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डेली न्यूज़

  • 07 May, 2021
  • 38 min read
सामाजिक न्याय

‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021: वन ईयर ऑफ कोविड-19’ रिपोर्ट

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी- सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट (बंंगलूरू) द्वारा ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021: वन ईयर ऑफ कोविड-19’ शीर्षक से एक वार्षिक रिपोर्ट का प्रकाशन किया गया है।

  • इस रिपोर्ट में मार्च 2020 से दिसंबर 2020 तक की अवधि को शामिल किया गया है और यह रिपोर्ट एक वर्षीय अवधि के दौरान रोज़गार, आय, असमानता तथा गरीबी पर कोविड-19 के प्रभावों का उल्लेख करती है।

प्रमुख बिंदु

रोज़गार पर प्रभाव:

  • अप्रैल-मई 2020 में लागू लॉकडाउन के दौरान लगभग 100 मिलियन लोगों की नौकरियाँ छूट गईं।
  • हालाँकि इनमें से अधिकांश श्रमिकों को जून 2020 तक रोज़गार मिल गया था, लेकिन अभी भी लगभग 15 मिलियन लोग काम से वंचित थे।

आय पर प्रभाव:

  • चार सदस्यों के औसत परिवार वाले घरों के लिये, जनवरी 2020 में प्रति व्यक्ति मासिक आय (5,989 रुपये) की तुलना में अक्तूबर 2020 में प्रति व्यक्ति मासिक आय (4,979 रुपये) में गिरावट दर्ज की गई।
  • महामारी के दौरान श्रमिकों की मासिक आय में औसतन 17% तक की गिरावट दर्ज की गई, जिसमें स्वरोज़गार और अनौपचारिक वेतनभोगी श्रमिकों को कमाई का सबसे अधिक नुकसान हुआ।

अनौपचारिकता:

  • लॉकडाउन के बाद, लगभग आधे वेतनभोगी श्रमिकों ने अनौपचारिक कार्यो या तो स्व-नियोजित (30%), आकस्मिक वेतन (10%) या अनौपचारिक वेतनभोगी (9%) कार्यों  की ओर रुख किया ।

आर्थिक प्रभाव की प्रतिगामी प्रकृति:

  • अप्रैल और मई 2020 के महीनों में सबसे गरीब 20% परिवारों ने किसी भी प्रकार की आय का उपार्जन नहीं किया। 
  • दूसरी ओर, देश के शीर्ष 10% परिवारों को लॉकडाउन के दौरान सबसे कम नुकसान उठाना पड़ा और संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान उन्हें फरवरी माह की आय का लगभग 20% का ही नुकसान हुआ।

महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव:

  • लॉकडाउन के दौरान और बाद के महीनों में, 61 प्रतिशत कामकाजी पुरुष कार्यरत रहे है, जबकि 7 प्रतिशत लोगों ने रोज़गार खो दिया और काम पर वापस नहीं आए।
  • लेकिन महिलाओं के संदर्भ में,  केवल 19 प्रतिशत महिलाएँ ही कार्यरत रहीं और 47 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान स्थायी नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा और 2020 के अंत तक भी उनको रोज़गार नहीं मिला या वे काम पर वापस नहीं आ सकीं।

गरीबी दर में वृद्धि:

  • नौकरी खोने और आय में कमी  के कारण गरीबी में  सर्वाधिक वृद्धि हुई। 
    • परिवारों को अपने खाद्य उपभोग में कमी करके, संपत्ति बेचकर और मित्रों, रिश्तेदारों तथा साहूकारों से अनौपचारिक ऋण लेकर आय की क्षति का सामना करना पड़ा।
  • महामारी के दौरान राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन सीमा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या (अनूप सतपथी समिति द्वारा अनुशंसित 375 रुपए प्रति दिन) में 230 मिलियन की वृद्धि हुई है। गरीबी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 15 प्रतिशत अंक और शहरी क्षेत्रों में लगभग 20 प्रतिशत अंकों तक बढ़ी है।

सुझाव

  • जैसा कि भारत ने कोविड-19 की दूसरी लहर का सामना किया है और हालिया वर्षों में यह संभवतः मानव जीवन की सबसे चुनौतीपूर्ण स्थिति है, ऐसे में पहले से ही संकटग्रस्त आबादी की सहायता करने के लिये तत्काल नीतिगत उपायों को अपनाने की आवश्यकता है।
  • प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (PMGKY) के तहत अतिरिक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की पात्रता को वर्ष के अंत तक बढ़ाया जाना चाहिये।
  • मौज़ूदा डिजिटल अवसंरचना का प्रयोग करते हुए विभिन्न संवेदनशील परिवारों को तीन माह के लिये 5,000 रुपए के नकद हस्तांतरण की सुविधा दी जा सकती है। इसमें जन धन खातों का उपयोग किया जा सकता है, किंतु यह सुविधा केवल जन धन खातों तक ही सीमित नहीं होनी चाहिये।
  • मनरेगा (महात्मा राष्ट्रीय गांधी रोजगार गारंटी अधिनियम) ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसके आवंटन को विस्तारित करने की आवश्यकता है।
  • महामारी से सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में एक शहरी रोज़गार कार्यक्रम को पायलट-प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया जा सकता है, जो संभवतः महिला श्रमिकों पर केंद्रित हो।
  • ज़मीनी स्तर पर वायरस से मुकाबला कर रहीं 2.5 मिलियन आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्त्ताओं के लिये 30,000 रुपए का एक कोविड-19 कठिनाई भत्ता (छह माह के लिये 5,000 रुपए प्रति माह) घोषित किया जाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

जैविक बाजरे का निर्यात

चर्चा में क्यों?

देश में जैविक उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिये हिमालय में उगाए गए जैविक बाजरे (Organic Millet) की पहली खेप डेनमार्क को निर्यात की जाएगी।

प्रमुख बिंदु

जैविक उत्पादन हेतु राष्ट्रीय कार्यक्रम:

  • इस कार्यक्रम को APEDA द्वारा वर्ष 2001 में अपनी स्थापना के बाद से लागू किया जा रहा है, जिसे विदेशी व्यापार (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1992 के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।
  • इस कार्यक्रम में फसलों और उनके उत्पादों, पोल्ट्री उत्पादों, जलीय कृषि और मधुमक्खी पालन आदि से संबंधित मानकों को शामिल किया गया है। देश से विभिन्न उत्पादों का निर्यात इसके प्रावधानों के अनुसार होता है।
  • इसके अंतर्गत किये गए प्रमाणीकरण को यूरोपीय संघ और स्विट्ज़रलैंड द्वारा मान्यता दी गई है, जो कि भारत को अतिरिक्त प्रमाणन की आवश्यकता के बिना इन देशों में प्रसंस्कृत उत्पादों का निर्यात करने में सक्षम बनाता है।
    • यह ब्रेक्ज़िट (Brexit) के बाद भी ब्रिटेन में भारतीय जैविक उत्पादों के निर्यात की सुविधा प्रदान करता है।
  • इस कार्यक्रम को भारतीय खाद्य सुरक्षा मानक प्राधिकरण (Food Safety Standard Authority of India- FSSAI) द्वारा घरेलू बाज़ार में जैविक उत्पादों के व्यापार के लिये भी मान्यता दी गई है।
  • इस कार्यक्रम के साथ द्विपक्षीय समझौते के अंतर्गत शामिल उत्पादों को भारत में आयात के लिये दोबारा प्रमाणीकरण की ज़रूरत नहीं होती है।

जैविक खेती:

भारत में जैविक खाद्य के निर्यात की स्थिति:

  • अप्रैल-फरवरी (2020-21) के दौरान भारत के जैविक खाद्य उत्पादों का निर्यात बीते वर्ष (2019-20) इसी अवधि की तुलना में बढ़कर 7078 करोड़ रुपए (51% की बढ़ोतरी) हो गया है। वहीं मात्रा के आधार पर जैविक खाद्य उत्पादों के निर्यात में 39% की वृद्धि हुई।
  • भारत द्वारा निर्यात किये जाने वाले प्रमुख उत्पादों में ऑयल सीड, फलों की पल्प और प्यूरी, अनाज तथा बाजरा, मसाले, चाय, औषधीय पौधों के उत्पाद, सूखे फल, चीनी, दालें, कॉफी और आवश्यक तेल आदि शामिल हैं।
  • भारत के जैविक उत्पादों को संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड, इज़रायल और दक्षिण कोरिया सहित 58 देशों में निर्यात किया जाता है।

कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण

  • इस प्राधिकरण की स्थापना भारत सरकार द्वारा कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण अधिनियम, 1985 के अंतर्गत की गई थी।
  • यह वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अधीन कार्य करता है। इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
  • इसे मुख्य तौर पर निर्यात संवर्द्धन और अनुसूचित उत्पादों अर्थात् सब्जियों, मांस उत्पादों, डेयरी उत्पादों, मादक और गैर-मादक पेय आदि के विकास को बढ़ावा देने का कार्य सौंपा गया है।
  • इसे चीनी के आयात की निगरानी करने की ज़िम्मेदारी भी दी गई है।

स्रोत: पी.आई.बी.


भारतीय अर्थव्यवस्था

मॉडल इंश्योरेंस विलेज

चर्चा में क्यों?

भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI) ने ग्रामीण क्षेत्रों में बीमा संबंधी सेवाओं को बढ़ावा देने के लिये ‘मॉडल इंश्योरेंस विलेज’ (MIV) की अवधारणा को प्रस्तुत किया है।

  • आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार, भारत में  बीमा संबंधी सेवाओं की पहुँच, जो वर्ष 2001 में 2.71% थी, वर्ष 2019 में 3.76% तक बढ़ गई, लेकिन यह वृद्धि वैश्विक औसत 7.23% से काफी नीचे है।
  • हाल ही में संसद ने बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की सीमा को 49% से बढ़ाकर 74% करने के लिये बीमा संशोधन विधेयक, 2021 पारित किया है।

प्रमुख बिंदु:

‘मॉडल इंश्योरेंस विलेज’ (MIV) की अवधारणा:

  • इस अवधारणा के तहत ग्रामीणों के समक्ष आने वाले सभी बीमा योग्य जोखिमों के लिये व्यापक बीमा सुरक्षा प्रदान करने तथा रियायती अथवा सस्ती दरों पर बीमा कवर उपलब्ध कराने पर विचार किया गया है।
  • बीमा प्रीमियम को सस्ता बनाने के लिये राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड), अन्य संस्थानों, कॉर्पोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी (CSR) फंड्स, सरकारी सहायता तथा पुनर्बीमा कंपनियों द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान किये जाने की आवश्यकता है।
  • प्रथम वर्ष के दौरान इसे देश के विभिन्न ज़िलों में न्यूनतम 500 गाँवों में लागू किया जा सकता है इसके बाद आगामी दो वर्षों में इसका विस्तार 1,000 गाँवों तक किया जा सकता है।
  • इस अवधारणा को आगे बढ़ाने और संचालित करने के लिये प्रत्येक सामान्य बीमा कंपनी और बीमा व्यवसाय को स्वीकार करने वाली पुनर्बीमा कंपनी जिसका कार्यालय भारत में है, को शामिल किया जाने की आवश्यकता है।

MIV के तहत संभावित प्रस्ताव:

  • मौसम सूचकांक उत्पाद या हाइब्रिड उत्पाद जिसमें मौसम सूचकांक उत्पाद भी शामिल होते हैं और ऐसी विभिन्न फसलें जिन्हें प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY) के तहत बीमा सुरक्षा प्राप्त नहीं है, के लिये क्षतिपूर्ति आधारित बीमा सुरक्षा।
  • फसलों, पशुधन, किसानों, खेत की व्यापक आवश्यकताओं को लक्षित करने वाली लचीली फार्म इंश्योरेंस पैकेज नीतियाँ।
  • उच्च मूल्य कृषि, अनुबंध कृषि और कॉर्पोरेट कृषि समुदाय के लिये अलग-अलग उत्पाद का प्रस्ताव क्योंकि इनकी ज़रूरतें अलग हैं।
  • आपदाओं के कारण उत्पन्न बड़े जोखिमों को कवर करने वाले पूर्व निर्धारित पैरामीट्रिक मौसम सूचकांक के आधार पर राज्यों को बड़े स्तर पर बीमा कवर की पेशकश की जा सकती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में बीमा के प्रसार में चुनौतियाँ:

  • जागरूकता की कमी, बीमा उत्पादों का सीमित विकल्प, लोगों के अनुकूल और पारदर्शी दावा निपटान तंत्रों की अनुपस्थिति तथा बीमा कंपनियों का कमज़ोर नेटवर्क आदि ग्रामीण बीमा व्यवसाय के विकास को आगे बढ़ाने से संबंधित मुद्दे/चुनौतियाँ हैं।

भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (IRDAI):

  • मल्होत्रा ​​समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के बाद, वर्ष 1999 में बीमा उद्योग को विनियमित करने और विकसित करने के लिये एक स्वायत्त निकाय के रूप में बीमा नियामक और विकास प्राधिकरण (IRDA) का गठन किया गया था।
  • अप्रैल 2000 में IRDA को एक सांविधिक निकाय का दर्जा दिया गया था।
  • IRDA के प्रमुख उद्देश्यों में बीमा बाज़ार की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उपभोक्ता की पसंद और कम प्रीमियम के माध्यम से ग्राहकों की संतुष्टि को बढ़ाने के साथ ही प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना भी शामिल है।
  • इसका मुख्यालय हैदराबाद में है।

पुनर्बीमा (Reinsurance):

  • यह एक प्रक्रिया है जिसके तहत एक इकाई (पुनर्बीमाकर्त्ता) प्रीमियम भुगतान पर विचार करते हुए एक बीमा कंपनी द्वारा जारी नीति के तहत कवर किये गए जोखिम को पूरी तरह से या इसके कुछ हिस्सों को कवर करती है। दूसरे शब्दों में, यह बीमा कंपनियों के लिये बीमा सुरक्षा का एक रूप है।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

मराठा आरक्षण असंवैधानिक : सर्वोच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने महाराष्ट्र में आरक्षण संबंधी उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है, जिसमें मराठा समुदाय को आरक्षण का लाभ देने संबंधी प्रावधान किये गए थे। 

प्रमुख बिंदु: 

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2017: सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एन. जी. गायकवाड की अध्यक्षता में गठित 11 सदस्यीय आयोग ने मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग (Socially and Educationally Backward Class- SEBC) के तहत आरक्षण की सिफारिश की।
  • वर्ष 2018: महाराष्ट्र विधानसभा में मराठा समुदाय हेतु  16% आरक्षण का प्रस्ताव पारित किया गया।
  • वर्ष 2018: आरक्षण को बरकरार रखते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण की सीमा 16% के बजाय शिक्षा में 12% और नौकरियों में 13% से अधिक नहीं होनी चाहिये।
  • वर्ष 2020: सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी और इस मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास एक बड़ी खंडपीठ को दिये जाने के लिये हस्तांतरित कर दिया।

वर्तमान नियम: 

  • मौलिक अधिकारों का उल्लंघन:
    • मराठा समुदाय हेतु आरक्षण की अलग व्यवस्था अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद-21 (विधि की सम्यक प्रक्रिया) का उल्लंघन करती है।
    • 50% आरक्षण की सीमा का उल्लंघन करने वाली स्थिति एक ‘जाति शासित’ समाज का निर्माण करेगी।
      • 12% और 13% (शिक्षा और नौकरियों में) मराठा आरक्षण ने कुल आरक्षण सीमा को क्रमशः 64% और 65% तक बढ़ा दिया।
      • वर्ष 1992 में इंदिरा साहनी निर्णय (Indira Sawhney judgment) में सर्वोच्च न्यायालय  ने स्पष्ट रूप से कहा था कि दूर-दराज़ के इलाकों की आबादी को मुख्यधारा में लाने हेतु केवल कुछ असाधारण परिस्थितियों में ही 50% के नियम में कुछ ढील दी जा सकती है। 
  • कानून के क्रियान्वयन पर रोक:
    • महाराष्ट्र के कानून को सही ठहराने वाले बंबई उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद मराठा कोटा के तहत की गई नियुक्तियों की यथास्थिति बनी रहेगी, परंतु इस प्रकार की नियुक्तियों में आगे किसी भी प्रकार के आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाएगा।
  • राज्य के पास  SEBCs की पहचान करने का अधिकार नहीं:
    • प्रत्येक राज्य और केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में भारत के राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित SEBCs की एक ही सूची होगी और राज्य केवल इस सूची में बदलाव से संबंधित सिफारिशें कर सकते हैं।
    • बेंच ने सर्वसम्मति से 102वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन इस सवाल पर मतभेद था कि क्या इसने राज्यों की SEBCs की पहचाने की शक्ति को प्रभावित किया है।
  • NCBC को निर्देश:
    • राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग से SEBCs की सिफारिश के क्रियान्वयन में तेज़ी लाने हेतु कहा ताकि राष्ट्रपति राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के संबंध में SEBCs की सूची युक्त अधिसूचना को शीघ्रता से प्रकाशित कर सकें।

102वांँ संशोधन अधिनियम, 2018: 

  • इस अधिनियम के  तहत सविधान में अनुच्छेद 338B और 342A को जोड़ा गया।
  • अनुच्छेद 338B पिछड़े वर्गों के लिये एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना से संबंधित है।
  • अनुच्छेद 342A राष्ट्रपति को राज्य में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े समुदायों को अधिसूचित करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यदि पिछड़े वर्गों की सूची में संशोधन किया जाना है तो इसके लिये संसद द्वारा अधिनियमित कानून की आवश्यकता होगी।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

कोविड-19 की दूसरी लहर से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिये RBI के उपाय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने कोविड-19 के संक्रमण की दूसरी लहर के खिलाफ देश की लड़ाई में सहयोग देने के लिये कई उपायों की घोषणा की है।

  • ये उपाय महामारी के खिलाफ एक समुचित और व्यापक रणनीति का पहला हिस्सा हैं।
  • रिज़र्व बैंक ने इससे पूर्व भी वर्ष 2020 में महामारी के कारण आई आर्थिक गिरावट से निपटने के लिये उपायों की घोषणा की थी।

प्रमुख बिंदु

हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर के लिये टर्म लिक्विडिटी सुविधा:

  • आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रदाताओं के लिये ऋण तक पहुँच को आसान बनाने हेतु रेपो दर (Repo Rate) पर 3 वर्ष तक के कार्यकाल के साथ 50,000 करोड़ रुपये की तरलता सुविधा।
  • इस योजना के अंतर्गत बैंक वैक्सीन निर्माताओं, वैक्सीन के आयातकों/आपूर्तिकर्त्ताओं, अस्पतालों/डिस्पेंसरी, पैथोलॉजी लैब, ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के आपूर्तिकर्त्ताओं आदि को ऋण सहायता प्रदान करेंगे।
  • इन ऋणों पुनर्भुगतान या परिपक्वता अवधि, जो भी पहले हो, तक प्राथमिकता क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता रहेगा।
    • ऋण संबंधी यह सुविधा 31 मार्च, 2022 तक उपलब्ध रहेगी।

लघु वित्त बैंकों के लिये विशेष दीर्घकालिक रेपो परिचालन:

  • RBI लघु वित्त बैंकों (Small Finance Banks-SFBs) के लिये रेपो दर पर 10,000 करोड़ रुपए का तीन वर्षीय विशेष दीर्घकालिक रेपो परिचालन (SLTRO) का आयोजन करेगा।
    • दीर्घकालिक रेपो परिचालन एक ऐसा उपकरण है, जिसके तहत केंद्रीय बैंक प्रचलित रेपो दर पर बैंकों को एक वर्ष से तीन वर्ष तक पैसा मुहैया कराता है।
  • SFBs इससे प्रति उधारकर्त्ता को 10 लाख रुपए तक के नए ऋण की सुविधा देने में सक्षम होंगे।
  • इसका उद्देश्य लघु व्यावसायिक इकाइयों, सूक्ष्म और लघु उद्योगों तथा अन्य असंगठित क्षेत्र की संस्थाओं को महामारी की वर्तमान लहर के दौरान सहायता प्रदान करना है।

प्राथमिकता क्षेत्र ऋण:

  • लघु वित्त बैंकों को अब 500 करोड़ रुपए तक की परिसंपत्ति के आकार वाले माइक्रोफाइनेंस संस्थानों (Micro Finance Institution) को नए ऋण देने की अनुमति है।
    • यह सुविधा 31 मार्च, 2022 तक उपलब्ध रहेगी।

MSME उद्यमियों के लिये ऋण प्रवाह:

  • गैर-बैंकिंग सुविधा वाले सूक्ष्म, लघु एवं मध्‍यम उद्यमों को बैंकिंग प्रणाली में शामिल करने के लिये फरवरी 2021 में प्रदान की गई छूट, जिसमें अधिसूचित बैंकों को नकद आरक्षित अनुपात (Cash Reserve Ratio) की गणना हेतु शुद्ध माँग और समय देयताएँ (Net Demand & Time Liability) में से नए MSME उधारकर्त्ताओं को दिये गए क्रेडिट की कटौती करने की अनुमति दी गई थी,  को अब 31 दिसंबर, 2021 तक बढ़ा दिया गया है।

दबाव समाधान फ्रेमवर्क 2.0:

  • यह फ्रेमवर्क उधारकर्त्ताओं की सबसे संवेदनशील श्रेणियों अर्थात् निजी व्यक्तियों, उधारकर्त्ताओं और MSMEs द्वारा महसूस किये जाने वाले दबाव से राहत देने के लिये है।
  • ऐसे व्यक्ति, उधारकर्त्ता और सूक्ष्‍म, लघु एवं मध्‍यम उद्यम, जिन्होंने किसी भी पिछले फ्रेमवर्क के तहत पुनर्गठन का लाभ नहीं उठाया वे इस फ्रेमवर्क के तहत पात्र होंगे।
  • समाधान फ्रेमवर्क 1.0 के अंतर्गत ऋणों के पुनर्गठन का लाभ उठाने वाले व्यक्तियों और छोटे व्यवसायों के लिये, उधार देने वाले संस्थान अब अवशिष्ट अवधि को 2 वर्ष की कुल अवधि तक बढ़ा सकते हैं।
    • उधार देने वाली संस्थाओं को कार्यशील पूंजी के अनुमोदन की सीमाओं की समीक्षा करने की अनुमति है।

 फ्लोटिंग प्रोविज़न्स एंड काउंटर साइक्लिकल बफर:

  • बैंक अब महामारी संबंधी दबाव को कम करने और पूंजी संरक्षण को सक्षम करने के उपाय के रूप में गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (Non-Performing Asset) के लिये विशिष्ट प्रावधान करने हेतु 31 दिसंबर, 2020 तक उनके पास मौजूद फ्लोटिंग प्रोविज़न्स का शत–प्रतिशत उपयोग कर सकते हैं। ऐसे उपयोग को 31 मार्च, 2022 तक क्रियान्वित किये जाने की अनुमति है।
  •  फ्लोटिंग प्रोविजन्स और काउंटर साइक्लिकल बफर (Floating Provisions and Countercyclical Provisioning Buffer) आमतौर पर उस विशिष्ट राशि को संदर्भित करती है, जिसे बैंकों को आरबीआई द्वारा निर्धारित अन्य न्यूनतम पूंजी आवश्यकताओं के अतिरिक्त रखने की आवश्यकता होती है। इसका उपयोग केवल आर्थिक मंदी के समय या असाधारण समय में किया जाता है। बैंकों ने वर्ष 2010 से ऐसे भंडार का निर्माण शुरू किया है।

राज्यों के लिये ओवरड्राफ्ट सुविधा में छूट:

  • राज्य सरकारों के लिये एक तिमाही में ओवरड्राफ्ट के दिनों की अधिकतम संख्या 36 से बढ़ाकर 50 दिन कर दी गई है। वहीं राज्यों के लिये लगातार ओवरड्राफ्ट लेने के दिनों की संख्या 14 से बढ़ाकर 21 दिन कर दी गई है।
    • यह सुविधा 30 सितंबर, 2021 तक उपलब्ध है।
    • इससे पहले राज्यों के अर्थोपाय अग्रिम (Ways and Means Advance) की सीमाएँ बढ़ा दी गई थीं।

KYC मानदंडों का युक्तीकरण:

  • आरबीआई ने मालिकाना हक वाली फर्मों, अधिकृत हस्ताक्षरकर्त्ताओं और कानूनी संस्थाओं के लाभकारी मालिकों जैसे ग्राहकों की नई श्रेणियों के लिये वीडियो KYC (Knowing Your Customer) या V-CIP (वीडियो-आधारित ग्राहक पहचान प्रक्रिया) का दायरा बढ़ाने का भी फैसला किया है।

आगे की राह

  • वायरस की विनाशकारी गति को रोकने के लिये सबसे संवेदनशील वर्गों सहित विभिन्न वर्गों को शामिल करते हुए तेज़, व्यापक, क्रमबद्ध और सही समय पर कार्रवाई की जानी आवश्यक है।
  • भारत ने दूसरी लहर के दौरान संक्रमण और मृत्यु दर में हुई भयंकर वृद्धि से बहादुरी के साथ लड़ते हुए टीकाकरण तथा चिकित्सा सहायता मुहैया कराने संबंधी अभियानों में बढ़ोतरी की है। ऐसी परिस्थिति में कार्यस्थलों, शिक्षा एवं आय तक पहुँच को सामान्य बनाना और आजीविका स्तर पर सामान्य स्थिति बहाल करना अनिवार्य हो जाता है।

स्रोत: पी.आई.बी.


शासन व्यवस्था

कोविड-19 वैक्सीन के लिये बौद्धिक संपदा संरक्षण में छूट

चर्चा में क्यों?

अमेरिका ने कोविड -19 वैक्सीन के लिये बौद्धिक संपदा (IP) संरक्षण में छूट प्रदान करने की घोषणा की है।

  • यह निर्णय महामारी से लड़ने के क्रम में भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा विश्व व्यापार संगठन (WTO) के सदस्य देशों को इस तरह की छूट के लिये सहमत करने हेतु गए प्रयासों की एक सफलता है। 

प्रमुख बिंदु 

परिचय :

  • वर्ष 1995 में बौद्धिक संपदा अधिकार के व्यापार संबंधी पहलुओं (TRIPS) पर हुए समझौते के तहत समझौते की पुष्टि करने वाले देशों के लिये यह आवश्यक है कि वे रचनाकारों को सुरक्षा प्रदान करने तथा नवोन्मेष को बढ़ावा देने के लिये बौद्धिक संपदा अधिकारों पर एक न्यूनतम मानक को लागू करें।
  • भारत और दक्षिण अफ्रीका ने कोविड -19 के  निवारण, रोकथाम या उपचार के लिये TRIPS समझौते (पेटेंट, कॉपीराइट और ट्रेडमार्क जैसे बौद्धिक संपदा अधिकारों में  छूट) के कुछ प्रावधानों के कार्यान्वयन और अनुप्रयोग में छूट दिये जाने का प्रस्ताव रखा है।
  • छूट को मंज़ूरी मिल जाने पर  WTO के सदस्य देशों के पास एक अस्थायी अवधि के लिये कोविड -19 से संबंधित दवाओं, वैक्सीन और अन्य उपचारों हेतु पेटेंट या अन्य संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों को मंज़ूरी देने या उन्हें प्रभावी करने के दात्यित्व नहीं होंगे।
    • यह कदम देशों द्वारा अपनी आबादी के टीकाकरण हेतु किये गए उन उपायों को संरक्षण प्रदान करेगा जिन्हें WTO कानून के तहत अवैधानिक होने का दावा किया जा रहा है। 

कोविड वैक्सीन पर पेटेंट में छूट की आवश्यकता:

  • दवा कंपनियों का एकाधिकार: वर्तमान में केवल वही दवा कंपनियाँ कोविड वैक्सीन के निर्माण के लिये अधिकृत हैं जिनके पास पेटेंट है।
    • पेटेंट पर एकाधिकार समाप्त होने से कंपनियाँ अपने फार्मूले को अन्य कंपनियों के साथ साझा कर सकेंगी।
  • वैक्सीन की कीमत में कमी: एक बार फार्मूला साझा होने के बाद ऐसी कोई भी टीके का उत्पादन कर सकती है कंपनी जिसके पास आवश्यक प्रौद्योगिकी तथा बुनियादी ढाँचा उपलब्ध है।
    • इसके परिणामस्वरूप कोविड वैक्सीन के सस्ते और अधिक जेनेरिक संस्करणों का उत्पादन होगा जो वैक्सीन की कमी को पूरा करने की दिशा में  बड़ा कदम सिद्ध होगा।
  • वैक्सीन का असमान वितरण: वैक्सीन के असमान वितरण ने विकासशील और अधिक संपन्न (Wealthier) देशों के बीच एक स्पष्ट अंतर प्रदर्शित किया है।
    • वैक्सीन के अधिशेष खुराक वाले  देशों ने पहले ही अपनी आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण कर लिया है और अब वे सामान्य स्थिति में लौट रहे हैं।
    • दूसरी ओर गरीब देशों को वैक्सीन की कमी का सामना करना पड़ रहा है जिसके कारण स्वास्थ्य देखभाल-प्रणालियों पर अधिक भार पड़ा है तथा इन देशों में प्रतिदिन सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो रही है।
  • दुनिया के हितों के खिलाफ: विकासशील देशों में लंबे समय तक कोविड के प्रसार या  वैक्सीन कवरेज में लगातार कमी के कारण इस वायरस के घातक तथा वैक्सीन प्रतिरोधी उत्परिवर्तन भी सामने आ सकते हैं।

भारत के लिये महत्त्व:

  • उत्पादन बढ़ाने में: भारत में उत्पादित वैक्सीन खुराकों का बड़ा हिस्सा उन देशों को निर्यात किया जाता है जो वैक्सीन की खुराकों  के लिये अधिक भुगतान करते हैं।
    • यह कदम वैक्सीन को सभी के लिये अधिक किफायती बनाने के साथ ही अतिरिक्त मांग की आपूर्ति हेतु उत्पादन को बढ़ाने में मदद कर सकता है।
  • तीसरी लहर के लिये तैयारी: भारतीय प्राधिकारियों द्वारा देश में कोविड-19 महामारी की तीसरी लहर की भी आशंका व्यक्त की गई है।
    • देश में कोविड मामलों तथा इसके कारण होने वाली मौतों  के ग्राफ/आँकड़ों में कमी आने पर वैक्सीन की कमी को दूर करने और इसे अधिक किफायती बनाने तथा लोगों के लिये इसे अधिक सुलभ बनाने जैसे कदम भविष्य में महामारी से निपटने के लिये सर्वोत्तम उपाय हो सकते हैं।

इन निर्णय के विरुद्ध तर्क:

  • वैक्सीन की गुणवत्ता और सुरक्षा प्रभावित हो सकती है: पेटेंट एकाधिकार हटाने से वैक्सीन विनिर्माण के लिये निर्धारित सुरक्षा और गुणवत्ता मानकों से छेड़छाड़ होने की संभावना है।
  • विघटनकारी दवा कंपनियाँ: पेटेंट एकाधिकार समाप्त करने का निर्णय भविष्य में महामारी के दौरान वैक्सीन के विकास पर किये जाने वाले  भारी निवेश के मार्ग में बाधक हो सकता है।
  • भ्रम की स्थिति उत्पन्न होना : सुरक्षात्मक तरीकों को खत्म करने से महामारी पर वैश्विक प्रतिक्रिया कम हो जाएगी, जिसमें नए वेरिएंट से निपटने के लिये किये जा रहे प्रयास भी शामिल हैं।
    • इससे भ्रम की स्थिति  उत्पन्न होगी जो संभावित रूप से वैक्सीन की सुरक्षा के प्रति लोगों के आत्मविश्वास को कम कर सकता है इससे वैक्सीन संबंधी जानकारी के साझाकरण में बाधा उत्पन्न हो सकती है।

आगे की राह

  • विश्व भर में वैक्सीन उपलब्ध कराने के लिये केवल बौद्धिक संपदा संरक्षण से छूट  प्रदान करना पर्याप्त नहीं है। विनिर्माण क्षमताओं का विस्तार करने और अंतर्राष्ट्रीय वैक्सीनों का समर्थन करने के लिये सभी देशों को एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करना चाहिये।
  • भारतीय निर्माताओं और सरकार दोनों के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे पेटेंट धारकों की चिंताओं को दूर करने के लिये यह सुनिश्चित करें कि भारत के टीकाकरण अभियान में  किसी भी तरह का समझौता नहीं किया गया है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 


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