्तूनों के नेतृत्व में उभरा तालिबान, अफ़ग़ानिस्तान के परिदृश्य पर 1994 में सामने आया।
- माना जाता है कि तालिबान सबसे पहले धार्मिक आयोजनों या मदरसों के ज़रिये उभरा जिसमें ज़्यादातर पैसा सऊदी अरब से आता था।
- सोवियत संघ के अफ़ग़ानिस्तान से जाने के बाद वहाँ कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था और मुजाहिद्दीनों से भी लोग परेशान थे।
- ऐसे हालात में जब तालिबान का उदय हुआ तो अफ़ग़ान लोगों ने उसका स्वागत किया था।
- प्रारंभ में तालिबान को इसलिये लोकप्रियता मिली क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाया, अव्यवस्था पर अंकुश लगाकर अपने नियंत्रण में आने वाले इलाक़ों को सुरक्षित बनाया ताकि लोग व्यवसाय कर सकें।
- दक्षिण-पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने जल्द ही अपना प्रभाव बढ़ाया। सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा कर लिया।
- धीरे-धीरे तालिबान पर मानवाधिकार उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार के आरोप लगने लगे।
- 2001 में अंतर्राष्ट्रीय आलोचना के बावजूद तालिबान ने विश्व प्रसिद्ध बामियान बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट कर दिया।
- पाक-अफ़ग़ान सीमा पर पश्तून इलाक़े के बारे में तालिबान का कहना था कि वह वहाँ शांति और सुरक्षा का माहौल बनाएगा और सत्ता में आने के बाद शरिया लागू करेगा।
- पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान दोनों जगह तालिबान ने या तो इस्लामिक क़ानून के तहत सज़ा लागू करवाई जैसे- हत्या के दोषियों को सार्वजनिक फाँसी, चोरी करने के दोषियों के हाथ-पैर काटना।
- दुनिया का ध्यान तालिबान की ओर तब गया जब न्यूयॉर्क में 2001 में हमले किये गए। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान पर आरोप लगाया गया कि उसने ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा को पनाह दी है जिसे न्यूयॉर्क हमलों का दोषी बताया जा रहा था।
- 7 अक्तूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया।
- पिछले कुछ समय से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का दबदबा फिर से बढ़ा है और वह पाकिस्तान में भी मज़बूत हुआ है। विश्लेषकों का कहना है कि वहाँ तालिबान और कई चरमपंथी संगठनों में आपसी तालमेल है।
- इसके एक साल बाद तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल पर क़ब्ज़ा किया। 1998 आते-आते अफ़ग़ानिस्तान के लगभग 90 फ़ीसदी क्षेत्र पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था।
- माना जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का नेतृत्व अब भी मुल्ला उमर के हाथों में है।
- अफ़ग़ानिस्तान में नाटो ने सैनिकों की संख्या लगातार बढ़ाई है लेकिन बावजूद इसके तालिबान का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। जिससे अफ़ग़ानिस्तान में हिंसक हमले लगातार बढ़ रहे हैं।
तालिबान के साथ बातचीत क्यों ज़रूरी?
- तालिबान के साथ बातचीत में भाग लेने वाले देशों की बढ़ती संख्या के बीच, भारतीय सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने कहा है कि अगर भारत का अफगानिस्तान में हित है तो भारत को तालिबान के साथ वार्ता में शामिल होना चाहिये।
- तालिबान के साथ बातचीत बिना शर्त होनी चाहिये। अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाली में अमेरिका की अहम भूमिका है। पाकिस्तान को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि तालिबान को उसका समर्थन न मिलता तो तालिबान आज इतना मज़बूत न होता।
- जब तक पाकिस्तान की नीति में बदलाव नहीं आएगा तब तक अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता नहीं आ सकती। इन चार पक्षों को अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता और शांति लाने के लिये कड़े क़दम उठाने होंगे।
- तालिबान को लेकर परिस्थितियाँ बदली हैं, ऐसे में सभी को मिलकर अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिये अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये।
- तालिबान को कभी भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मान्यता नहीं दी है। केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब। उस समय रूस, ईरान और भारत समेत कई देश तालिबान के ख़िलाफ थे।
- मगर आज परिस्थितियाँ बदली हैं। आज शांति बहाली के लिये तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार के बीच बातचीत हो रही है। इसलिये सभी का उद्देश्य यही होना चाहिये कि तालिबान पर ज़ोर डालें कि वह हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत करे।
- यह भारत के हित में होगा कि भारत ने अफगानिस्तान में जो प्रोजेक्ट शुरू किये हैं वे बिना रुकावट के चलते रहें। भारत यह कभी नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान पर ISI जैसे कट्टरपंथियों की पकड़ मज़बूत हो।
- अगर भारत चाहता है कि अफगानिस्तान एक स्वतंत्र देश की तरह रहे तो इसके लिये यह ज़रूरी है कि वहाँ के सभी समूहों से बातचीत का रास्ता खुला रहे।
- बातचीत में कई मुश्किलें भी हैं। तालिबान स्वयं अफगानिस्तान सरकार से बातचीत नहीं करना चाहता क्योंकि तालिबान, अफगानिस्तान सरकार को अवैध मानता है।
- तालिबान यह भी कहता है कि जब तक विदेशी सैन्य टुकड़ियाँ अफगानिस्तान में हैं वह कोई बातचीत नहीं करेगा।
- वर्तमान में अफगानिस्तान में तालिबान का 40 से 45 प्रतिशत क्षेत्र पर नियंत्रण है। तालिबान की पकड़ और तेज़ हो जाए, यह भारत के हित में नहीं होगा।
अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और पुनर्वास में भारत की भूमिका
- भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और पुनर्वास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने तकनीकी सहयोग और क्षमता निर्माण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण निवेश किया है। अभी तक भारत ने अफगानिस्तान को 3 अरब डॉलर की सहायता प्रदान की है।
- भारत हवाई संपर्क, बिजली संयंत्रों के पुनर्निर्माण, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने के साथ-साथ अफगान सिविल सेवकों और सुरक्षा बलों को प्रशिक्षित करने के कार्य में मदद करता है।
- भारत ने अफगानिस्तान में डेलारम ज़िले को ईरान की सीमा से जोड़ने के लिये डेलारम-जरंज राजमार्ग के निर्माण में मदद की है। इससे द्वीपक्षीय व्यापार को बढ़ावा मिलेगा।
- भारत ने हरात प्रांत में अफगान-इंडिया फ्रेंडशिप डैम (जिसे पहले सलमा डैम के नाम से जाना जाता था) का निर्माण किया है।
- सद्भावना के संकेत के रूप में भारत ने अफगानिस्तान में नए संसद भवन के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- भारत ने 2014 में कंधार में राष्ट्रीय कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (ANASTU) की भी स्थापना की।
- भारत ने अफगानिस्तान में 2,500 मील से अधिक सड़कों का निर्माण किया है।
- भारत ने अफगानिस्तान में 200 से अधिक सार्वजनिक और निजी स्कूलों का निर्माण किया है, 1000 से अधिक छात्रों को छात्रवृत्ति दी है जबकि 16,000 से अधिक अफगान छात्र भारत में अध्ययनरत हैं।
- कई भारतीय कंपनियाँ अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण परियोजनाओं में शामिल हैं।
- हाल ही में भारत ने कुछ महत्त्वपूर्ण नई परियोजनाओं को लागू करने पर सहमति जताई है, जैसे- काबुल के लिये शहतूत बांध और पेयजल परियोजना, बाम्यान प्रांत में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये बैंड-ए-अमीर सड़क संपर्क, नंगरहार प्रांत में अफगान शरणार्थियों के पुनर्वास के लिये कम लागत वाले आवास और काबुल में एक जिप्सम बोर्ड विनिर्माण संयंत्र आदि।
भारत के लिये चुनौतियाँ
- अफगानिस्तान को सहायता प्रदान करने के भारत के प्रयास भौगोलिक समीपता और सीमित पहुँच के कारण बाधित होते रहे हैं।
- अफगानिस्तान और पाकिस्तान की मौजूदा सुरक्षा स्थिति में परदे के पीछे से हक्कानी नेटवर्क का हस्तक्षेप जारी है।
- अफगानिस्तान में अलकायदा और ISIS के प्रभाव के कारण बढ़ते आतंकवाद ने भारत के लिये सुरक्षा संबंधी चिंता उत्पन्न कर दी है।
- अफ़ग़ानिस्तान सबसे अधिक अफीम उत्पादक देशों में से एक रहा है और अफगानिस्तान से ड्रग्स की तस्करी पंजाब के साथ अन्य भारतीय राज्यों में होती है जिसने युवाओं को प्रभावित करने के साथ-ही-साथ आतंकवाद और संगठित अपराध को भी बढ़ावा दिया है।
- 2011 में अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान ने अफगानिस्तान-पाकिस्तान व्यापार और पारगमन समझौते (APTTA) पर हस्ताक्षर किये, जो भारत और अफगानिस्तान के बीच द्विपक्षीय व्यापार में बाधक रहा है।
- अफगानिस्तान में बढ़ते चीनी प्रभाव ने भारत के लिये एक कूटनीतिक चुनौती भी पैदा कर दी है।
निष्कर्ष
कई चुनौतियों के बावजूद भारत-अफगान संबंध पहले से अधिक मज़बूत हुए हैं। अफगानिस्तान में निरंतर पुनर्निर्माण और ठोस सामाजिक-आर्थिक विकास की भारतीय नीति ने इस युद्धग्रस्त देश में शांति और समृद्धि लाने में मदद की है। भारत, अफगानिस्तान के साथ एक महत्त्वपूर्ण साझेदारी विकसित करने के लिये उत्सुक है। अफगानिस्तान में भारत की छवि आज भी सबसे लोकप्रिय देश के रूप में है लेकिन अगर वहाँ सुरक्षा की दृष्टि से माहौल बिगड़ता है और तालिबान हावी हो जाता है तो जितना भी काम भारत ने वहाँ किया है उसका महत्त्व नहीं रह जाएगा।
यह स्पष्ट है कि आर्थिक रूप से स्थायी, राजनीतिक रूप से स्थिर और सामाजिक रूप से समावेशी अफगानिस्तान भारत के लिये बेहद ज़रूरी है तथा संबंधों को एक नई दिशा में आगे बढ़ाने का वक्त आ गया है। लेकिन यह भी सही है कि इसमें छोटी-बड़ी कई चुनौतियाँ हैं जिनका सामना करने के लिये भारत को तैयार रहना होगा।